पानी का पानी तो रख लेते!
शंभूनाथ शुक्ल
यह 1972 की बात है।
हमारे चाचा इटावा जिले के गांव मेंहदी पुर में ग्रामसेवक के पद पर नियुक्त थे। उसी
साल गर्मियों की छुटिटयों में जब मैं गांव गया हुआ था मेरी दादी ने कुछ काम से
मुझे उनके पास भेजा। लंबा सफर था और बस पकडऩे के लिए ही चार कोस यानी आठ मील
अर्थात करीब 13 किमी दूर मूसानगर जाना था जो यमुना किनारे
मुगल रोड पर बसा एक कस्बा है। उमर भी तब कोई खास नहीं थी इसलिए दादी को डर भी था
कि लड़का उतनी दूर पहुंच जाएगा। खैर मैं सुबह चार बजे घर से निकला। साढ़े छह बजे
मूसानगर पहुंच गया और सात बजे वाली बस मिल गई जो इटावा जा रही थी। भोगनीपुर,
सिकंदरा, औरय्या, अजीतमल
होती हुई बस
जब महेवा पहुंची तब तक डेढ़ बजे चुके थे। भूख और प्यास दोनों तेज लगी थी और जेब
में पैसे किराया निकाल देने के बाद बस दो या तीन रुपये बचे थे। तब होटल तो होते
नहीं थे और पानी की बोतलें नहीं मिला करती थीं। कुएं पर पानी भरती कोई घटवारिन
पानी पिला दे तो ठीक पर ऐन जेठ की दुपहरिया को कौन पानी भरने आता। सो अजीब-से
पशोपेश में मैं रहा। किसी के घर का दरवाजा खटखटाने में झिझक हो रही थी। एक जगह एक
नीम के पेड़ के नीचे एक बूढ़ा आदमी बैठा था। सफेद दाढ़ी-मूंछ बेतरतीब रूप से बिखरे,
लंगोट नुमा एक कपड़ा शरीर पर और एकदम काला। मैने उसके पास जाकर कहा-
बाबा प्यास लगी है। पानी मिलिहै? वह जो मेरे करीब आते ही उठ खड़ हुआ था
बोला- साहब हम तो चमार हैं आप यादव जी के घर चले जाओ। उसने रास्ता भी बता दिया।
मैने कहा बाबा प्यास बड़ी
जोर से लगी है मुझे पिलाय देव। वह बोला- साहब कोहू ने देख लओ तौ
तुम्हाओ तो कछू न हुइहै पै हमाई चमड़ी उधेर दीन जइए। उसकी जिद के चलते मुझे प्यासा
ही आगे बढऩा पड़ा।
किसी तरह थूक चाटते हुए मैं आधा मील बढ़ा
होऊँगा तो पाया कि खेतों की सीमा खत्म होने लगी और अब बीहड़ व ऊबड़-खाबड़ रास्ता
मिलने लगा। माथे पर हथेली टिकाकर मैने दूर तक देखने की कोशिश की तो गांव तो
क्षितिज तक बस बीहड़। या ऊँचे-ऊँचे कगार। यह जमना के किनारे का इलाका था जो मीलों
तक फैला था। मैं यूं ही टहलते हुए जमना तक जा सकता था पर जमना कितनी दूर है पता
नहीं और अगर भटक गया तो कहां जाकर लगूंगा कुछ पता नहीं। न खाने को कुछ न पीने को ऊपर
से डकैतों का डर अलग। पर अब जाता तो कहां और मेंहदीपुर गांव का पता पूछता तो
किससे। अजीब मुसीबत थी। हिम्मत जवाब देने लगी और लगा कि यहां अगर भूख प्यास से
तड़प कर मर भी गया तो महीनों तक पता तक नहीं चलेगा कि कोई मर भी गया। सांसें जवाब
देने लगी थीं। कब तक जीभ को थूक से लथेड़ता। गर्म लू भी चल रही थी। और छाया के नाम
पर न तो आम या इमली, नीम या पीपल के पेड़ न कोई और पौधा जो करील थे
भी वे बस टांगों तक आते। अगर कगार के नीचे जाऊँ तो क्या पता कि कहां कौन सा जानवर
बैठा होगा। और करील की पत्तियां चबाई नहीं जा सकती थीं। एक बड़ा-सा बबूल का पेड़
दिखा। मैं उसी के नीचे बैठ गया। आसपास कांटे बिखरे पड़े थे उन्हें किसी तरह हटाया
और आराम से पसर गया। आध घंटे बाद फिर आगे बढऩे की सोची। अचानक एक कगार से उतरते ही
मुझे कुछ लोगों के बतियाने की आवाज सुनाई दी। आवाज सुनते ही मुझे लगा कि जैसे मेरे
प्राण लौट आए हैं। भागते हुए वहां पहुंचा जहां आवाजें आ रही थीं। वह एक पौशाला थी।
एक झोपड़ी बनी थी और दो बड़े-से मटके जमीन में गड़ेथे जिनमें पानी भरा था। वहां एक
और आदमी था और वे दोनों बतिया रहे थे। मैने जाते ही कहा- बाबा पानी
पिलाओ। बूढ़े ने एक लोटा भरकर मुझे दिया और मैंने पीने के वास्ते चिल्लू बनाया। वह
बोला- रुको लल्ला गुर तो खाय लेव। यानी पानी के पहले उसने मुझे एक भेली गुड़ दिया
और उसके बाद मैने पूरा लोटा पानी पिया। लगा जैसे जान मिली। तब दोनों की ओर मैने
देखा। पानी पिलाने वाला एक बुजुर्ग था और वह एक अधेड़ आदमी से बतिया रहा था। मैने
उससे पूछा कि बाबा मेंहदीपुरा कहां है। उसने कहा कि बस आध कोस है और वो देखो
मेंहदीपुरा के खेत दिखाई देत हैं। फिर उसने पूछा कि किसके यहां जाना है? मैने
चाचा का नाम लिया तो बोला कि ग्रामसेवक बाबू सुबह तो आए थे। चले जाओ। मैं आधा घंटे
बाद मेंहदीपुरा पहुंच गया। चाचा-चाची और भाई-बहनों से मिला। चाचा को प्याऊ के बारे
में बताया तो उन्होंने सूचना दी कि यह पौशाला एक नामी डकैत ने खुलवाई हुई थी और
गुड़ का इंतजाम वही करता था और उस पौशाले वाले बुजुर्ग को 50 रुपये
महीना भी देता था। यह सही है कि यह पौशाला डकैतों के भी काम की थी मगर मेरे जैसे
भटके राहगीरों के लिए तो यह ईश्वरीय वरदान थी। अगर वह पौशाला न मिलती और ठंडा पानी
न मिलता तो शायद यह लिखने के लिए मैं जिंदा नहीं रह पाता।
पहले दिल्ली शहर में भी सेठ लोग पौशाला खुलवाते
थे। पेठा भी मिला करता था लेकिन अब बोतल खरीदो। पहले हर जिले में डीएम भी पौशाले
खुलवाया करता था साथ सत्तू-पानी भी पर अब रेलवे ने एक रुपया गिलास पानी देना शुरू
कर दिया है।