शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

once upon a time

कोलकाता से कानपुर आने पर लिखी गई कविताएं
काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम
जिसमें न होती ईष्र्या, न जलन, न द्वेष।
काश! मुझमें होता इतना साहस / कि
मैं तत्पर रहता/ तुम पर बलिदान हो जाने के लिए
काश! मैं प्यार करता / तुम्हारे अवगुणों को भी
मान कर चलता / तुम हो साक्षात सत्य की प्रतिमा /
विश्वास की प्रतीक।
तुम्हारे घात भी मुझे प्रिय होते /
तुम्हारी वफा की तरह।
काश! मैं तोड़कर अपना दंभ / पुरुष का अहम / परंपरा का अंधविश्वास
घुल मिल जाता तुमसे जैसे नीर और क्षीर।
तब और यकीनन तब ही / मैं हो पाता /
तुम्हारे प्रेम का अधिकारी /
कहना आसान है कि मैं हूं तुम्हारा प्रेमी
पर सब करते हैं ढोंग।
क्योंकि पुरुष नहीं कर सकता / कभी भी / स्त्री से प्रेम।
वह तो प्रेम करता है अपने दंभ से / अहम से /
और खुद की बनाई लीक से।
प्रेम की राह नहीं है आसान
तलवार की धार पर चलना है प्रेम / या आग के दरिया में
मोम के घोड़े पर बैठकर जाने जैसा है प्रेम।
प्रेम नहीं चाहता है कुछ पाना
वह तो है सब कुछ लुटाकर खत्म हो जाने का दूसरा नाम।
प्रेम करने के लिए मिटाना होगा / अपने दंभ को / अहम को
और पुरुष पुरातन विश्वास को
तब ही कर पाएगा कोई पुरुष प्रेम / जब खुद ही जी लेगा पुरुष
स्त्री का दिल, दिमाग और देह।
प्रेम नहीं है शब्दानुशासन /
नहीं बांध सकते उसे किसी मीटर में
प्रेम तो है एक ऐसी अकविता
जो भले न हो छंदबद्घ, लयबद्घ
पर इसमें रिदम है।
प्रेम है सतत प्रवाह / नदी की तरह
प्रेम की चाह यानी
फूट पडऩा उसके किनारों की तरह।
ध्वस्त कर देना सबकुछ।
अपना अहम, दंभ और विश्वास की परंपरा।
स्त्री में विलीन होकर, स्त्री बनकर ही
जिया जा सकता है स्त्री को
प्रेम करना / प्रेम पाना संभव है तभी
जब जीता है पुरुष
स्त्री की आत्मा और देह के साथ।
                कानपुर १/०८/०४

पिताजी की कविताएं

ये कविताएं पिता स्वर्गीय श्री राम किशोर शुक्ल द्वारा १९५७ से १९८७ के बीच लिखी गईं। इनका संकलन उनकी मृत्यु के बाद हो पाया।       

            ॥ १॥

आसौं भेऊ माघी मां भागे ना बचे हमरे परान,
पंडितऊ संघे हमहूं का तब जांय परा गंगा नहान।
हम उठेन भुकभुके चौदस का औ काटी दुइ पूरा कटिया,
सतुआ सहित अधारी मां हम डारी डोर अउर लुटिया।
कंाधे मां झ्वारा लटकावा औ नारायन का नाम लीन,
जग्गू पंडित के संघे तब हम कंपू का प्रस्थान कीन।
डब्बा मां भारी भीड़ रहाय सब भुरकुस भईं हड्डी पसुरी,
दुसरे दिना दुपहरी के हम पाईं गंगा परमेसुरी।
घाटेन मां जमघट जमा सब झुके रहांय जमनापारी,
कोऊ नदीगांव, कोऊ उरई, कोऊ बांदा औ कोऊ चरखारी।
हम ताका लुटिया का झंडा औ गयेन सनेही के घाटे,
कित्तेव हुन पहिले से डटे रहांय हम साथी हुन चंदन डाटे।
सिवदास मिसिर, बबुआ पांड़े, लूसन बापू औ पंडितजी,
भगवान दीन, मुखिया भैया, मुंशीजी औ मैकू दरजी।
भै राम-रमव्वल पालागन फिर छिड़ी चुनाये की चरचा,
हमहूं कुरता के खीसा मां ढूंढेन लागेन आपन परचा।
परचा तो भेऊ मिला नहीं पै हाथ निकरगा दुसरी लंग,
पन स्वाचा गंगौ के तीरे अब होन लाग हैं ईं लच्छन।
तहि लग पंडा चिल्लाय उठे सब जेब गांठ ते होसियार,
हम कहा कि सब तो दइ डारा अब केहि पर होई खबरदार।
तीन रुपय्या छह आना के भेऊ तो हमरे माथे गै,
फरसाकट बांदा की थैली औ नई सरौती साथैं गै।
याकैं बोले खद्दरधारी का घरै दाम रहि आये हैं,
या परिगे दुसरी थैली मा जो अबै ढूंढ़ नहिं पाये हैं।
हमका तो अइसा जान परै तुम झूठमूठ झुठलावत हौ,
घरई ते पइसा लइ न चलेव हम सब का वोट बनावत हौ।
सो लाग जरे मा नून अइस, हम देखत यहै बुढ़ाय गएन,
का अबकी नओ अनोखो है हम कित्तेव दांय नहाय गएन।
पै भेऊ यो राज कांगरेस का अब जउन ना होय तउन थोरा,
ईं रामराज के मारे ही बढ़ेन लाग चोरी चोरा।
नंगा बाढ़े, गुंडा बाढ़े अब भलेमंस का ठौर नहीं,
लुच्चा तो मजा उड़ाय रहै पै भूखेन के मुंह कौर नहीं।
जिनके घर तवा ना तात होत जे चलत रहंय ठेले ठेले,
ओई अब अइसा समय देख बन बइठ आज हैं एमेले।
तेहि ते तुम आपन काम करौ औ हमरे मुंहै लागौ ना,
नहिं साफै साफ सुनाइब हम ज्यादा मुंह खुलवाबौ ना।
पंडा बोले जजमान सुनौ बछिया तो याक पुजाय देव,
हम कहा कि सब तो दइ डारा अब बचा कोट उतराय लेव।
बस येही तलां झल्लाहट मा भेऊ हम असनान कीन,
औ टिकटौ के पइसा बचे नहीं तब पैदर गांव पयान कीन॥

            ॥  २ ॥

यहि मा ना मिली लैला मजनूं ना शीरीं और फरहाद मिली,
जो युग से आए हैं पिसते उनहिन की थोड़ी याद मिली।
मिलती ना रात की बात यहां ना सूरज चांद सितारे हैं,
ईं बातैं हैं उन पंचन की जो धरती मां को प्यारे हैं।
मिली न सुरा साकी हमको न पायल की झनकार सुनी,
हम तो हल के पीछे चलते उस हलधर की ललकार सुनी।
है चमक ना बेंदी की यहि मा ना दम दम दमक नगीना की,
है ठनक हथौड़े की ठन ठन औ बदबू बदन पसीना की।
हिन चूरिन केर खनक पहिऔ जब कटनी काट रहीं तिरियां,
औ बिछुअन केर झनक पहिओ जब लौट रहीं संझा बिरियां।
दुधमुंहे पिलौंधे बच्चन का र्ईं मेडऩ बीच सुअवती हैं,
फिर कटनी अउर निरउनी मा ईं मंद सुरन कुछ गवती हैं।
ईं बनदेबिन के बालक हैं वनदेव इन्हैं मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ढल रहे बीजना पवनदेव वनदेव इन्हें मल्हराय रहे,
खुल जाय न इनकै नींद कहूं पंछीगन लोरी गाय रहे।
ईं परे घाम मा सूख रहै औ मुंह मा अउंठा हैं डारे,
इनका तुम छोटा ना जानेव ईं असल पउनियां हैं कारे।
येई धरती का साधे हैं औ टेके आसमान सारा,
इनहिन की लोहू का लागा ईं पापी महलन मा गारा।
पर फिर इनने करवट बदली रहि रहि के ईं जमुहाय रहे,
ओ तख्त नशीनों सावधान हम सोवत शेर जगाय रहे।
हम जगा रहे उन शेरन को जो बल अपने को हैं भूले,
उनका उईं का जाने पहिहैं जो मिथ्यागौरव मा हैं फूले।
मनई मनई का भेद जहां वो भेद भेद हम पार जाब,
मरि जाब अगर ईं रस्ता मा हम सातों पीढ़ी तार जाब।

            ॥ ३॥

या पटिया हमरे बाबा कै,
यहि की माटी के कन-कन मा है बाबा का पुरुषार्थ छिपा,
यहि की धूरी के अणु-अणु मा है बाबा का परमार्थ छिपा।
भारत मां के कोने-कोने मा उईं चारों धाम घूमि आए,
येही की होनी के बूते किरखी नाम खूब पाए।
फिर ऊंचे कुल के कनवजिया अपने घर मा बुलवाय लिहिन,
अपनी बिटियन के बियाहे मा मनमाना दाइज दइ डारेन।
ईं मय्या की ही किरपा ते करजा के कागद फारेगे,
हर सालै बाबा के घर मा बंभनन के पांव पखारेगे।
येही की दाया माया ते घर दूध पूत ते भरा रहै,
बरसन खात पुरान रहे औ नवा नाज कुल धरा रहै।
है सुघर सलोनी तन्वंगी म्याड़ै हैं मानों तीर बनी,
फिर कास कुसी को कौन कहै जारी का डटुला एक नहीं।
जब भीर परी बाबा ऊपर हारे पापी सब दावा कै,
या पटिया हमरे बाबा कै, या पटिया हमरे बाबा कै।
जब ओढ़ चुनरिया सरसों की फागुन मा देवी झूम उठै,
तब हमरे बाबा के मन मा खुशियन कै सुंदर धूम मचै।
सावन मा रानी सी दरसै भादौं मा महरानी समान,
औ क्वार महीना संन्यासिन जब कट कै आवैंं घरै धान।
बाबा हमरे की चिर संगिनि सुख-दुख मा आवै सदा काम,
हे अन्नपूर्णा चरनन मा सेवक करता शत-शत प्रणाम।
है लज्जा की तो बात बहुत सेवा मा दास नहिं रहि पावै,
इन टूटे-फूटे शबदन मा निज भाव व्यक्त नहिं कर पावै।
बाबा की परम धरोहर तुम कुलदेवी हमरी हौ मय्या,
हम भले बुरे जो कुछ भी हैं आखिर तो हैं तुम्हरे छैया।
या समुझि सदा हम पंचन कै अपराध छमा करियो देवी,
हम उनहिन के लरिका नाती जो रहे तुम्हारे पदसेवी।
कीरत तो गावा बहुत चही पै भाव व्यक्त नहिं पावा कै,
या पटिया हमरे बाबा कै, या पटिया हमरै बाबा कै।

            ॥ ४॥

जन ने बनाया बंधु तुमको जनार्दन है,
सोच यह उसको बनाना कभी दास ना।
शिव के समान  उर लाना भाव समता का,
ममता सभी में किंतु लाना नहीं वासना।
यद्यपि यती बने होगा न गुजारा राम,
जनता हित जुल्मी को मिटाना और फांसना।
सज्जन, सनेही, दीन, दुखिया, दरिद्र, छोड़
कायर, कुचाली, क्रूर, कपटी को फांसना

        ॥  ५॥

तुम्हें खुशी के गीत मुबारक हमें मसीहे गाने।
तुम सब समझदार हो साथी हम मूरख मस्ताने॥
शुभ्र, श्वेत, परिधान तुम्हारे सिर पर सुंदर टोपी।
और हमारे कटि प्रदेश में लपटी फटी लंगोटी॥
सभा भवन की शोभा तुम हो नित्य बुलावा आते।
कार, यान, तूफानमेल से नित्य कहीं तुम जाते॥
अलका सदा सशंकित रहती देख आपकी सत्ता।
वेतन से भी बढ़ जाता है मित्र आपका भत्ता॥
रितु अनुकूल कूल के ऊपर भवन बना है सुंदर।
देख जिसे ईष्र्या से जलते होते अगर पुरंदर॥
और हमारी पर्णकुटी भी है सौ छिद्रों वाली।
वर्षा रितु में रात-रात भर रोती है घरवाली॥
क्या वर्षा, क्या ग्रीष्म, शीत क्या हमें सभी में गम है।
अर्थ अभावों के चक्कर में मेरी नाकों दम है॥
तीन दिनों से चक्की चुप है चूल्हा नहीं जला है।
देशप्रेम के बदले हमको यह बरदान मिला है॥
मेरी तेरी क्या बराबरी कहां भोज कहां तेली।
जनता ने जयमाल गले में मित्र आपके मेली॥

            ॥  ६ ॥

शारदा सब के सदन भरो, हंसि चढि़ हिय में उतरि परो।
हमारे मन मानस को चीर गीत बन निकलें युग की पीर।
धीर उनको जो हुए अधीर, वीर को बने प्रेम शमशीर।
तोड़कर रुढि़वाद के फंद, मनु सुत हों सारे स्वछंद
चंद के गूंजें फिर से छंद, न पैदा हो अब से जयचंद।
दनुजता को मां वेगि हरो, शारदा सब के सदन भरो
श्रमिक को मिले समय से काम, सभी को हो आराम हराम।
बेवशी विवश पड़ी हो धाम, सुबह से भी सुंदर हो शाम।
देश के दुख दारिद्र हरो, शारदा सब के सदन भरो।
धरा में उतरे स्वर्ग महान, लगाकर कर्मठता सोपान।
न हो पापों का किंचित ज्ञान, हमारे कर्म बनें भगवान।
मातु बस इतनी कृपा करो, शारदा सबके सदन भरो।

            ॥  ६॥

मेरी उनसे अदावत है।
मनुज होकर मनुज का खून जो दिन रात पीते हैं,
से सदा दुखियों अनाथों के लिए जिनके भंडार रीते हैं,
कहें क्या उनको हम ज्यादा पशू से गए बीते हैं।

मेरी उनसे बगावत है।
बदी का काम नित करते मगर चंदन लगाते हैं,
सताते प्रभु के बंदों को मगर वंदन लगाते हैं।
सभी में नूर है उसका, यह हम सब को सिखाते हैं,
हरी का नाम तो लेते मगर हरिजन को सताते हैं।

मुझे बस उनसे नफरत है।
महकते फूल को जो पैर से नीचे कुचलते हैं,
किसी के द्वार पर जिनकेबुरे अरमां मचलते हैं।
खुशी से नन्हें मुन्नों को पिन्हाकर ब्याह की बेड़ी,
बड़े अंदाज से महफिल में जो घंटों उछलते हैं॥

मुझे उनसे शिकायत है।
भंवर में लाके किश्ती से पहिले कूद जाते हैं,
सहारा लेके जो बैठे वे सारे डूब जाते हैं।
किया वादा जो साहिल से वो तो भूल जाते हैं,
वतन पर आती जब अफत सनम हो दूर जाते हैं।

मेरी उनसे मुहब्बत है।
खिज़ां आती चमन में देखकर जो डर नहीं जाते,
बहारे बाग लाने में किसी के घर नहीं जाते।
सहारा पाके जिनकी बांह का वो बांह सोते हैं,
जो हरदम बेकसों के दर्द में हमदर्द होते हैं।

            ॥  ७॥

दशम जनवरी सोम दिन सन छांछठ की रात।
बना अमंगल देश हित मंगल का परभात॥
भारत मां की गोद का वेशकीमती लाल।
इक बत्तिस पर उड़ गया लाल बहादुर लाल।
ताशकंद की तुला में निज जीवन धन तोल।
विश्व हार में छा गया कोहनूर अनमोल॥
चकित जौहरी जगत के देख लाल की आब।
कीमत आंकी न गई रहे अंगुरिया दाब॥
हुआ नहीं है भी नहीं देखा सकल जहान।
विश्व वाटिका में खिला शास्त्री सुमन महान॥
यमुने तेरे तीर पर खोया मेरा वीर।
निश्छल तुलसी पत्र सम सागर सम गंभीर॥
            ॥  ८॥   

नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं।
नयी रोशनी है नए के उरों में, उमंगें नयी हैं नए अंकुरों में।
नयी प्रेरणा औ नए भाव लेकर, नयी रागिनी है सृजन के स्वरों में।
नयी जिंदगी में नए काम करने, खंडहरों में होकर मकां जा रहे हैं॥
नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥
              
        नयी पौध को अब मिलेगा सहारा, अधर्मी का होगा न अब से गुजारा।
        समय अभी है चेत जा रे मुसाफिर, समझदार को है काफी इशारा।
        नयी गांठ में है नए दाम इनके, नयी चीज लेने दुकां जा रहे हैं।
        नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

नयी बात इनके अधर से निकलती, नयी चाल इनके पगों पर मचलती।
नयी क्रांति करने नए ढंग से फिर, नयी ज्वाल इनके हृदय से निकलती।
अभी भूल में जो पड़े हैं अचेतन, वही पास का धन गंवा जा रहे हैं।
नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

        नए खून की है रगों में रवानी, नहीं देखते हैं नए आग पानी।
        नए के नयन भी नया स्वप्न लाने, नए लोक जाने की दिल में है ठानी॥
        किसी दिन धरा में धरा होगा चंदा, इसी की यह करने रवां जा रहे हैं।
        नए देश की नयी डगर से नयी जाति के नौजवां जा रहे हैं॥

            ॥ ९ ॥   

चेहरा हत्यारों सा लगता गालों में गलमुच्चा,
बेटा यह जनरल अय्यूब है पाकिस्तानी लुच्चा।
इसने अपनी मां बहनों की इज्जत को है लूटा,
काश्मीर की मसजिद पर इस पापी का बम फूटा।
गिरिजाघर, गुरुद्वारे कहते इसकी क्रूर कहानी,
अस्पताल की गिरी दिवारें बतलाती शैतानी।
पाक रसूल इल अल्लाह हुक्म को काफिर ने न माना,
बेकस और अजीमों पर किए जुल्म मनमाना।
हरी भरी खेती को रौंदा खुद होकर भिखमंगा,
उमंग जेती की करे जो खुद भूखा नंगा॥
जिस धरती पर जन्म लिया जिस पर खेला खाया,
उसकी ही छाती पर छुपकर इसने छुरा चलाया।
जिसका पानी पीकर जिन्दा उसका लहू बहाने,
मजहब की ले आड़ हिन्द में शैतानी फैलाने।
पंजाबी शेरों के आगे दे-दे ताल बजावे,
बर्रे की छत्त पर मूरख ईंट पर ईंट चलावे।
जिस पुरु के पौरुष के आगे झुका महान सिकंदर,
उसको आंख दिखाने आया यह मजहबी कलंदर।

            ॥ १० ॥
तिलक का तेज औ गोखले का गौरव पाय,
गांधी की गरिमा से पूजी गई रानी है।
मालवीय मानस में बिराजी बनी बानी तुल्य,
नेहरू के नाहर की जीवत निशानी है॥
त्याग और अहिंसा की साक्षात मूर्ति बनी,
सेवा में विश्व बीच दूसरा न सानी है।
ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

        मोती सा मानिक यहां लूटा हाय मुफ्त गया,
        शेरे पंजाब तेरी कदऱ नहीं जानी है।
        भारत का भाल भालों से बेधा गया
        गालों पर रेंगाई भई उठती जवानी है।
        बाल, पाल, लाल कुल काल के अधीन पुर,
        बोस-घोष ने खाक घर-घर की छानी है।
        ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
        जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

सावरकर सरीखे मातु पैदा किए,
सिंधु का अथाह नीर जानता कहानी है।
होके नाशाद सब बिस्मिल आजाद गए,
किंतु आया नहीं आंख एक बूंद पानी है।
होते प्रकाश क्यों अंधेरा रहा भारत में,
रामचंद्र दानी और बिनोबा से ज्ञानी हैं।
ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है।

        पाकर देशरत्न किए देश ने अनेकों यत्न,
        काटी गयी बेड़ी पड़ी बरसों पुरानी है।
        धर नर देह यहीं आते हैं नरेंद्र देव,
        कीरत पताका विश्व बीच फहरानी है।
        धन्य धन्य भूमि है भारत की स्वर्णमयी,
        शायर सपूत सिंह शावक बियानी है,
        ऐसी है कहानी इस स्वतंत्रता भवानी की,
        जिसे पा सत्ता अब करती मनमानी है॥