गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

tiger conservation


घुमक्कड़ी और टूरिज्म
शंभूनाथ शुक्ल
घुमक्कड़ी और टूरिज्म में फर्क है। घुमक्कड़ी एक लगन है, एक जुनून और इसके लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। लेकिन टूरिजम एक व्यवसाय है। एक घुमक्कड़ दुनिया घूमता है कुछ नया जानने के लिए और कुछ नया समझने के लिए। वह शांति पूर्वक, धैर्य के साथ कहीं भी किसी भी जगह रह लेगा और बसर कर लेगा। लेकिन एक पर्यटक बिना शोर शराबे के नहीं रह सकता। वह जहां जाएगा सबको बता देगा कि वह कुछ खास है। इस इलाके को उपकृत करने के मकसद से आया है। इसीलिए आप पाएंगे कि पर्यटन ने सारे संसार का नक्शा बिगाड़ दिया है। उसे भांति-भांति की शराब चाहिए, औरतें चाहिए और हर तरह के व्यंजन। बैंकाक हो, मकाऊ हो, मनीला हो या दुबई आज इसीलिए बदनाम हैं। लेकिन वहां की सरकारें इसे अच्छा समझती हैं।
यही हाल अपने देश में होता जा रहा है। पर राज्य सरकारें पैसों के लालच में पर्यटकों को लुभाने के लिए वह सब करती हैं जिनसे वहां की जलवायु प्रभावित होती है और संस्कृति का ढंाचा बिगड़ता है। आज अगर जगह-जगह परदेसियों को बाहर करने की मांग उठ रही है उसकेपीछे यही मानसिकता है। पर्यटक दक्षिण भारत में जाकर मटर पनीर अथवा दाल मखानी या तंदूरी चिकन की मांग करेगा और उत्तर में आकर डोसा, वड़ा एवं इडली मांगेगा। उसे  समझ में नहींं आता कि  अपनी इस तरह की हरकत से वो बायो डायवर्सिटी को चौपट कर रहा है।
हमारे देश में बाघों को बचाने के लिए टाइगर प्रोजेक्ट की स्थापना उस समय की प्रधानमंत्री   इंदिरा गांधी ने १९७१ में कपूरथला के महाराजा ब्रजेंद्र सिंह की अगुआई में की थी। उसे राज्य सरकारों ने पैसों के लालच में चौपट कर डाला है। जिम कार्बेट जैसे अभयारण्य इन्हीं पर्यटकों की बेशुमार आवाजाही से खत्म होता जा रहा है। यदि जिम कार्बेट को बचाना है तो केंद्र सरकार इसे अपने हाथों में ले लेे और इसे अफसरों की बीवियों और धनाढ्य पर्यटकों केलिए सैरगाह न बनाए। यहां वही आ सकें जिनकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी हो वर्ना उन्हें गेट से ही बाहर कर दिया जाए। इसके लिए जिम कार्बेट के हर प्रवेश द्वार पर सुशिक्षित और प्रशिक्षित लोग रहें जो पर्यटकों को अंदर प्रवेश की अनुमति तभी दें जब वे खुद उनके संयम से संतुष्ट हो जाएं। दुख है कि उत्तराखंड की सरकार जिम कार्बेट का व्यवसायीकरण करे डाल रही है। इस पर अंकुश बहुत जरूरी है।
अभी पिछली २५ दिसंबर को मेरा सपरिवार जिम कार्बेट जाने का कार्यक्रम बना। जिम कार्बेट के बारे में पहले मैने अपने परिवार को पूरी जानकारी दी। हिमालय की तराई में शिवालिक पहाडिय़ों के आसपास का सारा जंगल रामगंगा के दोनों तरफ लंबी-लंबी घास के जंगलों से घिरा है। इन्हीं घास के जंगलों में बाघ रहता है। सूर्य की रोशनी उसके शरीर में लंबी घास के बीच में से आती है। इसीलिए बाघ के शरीर में चारों तरफ लाइनें होती हैं। जबकि तेंदुआ सागौन के पेड़ों के ऊपर रहता है इसीलिए पत्तों के बीच से छनकर आई रोशनी उसे मिलती है। उसके बदन पर चित्तियां होती हैं। जंगल के कुछ कायदे-कानून होते हैं उन्हें हमें फालो करना चाहिए। किसी भी अभयारण्य में हथियार लेकर अथवा कोई मादक पदार्थ लेकर नहीं जा सकते। अभयारण्य का मतलब ही है कि हम वाइल्ड लाइफ के बीच जा रहे हैं। यह उनका घर है इसलिए हमें उनकी सुविधा असुविधा का ख्याल रखना चाहिए। हम वहां जंगल में गेस्ट हाउस के बाहर कुछ खाएं पिएंगे नहीं। कोई पोलीथीन नहीं इस्तेमाल करेेंगे और कोई चीज फेकेंगे नहीं न ही हम वहां शोर शराबा अथवा मोबाइल इस्तेमाल करेंगे।
हम तो खैर उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के अमानगढ़ के फारेस्ट रेस्ट हाउस में रुके। अमानगढ़ को अब एटीआर यानी अमानगढ़ टाइगर रिजर्व का दरजा मिल गया है। हम तड़के वहां से जंगल की ट्रैकिंग को निकले। मेरे परिवार ने सारे कानून कायदों का पालन किया। लेकिन मैने पाया कि बगल के जिम कार्बेट अभयारण्य में गाडिय़ों की आवाजाही, पर्यटकों का धूम धड़ाका इतना अधिक था कि वहां कोई भी जानवर रह ही नहंी सकता। पर उत्तराखंड की सरकार ने आज तक किसी पर्यटक को नहीं रोका।                              
यहीं हाल लगभग हर रिजर्ब फारेस्ट या अभयारण्य का है। उन्हें बस धनीमानी लोगों के उपभोग का अड्डा बना दिया गया है। यहां तक कि शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान में तो अब एक भी जंगली जानवर नहीं बचा है। वहां की झील के मगरों का शिकार होता है। राजाजी नेशनल पार्क को हाथी तस्करों और सागौन माफियाओं ने खत्म कर दिया है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

लालडोरे से घिरी जातीय पंचायतें

शंभूनाथ शुक्ल
मेरी पत्नी और मैं दोनों भारद्वाज गोत्र के हैं। हमारी शादी को ३६ साल बीत चुके हैं पर अब तक सामान्य बातों को छोड़ दिया जाए तो न तो कभी परस्पर कोई झगड़ा हुआ न ही समगोत्री होने के कारण हमारे बच्चों को किसी तरह की जेनेटिक बीमारियों से जूझना पड़ा। शादी हमारे परिवारों की मर्जी से हुई थी तब किसी ने न तो कुंडली मिलवाई थी न ही हमारा परिवार किसी तरह के ज्योतिषीय विकारों के चक्कर में पड़ा था। उस वक्त तक साधारण मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की जन्म कुंडली बनवाने का भी चलन नहीं हुआ करता था सो मेरी पत्नी की भी कोई जन्म कुंडली नहीं बनी थी। शादी से पहले पत्नी से मेरी कोई जान पहचान भी नहीं थी। समानता सिर्फ इतनी थी कि हमारा कालेज एक ही था। वे कानपुर के वीएसएसडी कालेज में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थीं और मैं वहां की छात्र राजनीत से जुड़ा था। शादी के लिए मेरे दादा का जोर था क्योंकि  उनके मुताबिक मैं कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करके पथभ्रष्ट होता जा रहा था।
ऐसा नहीं कि उस समय गोत्र, जाति और ग्रह नक्षत्र मिलाने का चलन नहीं था लेकिन उस पर इतना जोर नहीं हुआ करता था कि अच्छी खासी हो रही शादी ही तोड़ दी जाए। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कितनी ही शादियां महज इसलिए नहीं हो पा रही हैं क्योंकि लड़का लड़की दोनों ही समगोत्री हैं। परंपरागत विश्वास साइंस नहीं है। संभव है भारत के खेतिहर समाज में लड़की को गांव के बाहर भेजने की सोच ने इस परंपरा को जन्म दिया हो। एक लंबे समय तक  भारत गांवों पर आश्रित रहा है। अब अगर लड़का लड़की एक ही गांव में शादी कर लेंगे तो सामाजिक दायरा सिमटता चला जाएगा इसलिए गोत्र यानी गांव के बाहर शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ होगा। वैदिक कालीन समाज में एक ही आश्रम में रहने वाले लोग एक ही गोत्र के कहलाते थे। यानी एक तरह से पूरा गांव एक आश्रम ही होता था। इसीलिए गोत्र से बाहर शादी करने की परंपरा शुरू हुई। लेकिन जैसे जैसे समाज का स्वरूप बदलता गया यह आग्रह टूटता गया। आज एक एक गोत्र के लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि समगोत्री लोगों में किसी भी तरह की पुरानी पारिवारिकता को ढूंढऩा बेमानी है।
गांवों में दो तरह की पंचायतें होती हैं। एक गांव पंचायत जो विधि सम्मत है और जिसके पदाधिकारी चुने जाते हैं। दूसरी जातीय पंचायतें जो अभी तक पुराने सामाजिक चौधरियों के बूते चल रही हैं। जातीय पंचायतें देश के किसी भी विधि विधान के दायरे में नहीं हैं, वे सामाजिक विश्वासों के बूते चल रही हैं। उनके फैसले पुराने कबीलाई समाज के फैसलों की तरह होते हैं। मानवीय गरिमा से ज्यादा महत्व उनके लिए कबीले के परंपरागत विश्वास और अलिखित कानून हैं। मसलन किसी का सामाजिक बहिष्कार या किसी का सिर मुंड़वा देना अथवा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को पीडि़ता से शादी कर लेने का हुक्म देकर बरी कर देना जैसे फैसले ये पंचायतें देती रहती हैं। इसमें सजा की नरमाई अथवा कड़ाई व्यक्ति के अपराध से नहींं उसकी हैसियत से तय होती है। आज के समय में इन पंचायतों का कोई मतलब रह भी नहीं गया है।
जातीय पंचायतें एक जाति अथवा समुदाय की लड़ाई लड़ती हैं जबकि हमारा संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्घ है। कोई किससे शादी करे अथवा कौन सा व्यवसाय चुने या किस दल को वोट दे, ईश्वर पर विश्वास करे या न करे, ईश्वरवादी हो तो किस धर्म में जाए यह उस व्यक्ति के अपने विवेक और सुविधा से तय होगा न कि समाज केे बंधन से। कोई पंचायत या जातियों के मुखिया उसे इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते कि जो हमारा आदेश है वही मानो। मजे की बात तो एक तरफ तो हमारा समाज इतना उदार है कि वह खुद आगे बढ़कर घोषणा करता है कि पुरानी लीक को तोडऩा ही बेहतर है क्योंकि नया काम वही करते हैं जो लीक को तोड़ते हैं दूसरी तरफ ये जातीय पंचायतें पुराने ढर्रे पर चलती हुई लीक को पीटती रहती हैं।
इन पंचायतों का पुराने समय में क्या स्वरूप था इसे लेकर प्रेमचंद और रेणु ने दो अलग-अलग कहानियां लिखी हैं। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर में गांव की एक ऐसी पंचायत का जिक्र है जिसमें बैठते ही जुम्मन शेख अलगू चौधरी के साथ अपनी वर्षों की दुश्मनी को भूल जाते हैं और अपने दुश्मन चौधरी के हक में फैसला देते हैं। वहीं फणीश्वर नाथ रेणु की पंच लाइट में कुर्मियों की एक पंचायत किसी तरह पैसा उगाह कर एक पेट्रोमैक्स खरीदती है। पेट्रोमैक्स कुर्मी पंचायत की जरूरत से ज्यादा उसके जातीय गुरूर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस पेट्रोमैक्स को लाने के बाद इसको जलाने के पहले उसकी पूजा की जाती है और छड़ीदार को सख्त हिदायत है कि पेट्रोमैक्स को बहुत आहिस्ता से लया ले जाया जाए। एक तरह से यह जातीय अस्मिता के झूठे और थोथे अभिमान की कहानी है। एक पेट्रोमैक्स को प्रतीक बनाकर रेणु ने लिखा है कि कैसे जातीय पंचायतें अपनी तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए फिजूल की ड्रामेबाजी करती हैं। आज जब प्रेम के ऊपर जाति के पहरेदार बिठा दिए गए हैं तो रेणु की कहानी एकदम से समीचीन हो उठती है।
लोकतंत्र में गांव की पंचायतों की जरूरत तो हो सकती है लेकिन जातीय पंचायतें अब गैर जरूरी हो गई हैं। अंग्रेजों ने शहरों के विस्तार के लिए तमाम गांवों का औपनिवेशीकरण कर डाला था। उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से शहरों को फैलाया और गांवों को उनकी खोल में ही रहने दिया। लाल डोरा की अवधारणा अंग्रेजों ने इसी हिसाब से बनाई थी। दिल्ली को राजधानी चुनते वक्त अंग्रेजों के समक्ष सबसे बड़ी परेशानी दिल्ली के विस्तार की थी। दिल्ली के गंावों को चिन्हित कर अंग्रजों ने सबसे पहले नक्शे में गांवों को एक लाल रंग से घेर दिया और उनकी सारी खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण कर लिया। अंग्रजों के पूरे मास्टर प्लान से दिल्ली के गांव गायब रहे। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली शहर तो फैला लेकिन इसके गांव जस के तस बने रहे। दिल्ली में लाल डोरा आज भी हैं। आजादी के बाद आई सरकारों ने भी विकास के लिए वही अंग्रेजों वाला औपनिवेशिक ढांचा अपना लिया। इसी का नतीजा है कि शहर तो फैल रहे हैं लेकिन न गांव बदल  रहे हैं न वहां के लोगों के सोचने का नजरिया। ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि जाति का दंभ पाले ये पंचायतें नए विचारों के अनुरूप अपने को ढाल पाएंगी।

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम

काश! मैं कर पाता / तुमसे ऐसा प्रेम
जिसमें न होती ईष्र्या, न जलन, न द्वेष।
काश! मुझमें होता इतना साहस / कि
मैं तत्पर रहता/ तुम पर बलिदान हो जाने के लिए
काश! मैं प्यार करता / तुम्हारे अवगुणों को भी
मान कर चलता / तुम हो साक्षात सत्य की प्रतिमा /
विश्वास की प्रतीक।
तुम्हारे घात भी मुझे प्रिय होते /
तुम्हारी वफा की तरह।
काश! मैं तोड़कर अपना दंभ / पुरुष का अहम / परंपरा का अंधविश्वास
घुल मिल जाता तुमसे जैसे नीर और क्षीर।
तब और यकीनन तब ही / मैं हो पाता /
तुम्हारे प्रेम का अधिकारी / प्रेम प्रपासु।
कहना आसान है कि मैं हूं तुम्हारा प्रेमी
पर सब करते हैं ढोंग।
क्योंकि पुरुष नहीं कर सकता / कभी भी / स्त्री से प्रेम।
वह तो प्रेम करता है अपने दंभ से / अहम से /
और खुद की बनाई लीक से।
प्रेम की राह नहीं है आसान
तलवार की धार पर चलना है प्रेम / या आग के दरिया में
मोम के घोड़े पर बैठकर जाने जैसा है प्रेम।
प्रेम नहीं चाहता है कुछ पाना
वह तो है सब कुछ लुटाकर खत्म हो जाने का दूसरा नाम।
प्रेम करने के लिए मिटाना होगा / अपने दंभ को / अहम को
और पुरुष पुरातन विश्वास को
तब ही कर पाएगा कोई पुरुष प्रेम / जब खुद ही जी लेगा पुरुष
स्त्री का दिल, दिमाग और देह।
प्रेम नहीं है शब्दानुशासन /
नहीं बांध सकते उसे किसी मीटर में
प्रेम तो है एक ऐसी अकविता
जो भले न हो छंदबद्घ, लयबद्घ
पर इसमें रिदम है।
प्रेम है सतत प्रवाह / नदी की तरह
प्रेम की चाह यानी
फूट पडऩा उसके किनारों की तरह।
ध्वस्त कर देना सबकुछ।
अपना अहम, दंभ और विश्वास की परंपरा।
स्त्री में विलीन होकर, स्त्री बनकर ही
जिया जा सकता है स्त्री को
प्रेम करना / प्रेम पाना संभव है तभी
जब जीता है पुरुष
स्त्री की आत्मा और देह के साथ।
    कानपुर १/०८/०४
 

पिता की स्मृतियां

पिता तुम्हारी बहुत याद आती है।
मैं दूसरों का मजाक भले उड़ाता था/ पर हकीकत यह है कि मैं ही हूं पिताजी का बच्चा।
मुझे हर दो-तीन महीने में लगता है/ घर हो आऊं।
पर कौन से घर में पिताजी?
साकेत नगर कानपुर डब्लू वन ब्लाक के १५० नंबर वाले घर में।
वहां जहां अब नहीं सुनाई पड़ती तुम्हारी पदचाप।
वह मकान अब भांय-भांय करता है।
तुम्हारी गैरहाजिरी में वहां किराएदार ने फैला लिया है/ अपना कारोबार
भले उस तारा निलय के गेट पर काले पत्थर पर अभी भी लिखा हो-
राम किशोर शुक्ल, शंभूनाथ शुक्ल।
पर लगता नहीं कि वह वही घर है जहां रहते थे तुम।
दोपहर को जब लाइट चली जाती/ तुम सामने वाले पार्क के कोने पर
बरगद के पेड़ के नीचे डाल लेते कुर्सी/ बैठकर पढ़ते विनय पत्रिका या कोई बासी अखबार /
और हर आने जाने वाले को टोकते।
पेड़ तो अब भी खड़ा है लेकिन सूना है उसका कोना।
लगता है वहां जाकर क्या करूंॅ?
पर मेरी दिक्कत है कि/
मैं नहीं रह सकता कहीं पर बंधकर और किसी से भी।
तुम्हीं ने तो सिखाया था पिता कि नए रास्तों की तलाश करते रहना चाहिए
मुझे याद है तुम्हारी वह कविता-
नए देश की नई सड़क पर नई जाति के नौजवां जा रहे हैं/
और तुमने ही तो समझाया था
मैं नए-नए का मीत गए का दुश्मन, मैं सपनों के विपरीत भोर का गुंजन।
मैं उगते हुए सूर्य की अरुण किरण हूं, मैं बढ़ते हुए अनुज की सजग चरण हूं।
मैं धारा के अनुकूल न बह पाऊंगा तुम तट पर मेरा इंतजार न करना।
लेकिन पिता मेरी नियति भी तो देखिए/ मैं कोई नई दिशा तक नहीं तय कर पाया
अच्छा और बुरा बनने के फ्रस्ट्रेशन में जरूर घिरा रहा।
बस उसी तरह जीता रहा घुटकर/ जैसे कि जिए थे तुम।
मैं आपके परम प्रिय कामरेड सुदर्शन चक्र के पुत्र गोर्की जैसा भी नहीं बन पाया
जो देता तुम्हें, तुम्हारा देय।
अपनी जिंदगी का रास्ता बदलकर।
लेकिन मैं नहीं पूरे कर पाया/ तुम्हारे सपनों को।
मैं तुम्हारा अपराधी, तुम्हारा पुत्र
ठीक अश्वस्थामा की तरह/ एक अनिर्वचनीय आग में झुलसता रहा
१९७१ में मैने पहली दफे तुम्हें छोड़ा था/ एक नई राह के लिए।
भटकता रहा और लौट-लौट कर फिर उसी घर में आता रहा।
मैं मुक्त होना चाहता था सिद्घार्थ की तरह
लेकिन पिता मोह के बंधन मुझे फंसाते रहे।
यही तुम्हारी नियति रही और मेरी भी।
मुझे अच्छी तरह मालूम है पिता कि
तुमको अच्छा लगा होगा
जब मैं फंसा ठीक उसी जाल में/ जिसमें तुम फंसे थे।
और जब मैं हो गया गुलाम तो तुम ठहाका लगाते रहे।
तुम मुझे तौलते रहे बहुतों के साथ/ पर हर बार मुझे हल्का पाते।
तब तुम निराश होते और बोलते-
एक लरिकवा तौनौ न्यून।
सही बात तो यह है कि पिताजी जब तुम यह कहते थेे तो मुझे संतोष होता था।
क्योंकि तराजू में यूं मुझे कभी इस बाट के साथ तो कभी उस बाट के साथ तौला जाना
बड़ा ही अखरता था।
पर मैं कभी तुम्हारा विरोध नहीं कर पाया इसीलिए
मैं भागता रहा तुम्हारे पास से/ पर फिर भी पिताजी न मेरे बिना तुम रह सकते थे और
न तुम्हारे बिन मैं।
तुम मुझसे कभी खुश नहीं रहे/ मेरे इकलौते होने के कारण/
मेरी कुंडली में भातृहंता के दोष केकारण।
और शायद मेरे अनीश्वरवादी और परंपरावादी न होने के कारण भी।
एक और वजह थी जिसके कारण तुम मुझसे निराश हुए/
छठी क्लास की मेरी टीचर सुरजीत कौर ने मेरी रिपोर्ट कार्ड में मुझे लापरवाह बताया था। 
पिता तुमने खूब सुनाईं मुझे रामायण और महाभारत की गाथाएं/ सतगुरु नानक के प्राकट्य की बातें/ आर्य समाज के आदर्श/ और मुहम्मद साहेब की सादगी के किस्से/ ईशु मसीह की करुणा/ इसी के साथ मुझे बताया बोलशेविक क्रांति के बारे में भी।
पूरी निष्ठा के साथ कार्ल माक्र्स और लेनिन की जीवनियां पढ़ाईं। राहुल सांकृत्यायन की किताबों का पारायण भी कराया।
लेकिन हर चीज की व्याख्या तुमने बड़े ही आस्थावान तरीके से की।
गांधी के सत्य के प्रयोग/ नेहरू की हिंदुस्तान की खोज/ या लोहिया का इतिहास चक्र।
मैं समझ नहीं पाया पिता कि तुम्हारी आस्था किधर थी?
एक  सीमांत किसान फिर बंधुआ मजूर और इसके बाद शहर में आकर
आपने की स्वदेशी काटन मिल में मजदूरी।
इन सबसे पिता तुम्हारी चेतना का स्तर भी बदलता गया। 
लेकिन सब गड्ड मड्ड होने लगता जब तुम रो-रोकर पढ़ते
विनय पत्रिका या राम चरित मानस।
तुम मुझे नहीं बना पाए आस्थावादी/ क्योंकि तुम्हारी
ये सारी बातें मुझे सिरे से बेतुकी लगतीं।
धर्मग्रंथ मुझे बांध नहीं पाए न ही मुझे डरा पाए। 
मैं भरोसा नहीं कर सका पिता/
तुम्हारा पंडिताऊ अहम मुझे ढकोसला लगता।
एक तरफ तो तुम बहुत उदार थे/ लेकिन कभी लगता पिता तुम ब्राह्मïण पहले थे।
मन्ना चमार और पराग नाना तुम्हारे सबसे चहेते मित्रों में से थे/ तुमने इनके साथ ककहरा सीखा, घूमेे, बतियाए/ लेकिन कभी भी उनको पांत में नहीं बैठाया।
मन्ना थे दयनीय लेकिन पराग नहीं/ वे कुर्मी थे और गांव की शासक जाति से थे।
उन पराग नाना ने ही मुझे बताया तीसा आंदोलन और त्रिवेणी संघ के बारे में/ तथा सुनाए किस्से बाबा रामचंदर के तथा ब्राह्मïणों के लालच के भी।
इसी वजह से पिता मैं नहीं चल पाया उस लीक पर जो तुम्हें सुहाती।
यह भी एक कारण था तुम्हारा मुझसे दुखी रहने का।
पर  शायद कुछ और भी हों।
मसलन तुम अपनी बहू से नाराज रहते थे/ क्योंकि उसने सबसे पहले तोड़ा तुम्हारा अनुशासन
उसने नहीं माना कि बाप और बाघ बराबर होता है।
तुम उसे अफलातून कहते रहे।
तुम मुझे जोरू का गुलाम कहते थे।
पर मेरी दिक्कत यह थी कि मैं हरदम दुविधा में रहा/
ठीक से कभी न उसके पाले में रहा/ और न आपके पाले मे।
इसीलिए मुझे लगता है कि पिता तुम अपनी चेतना से तो रेडिकल थे/
लेकिन चूंकि ब्राह्मïण थे इसलिए ढकोसलावादी भी थे।
इन सबके बावजूद मैं आपको ही अपना आदर्श मानता था/ यहीं से शुरू हुआ झगड़ा।
दोपहर को चुपचाप गेट खोलकर तुम्हारा बाहर निकल जाना/
पड़ोस के घर पर चाय पीना/
या फिर गुप्ता हलवाई के यहां जाकर डेढ़ रुपए का समोसा खाना।
गेट के सामने कुर्सी डालकर बैठना।
लू के ताप को मिटाने के लिए बरगद की छांव पिता तुम्हें बहुत पसंद थी।
तुम्हारे संगी संगाथी तो बहुत पहले निपट लिए थे/
बचे थे तो नौ ब्लाक वाले मौसिया और रामआसरे चाचा की चाची।
भले तुम्हें सौ डग चलना भी हो मुश्किल/ लेकिन इनके घरों में जाने और हालचाल लेने का  क्रम तुमने नहीं छोड़ा 
मौसिया आते लेकिन मेरी नजरों से बचते हुए/ और तुम्हारे कमरे में घुस जाते/
यह सब मुझे बहुत खराब लगता था।
मुझे नहीं पसंद था तुम्हारा घर की महरी से बतियाना।
लेकिन पिता यह सब अब सिर्फ स्मृतियों में है।
मुझे अब भी लगता है कि मैं जब कानपुर पहुंचूंगा/
तो तुम पहले की तरह बैठे मिलोगे सोडियम लाइट के पोल के नीचे कुर्सी डाले/ जो ठीक अपने घर के गेट पर लगी है/ और शिकायत करोगे कि
नगर निगम वाले इसकी देखरेख नहीं करते।
पैर छूते ही पूछोगे कीर्ति नहीं आई?
सबसे पहले तुम्हें कीर्ति से मिलना पसंद होगा/ और उसके पैर छूना भी।
कानपुर से चलते वक्त तुम तब तक गेट के बाहर खड़े रहते जब तक कार
आंखों से ओझल न हो जाती।
पर अब नहीं मिलेगा वहां कोई भी।
मुझे भी सब की तरह मानना पड़ेगा/ कि चौबीस जुलाई २००८ को नहीं रहे पिता मेरे
खत्म हो गया रामकिशोर शुक्ल पंछी और राम का वजूद
पंछी से राम तक आने की तुम्हारी पीड़ा को पिता मैने खूब महसूस किया था
उडऩे की तमन्ना को दिल में समेटे तुम नहीं तोड़ पाए अपने पिता की लीक
बस कुछ कदम आगे बढ़कर फिर लौट गए।
पर तुम्हारी छटपटाहट का मैं साक्षी हूं क्योंकि मैं तुम्हारा पुत्र/
हर पल तुम्हारे साथ रहा।
जन्म से मृत्यु तक मैं आठवें वसु की तरह तुम्हारी आत्मा से जुड़ा रहा।
तुम्हारी चिता को आग देते / कपाल क्रिया करते मैं बस यंत्रवत रहा
अपने ही पिता को आग की लपटों से घिरा देखता रहा।
- शंभूनाथ शुक्ल
११/०५/०९

 

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे

शंभूनाथ शुक्ल
तबियत अब ऊबने लगी थी। सुबह जब हम गंगोत्री से गोमुख के लिए निकले थे तब हलकी बारिश हो रही थी लेकिन यह सोचकर कि बारिश ज्यादा देर तक नहीं होगी हमने ढेर सारे गरम कपड़े पहने निकल लिए गोमुख के बीहड़ रास्ते पर। तीन घंटे हो चुके थे चलते-चलते लेकिन बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। चीड़बासा आकर हम रुक गए। पेड़ों पर टकराती बूंदें हमें अब चिढ़ा रही थीं। जिस बारिश के लिए हम दिल्ली में तरस रहे थे वह अब इस अविरल गति से टप-टप कर रही थी कि हम आजिज आ चुके थे। शाम घिरने से पहले ही हमने हार मान ली और वापस गंगोत्री आ गए। हालांकि बारिश और बर्फवारी में गंगोत्री भी कोई सुरिक्षत स्थल नहीं था क्योंकि यहां भी खाने-पीने की सारी चीजें सौ किमी नीचे उत्तरकाशी से आती हैं और बारिश में क्या ठिकाना कि कब रास्ता ठप हो जाए। इसलिए एहतियातन हम अपने साथ गैस सिलेंडर, चूल्हा और आटा, दाल, चावल व मसाले आदि लेकर गए थे। जितेंद्र सैमवाल गंगोत्री धाम के रावल हैं उन्होंने हमें ठहरने के लिए कानोडिया निवास दे दिया था। 
गंगोत्री उत्तराखंड के चार धामों में से एक है। कहने को तो ऋषिकेश से गंगोत्री तक राजमार्ग बना हुआ है और एनएच-१०८ गंगोत्री पहुंच कर ही खत्म होता है। लेकिन यह बस नाममात्र का राजमार्ग है। कई जगह इतना संकरा कि गाड़ी पास करने के लिए आगे पीछे करनी पड़ती और कहीं कहीं एकदम कच्चा कि अगर गाड़ी फोर व्हील न होना तो कीचड़ में ही फंसकर रह जाए। ऋषिकेश से ही पहाड़ी यात्रा शुरू हो जाती है और २७२ किमी की यात्रा पूरी करने के बाद गंगोत्री पहुंचा जा सकता है। उत्तरकाशी से गंगोत्री का रास्ता इतना खतरनाक है कि जरा सा भी चूके तो गए हजारों फीट गहरी खाई में। खासकर अगर बारिश के मौसम में आपने गंगोत्री जाने की ठानी है तो आपको खाने पीने के सामान से लेकर रसोई गैस और चूल्हा तक लेकर जाने पड़ेगा क्योंकि पता नहीं कब पहाड़ों पर बारिश शुरू हो जाए और गंगोत्री तक के सारे रास्ते कट जाएं। हम छह सितंबर को दिल्ली से चले थे और रात दस बजे उत्तरकाशी पहुंचे थे। उत्तरकाशी में गढ़वाल विकास निगम का होटल भी है और तमाम सारे छोटे मोटे लाज भी। हम वहां कोटबंगला स्थित वन विभाग के एक गेस्टहाउस में रुके। यह डाकबंगला शहर से दूर और काफी ऊंचाई पर है और वहां से पहाड़ों के बीच बहती आ रही भागीरथी की कल कल धारा बड़ी आकर्षक दीखती है। भागीरथी के तीव्र प्रवाह की कल-कल आवाज भी वहां अनवरत गूंजती रहती है। 
उत्तरकाशी तक का रास्ता बड़े मजे से कटा था। रास्ते भर अच्छी धूप मिली और जरा भी अंदेशा नहीं था कि बारिश भी हो सकती है। लेकिन हमारे साथी सुभाष बंसल गंगोत्री के दुर्गम रास्ते से वाकिफ थे इसलिए उन्होंने चंबा से ही टमाटर व गोभी खरीद कर रखवा लिए तथा बाकी की सब्जियों का इंतजाम उत्तरकाशी पहुंचकर पूरा कर लिया था। अगले रोज सुबह खूब धूप खिली हुई थी इसलिए हमें पूरा विश्वास था कि हम गोमुख तक की यात्रा निर्विघ्र पूरी कर लेंगे। लेकिन शाम साढ़े चार  बजे के आसपास हम जैसे ही गंगोत्री पहुंचे कि अचानक बारिश शुरू हो गईं। शाम की गंगा आरती बारिश में ही पूरी की। कानोडिया निवास ठीक भागीरथी की धारा के किनारे ही स्थित है इसलिए अनवरत कल-कल की आवाज गूंजती रहती और उसके ऊपर टप-टप की चिढ़ा देने वाली आवाज हमें परेशान कर रही थी। हमारे पास नेलांग जाने का भी पास था लेकिन बारिश ने हमारी सारी योजनाओं पर पानी फेर रखा था। हम चारों लोगों ने पितरों का श्राद्घकर्म कर लिया था। इसलिए हमें वहां अब बोरियत हो रही थी लगे कि या तो हम गोमुख अथवा नेलांग जाएं वर्ना वापस लौटें। पर हर दो घंटे बाद इतनी भयावह सूचनाएं आतीं कि हम सिहर जाते। मसलन कोई बताता कि सुक्खी बैंड पर चट्टानें गिर गई हैं, हर्षिल के आगे सड़क पर पहाड़ धसक गया है। गंगनानी में दोनों तरफ मीलों तक जाम लगा है। सारे यात्री फंसे हैं न वहां खाने को कुछ है न पानी ही।
बारिश तीन दिन से लगातार हो रही थी और किस क्षण वहां बर्फ गिरने लगेगी कुछ कहा नहीं जा सकता था। नौ सितंबर को दोपहर बाद खबर आई कि गोमुख जाने वाले यात्री लापता हैं और बर्फ कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर गिर रही है। उसी क्षण हमने वहां से लौटने की  ठानी। मेरे अलावा बाकी तीनों यानी शर्माजी, बंसलजी और बिष्टजी ऐसे मौसम में वहां से तत्काल लौटने को इच्छुक नहीं थे। रावलजी का भी कहना था कि अभी आप रुक जाएं लेकिन मैं अड़ा हुआ था। हम फौरन वहां से चल पड़े। गंगोत्री से कालभैरव तक के सारे रास्ते में हमें न कोई मनुष्य आता-जाता दिखा न ही पशु पक्षी। अब हमें भी इस बात का अंदेशा सताने लगा कि ऐसा न हो कि कहीं कोई बड़ी चट्टान सड़क  को रोके पड़ी हो। तीन चार जगह तो हमें सड़क पर चट्टानें सड़क पर पड़ी मिलीं जिन्हें रास्ते से हटाकर हमने गाड़ी के निकलने लायक रास्ता बनाया। कालभैरव के बैरियर पर भी सन्नाटा था। हम बड़े गौर से पहाड़ों को निहारते हुए आगे बढ़ रहे थे क्योंकि सौ ग्राम का पत्थर भी अगर पहाड़ से लुढ़का तो हमारी गाड़ी के परखचे उड़ा सकता था। हर्षिल से थोड़ा पहले एक बड़ी मोटी धार सैकड़ों फिट ऊंचे पहाड़ से गिर रही थी वह इतनी चौड़ी थी कि हम चाहे जितना दाएं बाएं होना चाहें उस धार के नीचे आने से नहीं बच सकते थे। खतरा था कि कहीं गाड़ी संतुलन न खो बैठे। धीरे से हम उस धार के नीचे से गुजरे ऐसा लगा जैसे बादल फटकर हमारी गाड़ी के ऊपर ही बरस पड़ा हो। हर्षिल के बाद सुक्खी बैंड की चढ़ाई शुरू होती थी। वहां सेबों के बाग बहुतायत में थे लेकिन सड़क कच्ची और ऊबड़ खाबड़। जगह-जगह यहां रपटे थे जिनमें ऊंचे झरनों से आया पानी अत्यंत तीव्र गति से बह रहा था। एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ भागीरथी का अथाह पानी जो हजारों फिट नीचे बह रहा था। 
ये सारी बाधाएं पार कर हम गंगनानी के करीब थे कि अचानक एक पेड़ टूटा और अपने साथ कई चट्टानों को समेटे हुए एनएच-१०८ पर आ गिरा। करीब पचास मीटर का रास्ता ठप हो गया। अब कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि हम हर्षिल लौट जाएं। हम लौटते तभी एक और चट्टान हमारी गाड़ी के ठीक पीछे आकर गिरी और रास्ता बंद। साथी लोग बुरी तरह घबड़ा गए। सिर्फ बंसल जी ने कहा कि उन्हें गंगा मैया पर पूरा भरोसा है कुछ नहीं होगा आप लोग च़ुपचाप गाड़ी में बैठ जाएं कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा ही। अब मुझे अपनी हड़बड़ी पर गुस्सा आने लगा मेरे कारण चार और लोग मुसीबत में फंस गए। १५ मिनट भी नहीं बीते होंगे कि अचानक गंगनानी की तरफ से एक मिलिट्री कॉनवाय आकर रुकी। वह कॉनवाय गढ़वाल रेजीमेंट का था। उनका अफसर आगे जीप में था और उनके पीछे आठ नौ ट्रकों पर लदे जवान। सारे ट्रक वहीं खड़े हो गए और उनके जवान उतरे तथा देखते ही देखते उन्होंने रास्ता साफ कर दिया। हम वहां से तो निकल गए लेकिन गंगनानी पार करने के बाद हम कोई दो किमी ही आगे बढ़े थे कि एक बड़ी सी चट्टान लुढ़कती हुई हमारे रास्ते पर आ गिरी। पहाड़ पर गाड़ी चलाने में सिर्फ बिष्टजी ही पारंगत थे इसलिए उन्होंने फौरन वहां जाकर जायजा लिया और बोले आप सब लोग पैदल चलकर इस चट्टान के आगे निकल जाइए मैं कोशिश करता हूं कि चट्टान के बगल से गाड़ी निकाल लाऊं। कुल पांच फीट का रास्ता था और वाकई बिष्टजी सारी बाधाओं को पार करके गाड़ी निकाल लाए। भटवारी से रास्ता पक्का था और मनेरी डैम से एकदम साफ। आखिरकार हम साढ़े सात बजे उत्तरकाशी पहुंच गए। अब हमारी जान में जान आई क्योंकि अब हम एक ऐसे सेफ जोन में थे जहां फंसते भी तो सब कुछ उपलब्ध था।

बीहड़

शंभूनाथ शुक्ल
चंबल के बीहड़ों के बारे में गुडिय़ा का बयान रोंगटे खड़े कर देने वाला है लेकिन बीहड़ का उसका वर्णन एकदम लाइव है। सन् २००४ की एक फरवरी को मैं निर्भय गूजर से मिलने उसके ठिकाने पर गया था। उस वक्त भी बीहड़ ऐसे ही खौफनाक थे। तब मैं अमर उजाला के कानपुर संस्करण में स्थानीय संपादक था और निर्भय से मिलने का वक्त हमारे उरई के ब्यूरो प्रमुख अनिल शर्मा ने फिक्स किया था। कानपुर दफ्तर के दो वरिष्ठ संवाददाता और एक फोटोग्राफर हमारे साथ था।
उरई से हम यानी कि शैलेश और शैलेंद्र और अनिल घंटे भर बाद माधोगढ़ पहुंचे। वहां से अमित पोरवाल हमारे साथ हो लिए। अमित को ही बीहड़ के रास्ते मालूम थे। करीब दस किमी तक हम भयानक बीहड़ में गाड़ी चलाते रहे। आगे पहुज नदी के तट पर सड़क खत्म हो गई। मील भर के करीब रेतीले मैदान में चलने के बाद सामने पहुज दिखी जो साफ और निर्मल जल को समेटे तीव्र गति से बह रही थी। नदी पार करने के लिए कोई नाव नहीं, उधर दोपहर ढल रही थी। पोरवाल ने तब तक करील के पेड़ों के झुंड से एक  बड़ा सा पटरा खोज निकाला साथ ही एक पतवार भी। पोरवाल ने बताया कि डकैत इसका इस्तेमाल नदी पार करने के लिए करते हैं। यानी खुद नाव को खेओ। हमने नदी पार की। उस पार का तट काफी ऊंचाई पर था। पटरे से उतरने के बाद कुछ दूरी तक कीचड़ भी था। किसी तरह उसे पार करते हुए हम कगार पर चढ़कर ऊपर आए। यह उत्तर प्रदेश की सीमा का आखिरी गांव था। एक तरह से डकैतों व यूपी पुलिस के बीच संधिरेखा भी यहीं से समाप्त होती थी। यहां पीएसी की एक कंपनी डेरा डाले थी। हमारे उतरते ही वे लोग आ गए। इस कंपनी का कमांडर मेरे गांव का ही निकला। पहुज चंबल से भी ज्यादा तीव्र गति से बहती है इसलिए किनारों को तेजी से काटती है। उसके दोनों तरफ मीलों तक ऊंची-नीची खाईयां हैं और घने करील के जंगल भी जिन्हें भेदना पुलिस के बूते से बाहर है। कई जगह तो हालत यह होती है कि पास से गुजर रहा शख्स भी नहीं दिखता है। राधेश्याम ने सादे कपड़ों में पीएसी के कुछ जवान भी हमारे साथ रास्ता दिखाने के लिए भेजे। पर वो एक प्वाइंट के बाद लौट गए। आगे का रास्ता उनके साथ जाना सेफ नहीं था। अब पोरवाल ही हमारा गाइड था। 
रास्ता और भी बीहड़ व खाई खंदक वाला होता जा रहा था। जरा सी भी आहट हमें चौंका देती। वहां डकैतों के साथ-साथ जंगली जानवरों का भी खतरा था। हम करीब आधा मील चले और एक ऊँचे कगार पर ठहर गए। वहंा बबूल का एक घना जंगल था। यही निर्भय का डेरा है, पोरवाल ने हमें बताया। हम आगे बढ़े तो देखा कि जगह-जगह पर बबूल के कांटों की बाड़ लगाकर रास्ता रोक रखा गया है। पोरवाल ने हमें वहीं रोक दिया। उसने फुसफुसाते हुए कहा कि निर्भय यहीं है। निर्भय के वहींं होने की खबर से हम रोमांचित हो गए। सब दम साधे खड़े थे किसी के मुंह से बोल नहीं फूट रहा था। हम करीब आधे घंटे वहीं खड़े रहे पर जंगल की तरफ से कोई नहीं आया न कोई आहट हुई। कुछ सरसराने की या पत्ते खड़कने की आवाजें जरूर आईं लेकिन न तो फायरिंग की न किसी आदमी के वहां होने का आभास मिला। हिम्मत कर हमने कांटों की बाड़ हटाई और अंदर घुसे। एक जगह कुछ अधजली बीडिय़ों के ढेर दिखे उसी के पास मेक्डावेल नंबर वन की बोतल पड़ी हुई थी जिसमें कुछ शराब अभी बाकी थी। एक गढ्ढे में तमाम देसी शराब के पाउच और कुछ बोतलें फेंकी गई थीं। मिट्टी के एक चूल्हे में लकड़ी सुलग रही थी। एक जगह किसी स्त्री का झंफर फटा पड़ा था। एक कुरता दिखा और कुछ लाल रंग के लंगोट, एक साड़ी व एक पेटीकोट एक अलगनी में पड़े थे। ऐसा लग रहा था कि कुछ समय पहले ही यहां से लोग गए हैं।
पोरवाल ने कहा कि हमसे कुछ गड़बड़ हो गई है। लगता है कि डकैत हमें आता देख ही यहां  से चले गए हैं। उन्होंने हमें गाड़ी से उतरते ही देख लिया था। हो सकता है कि उनके पास कोई नई पकड़ सहेजने के लिए बाहर से भेजी गई हो और वे उसे छिपाकर रखना चाहते हों।

आपत्तिकाले मर्यादानास्ति


शंभूनाथ शुक्ल

पिछले दिनों एक जरूरी काम से मुझे फैजाबाद जाना पड़ा। काम तो वहां पहुंचने के कुछ ही समय बाद पूरा हो गया पर मेरी वापसी की ट्रेन टिकट अगले रोज शाम की थी। करीब-करीब पूरे दो दिन मेरे पास थे और फैजाबाद में दो दिन बिताना बड़ा ही बोरिंग था। छोटा सा शहर ऊपर से वहां के होटल भी माशाअल्लाह बस दड़बे जैसे। फैजाबाद चूंकि पुरानी कमिश्नरी है इसलिए यहां का सर्किट हाउस बहुत सुंदर बना हुआ है। लेकिन अयोध्या फैसले के आसन्न संकट के कारण राज्य के गृह विभाग का पूरा अमला फैजाबाद में डटा हुआ था इसलिए सर्किट हाउस में सारे सूट भरे हुए थे। अब दो ही रास्ते थे या तो मैं सड़क मार्ग से लखनऊ जाकर वहां से दिल्ली के लिए कोई अन्य ट्रेन पकड़ूं या पास के कस्बे अयोध्या में दो दिन गुजारूं। मुझे अयोध्या जाना ही रुचिकर लगा। मेरी धर्म-कर्म में कोई आस्था नहीं है, ईश्वर मुझे अज्ञान का पर्यायलगता है। पर अयोध्या जाने, घूमने और उसे समझने की मेरी प्रबल इच्छा रही है। मेरी निजी तौर पर देशों की सभ्यता, संस्कृति और उनके उत्सवों को जानने में बड़ी दिलचस्पी रहती है। ऐसे शहर जहां लाखों की संख्या में लोग बिना किसी लाभ के जुटते हों वहां के बारे में जानने की इच्छा स्वाभाविक है। फिर अयोध्या तो देश की सबसे प्राचीन पुरियों में से एक  है। ईसा पूर्व दो सहस्त्राब्दियों तक इसका इतिहास मिलता है। वैदिक, जैन और बौद्घ आदि सभी पंथों की पुरानी किताबों में इसका वर्णन है। अयोध्या जिसे अवधपुरी और साकेत के नाम से भी जाना जाता है, में देश की नागर सभ्यता सबसे पहले फैली। यही वह शहर है जहां से विभिन्न गणों या कबीलों के टॉटमों के बीच एकता की पहल शुरू हुई। देखा जाए तो खुद फैजाबाद शहर भी अयोध्या का विस्तार ही है। १८वीं सदी की शुरुआत में नवाब सफदरजंग ने जब फैजाबाद को नए अवध सुल्तानेट की राजधानी बनाई तो उसके दिमाग में प्राचीन नगर अयोध्या के समीप बसने की इच्छा रही थी या नहीं, यह तो मैं कह सकता लेकिन इतना जरूर तय है कि अवध सुल्तानेट का अयोध्या से पक्का जुड़ाव है। अवध गंगा-जमना के मैदान का सबसे उपजाऊ भूभाग है। इस पूरे इलाके में बंजर जमीन कहीं भी नहीं मिलती। गर्मी हो या सर्दी अथवा बरसात यहां जमीन का चप्पा-चप्पा हरा-भरा रहता है। परंपरागत तीनों फसलें, गन्ना, दलहन व तिलहन की खेती यहां खूब होती है। दस फीट की गहराई पर पानी का मिल जाना यहां बहुत आम है। अनगिनत छोटी बड़ी नदियों ने इस पूरे क्षेत्र को शस्य श्यामला बना दिया है। लेकिन हिमालय की तलहटी के समीप आबाद इस अवध में जमीन जितनी ही उपजाऊ है वहां के बाशिंदे उतने ही गरीब और लाचार। अवध के इस इलाके के गांवों में लंबे चौड़े और खूब स्वस्थ लोग नहीं मिलते। यहां मर्दों की औसत लंबाई साढ़े पांच फुट तथा औरतों की पौने पांच फुट से ज्यादा नहीं है। 
मुझे पहले ही बता दिया गया था कि अयोध्या में होटल नहीं हैं अलबत्ता धर्मशालाएं हर गली व नुक्कड़ में हैं। इसके अलावा विभिन्न मठों के आश्रम और धर्मादा संस्थाओं के भवन भी खूब हैं। यहां की धर्मशालाओं में एसी रूम भी उपलब्ध हैं तथा आश्रम व भवनों के सूट तो किसी भी स्टार होटल के लक्जरी कमरों को मात देते हैं। कानपुर, वाराणसी, गोरखपुर आदि शहरों के व्यवसायियों द्वारा बनवाए गए ये भवन सारी आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस हैं। हर सूट में दो बेडरूम, सुसज्जित ड्राइंगरूम और किचेन भी है। एक-एक फुट तक धंस जाने वाले लेदर के सोफे, आला दरजे के बेड तथा कांच की टॉप वाली उम्दा डाइनिंग टेबल, दीवालों पर लगे एलसीडी टीवी, इंटरकाम तथा हर कमरे में एसी फिट हैं। दरअसल अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद की दखल के बाद व्यवसायियों ने यहां खूब इनवेस्ट किया लेकिन बेचारे पैसा लगाकर फंस गए क्योंकि रिटर्न कुछ नहीं मिला। अब यही व्यवसायी हर साल सावन के महीने में सपरिवार यहां आकर रहते हैं। इसीलिए इन भवनों में घर जैसा माहौल जरूर मिलने लगा है। ऐसे ही एक भवन में मेरा इंतजाम हो गया। जरूरत मुझे बस एक कमरे की थी पर यहां तो जो सूट मिला उसमें तीन कमरे अटैच्ड थे। मैने बाकी के कमरे खुलवाए तक नहीं सिर्फ एक बेडरूम में कुछ देर आराम किया और फिर अयोध्या घूमने का प्रोग्राम बनाया।
अयोध्या बहुत ही छोटा कस्बा है मुश्किल से दो किमी की लंबाई चौड़ाई में बसा। मंदिरों, मठों और धर्मशालाओं के अतिरिक्त यहां कुछ है भी नहीं। सकरी और ऊँची-नीची गलियां और दोनों तरफ बने मकान जो लखौरी ईटों से बने हुए हैं। मंदिर, मठ और मकान कोई भी इमारत मुझे वहां सौ-सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं दिखी। मंदिरों और मठों का अगवाड़ा तो खूब रंगा पुता दिखा लेकिन पिछवाड़े की दीवालों पर बुरी तरह काई लगी हुई थी। गलियों में कतार से मिठाई की दूकानें जरूर दिखती हैं जिनमें बस बेसन के लड्डू, जलेबी, समोसे और चाय ही मिलती है। इक्का-दुक्का दूकानों में अंकल चिप्स, बिस्किट व नमकीन के पैकेट भी बिकते दिखे। पूरे कस्बे में सिर्फ एक दूकान पर मेडिकल स्टोर लिखा था जहां आयुर्वेद, एलोपैथी और होम्योपैथी की दवाएं एक साथ मिलती थीं। अयोध्या में पैदल चलना ही बेहतर रहता है क्योंकि रिक्शे यहां हैं नहीं और गाड़ी को इन गलियों से गुजारते हुए ले जाना किसी नट के करतब जैसा लगता है। हालांकि अयोध्या में भीड़ कहीं भी नहीं दिखी। ज्यादातर मंदिरों में सन्नाटा था। सिवाय पुलिस और अर्धसैनिक बलों की आवाजाही के और कहीं कोई चहल पहल नहीं। मंदिरों में पुजारी मशीनी तरीके से प्रसाद को मूर्तियों के ऊपर फेंकते रहते हैं। उनकी उदासीन मुद्रा देखकर लगता ही नहीं कि यहां किसी को मंदिरों को बनाए रखने में दिलचस्पी है। मठों के बाहर बैरागी साधुओं के जत्थे माथे पर वैष्णवी तिलक लगाए सुमिरिनी फिराते रहते हैं। दुबले पतले इन बैरागियों को देखकर लगता है कि जैसे ये घर से भगा दिए गए हों और बाकी की उमर काटने के लिए इन्होंने अयोध्या की पनाह ली हुई है। हर आदमी का कद छोटा और पीठ पर कूबड़ निकला हुआ। मुझे इन कुबड़े पुजारियों, बैरागी साधुओं और लोकल लोगों को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कई लोगों से इसकी वजह जानने की कोशिश भी की लेकिन कोई भी ठीक से जवाब नहीं दे पाया। कुछ ने बताया कि यहां का पानी खराब है तो कुछ के मुताबिक अयोध्या के लोगों को सीताजी ने श्राप दिया था कि जैसे यहां के लोगों ने उन्हें कष्ट दिया है वैसे ही यहां के लोग भी कभी खुश नहीं रह पाएंगे। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि यहां के लोगों की कम लंबाई और कूबड़े होने की वजह यहां के पानी का खारा होना तथा यहां के खानपान में खट्टी चीजों का प्राधान्य है। आम और इमली का सेवन यहां के लोग सुबह शाम के भोजन में जरूर करते हैं। इमली आयुर्वेद में त्वचा और हड्डियों के लिए बहुत नुकसानदेह बताई गई है।
अयोध्या के उस विवादित परिसर में भी मैं गया जहां छह दिसंबर १९९२ को विश्व हिंदू परिषद के कारसेवकों ने वहां बनी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था। कहा जाता है कि १५२८ में इस मस्जिद को बाबर के सेनापति मीर बाकी ने वहां बने राम जन्मस्थान मंदिर को गिरवाकर बनवाया था। पर बाबरी मस्जिद के साथ बाबर का नाम क्यों जोड़ा गया, इसके सबूत नहीं मिलते। १५२६ में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी को हराया था। इसके बाद वह आगरा की तरफ चला गया। बाबर के अवध जाने या अवध की किसी लड़ाई में उसके शरीक होने का भी जिक्र कहीं नहीं मिलती। हिंदुस्तान मेें उसने आखिरी लड़ाई कन्नौज में अफगानों से लड़ी थी। बाबरनामा में अयोध्या में राम जन्मस्थान मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाने का जिक्र नहीं है जबकि चंदेरी में मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख है। मस्जिद बनने के करीब साढ़े तीन सौ साल बाद एक विवाद शुरू हुआ कि  यह मस्जिद, जिसे तब मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था, उसी जगह बनी है जहां भगवान राम का जन्म हुआ था और मस्जिद यहां बने राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। मजे की बात कि किसी भी ङ्क्षहदू धर्मगंथ में ऐसे किसी मंदिर का जिक्र नहीं है। वाल्मीकि रामायण तक तो खैर उत्तर भारत में किसी भी तरह के मंदिर बने होने का उल्लेख ही हिंदू ग्रंथों में नहीं मिलता। तुलसी ने भी अयोध्या में ऐसे किसी मंदिर के होने का जिक्रनहीं किया है।
मस्जिद-ए-जन्मस्थान की खासियत यह थी कि इस मस्जिद में इस्लामी स्थापत्य की बजाय देसी स्थापत्य ज्यादा दिखाई देता था। यूं भी हिंदुस्तान में तब तक दो तरह की मस्जिदें थीं। एक  जिनका स्थापत्य एकदम देसी थी यानी उनका गुंबद शिवाले की शक्ल का होता था तब इन मस्जिदों में मीनारें नहीं होती थीं। ऐसी मस्जिदें जौनपुर के शर्की साम्राज्य ने बनवाई थीं दूसरी तरह की वे मस्जिदें जिनमें गुबद के अतिरिक्त मीनारें भी होती थीं। दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा का ताज महल आदि ऐसी ही इमारतों में से हैं। देसी स्थापत्य के आधार पर बनी यह मस्जिद इतनी भव्य और विशाल थी कि पूरे अवध में इससे बड़ी कोई मस्जिद नहीं रही थी। लेकिन इस मस्जिद को लेकर मुस्लिम समाज में कोई आस्था नहीं थी। इसमें नमाज अता करने या नियमित तौर पर यहां किसी इमाम के रहने के भी सबूत नहीं मिले हैं। मस्जिद के विशाल प्रांगण में एक कुआं था जिसका पानी पूरी अयोध्या में सबसे मीठा था। हिंदू इसे रामजी का प्रसाद बोलते तो मुसलमान आब-ए-खुदा। दोनों ही समुदाय के लोग इसका पानी इस्तेमाल करते थे। यहां हर साल एक मेला लगता था जिसमें हिंदू मुसलमान दोनों ही आते थे। इस मस्जिद पर हिंदू दावेदारी अवध के नवाब वाजिदअली शाह के वक्त में १८५३ में शुरू हुई जब निर्मोही अखाड़े ने इस मस्जिद में पूजा अर्चना करने की अनुमति मांगी। इसके बाद १८८३ में बाबा राघोदास ने फैजाबाद के सब जज के यहां अपील दायर की कि यह मस्जिद भगवान राम के जन्म स्थान के मंदिर को तोड़कर बनवाई गई है इसलिए इसे वापस कर दिया जाए। इसी तरह बाबरी मस्जिद भी कोई उल्लेखनीय इमारत नहीं थी। अयोध्या में तो खैर मुस्लिम आबादी न के बराबर है लेकिन फैजाबाद में जब नवाबों का शासन था तब भी इस मस्जिद की ऐतिहासिकता अथवा इसके वजूद को लेकर कभी मुस्लिम समाज ने गर्व किया हो या नमाज अता की हो ऐसा कोई उल्लेख भी नहीं है। लेकिन इसका विवाद इतना भयानक चला कि  पहले अंग्रेज सरकार इसे तूल देती रही और आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार ने भी इसे हरा बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। १९४९ में यहां भगवान राम के प्राकट्य का एक ड्रामा खूब चला और फैजाबाद के तत्कालीन जिला मजिस्टे्रट आरके नैयर तथा सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर सुखदेव सिंह ने उस अफीमची हेड कांस्टेबल की कहानी को सच माना जिसने आधी रात को यहंा भगवान राम को जन्मते देखा था। जिला मजिस्ट्रेट ने मस्जिद में ताला लगवा दिया। १९८५ में केंद्र की राजीव गांधी सरकार के वक्त यहां का ताला खुला। इसके बाद तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक ङ्क्षसघल तथा भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने इस विवाद को इस कदर बढ़ा दिया कि इसी के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने पहले उत्तर प्रदेश में और फिर केंद्र में अपनी सरकार बना ली। बाबरी मस्जिद ढहा दी गई लेकिन इससे न तो अयोध्या का भला हुआ न ही अयोध्या के ईष्ट भगवान राम का। बाबरी मस्जिद के स्थान पर अब एक टेंट लगाकर रामलला की मूर्तियां स्थापित की गई हैं और इस टेंट की सुरक्षा के लिए केंद और राज्य सरकार हर महीने करोड़ों रुपया खर्च करती है। सीआरपी, पीएसी और उत्तर प्रदेश पुलिस के हजारों जवान यहां तैनात हैं। पर इनमें से किसी को भी रामलला की इन मूर्तियों से न तो लगाव है न ही उन पर तनिक भी आस्था। जिस किसी जवान की ड्यूटी अयोध्या में लगाई जाती है उसकी पूरी कोशिश यहां से कहीं और तबादला कराने की रहती है। ऐसा नहीं कि यहां बहुत खतरा है या यहां का मौसम उन्हें सूट नहीं करता बल्कि इसलिए कि यहां किसी तरह की कोई भी ऊपरी आमदनी नहीं है। पुलिस में आदमी किसी रामलला या बाल कृष्ण की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए तो भरती होता नहीं उसे तो पोस्टिंग ऐसी जगह चाहिए होती है जहां ऊपरी आमदनी का जरिया हो। अलबत्ता उसे किसी नेता की सुरक्षा में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि नेता सत्ता में आया तो उसकी सुरक्षा में लगे जवानों को भी सत्ता की थोड़ी बहुत मलाई तो मिल ही जाती है। इसलिए जितने भी पुलिस वाले यहां दिखे वे सब बेहद चिड़चिड़े, शक्की तथा खब्ती हैं। हर आने जाने वाले को ऐसी चुभती निगाह से देखते हैं मानो वह तीर्थयात्री नहीं कोई आतंकवादी हो। मोबाइल, पेन, पर्स, बेल्ट सब परिसर के बाहर छोड़कर आओ तब इस परिसर में प्रवेश मिलेगा। अब बेचारा यात्री अपनी ये कीमती चीजें कहां छोड़े और किसके भरोसे छोड़े इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। पर यहां एक चीज मुझे अच्छी लगी वह थी परिसर में जूते पहनकर जाने की आजादी। मुझे नंगे पांव चलने में दिक्कत होती है इसलिए आमतौर पर मंदिरों में मैं या तो जाता नहीं या फिर बहुत मोटे सूत के मोजे पहनकर ही। 
रामलला के दर्शन के बाद मुझे बताया गया कि यहां कनक भवन और हनुमान गढ़ी के मंदिर भी देखने चाहिए। कनक भवन के बारे में मान्यता है कि सीताजी जब ब्याह कर ससुराल आईं तो उनको मँुहदिखाई के रूप में राजा दशरथ ने उन्हें यह महल भेंट किया था। अब इसकी कितनी ऐतिहासिकता है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन मौजूदा कनक भवन ओरछा नरेश मधुकर शाह देव का बनाया हुआ है और इसके पैट्रन बॉडी में उनके वारिसों का नाम आज भी दर्ज है। कनक भवन काफी भव्य और विशाल है। कई सीढिय़ों को चढऩे के बाद एक  विशाल दरवाजे से इस भवन में आप प्रवेश करते हैं। दरवाजे से घुसते ही एक खूब बड़े आंगन को पार करना पड़ता है। इसके ठीक सामने गर्भगृह परिसर है जिसमें सीता और उनकी शेष तीन बहनों, जो उनकी देवरानियां भी थीं की मूर्तियां हैं। इस मंदिर में चहल-पहल दिख रही थी। जब मैं वहां पहुंचा तब मूर्तियों के सामने के दरवाजे पर परदा पड़ा था। पता चला कि  अभी सीताजी को भोग लगाया जा रहा था। करीब पौने घंटे के अंतराल के बाद यह परदा खुलने वाला था। मंदिर के भीतर पौन घंटे का इंतजार कम नहीं होता। पर कहीं और जाकर दोबारा यहां आने से बेहतर लगा कि मैं किसी तरह यहीं पर समय बिताऊं। मेरे साथ गए थानेदार ने गर्भगृह में व्यास गद्दी के पास मेरे बैठने की व्यवस्था करा दी। गर्भग्रह में जहां मूर्तियां स्थापित थी, के दरवाजे के ठीक बाहर करीब २५ फुट लंबा एक गलियारा था। इस गलियारे के बीच में पांच फुट की समानांतर दूरी में दो रेलिंग लगा दी गई थीं। यह बीच का रास्ता पुजारी के गर्भग्रह आने जाने का था। बायीं तरफ की रेलिंग के बाहर महिलाएं तथा दायीं तरफ की रेलिंग के पार पुरुषों के बैठने की थी। गलियारे में छाया भी थी और सीलिंग फैन भी  लगे हुए थे। धनीमानी और वीआईपी यात्रियों को इसी गलियारे में बिठा दिया जाता है बाकी के सामान्य यात्रियों को आंगन में खड़े रहना पड़ता है। यहां का माहौल एकदम शांत और भक्तिप्रधान दिख रहा था पर मुझे यह व्यवस्था बड़ी बनावटी व भेदभावपूर्ण प्रतीत हो रही थी इसलिए वहां आए भक्तों के चहरे ताकने के मेरे अंदर कोई भक्तिभावना जाग्रत नहीं हो रही थी। पुजारी भक्तों द्वारा लाए जा रहे लड्डुओं को भोग के वास्ते परदा हटाकर मूर्तियों के पास जाता और बाहर आता। उसकी यह आवाजाही मुझे चिढ़ा रही थी। 
- पुजारी जी जब सीताजी का अंदर भोग लग रहा है तो बीच में आप बार-बार उन्हें जाकर क्यों डिस्टर्ब करते हो? मैने पुजारी को टोका।
पुजारी चतुर था उसे पता था कि खुद थानेदार मेरी खातिर तवज्जो कर रहा है इसलिए भले ही मैं ज्यादा चढ़ावा न चढ़ाऊं लेकिन मैं सामान्य यात्री नहीं हूं इसलिए मुस्करा कर बेचारगी केे भाव में बोला- अब मैं क्या करूं लोग तो इसी बख्त लड्डू लेकर आ जाते हैं।
गलियारे में भी व्यास गद्दी के पास भीड़ काफी थी। रेलिंग के पास से मूर्ति का दर्शन ज्यादा सुविधा से हो सकता था इसलिए लोग रेलिंग पर ही चढ़े जा रहे थे। मेरे ठीक आगे एक अधेड़  मारवाड़ी आधी बांह का मलमल का कुरता और धोती पहने बैठा था। मोबाइल की स्क्रीन देख-देख कर वह काफी तेज आवाज के साथ हनुमान चालीसा बांच रहा था, मेरे टोकने से चिढ़ गया। बोला- लोग प्रसाद लाए हैं तो चढ़ाया ही जाएगा। जवाब में मेरे यह कहने पर कि आप सामने देखिए परदा खुलने ही वाला है, वह और खीझ गया एवं और ऊँचे स्वर में हनुमान  चालीसा बांचने लगा। मेरे पीछे एक खूब मोटा सिंधी बैठा था जो जब भी सांस लेता कच्चे लहशुन की बू चारों तरफ भर जाती दोनों के बीच मैं उकड़ूं बैठा था। मैं बार-बार गर्भगृह के सामने लगी घड़ी को देख रहा था कि कब समय बीते और पट खुलें। गर्भगृह के दरवाजे के दायीं तरफ व्यास चौकी थी इसके सामने वाले पाये एक छिपकली चिपकी थी जो फर्श पर बैठी मक्खी को दत्तचित्त होकर निहार रही थी। करीब आधे मिनट की साधना के बाद वह छिपकली उछली और सीधी मक्खी के समीप आकर गिरी उसने अपनी जीभ निकाली और उस मक्खी को पलक झपकते लील गई। और किसी ने तो नहीं देखा लेकिन मैने यह दृश्य देखा और पाया कि छिपकली की नजर अब ठीक मेरी टांग के नीचे बैठी मक्खी पर है। मुझे लगा कि अगर यह छिपकली अबकी उछली तो सीधे मेरी टांग के नीचे आकर गिरेगी। छिपकली के लिजलिजे स्पर्श के अंदेशे से मैं घबड़ा गया और भड़भड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मेरे इस तरह अचानक उठ खड़े होने से आगे वाले मारवाड़ी का मोबाइल हाथ से छिटक कर दूर जा गिरा। और पीछे बैठे सिंधी का बैलेंस बिगड़ गया जिसके कारण वह सीधा प्रसाद के थाल के ऊपर जा गिरा। गीली बूंदियां और बेसन के लड्डुओं का चूरा उस थाल में रखा था। सिंधी के चेहरे पर वह चूरा चिपक गया जिससे वह बड़ा वीभत्स दिखने लगा। दोनों भक्तों ने मुझे इतनी गालियां दीं कि मुझे पहली बार लगा कि खड़ी बोली गालियों के मामले में काफी कमजोर है। गालियों के मामले में हमारी देसी बोलियां बहुत समृद्घ हैं। अच्छा रहा कि थानेदार साहब मंदिर के बाहर खड़े होकर मेरा इंतजार कर रहे थे और वहां कोई मुझे जानने-पहचानने वाला नहीं था। मैने तत्काल वहां से खिसक लेना ज्यादा ठीक समझा। लेकिन तभी मूर्तियों के भोग का समय पूरा हो गया और गर्भगृह का परदा खुल गया तथा आरती शुरू हो गई। घंटे, घडिय़ाल की आवाज के बीच मारवाड़ी और सिंधी की आवाजें दब गईं।
कनक भवन के बाद अब मुझे हनुमान गढ़ी जाना था। माना जाता है कि हनुमान गढ़ी अयोध्या की चौकी है। पूरी अयोध्या में ये मंदिर सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। ५० के करीब सीढिय़ां चढ़कर हनुमान गढ़ी मंदिर में जाना पड़ता है। अयोध्या की सुरक्षा की जिम्मेदारी हनुमान जी ने संभाली थी और वे इस सबसे ऊंची चौकी मे बैठकर अयोध्या की निगरानी करते हैं। हनुमान जी को अमर माना गया है इसलिए मान्यता है कि वे आज भी यहीं बिराजते हैं। इसी मान्यता के चलते हनुमान गढ़ी के मुख्य महंत कभी भी हनुमान गढ़ी से बाहर नहीं जाते। मृत्यु के बाद उनकी लाश ही इस गढ़ी से बाहर निकलती है। यहां तक कि अगर हनुमान गढ़ी के महंत के विरुद्घ अदालत में कोई मुकदमा भी हो तो अदालत को ही इस गढ़ी में आना पड़ता है। पर मैने महंत जी से पूछा कि ऐसा क्यों है तो उनका जवाब था कि चूंकि हनुमान जी को भगवान राम ने कभी भी गढ़ी न छोडऩे का वचन लिया था इसलिए वे भी इसी बचन में बंधे हैं।
- लेकिन महंत जी भगवान राम के सरयू नदी में अंतध्र्यान होने के काफी समय बाद द्वापर युग में तो हनुमान जी ने गढ़ी छोड़ी थी। मैने शंका की।
- कैसे? महंत जी थोड़ा विचलित लग रहे थे।
मैने उन्हें बताया कि द्वापर में पांडव जब १३ साल के बनवास पर थे और अर्जुन धनुर्विद्या सीखने किरात के पास जाते हैं तब लंबी अवधि तक अर्जुन के बाहर रहने के कारण चिंतित युधिष्ठिïर के आदेश पर भीम उन्हें तलाशने हिमालय के दुर्गम जंगलों में गए वहां एक अत्यंत बूढ़े वानर से उनकी भेंट हुई जो ठीक मार्ग के बीच में बैठा था। भीम उसकी ढिठाई से चिढ़ गए और डांट कर बोले- रास्ता छोड़ वानर।
वानर ने कहा कि बच्चा मैं तो बूढ़ा हो गया हूं तुम ही मेरी पूँछ हटाकर रास्ता बना लो। भीम, जिनमें दस हजार हाथियों का बल था उस वानर की पूँछ नहीं खिसका पाए। तब वे उसके पैरों पर पड़ गए। बोले- महात्मन आप कौन हैं? मैं आपको पहचान नहीं सका।
हनुमानजी ने उन्हें अपना विशाल स्वरूप दिखाया और बताया कि मैं हनुमान हूं। इसके बाद भीम को उन्होंने वायदा किया कि कुरुक्षेत्र में जब महासंग्राम होगा तब मैं तुम्हारी मदद के लिए रहूंगा। हनुमानजी ने अपना वायदा निभाया और कुरुक्षेत्र के महायुद्घ के दौरान वे पूरे १८ दिनों तक अर्जुन के रथ के ऊपर बैठे रहे। यह उन्हीं का प्रताप था कि कुरुक्षेत्र में बड़े बड़े महारथी अर्जुन के रथ को जरा भी नहीं खिसका पाए।
मेरी बात सुनकर महंत जी का चेहरा लाल पड़ गया और वे कुछ भुनभुनाते हुए बोले- हनुमान जी देवता हैं उनकी महिमा को हम कहां जान सकते हैं। यह मुझे चुप रहने का संकेत था। बहरहाल थानेदार के साथ जाने का एक फायदा तो हुआ ही कि मुझे बगैर कुछ चढ़ावा चढ़ाए ही करीब सेर भर बेसन के लड्डू प्रसाद में दिए गए।
अयोध्या शोध संस्थान पिछले करीब सात साल से अपने आडिटोरियम में रोजाना शाम छह से नौ बजे तक रामलीला का आयोजन करता है। हर पंद्रह दिन में रामलीला करने वाली मंडली बदल जाती है। मैं जब वहां गया तो रामलीला का २२९२वां दिन था। इस रामलीला को मुलायम सिंह ने तब शुरू किया था जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस दिन वहां लंका दहन का कार्यक्रम था। वृंदावन की कोई मंडली कर रही थी। रामलीला की समस्या यह है कि वहां आज भी स्त्री की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाते हैं। इसलिए लीला में स्वाभाविकता नहीं आ पाती है। फिर भी मैं तीन घंटे तक रामलीला देखता रहा। अयोध्या एक धार्मिक स्थल है इसलिए यहां शराब और मांसाहार वर्जित है। लेकिन मेरे साथ गए थानेदार और वहां के विधायक के चेले चपाटियों ने मेरे लिए उस मारवाड़ी निवास में ही शराब और मांसाहार की व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन जब मैने कहा कि मैं तो शराब पीता नहीं और हंड्रेड परसेंट शाकाहारी हूं तो वे बेचारे बहुत देर तक मेरे चेहरे को निहारते रहे फिर जैसे उन्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ लेकिन क्या करते। बोले- आपत्तिकाले मर्यादानास्ति। और इसी के साथ उन लोगों ने शराब की पूरी बोतल तथा चिकेन साफ कर डाला।