शनिवार, 26 सितंबर 2015

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!
कोई बहुत अच्छा कवि हो तो जरूरी नहीं कि वह बहुत अच्छा चिंतक भी होगा किसी ने बहुत बिकाऊ उपन्यास या कहानियां लिखी हों तो यह अकाट्य तो नहीं कि सामाजिक विषयों पर उसकी सोच युगान्तकारी ही होगी। कोई व्यक्ति साहित्य सृजन करता है तो यकीनन नहीं कहा जा सकता कि वह आदमी श्रेष्ठकर होगा ही। अब जैसे मुझे रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं पढ़कर नहीं लगा कि यह कोई युगांतरकारी या परिवर्तनकामी कवि है। क्योंकि जो व्यक्ति अतीत के पुनरुत्थान की बात करता हो वह महान कब से होने लगा। मुझे सदैव वे ओज के एक मंचखैंचू कवि ही लगे। मगर उनकी 'संस्कृति के चार अध्याय' उनके बारे में इस धारणा को तोड़ती है। हालांकि संस्कृति के चार अध्याय में भी वे भारतीय अतीत को महान बताते चले आए हैं और भारत की सामासिक संस्कृति के कहीं-कहीं हामी अवश्य नजर आते हैं पर पूरी पुस्तक पढ़कर यह नहीं लगता कि इसमें कुछ भी वे मौलिक बात कर रहे हैं। लेकिन इस पुस्तक का जो अभिनव योगदान है वह है प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की वह प्रस्तावना जिसे मैं अक्सर पढ़ता हूं और हर बार उसमें कुछ नयापन पाता हूं। इस प्रस्तावना में नेहरू जी लिखते हैं-
“मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक व दिलचस्प है। यह एक ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओतप्रोत होता रहा है और मैने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप, आप-से-आप पड़ गयी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल करता हूं, भारत है क्या? उसका तत्त्व या सार क्या है? वे शक्तियाँ कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह इस संपूर्ण विश्व के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझाने की कोशिश की जा सकती है। कम-से-कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा।“
“भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को समझने में भी असमर्थ रहेंगे। और यदि भारत को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सबके सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की एसेी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।“
“मेरा विचार है कि दिनकर की पुस्तक इन बातों के समझने में, एक हद तक, सहायक होगी। इसलिए, मैं इसकी सराहना करता हूं और आशा करता हूं कि इसो पढ़कर अनेक लोग लाभान्वित होंगे।“
जवाहर लाल नेहरू
नयी दिल्ली
30 सितंबर 1955 ई.
यह पूरी प्रस्तावना नहीं है इसकी कुछ लाइनें भर हैं। आप इसे पढ़ें। पंडित जी ने इसे स्वयं हिंदुस्तानी व नागरी लिपि में लिखा है। उनकी भाषा बड़ी मोहक व बांधे रखने वाली थी तथा उनकी लिखावट गांधी जी की तुलना में ज्यादा साफ और बहिर्मुखी थी। गांधी जी जहां कई दफे अपनी लेखनी से झुझलाहट पैदा करते थे वहीं नेहरू जी की हिंदुस्तानी हिंदुस्तान के दिल के अधिक करीब थी। यह पूरी प्रस्तावना पढऩे के लिए दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय जरूर पढ़ें।

बुधवार, 9 सितंबर 2015

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा
शंभूनाथ शुक्ल
उतरते बैशाख की उस रात गर्मी खूब थी मगर हिंचलाल हमें अपने घर के अंदर ही बिठाए बातचीत कर रहा था ऊपर से चूल्हे का धुआँ और तपन परेशान कर रही थी। मैने कहा कि कामरेड हम बाहर बैठकर बातें करें तो बेहतर रहे। हिंचलाल बोला कि हम बाहर बैठ तो सकते हैं पर आप शायद नहीं समझ रहे हैं कि भीतर की गर्मी बाहर की हवा से सुरक्षित है। बाहर कब कोई छिपकर हम पर वार कर दे पता नहीं। वैसे हमारे दो आदमी बाहर डटे हैं मगर कामरेड आप नहीं जानते कि हम यहां कितनी खतरनाक स्थितियों में रह रहे हैं। हिंचलाल ने बताया कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हैं और दलित समुदाय से हैं लेकिन मौज-मस्ती भरी नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने भाइयों के लिए लडऩा बेहतर समझा। यहां पत्थरों की तुड़ाई होती है और साथ में धान की खेती। एक जमाने में यह पूरा इलाका राजा मांडा और डैया रजवाड़ों की रियासत में था। इन रियासतों के राजाओं ने अपनी जमींदारी जाने पर इस इलाके को फर्जी नामों के पटटे पर चढ़ाकर सारी जमीन बचा ली और जो उनके बटैया अथवा जोतदार किसान थे उनकी जमीन छीन ली। ट्रस्ट बना कर वही रजवाड़े फिर से जमीन पर काबिज हैं। यूं तो सारी जमीन वीपी सिंह के पास है लेकिन वे स्वयं तो राजनीति के अखाड़े पर डटे हैं और ट्रस्ट का कामकाज उनके भाई लोग देखते हैं। यहां वे किसान अब भूमिहीन मजदूर हैं और इन्हीं ट्रस्टों में काम करते हैं। कई मजदूरों को तो ट्रस्ट में बहाल किया हुआ है लेकिन ट्रस्ट के कामकाज में उनकी कोई दखल नहीं है। वे इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते और अपने यहां ही काम करने को मजबूर करते हैं। इंकार करने पर मारपीट करते हैं और इसी के चलते तीन किसानों को मार दिया गया।
ये वे दिन थे जब राजनीति करवट ले रही थी। जनता पार्टी का प्रयोग बुरी तरह फ्लाप रहा था और यूपी की राजनीति में चरण सिंह अब हाशिये पर थे मगर उनका विकल्प उभर नहीं पा रहा था। कांग्रेस भी यहां पर फिर से पैर जमाने की कोशिश कर रही थी। मगर अब कांग्रेस को लग रहा था कि उसे अपने जातीय समीकरण को बदलना पड़ेगा। कांग्रेस की राजनीति में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश चल रही थी। संजय गांधी राजपूतों के बीच से नेतृत्व उभारने के लिए प्रयासरत थे। मगर राजपूतों के बीच से जो सबसे ताकतवर नाम था वह वीर बहादुर सिंह का था। वे खाँटी राजनेता थे और उनकी जड़ें जमीन तक थीं। लेकिन संजय की इच्छा थी कि लखनऊ में वही नेता बैठे जो उनका खास बनकर रहे। इसलिए वीपी सिंह का नाम तलाशा गया। वीपी सिंह इलाहाबाद की मांडा रियासत के वारिस थे और पुणे के फर्ग्युसन कालेज के ग्रेजुएट थे। अंग्रेजी और अवधी में प्रवीण वीपी सिंह केंद्र में एक बार वाणिज्य उपमंत्री भी रह चुके थे। चुप्पा थे इसलिए संजय की पसंद भी थे। मगर उनके भाई लोग रीवा से सटे कुरांव के इलाके में जो कारनामे कर रहे थे इसलिए वीपी सिंह अपने भाइयों से दुखी भी रहते थे। पर इस मोर्चे पर चुप रह जाना ही उन्हें पसं द था। तभी यह घटना घट गई। वीपी सिंह ने अपने संपर्कों का लाभ उठाकर इसे अखबारों में नहीं आने दिया। इसके बावजूद हम वहां पहुंच गए थे। इसे लेकर सुगबुगाहट तो थी। इसलिए हिंचलाल ने हमें बाहर नहीं निकलने दिया।
हिंचलाल ने हमें वह सारी जानकारी दी जिसकी तलाश में हम वहां गए थे। हम उस युवा और उत्साही दलित नौजवान के आतिथ्य से अभिभूत थे। उस व्यक्ति ने दूर से गए अपने इन अनजान मेहमानों को अपने घर में सुरक्षा दी। और जिसके यहां खुद के भोजन के लाले हों वहां हमें भी अपने साथ भोजन कराया। मुझे याद है कि हिंचलाल के यहां कुल तीन थालियां थीं और वह भी अल्यूमीनियम की। उसकी पत्नी ने दाल जिस बटलोई में उबाली थी उसमें हाथ को ही चमचा बनाकर हमें परोसी क्योंकि उनके पास अलग से कोई चमचा नहीं था। हाथ से पकाई गई बेझर एक किस्म का मोटा आनाज की रोटियां परोसीं और बिना छिले प्याज रख दिया। उनके यहां चाकू नहीं था। हिंचलाल ने वह प्याज हमारी थालियों के किनारों से काटा तब हम उसे खा पाए। सारी रात वे बताते रहे और हम सुनते रहे। एक तरह से जमीनी स्तर पर जाकर कोई रिपोर्ट तैयार करने का यह मेरा पहला अनुभव था।

हिंचलाल अगले रोज सुबह हमें बस पकड़वाने के लिए कुरांव छोडऩे आए तो वहां के बुजुर्ग पत्रकार चंद्रमा प्रसाद त्रिपाठी के घर ले गए। चंद्रमा प्रसाद जी पेशे से पत्रकार और स्वभाव से क्रांतिकारी थे। उन्होंने हमें राजा मांडा चैरिटेबल ट्रस्ट और राजा डैया चैरिटेबल ट्रस्ट की और तमाम जानकारियां दीं तथा सबूत भी। बाद में हम थाने गए जहां के थानेदार ने किसान सभा के तीन किसानों के मरने को सामान्य दुर्घटना करार दिया था और पूरे उस कस्बे में कोई हमें यह बताने वाला नहीं मिला कि वे तीन किसान क्यों मारे गए। हम वापस इलाहाबाद आए और वहां से ट्रेन पकड़कर कानपुर। महीने भर बाद मेरी विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन बंबई से छपने वाले साप्ताहिक करंट में छपी पर वह रिपोर्ट पढऩे के लिए हिंचलाल विद्यार्थी जीवित नहीं रहे थे। पता चला कि उन्हें कुछ दादुओं ने सोते वक्त मार दिया था।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

पत्रकारिता का वह जज्बा!

पत्रकारिता का वह जज्बा!
शंभूनाथ शुक्ल
(यह कोई बहबूदी के लिए लिखी जा रही यादें नहीं हैं बल्कि ये उस जमाने की यादें हैं जब हिंदी पत्रकारिता एक करवट ले रही थी। तब पत्रकारों के अंदर जोश था जोखिम की पत्रकारिता का करने का। तब साइंस ने इतनी तरक्की नहीं की थी। संचार सेवाएं नहीं थीं और न ही आज की जैसी सुगम ट्रांसपोर्ट सेवाएं। पत्रकारिता तब वाकई बहुत कष्टसाध्य काम था। और रिपोर्टिंग तो और भी जोखिम भरा काम खासकर तब और जब आप को दूर-दराज के गांवों में जाकर रिपोर्टिंग करनी हो। कोई सुरक्षा नहीं और कोई मदद नहीं। ऐसे ही समय की एक याद।)
यह उन दिनों की बात है जब यूपी में बाबू बनारसी दास की सरकार थी। जोड़तोड़ कर बनाई गई इस सरकार का कोई धनीधोरी नहीं था। बाबू बनारसीदास यूं तो वेस्टर्न यूपी के थे पर वे चौधरी चरण सिंह की बजाय चंद्रभानु गुप्ता के करीबी हुआ करते थे। सरकार चूंकि कई नेताओं की मिलीजुली थी इसिलए भले चंद्रभानु गुप्ता अपना सीएम तो बनवा ले गए मगर चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा ने उनको घेर रखा था। इस सरकार के डिप्टी सीएम नारायण सिंह बहुगुणा जी के आदमी थे। उन पर चौधरी चरण सिंह का भी वरद हस्त था। तब कांग्रेस के भीतर मांडा के पूर्व राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का कद बढ़ रहा था मगर उनके भाई-बंधु अपने इलाकों में कहर ढाए थे। ऐसे ही समय हमें सूचना मिली कि इलाहाबाद के दूर देहाती इलाके में तरांव के जंगलों में तीन किसानों को मार दिया गया है। कानपुर में तब मैं फ्रीलांसिंग करता था इसलिए मैने और दो अन्य मित्रों ने ठान लिया कि हम रीवा सीमा से सटे उस तरांव गांव में जाएंगे। मगर किसी अखबार ने यह खबर नहीं छापी थी और तब नेट का जमाना नहीं था इसलिए यह अनाम-सा तरांव गांव, किसान सभा और उन किसानों के बाबत पता करने में बड़ी मुश्किलें आईं। बस इतना पता चला कि किसान सभा कम्युनिस्टों का संगठन है। इसलिए हमने इलाहाबाद शहर जाकर पहले तो भाकपा की स्थानीय इकाई के दफ्तर में जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि किसान सभा माकपा का संगठन है। फिर हम माकपा के जिला सचिव जगदीश अवस्थी से मिले, जो वहां पर जिला अदालत में वकील थे। उन्होंने बताया कि तरांव की जानकारी तो उन्हें भी नहीं है पर यह मेजा रोड के पास कुरांव थाने की घटना है। उन्होने मेजा रोड के एक कामरेड का नाम दिया और कहा कि वे आगे की जानकारी देंगे। हम मेजा रोड जाकर उन कामरेड से मिल। वे वहां पर बस स्टैंड के सामने मोची का काम करते थे। उन्होंने बताया कि हमारे तहसील सचिव तो आज लखनऊ गए हैं लेकिन आप कुरांव चले जाएं और वहां पर रामकली चाय वाली हमारी कामरेड है, उसे जानकारी होगी।
शाम गहराने लगी थी और इलाका सूनसान जंगलों और पत्थरों से भरा। हम वहां किसी को जानते भी नहीं थे। मगर हमारे अंदर इस अचर्चित घटना को कवर करने की इतनी प्रबल इच्छा थी कि हम सारे जोखिम मोल लेने को तैयार थे। हम फिर बस पर चढ़े और करीब नौ बजे रात जाकर पहुंचे कुरांव कस्बे में। कस्बे में सन्नाटा था और बस अड्डे पर दो-चार सवारियों के अलावा और कोई नहीं। किससे पूछें, समझ नहीं आ रहा था। हमने बस के ड्राइवर व कंडक्टर से रामकली चाय वाले के बारे में पूछा तो बोले आप आगे जाकर पता कर लो। हम बस अडडे की तरफ आने वाली गली में आगे बढ़े। तीन-चार चाय की दूकानें मिलीं तो पर रामकली चायवाली का पता नहीं चला। फिर काफी दूर जाने पर एक दूकान पर एक औरत चाय बना रही थी और अंदर कुछ लोग चाय पी रहे थे। हमने उसी से पूछा कि रामकली जी आप ही हो तो वह गुस्साए स्वर में बोली- कउन रामकली हियाँ कउनो रामकली नाहिन आय। हम आगे बढ़े तो वह फुसफुसा कर बोली अंदर बइठो। हमारे पास चाय आ गई। हमने चाय पी। तब तक अंदर बैठे लोग चले गए तो वह हमारे पास आई और धीमी आवाज में कहने लगी कि हियाँ से दक्खिन की तरफ जाव। चांद रात है निकल जाओ डेढ़ कोस है तरांव। मरते क्या न करते हम चल पड़े। लेकिन इस बात का अहसास हो गया कि यहां जमींदारों व बड़े किसानों का आतंक है। ये दादू टाइप लोग सबको दबा कर रखते हैं। हम गांव की उस कच्ची सड़क पर चल दिए। अभी कोई आधा किलोमीटर निकले होंगे तो पीछे से आवाज आई- अरे बाबू लोगव रुकौ आय रहै हन। पीछे मुड़कर देखा तो एकबारगी तो सनाका खा गए। पहलवान नुमा एक अधेड़ आदमी अपने एक हाथ में लालटेन पकड़े और दूसरे में लाठी लिए लगभग भागते हुए हमारी तरफ आ रहा था। हमें लगा कि वह हमें मारने ही आ रहा होगा। पर वह हमारे पास आकर बोला- साहब हम लोगन का बड़ा बुरा लगा कि आप लोग शहर ते हमरी खातिर आए हव और हम लोग आपकी खातिरदारी तो दूर जंगल मां अकेले भेज दीन। हियां तेंदुआ तो लगतै है ऊपर से ईं ससुर राजा लोग हमार जीना दूभर किए हैं। उसका इशारा वीपी सिंह की मांडा और डैया रजवाड़े की तरफ था। हम समझ गए कि समझ गए कि यहां पर दबंगों को भी हमारे आने की सूचना मिल गई है।
करीब घंटे भर उसी ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते, जिसे वहां के लोग बटहा बोलते हैं, पर चलने के बाद हम एक पगडंडी की तरफ मुड़ गए। थोड़ी ही दूर पर कुछ घास-फूस के घर नजर आने लगे। पता चला कि यही तरांव है। उस पहलवान ने हमें वहां कामरेड हिंचलाल विद्यार्थी से मिलवाया और उन्हें बताया कि ईं बाबू लोग आपसे मिलंय के लिए इलाहाबाद से आए हैं। हिंचलाल ने हमारा परिचय पूछा और परिचय पत्र मांगा। हमारे एक साथी बलराम जो तब कानपुर के आज अखबार में रिपोर्टर थे, के पास बाकायदा आज का कार्ड था, वही उन्हें दिखाया गया तो वे हमें अपने उस झोपड़ेनुमा घर के अंदर ले गए। जिसमें दो कच्चे कमरे बने हुए थे। हमारे कमरे के आधे हिस्से में उनकी पत्नी हमारे लिए दाल-चावल बनाने लगीं और बाकी के आधे हिस्से में हिंचलाल हमें किसानों की हत्या के बारे में बताने लगे। कामरेड हिंचलाल ने जो बताया वह आंखें खोल देने वाला था। दरअसल मांडा और डैया रजवाड़ों की जमीनें बचाने के लिए वीपी सिंह और उनके भाइयों ने ट्रस्ट बना रखे थे।

(बाकी का कल)

सोमवार, 7 सितंबर 2015

नेपाल यात्रा-1

एक पराये देश में
शंभूनाथ शुक्ल
मैं उस दुर्लभ प्रजाति का प्राणी हूं जो घूमने जाने के पहले दस बार बजट बनाता है और सबसे सस्ते वाहन से जाने की कोशिश करता है। मसलन हवाई यात्रा की तो सोचना मुश्किल है और रेलवे में भी थर्ड क्लास की यात्रा करता रहा हूं और आज भी करता हूं। हालांकि आज थर्ड क्लास का मतलब एसी थर्ड हो गया है और वह लगभग वैसा ही है जैसा कि पहले थर्ड शयनयान होता था जिसे अब स्लीपर क्लास कहा जाता है। ठहरने के लिए धर्मशालाएं अथवा गांधी आश्रम या सरकारी गेस्ट हाउस ढूंढ़ता हूं। अब अगर परिवार के साथ यात्रा करनी हो तो अपनी गाड़ी सबसे सस्ती और मजेदार साधन है। मैने एक बार तो अपनी पहली विदेश यात्रा, सिक्किम यात्रा, निजी वाहन से की थी और फिर नेपाल यात्रा भी अब सोचता हूं कि भूटान भी घूम आया जाए। खाते में तीन विदेश यात्राएं दर्ज हो जाएंगी। मैं कभी सरकारी खर्चे से यात्राएं करना पसंद नहीं करता और न ही पीएम-सीएम या किसी डेलीगेशन के साथ जाना क्योंकि पीएम-सीएम के साथ जाकर आप सिवाय सेल्फी खींचने के और कुछ न तो देख पाते हैं न एन्जॉय कर पाते हैं। सिक्किम यात्रा की तो ज्यादातर बातें विस्मृत हो गई हैं पर 2012 की नेपाल यात्रा जस की तस याद है। गर्मियां शुरू होने के थोड़ा पहले मैं, मलकिनी, बेटी और दामाद तथा नाती-नातिन चले नेपाल घूमने। हमारे एक मित्र और एक समाचार पत्र समूह के गोरखपुर स्थित संपादक ने सुझाव दिया कि सर आप काहे परेशान हैं। यहां नौतनवां के करीब भैरहवां से फ्लाइट लें और सीधे काठमाडौं उतरें। मैं तो अक्सर अपने परिवार के साथ पशुपतिनाथ हवाई जहाज से ही जाया करता हूं। पर किराया सुनकर होश उड़ गए और मैने कहा कि हो सकता है कि आपकी हवाई यात्रा का खर्च गोरखपुर मठ के आपके सजातीय महंत उठाते हों पर मुझे तो अपने ही खर्च से जाना है इसलिए मैं अपनी इनोवा गाड़ी से ही जाऊँगा। तब वह नई-नई थी इसलिए इच्छा भी थी कि कोई लांग ड्राइव पर निकला जाए। पहले तो इस पर खूब माथापच्ची की गई कि नेपाल में एंट्री किस प्वाइंट से ली जाए। तय हुआ कि बजाय गोरखपुर से जाने के हम वाया बलराम पुर बढऩी बार्डर से नेपाल में घुसेंगे। इस बहाने श्रावस्ती घूमने का मौका मिला और वहां पर सहेट-महेट व बुद्घ मंदिर देखा। बढऩी सीमा पर सीमा सुरक्षा बल तैनात रहती है। वहां जाकर भन्सार लिया चार दिनों का। सीमा सुरक्षा बल वाले हमें नेपाल पुलिस की चौकी तक भेज आए। 
वहां पर हमें अपनी गाड़ी का नया नंबर मिला हरे रंग की एक नंबर प्लेट पर देवनागरी में नंबर लिखा था। मुझे कहा गया कि अब मैं यह नंबर प्लेट लगवाऊं। दोपहर ढल चुकी थी और अनजाना देश सो मैने वह नंबर प्लेट गाड़ी में यथा स्थान फिट करने के उसे आगे के शीशे के वाइपर के नीच दबा लिया और गाड़ी बढ़ा दी। मील भर आगे बढ़ते ही मुझे लगा कि यह वाकई पराया देश है। सड़क ऐसी दिख रही थी मानों एक बहुत लंबा और ऊँचा-सा चबूतरा बना दिया गया हो जिसका ओर-छोर नहीं दिख रहा था। चबूतरे के नीचे दूकानें जिनमें बाहर एक जाली में तली हुई मछलियां लटका दी गई थीं। दोपहर ढल चुकी थी और हमें चाय की तलब थी इसलिए एक जगह गाड़ी सड़क से उतार कर मैने त्रिपाठी टी स्टाल पर रोकी। चाय का आर्डर देने पर उसने अनुसनी की और कुछ देर बाद रूखे अंदाज में बोला अभी टाइम लगेगा। कुछ बिस्किट वगैरह मांगने पर बोला यही मछलियां मिलेंगी बस और कुछ नहीं। पता लगा कि नेपाल में चाय की बजाय एक लोकल स्तर का नशीला पेय पिया जाता है। हम वहां से निकल लिए। काफी आगे चलने पर एक कस्बा मिला जहां हमें एक पुलिस वाले ने रोका और बताया कि यहां पर गाड़ी के कागज चेक कराने होंगे और एंट्री दर्ज करानी होगी। यह भैरहवा चौराहा था जहां से एक रोड पोखरा जाती थी, दूसरी नौतनवां, तीसरी नारायणपुर और चौथी जिससे हम आ रहे थे। इसी कस्बे से कुछ पानी की बोतलें खरीदी गईं तथा बिस्किट व फल भी। यहां से आगे का रास्ता खूब चढ़ाई वाली पर सड़क बेहतरीन। इसलिए थकान महसूस नहीं हुई। पता चला कि यह सड़क चीन ने बनवाई है। जगह-जगह पर माओवादी लड़के टैक्स लेते और ऐतराज करने पर नेपाली में हड़काते। जब मैने कहा कि मुझे नेपाली नहीं आती तो एक गुर्राया- नेपाली नहीं आती तो यहां क्या करने आए हो? पहली बार पता चला कि नेपाल को लेकर हमारे अंदर कितने भरम हैं। वे हमें कतई बड़ा भाई या संरक्षक नहीं मानते उलटे वे अपनी तकलीफों की वजह भारत को ही मानते हैं। ऐसे तमाम दादूनुमा टोल टैक्स देने के बाद शाम करीब साढ़े छह बजे हम पहुंचे नारायण पुर। यह एक अच्छा और संपन्न कस्बा लगा। मारवाड़ी व्यापारी यहां छाये हुए हैं। जिस मारवाड़ी व्यापारी के होटल में मैं यह सोचकर रुका कि मारवाड़ी होटल है तो शाकाहारी तो होगा ही। पर पता चला कि शाकाहारी खाने के लिए शहर में कृष्णा मिष्ठान्न भंडार में जाना पड़ेगा। यह पहली बार पता चला कि मारवाड़ी व्यापारी पहले होते हैं। जैसा देश वैसा भेष। यहां यह भी पता चला कि नेपाल के आठ रुपये हमारे पांच रुपये के बराबर होते हैं इसलिए होटल में ठहरने के पूर्व उसका टैरिफ पूछ लें और जान लें कि वह टैरिफ नेपाली करेंसी में बता रहा है या इंडियन करेंसी में सुबह नाश्ते के बाद हम निकले आगे की ओर। 
दोपहर के करीब हम मनकामनेश्वरी देवी के मंदिर में पहुंचे। यहां की देवी की मान्यता का अंदाज तो मुझे नहीं था पर जब यह बताया गया कि यह सबसे ऊँचा रोप वे है तो इस पर सवार होने की उत्कंठा जागी। आवाजाही का किराया था चार सौ नेपाली रुपये यानी भारतीय मुद्रा ढाई सौ रुपये। हम इस रोप वे पर सवार होकर मनकामनेश्वरी मंदिर गए। मंदिर आम भारतीय मंदिरों जैसा ही था। गंदगी और ताजे बकरे का खून मंदिर के प्रांगण को गीला कर रहा था। हमने मंदिर के मुख्य द्वार से ही विग्रह के दर्शन किए और वापस लौट आए तथा निकल पड़े काठमांडौ की ओर। पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी चलाते हम शाम सात के करीब राजधानी काठमांडौ पहुंचे। शहर की शुरुआत से ही दलाल घेरने लगे। मगर हमने शहर जाकर कई होटल तलाशे और आखिर में एक सामान्य-सा होटल लिया। प्रति कमरे का किराया 1500 रुपये था। वह, भी नेपाली मुद्रा में। वहां खाना भी बेहतर था और कमरे में एसी जरूर लगा था पर नेपाल की राजधानी में बिजली की भारी किल्लत थी और होटल वाले ने पहले ही बता दिया था कि जेनरेटर नहीं है। इसलिए उमस भरी गर्मी में रात गुजारनी मुश्किल हो गई।

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

जस यूपी और बिहार मिले

जस यूपी और बिहार मिले
शंभूनाथ शुक्ल
यूपी और बिहार की एक जैसी पहचान है। आज भी है और कल भी थी। हालांकि दोनों के बीच भौगोलिक और ऐतिहासिक एकता कभी नहीं रही मगर राजनीतिक एकता अभूतपूर्व रही है। बंग भंग के पहले सासाराम तक का बिहार अवध सुल्तानेट में था और बाकी का हिस्सा बंगाल सुल्तानेट के अधीन। यूपी में भी दिल्ली जमनापार से लेकर इलाहाबाद संगम तक का पूरा दोआबा मुगल बादशाहों की खालसा जमीन थी और उनके सीधे नियंत्रण में रहा है। इसके अलावा रुहेलखंड और पहाड़ी राज्य अलग रहे हैं। पर दोनों के बीच लोगों का राजनीतिक चिंतन करीब-करीब एक-सा रहा है और इसकी वजह शायद दोनों ही राज्यों में समाज का बंटवारा सीधे-सीधे जाति के आधार पर बटा रहा है और दोनों ही जगह सामान्य जन-जीवन में सामंती जातियों का वर्चस्व का बना रहना है। मालूम हो कि दिल्ली में जब मुसलमानों  का खासकर तुर्कों का हमला हुआ तो राजपूत राजा पास के राजपूताना को छोड़कर बिहार चले गए और अपने साथ वे अपनी प्रजा भी ले गए। पुरोहितों के लिए उन्होंने काशी और कान्यकुब्ज इलाके के ब्राह्मणों को चुना। इस वजह से जाति की राजनीति लगभग वही है जो सेंट्रल और ईस्टर्न यूपी में है। यही कारण है कि दोनों ही राज्यों में पिछड़ा उभार लगभग एक ही समय का है। अस्सी का दशक दोनों के लिए महत्वपूर्ण बिंदु है और इसके लिए कुछ भी हो पर इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और प्रधानमंत्री रोजगार योजनाओं तथा ग्रामीणों को बैंक कर्जों का लाभ पिछड़ों के क्रीमी तबके खासकर यादव और कुर्मियों ने खूब उठाया। कुर्मियों के पास जमीन थी और अहीरों-गड़रियों के पास ढोर थे तथा काछी सब्जी बोने का काम करते थे। इन्हें अपनी उपज को बेचने के लिए शहरी बाजार मिले इससे इन जातियों के पास पैसा आया तब इनके अंदर इच्छा शक्ति पैदा हुई कि समाज के अंदर उन्हें वही रुतबा शामिल हो जो कथित ऊँची जातियों को हासिल थी पर इसके लिए उन्हें अपने रोबिनहुड चाहिए थी ताकि उनकी छवि एक दबी-कुचली जाति के रूप में नहीं बल्कि दबंग, ताकतवर और रौबदाब वाली जाति के रूप में उभरे।
यह वही दौर था जब अहीरों ने अपनी लाठियां भाँजीं। मगर अगड़ों ने पुलिस की मदद से उन्हें जेल में डलवाया और आंखफोड़ो जैसे कारनामे करवाए। मुझे याद है कि साल 1980 में जब मैं भागलपुर आंखफोड़ो कांड कवर करने गया था तब यह जानकर दंग रह गया कि जिन लोगों की आंखें फोड़ी गईं वे सब के सब पिछड़ी जातियों के, खासकर यादव जातियों से थे। सवर्ण शहरी पत्रकार और बौद्घिक वर्ग इसकी निंदा ता कर रहा था पर किसी ने भी तह तक जाने की कोशिश नहीं की यह एक पुलिसिया हरकत थी जो अगड़ों के इशारे पर पिछड़ा उभार को दबाने के प्रयास में की गई थी। मुझे याद है कि जिन पुलिस इंसपेक्टरों को इस कांड में घेरा गया था वे सब के सब अगड़ी जातियों के ही थे। पर अत्याचार एक नए किस्म के प्रतिरोध को जन्म देता है। वही यहां भी हुआ और धीरे-धीरे पिछड़ों की एकता बढ़ती गई मगर दलितों की तरह वे मार्क्सवादी पार्टियों की ओर नहीं गए। भाकपा (माले) के कामरेड विनोद मिश्रा की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछड़े उनके साथ नहीं गए और उनका आधार वही ब्राह्मण व अन्य अगड़े व दलित ही रहे जिनका बड़ा तबका कांग्रेस में था। मगर कांग्रेस को बहुमत में लाती थी उस पार्टी को मुसलमानों का एकतरफा सपोर्ट। यहां मुसलमान नहीं था और ब्राहमणों व अन्य अगड़ों का एक छोटा तबका ही था। पिछड़ी जातियां अपने ही किसी सजातीय दबंग नेता का इंतजार कर रही थीं। उन्हें सौम्य नेता नहीं चाहिए था बल्कि एक ऐसा नेता चाहिए था जो सार्वजनिक तौर पर अगड़ी अभिजात्यता को चुनौती दे सके। यह वह दौर था जब यूपी और बिहार में क्रमश दो यादव नेता मिले। यूपी में थोड़ा पहले और बिहार में कुछ बाद में। एक लोहिया का शिष्य दूसरा जेपी आंदोलन से उपजा पर दोनों ही लाठियों के मजबूत।
ऐसे ही दिनों में मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के गांवों का कवरेज का मौका मिला। तब मैने पाया कि मध्य उत्तर प्रदेश की मध्यवर्ती जातियों के कुछ नए नायक उभर रहे थे। ये नायक उस क्षेत्र के डकैत थे। अगड़ी जातियों के ज्यादातर डकैत आत्म समर्पण कर चुके थे। अब गंगा यमुना के दोआबे में छविराम यादव, अनार सिंह यादव, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह और मुस्तकीम का राज था। महिला डकैतों की एक नई फौज आ रही थी जिसमें कुसुमा नाइन व फूलन प्रमुख थीं। छविराम और अनार सिंह का एटा व मैनपुरी के जंगलों में राज था तो विक्रम, मलखान व फूलन का यमुना व चंबल के बीहड़ों में। मुस्तकीम कानपुर के देहाती क्षेत्रों में सेंगुर के जंगलों में डेरा डाले था। ये सारे डकैत मध्यवर्ती जातियों के थे। और सब के सब गांवों में पुराने जमींदारों खासकर राजपूतों और चौधरी ब्राह्मïणों के सताए हुए थे।
उस समय वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे। यह उनके लिए चुनौती थी। एक तरफ उनके सजातीय लोगों का दबाव और दूसरी तरफ गांवों में इन डाकुओं को उनकी जातियों का मिलता समर्थन। वीपी सिंह तय नहीं कर पा रहे थे। यह मध्य उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों के पराभव का काल था। गांवों पर राज किसका चलेगा। यादव, कुर्मी और लोध जैसी जातियां गांवों में चले सुधार कार्यक्रमों और सामुदायिक विकास योजनाओं तथा गांंव तक फैलती सड़कों व ट्रांसपोर्ट सुलभ हो जाने के कारण संपन्न हो रही थीं। शहरों में दूध और खोए की बढ़ती मांग ने अहीरों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया था। यूं भी अहीर ज्यादातर हाई वे या शहर के पास स्थित गांवों में ही बसते थे। लाठी से मजबूत वे थे ही ऐसे में वे गांवों में सामंती जातियों से दबकर क्यों रहें। उनके उभार ने उन्हें कई राजनेता भी दिए। यूपी में चंद्रजीत यादव या रामनरेश यादव इन जातियों से भले रहे हों लेकिन अहीरों को नायक मुलायम सिंह के रूप में मिले। इसी तरह कुर्मी नरेंद्र सिंह के साथ जुड़े व लोधों के नेता स्वामी प्रसाद बने। लेकिन इनमें से मुलायम सिंह के सिवाय किसी में भी न तो ऊर्जा थी और न ही चातुर्य। मुलायम सिंह को अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा घृणा मिली लेकिन उतनी ही उन्हें यादवों व मुसलमानों में प्रतिष्ठा भी।