मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

बुद्धदेब भट्टाचार्य की सादगी

सादगी का यह एक उदाहरण!
जब वह कलकत्ता था तब मैं वहां अलीपुर में रहता था। इंडियन एक्सप्रेस समूह में तब संपादक के लिए सुसज्जित आवास का इंतजाम कंपनी ही करती थी। पर कुछ संकट की वजह से मुझे रहने के लिए आरएनजी (दिवंगत श्री रामनाथ गोयनका) का कलकत्ता में अलीपुर स्थित आवास दे दिया गया था। हालांकि आरएनजी की मृत्यु के बाद उसे गेस्ट हाउस ही बना दिया गया था। करीब ढाई एकड़ में फैले उस विशालकाय बंगले में मेरी हैसियत उस झींगुर जैसी ही थी जो स्वर्णाभूषणों के किसी डिब्बे में बैठ गया हो। वहां पड़ोस में सिंघानिया, खेतान. विमल जालान, साहू जैन जैसे मारवाड़ी सेठ लोग रहते थे। किसी से पड़ोस में अभिवादन तक करने की औकात आर्थिक रूप से कंगले इस संपादक में नहीं थी। पर एसी एम्बेसडर कार जरूर दी गई थी, ड्राईवर भी। बंगले में कुक समेत हर तरह की सेवा को हाज़िर नौकर थे। वहां महराज यानी कुक (मारवाड़ी अपने कुक को "महराज" के संबोधन से बुलाते हैं। शायद इसलिए कि ये कुक ब्राह्मण ही रखे जाते हैं। मेरा कुक ओडिया ब्राह्मण था और एकदम चीकट जनेऊ पहने रहता था। बेहद गरीब लेकिन गज़ब का वफादार और हद दर्जे का मेहनती।) मेरे लिए तो अच्छी क्वालिटी का "अरवा" चावल बनाता लेकिन अपने और अन्य नौकरों के लिए "उसना"। एक दिन यह पता चलने पर मैंने उससे कहा कि यह अन्नाय है, तो वह बोला- "बाबू यही चलता आया है"। बाद में मैंने अपने कारपोरेट एडिटर श्री Om Thanvi से कहकर अपने लिए दूसरे आवास का प्रबंध करा लिया। मेरा यह आवास साल्ट लेक में था। मैं वहां शिफ्ट हो गया। साल्टलेक में मुख्यमंत्री ज्योति वसु भी रहते थे। उनके बंगले के ठीक सामने सेंट्रल पार्क था। जहाँ सुबह आठ बजे तक एंट्री फ्री थी और उसके बाद 5 रुपये फी आदमी। अब मैं ठहरा अख़बार का आदमी, सो कर ही 8 बजे उठता और रोजाना 5 रुपये देना खलता। एक दिन मैंने देखा कि ज्योति बाबू अपने लॉन में एक कुर्सी डाले बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। मैं लपक कर उनके पास गया और अपनी गलत-सलत अंग्रेजी में अपनी व्यथा कह डाली। अब ज्योति बाबू ने जैसा भी समझा हो पर यह जरूर कर दिया कि मेरी एंट्री वहां 8 के बाद भी फ्री कर दी गई। और जब वह कोलकाता हो गया तब मुख्यमंत्री हुए बुद्धदेब भट्टाचार्य। उनसे मेरी एक बार नन्दन में दोस्ती हो गयी थी। तब भी वह वेस्ट बंगाल के गृह मंत्री थे तथा धोती-कुरता और चप्पल पहने वे रोजाना नन्दन में दिख जाया करते। वे तब दो कमरे के एक सरकारी फ्लैट में रहते थे और उनकी पत्नी शायद किसी कालेज में लायब्रेरियन थीं। मैं नन्दन में एक बार उनसे मिला। अपना परिचय देते हुए जैसे ही मैंने उन्हें बताया कि "सर आई फ्रॉम कानपुर", वे फ़ौरन बोले- "ओह द सिटी ऑफ़ कामरेड रामासरे", मैंने कहा "जी"। उसके बाद तो ऐसे सम्बन्ध बने कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद पहला इंटरव्यू मुझे ही दिया। और उसे इंडियन एक्सप्रेस ने भी हिंदी से अंग्रेजी में उल्था कर छापा। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बुद्धदेब बाबू उसी फ्लैट में रहे और उनकी पत्नी पहले की तरह ही बस से ही आती-जाती रहीं और उनकी बेटी भी अपने कालेज बस या ट्राम से ही जाती। वहां कितनी बार ऐसा हुआ कि मुख्यमंत्री राइटर्स बिल्डिंग स्थित अपने कक्ष में मेरा इंतजार करते। ऐसी सादगी और विनम्रता दिखा पाएंगे "आप" के लोग?

एक तर्क यह भी

जबर का दस्त
आज रात NDTV के Prime Time में Ravish Kumar के साथ था। मुजफ्फर नगर और शामली के राहत शिविरों में रह रहे डरे सहमे लोगों की संवेदनाओं पर जो राजनीति खेली जा रही है यह बहस का मुद्दा था। कमाल फारुखी, भुक्कल नवाब और पीएल पूनिया भी इस बहस में थे। भुक्कल और पूनिया तो खैर अपनी पार्टी लाइन पर ही बोले। मैने एक सवाल उठाया कि इस राजनीति के पीछे वे आर्थिक हालात दबा दिए गए हैं जिन पर बहस बहुत जरूरी है। जैसे न तो राहुल गांधी और न ही मुलायम सिंह उन हालात को पकड़ पा रहे हैं जो इस दंगे ने पैदा कर दिए हैं। यहां तक कि मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उस चीज को पकडऩे में नाकाम हैं। और इसकी वजह है कि या तो हम पीडि़त पक्ष के प्रति सांप्रदायिक नजरिए से संवेदनशील हो जाते हैं अथवा वोट की लालच में क्रूरता की हद तक संवेदनशून्य। यहां भी यही हुआ है। ध्यान रखिए कि यह वह इलाका है जहां गांवों के स्तर पर हिंदू मुस्लिम बटवारा नहीं वरन् जातीय बटवारा है। लोग या तो जाट हैं अथवा त्यागी या ठाकुर। अलबत्ता पेशेवर जातियां अधिकतर मुसलमान हैं जो मेरठ या मुजफ्फर नगर शहर में बसी हैं। यानी गांव के स्तर पर दोनों ही किसान हैं। अब देखिए गन्ना यहां की राजनीति और अर्थनीति का एक प्रमुख हिस्सा है। एक बिरादरी जिसका मजहब इस्लाम है वह अगर गांव से भाग कर राहत शिविर में रह रही है और गांव आने पर उन्हें डराया-धमकाया जाता है तो उसकी वजह सांप्रदायिक नहीं विशुद्ध रूप से आर्थिक है। गांव से भाग गए लोगों के गन्ने की फसल की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? खड़ी फसल काट ली जाएगी और बटाई की खेती लेकर किसानी करने वाले मुसलमान तो साबित भी नहीं कर पाएंगे कि उनकी कितनी फसल बेकार गई? क्योंकि वे तो जिस भूमि मालिक की कृषि भूमि बटाई पर जोतते रहे वह ऐन कटाई के समय मालिक ने हथिया ली। इसमें प्रशासन भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकता। फसल कट गई तो कौन गवाही देगा? यह एक बड़ी वजह है कि गांव में लोग अब अपने ही बटाईदार और छोटी मोटी किसानी करने वाले गैर मजहबी लोगों को घुसने नहीं दे रहे। यह मुद्दा अनछुआ है क्योंकि शहरी लोग गांव के इस अर्थतंत्र को नहीं समझ पा रहे। अगर इस तरह का लालच लोगों के दिलों में आ गया तो आने वाले समय में इस खाई को पाट पाना मुश्किल होगा। और यह एक निरंतर प्रक्रिया नहीं बन जाएगी इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

जन्मदिन के बहाने पिता का स्मरण

एक मामूली आदमी का जन्मदिन !
आज मेरे पिता का जन्मदिन है। जिन्दा होते तो 87 पूरे कर लेते। वे कोई ईसा मसीह नहीं थे, महामना मदनमोहन मालवीय नहीं थे, अटलबिहारी वाजपेयी और धर्मवीर भारती भी नहीं थे। वे कामरेड रामासरे, सुदर्शन चक्र और राहुल सांकृत्यायन के पथानुगामी थे। उनकी कविताओं का रूसी में अनुवाद हुआ। अपनी कविता के सन्दर्भ में उन्होंने कहा था-
यहि मा ना मिली लैला मजनूं ना शीरीं और फरहाद मिली,
जो युग से आए हैं पिसते उनहिन की थोड़ी याद मिली।
मिलती ना रात की बात यहां ना सूरज चांद सितारे हैं,
ईं बातैं हैं उन पंचन की जो धरती मां को प्यारे हैं।
मिली न सुरा साकी हमको न पायल की झनकार सुनी,
हम तो हल के पीछे चलते उस हलधर की ललकार सुनी।
है चमक ना बेंदी की यहि मा ना दम दम दमक नगीना की,
है ठनक हथौड़े की ठन ठन औ बदबू बदन पसीना की।
हिन चूरिन केर खनक पहिऔ जब कटनी काट रहीं तिरियां,
औ बिछुअन केर झनक पहिओ जब लौट रहीं संझा बिरियां।
दुधमुंहे पिलौंधे बच्चन का र्ईं मेडऩ बीच सुअवती हैं,
फिर कटनी अउर निरउनी मा ईं मंद सुरन कुछ गवती हैं।
ईं बनदेबिन के बालक हैं वनदेव इन्हैं मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ढल रहे बीजना पवनदेव वनदेव इन्हें मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ईं परे घाम मा सूख रहै औ मुंह मा अउंठा हैं डारे,
इनका तुम छोटा ना जानेव ईं असल पउनियां हैं कारे।
येई धरती का साधे हैं औ टेके आसमान सारा,
इनहिन की लोहू का लागा ईं पापी महलन मा गारा।
पर फिर इनने करवट बदली रहि रहि के ईं जमुहाय रहे,
ओ तख्त नशीनों सावधान हम सोवत शेर जगाय रहे।
हम जगा रहे उन शेरन को जो बल अपने को हैं भूले,
उनका उईं का जाने पहिहैं जो मिथ्यागौरव मा हैं फूले।
मनई मनई का भेद जहां वो भेद भेद हम पार जाब,

रविवार, 15 दिसंबर 2013

Nirbhaya

महिलाओं अगर जिंदा रहना है तो घर छोड़ो!
16 दिसंबर को निर्भया कांड की बरसी के तौर पर याद करते हुए हम बड़े भावुक होकर सब लोग बता रहे हैं कि महिलाएं घर के बाहर कितनी असुरक्षित हैं मानों घर के भीतर तो वे सौ फीसद सुरक्षित हैं। दो दिन पहले से न्यूज चैनल वालों ने इसके लिए विशेष आयोजन करने की योजना बना रखी थी। कुछ महिला पत्रकार गईं और किसी खास बस अड्डे में खड़ी होकर वहां से गुजर रहे बाइक वालों से लिफ्ट मांगी और इसके बाद इस बातचीत को हिडेन कैमरे से लाक कर न्यूज चैनल पर चलवा दी और टीआरपी लूट ली। नतीजा क्या निकला? हर आदमी डर गया कि भई अकेली दुकेली कोई लड़की दिखे और लिफ्ट मांगे तो गाड़ी मत रोकियो पता नहीं वह अपने हिडन कैमरे से आपकी बातचीत को रिकार्ड कर ले और फिर बाइट चलवा दे कि देखो यह पुरुष कितना घटिया है हर लड़की को लिफ्ट देता है।
अरे यह सब करने के पहले अपने आफिस को देखो अपने घर को देखो। आफिस में एक बॉस क्या-क्या कर सकता है, इसे तरुण तेजपाल ने बता दिया। और घर के भीतर निर्भया के साथ कितना दोगला व्यवहार होता है यह बताओ। मैने तमाम महिलाओं को अपने उन पतियों की सेवा करते देखा है जो रोज प्रेस क्लब से दारू पीकर आते समय गाड़ी में ही मूत लेते हैं, वहीं पान की पीकते हैं और उनकी पत्नियां उनके उन अंतर्वस्त्रों को धोती हैं। पियक्कड़ पति अपनी पत्नी पर हाथ उठाते हैं। प्याज, टमाटर, आलू आदि सब्जियों की मंहगाई का रोना रोते हैं। दूध, फल, अंंडा और मांस में कटौती करते हैं। उनके बच्चे कुपोषित रहते हैं लेकिन पति महोदय शराब में कटौती नहीं करते न चखने में करते हैं। बच्चों की फीस स्कूल में यथासमय जाए या न जाए पर वे शराब जरूर पिएंगे। बच्चे अपने ऐसे पिता से नफरत करते हैं, पत्नी ऐसे दुराचारी पति की सेवा नहीं करना चाहती लेकिन समाज के दिखावे के लिए उसे करना पड़ता है। क्या सड़क पर अकेले जा रही किसी महिला की सुरक्षा के बारे में चिंता कर रही संस्थाएं, महिलाएं और महिला आयोग कभी ऐसे मामलों में चिंता करता है?
आज सुबह-सुबह एक न्यूज चैनल में दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष बरखा सिंह कह रही थीं- "उस बेचारी बलत्कृत निर्भया........" पर मुझे लगा कि बेचारी वह निर्भया नहीं वरन् ऐसे विचार रखने वाली महिलाएं हैं। अगर महिला आयोग की अध्यक्ष किसी को बनाना ही है तो उसे बनाइए जो ऐसे किसी हादसे का शिकार हुई हो। महिलाओं को नौकरी देनी है तो ऐसी महिलाओं को दीजिए जिसने अपने ऐसे शराबी और धूर्त पति को त्यागा हो और उन लड़कियों को दीजिए जो सामंती दिमाग वाले अपने पिता के घर को छोड़कर आई हो। तब ही आप सही मायनों में महिलाओं को बराबरी का दरजा दिलवा पाएंगे।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

Kanpur, a dying city

इज कानपुर अ डाइंग सिटी?
शंभूनाथ शुक्ल
मैं मूलरूप से कानपुर का रहने वाला हूं। यहीं पैदा हुआ, पढ़ाई लिखाई की और सीपीआई (एमएल) का सपोर्र्टर रहा उनकी हर गतिविधि में साथ रहा। बहुत से लोगों को करीब से देखा। हर राजनेता को, पत्रकार को और व्यापारियों को भी। जब यहां रहा तो जीविका चलाने के लिए हर तरह के काम किए। साइकिल में हवा भरने और पंक्चर ठीक करने से लेकर, बैटरी सर्विस का काम और अंतत: काफी उम्र के बाद पत्रकारिता में घुसा और शिखर पर न सही मंझोली हैसियत तो बना ही ली। पत्नी भी मूलत: कानपुर की हैं पर उनका आग्रह रहा कि चाहे जो कुछ हो कानपुर छोड़ दो। मैं दिल्ली चला गया पर कानपुर का मोह नहीं त्याग पाया और हर हफ्ते फिर हर महीने या दो महीने कानपुर आना सुखकर लगता। हमारे मित्र राजीव शुक्ला भी शुरू से इसी प्रवृत्ति के थे पर बाद में वे दिल्ली के ऐसे हुए कि शिखर तक पहुंच गए और इसमें कोई शक नहीं कि यह उनकी यात्रा का हिस्सा है उनका गंतव्य नहीं।
फिर एक दौर वह भी आया कि दुर्भाय वश मैं इसी कानपुर में अमर उजाला का संपादक बनकर आ गया। इसके बाद तो जीवन यात्रा में ब्र्रेक लग गया। अमर उजाला के नवोन्मेषक स्वर्गीय अतुल माहेश्वरी ने मेरा चयन किया था। चूंकि उस समय जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण में मुझे सारी सुविधाएं मिलाकर करीब ६० हजार रुपये मासिक मिलता था इसलिए उन्होंने मुझे यही वेतन दिया। दस ग्यारह साल पहले कानपुर में यह वेतन काफी नहीं तो भी मजे का था। लेकिन इस शहर में रो-रोकर मांगने वाले इतने ज्यादा हैं कि मैं पसीज जाता और हर उस आदमी की मदद कर देता जो मेरे ही पैसे से मेरे ही सामने शराब पीता, ऐश करता और मैं चुपचाप देखता रहता। रोज घर पर ऐसे लोगों का तांता लगा ही रहता। यहां के लोग यजमानी वृत्ति पर जीते हैं यानी किसी की भी आँख में धूल झोंककर पैसा निकाल लेने की कला में माहिर हैं। खासकर यहां का यूपीआईट और उनमें भी ब्राह्मण। यहां आकर बसे अन्य समुदाय यथा- पंजाबी, खत्री और मारवाड़ी समुदाय अपनी मेहनत पर और अपने पेशेगत ईमानदारी पर जीना जानता है। लेकिन ठेठ कनपुरिये या तो रंगदारी वसूलते हैं अथवा डग्गामारी कर पैसे कमाकर सारी की सारी कमाई दारूबाजी व दारूखोरी में उड़ाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
मैने जब अतुलजी को कहा कि भाई साहब आप मुझे कानपुर मत भेजिए क्योंकि वह मेरा शहर है और वहां हर आदमी मेरे पास कोई न कोई सिफारिश लेकर चला आएगा तो अतुल जी बोले- शुक्ला जी यही तो आपकी परीक्षा है और आपको कानपुर की हर तरह की जानकारी भी तो होगी। मुझे खुशी है कि मैं उनकी इस परीक्षा में खरा उतरा। मैने १९ जुलाई २००२ को अमर उजाला ज्वाइन किया और सिर्फ छह महीने के भीतर मैने अखबार का प्रसार सिटी में एक लाख तक पहुंचा दिया। अतुल जी ने मुझे प्रशस्ति पत्र भेजा और कहा कि अखबार संपादक का होता है और सिर्फ वही किसी अखबार को अपने पाठकों के बीच लोकप्रिय बना सकता है।
लेकिन मेरा निजी जीवन चौपट हो गया। पैसे तो लोग लूटते ही रहे मेरा सुख चैन भी छीन लिया। मुझसे मिलने शहर की हर बड़ी शख्सियत आती। चाहे वे राजनेता हों अथवा नौकरशाह या उद्यमी। कई बार ये लोग मेरे न चाहते हुए भी मेरे घर आ जाते। चूंकि मेरा परिवार काफी दरिद्र परिवार था इसलिए मेरे हर रिश्तेदार चाहते कि मैं उनकी सिफारिश करवा कर कोई ठेका दिलवा दूं किसी की नौकरी लगवा दूं अथवा किसी को कोई भूखंड दिलवा दूं। इससे ऊपर बेचारे सोच भी नहीं सकते थे। मैं यह सब काम नहीं करता और न इन्हें प्रोत्साहित करता हूं। मैने जीवन में मुफ्त का कुछ नहीं लिया उलटे अपनी सैलरी का २५ प्रतिशत हिस्सा जकात यानी दान में ही खर्च किया है। सो मैं कहता कि अगर किसी को कोई तकलीफ है तो मुझसे ले लो मैं किसी की सिफारिश नहीं करूंगा। नतीजा यह निकला कि अधिकांश मिलने वाले मेरे विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने लगे। हर कोई मेरा चाल, चरित्र और चेहरे पर टिप्पणी करने लगा कि एक मैं घमंडी हंू, दूसरा कान का कच्चा हूं और तीसरा जो हर सफल आदमी पर आरोप लगता है कि मेरा चरित्र ठीक नहीं है। मैं बंदरघुड़कियों से नहीं डरा और जो मुझे उचित लगा वही किया। अखबार के अंदर प्रबंधन मेरे विरुद्ध हो गया और कारपोरेट आफिस तक ऐसी-ऐसी अफवाहें फैलाई गईं मानों मैं कोई खलनायक हूं। वह तो शुक्र था कि अतुल जी मुझे पसंद करते थे और समूह संपादक शशि शेखर भी जो पहले तो नापसंद करते थे पर जब मिले तो उनको लगा कि मेरे बारे में अफवाहें ही फैलाई गई हैं।
कानपुर से जाने के बाद भी हर महीने मेरा कानपुर आना-जाना लगा रहा। एक तो पिताजी अकेले रहते थे और दूसरे मेरी दोनों छोटी बहनें भी। यहां तक कि एक बेटी का विवाह भी यहीं हुआ था। परिवार के लोगों से मिलने की इच्छा हर एक को होती है मैं कोई अपवाद तो हंू नहीं। इसलिए आता-जाता रहा। अखबारी जीवन से मुक्त होने के बाद कानपुर प्रवास कुछ ज्यादा दिनों तक का होने लगा। अभी आठ दिनों से कानपुर में हूं। इस बार मैने पाया कि कानपुर में जीवन में स्पंदन नहीं है। यह एक मरता हुआ शहर है और यहां के लोग हरदम निराशा में घिरे रहते हैं। कानपुर किसी के जीवन में उत्साह क्यों नहीं पैदा कर पाता? हर व्यक्ति चिड़चिड़ा, दंभी और हठी भी है। नौकरियां यहां हैं नहीं, व्यापार मंदा है लेकिन लोग जी रहे हैं तो आत्मविश्वास खोकर या कुछ लोग ऐसे हैं जो परले दरजे के बेईमान और धूर्त हैं अलबत्ता वे मजे में हैं। जो जितना बड़ा बेईमान उतना ही सफल वह है। लेकिन यह तो सही है कि कानपुर में लाइफ नहीं है, स्पंदनहीन है यह शहर और यहां जीने के लिए सिवाय बेईमानी, धूर्तता और मक्कारी के और कोई रास्ता नहीं बचा।
पर फिर भी कानपुर में अभी कुछ लोग हैं जिन पर इस शहर को गर्व हो सकता है। जो इस शहर में बैठकर तमाम सारे क्रिएटिव कामों में लगे हैं। कोई साहित्य रच रहा है तो कोई चुपचाप मूर्तियां गढ़ रहा है। कोई बच्चों की जिंदगी संवारने में लगा है तो कोई कोई बुजुर्गों को नया जीवन दे रहा है। एक मरते हुए शहर की यह कला भी उसे अन्य तमाम शहरों से अलग करता है और लगता है कि कुछ तो डिफरेंट हैं कानपुर में।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

Kailash-Mansarovar

हेमंत वाकई आप ही हो द्वितीयोनास्ति!
हमारे मित्र और अनुजवत हेमंत शर्मा गजब के साहसी और धुन के पक्के हैं। वे उन कुछ पत्रकारों में से हैं जिनका लिखा पढऩे के लिए लोग इंतजार करते थे। मैं जब जनसत्ता में राज्यों की डेस्क का प्रभारी था तो मेरे सारे साथी सुनील शाह, संजय सिंह, संजय सिन्हा, अजय शर्मा, अरिहन जैन, अमरेंद्र राय से लेकर प्रदीप पंडित तक उनके द्वारा लखनऊ से भेजी गई फैक्स कॉपी को लपक लेने की होड़ मचती थी। क्योंकि सब को पता होता था कि हेमंत की कॉपी में कुछ नहीं करना है। यहां तक कि शीर्षक भी वही लगाकर भेज दिया करते। वही हेमंत शर्मा अभी कुछ दिनों पहले एकाएक कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर निकल गए और पता तब चला जब 28 नवंबर को उनका मेसेज आया कि एक दिसंबर को शाम साढ़े चार बजे कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर लिखी उनकी किताब द्वितीयोनास्ति का विमोचन है। नई दिल्ली में जंतर मंतर के पास स्थित एनडीएमसी कन्वेंशन सेंटर में इस किताब का विमोचन रामकथा वाचक मोरारी बापू करेंगे और कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर नामवर सिंह करेंगे। मुझे समझ ही नहीं आया कि हेमंत जी कहना क्या चाहते हैं। कुछ व्यस्तता की वजह से मैं कार्यक्रम में जा नहीं सका। दो दिसंबर के अखबारों में नामवर जी और मोरारी बापू द्वारा परस्पर मंच साझा करते और उनके भाषणों को पढ़कर लगा कि हेमंत जी वाकई लाजवाब हैं वे सही में द्वितीयोनास्ति हैं। आज मैं ग्रेटर नोएडा से लौटते समय इंडिया टीवी के दफ्तर गया और वहां हेमंत जी से मिला। उन्हें बधाई दी। हेमंत जी ने "अग्रजश्रेष्ठ शंभूनाथ शुक्ल जी को सप्रेम" लिखकर पुस्तक भेंट की। लाजवाब फोटो और अद्भुत व साहसिक शैली में लिखे गए 124 पेज के इस यात्रा संस्मरण को मैं गाड़ी में बैठे-बैठे पढ़ गया। वहां से घर तक आने में करीब एक घंटा लगा और तब तक पुस्तक पूरी पढ़ चुका था। हेमंत शर्मा के लेखन की खासियत है कि अगर आप उनका लिखा पढऩा शुरू कर दें तो बिना समाप्त किए आप बीच में रुक नहीं सकते।
आज फेसबुक पर वरिष्ठ संपादक दयासागर ने इस पर काफी कुछ लिखा है इसलिए मैं एक दिसंबर को हुए कार्यक्रम और हेमंत शर्मा के बारे में न लिखकर बस इतना ही कहूंगा कि अगर आप कैलाश-मानसरोवर नहीं गए हैं तो इस पुस्तक को पूरी पढ़ डालिए आपको बिना गए ही वहां तक की यात्रा का आनंद मिल जाएगा। हेमंत शर्मा ने लिखा ही है कि मेरे साथ मेरे पाठक भी इस पुस्तक में मेरे सहयात्री हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान प्रोफेसर कृष्ण नाथ ने लिखी है। तिब्बत को लेकर समाजवादी विचारक डॉक्टर राममनोहर लोहिया और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पारस्परिक मतभेदों को भी पढ़ें। साथ ही यात्रा के अंत में हेमंत बताते हैं कि "पहाड़ों का सम्मान करें और पहाड़ पर विजय प्राप्त करने की कोशिश नहीं करें। अपनी शारीरिक क्षमता का प्रदर्शन न करें और लयबद्ध होकर चलें। कोशिश करें कि हमेशा एक सहयोगी साथ में हो।" इसके अलावा और भी उनके सुझाव हैं। जिन्हें भी हिमालय को करीब से जानना हो अथवा गंगा का उद्गम तलाशना हो या शिव के निवास की खोज करनी हो तो जब भी वे निकलें इन सुझावों पर अमल जरूर करें। हमें सदैव हमसे पहले वहां पर पहुंच चुके लोगों के अनुभवों का लाभ लेना चाहिए। प्रभात प्रकाशन से छपी हेमंत शर्मा की यह पुस्तक "द्वितीयोनास्ति" वास्तव में अपने आप में एकमात्र है।