मदारी पासी के जरिए किसानों का एका
शंभूनाथ शुक्ल
स्वतंत्रता की पहली लड़ाई १८५७, जिसे अंग्रेजों ने गदर कहा है को दबा देने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने अवध के किसानों का सबसे ज्यादा दमन किया। जमीनें उनसे छीनकर अंग्रेजों के दलाल जमींदारों के अधीन कर दी गईं और वे जमींदार अंग्रेजों के एजेंट के तौर पर काम करते थे। एक मई १८७६ को महारानी विक्टोरिया ने इंडिया को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया। लेकिन इससे न तो भारत का भाग्य बदला न किसानों की पीड़ा। उल्टे अब दो-दो स्तर पर उनका दमन होता था। अंग्रेज सरकार अपने स्तर पर उनका दमन तो करती ही थी स्थानीय महाजनों, साहूकारों और जमींदारों ने कभी बेगार के बदले तो कभी सूद के बदले उनके खेत व जेवर छीनने शुरू कर दिए। किसानों की बहुएं बेटियां भी इन जमींदारों की क्रूरता के चलते सुरक्षित नहीं थीं। ऊपर से नगदी लगान के कारण वे साहूकारों व महाजनों के आगे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी जमीन जायदाद ही गिरवी नहंी रखते गए वरन् खुद को भी गिरवी रखते गए। बीसवीं सदी शुरू होते ही बंगाल सूबे का बटवारा हो गया और नई रैयतवारी व्यवस्था तथा बंदोबस्त प्रणाली लागू हुई। अवध के किसानों पर इसका और भी बुरा असर पड़ा। जमीनें बढ़ाने के लिए जंगलों को तोड़ा जाने लगा और नौतोड़ की इस व्यवस्था में किसानों ने मेहनत तो खूब की पर उन्हें उसका अपेक्षित लाभ नहंी मिला। उपजाऊ नई जमीनें समतल तो किसान करते लेकिन जैसे ही उनमें फसल उगाने का क्रम शुरू होता उन पर लगान की नई दरें लागू हो जातीं। किसान सपरिवार मेहनत कर जमीनें तोड़ते लेकिन इसका लाभ उन्हें नहीं मिलता। यह वह दौर था जब पूरे अवध के इलाके में किसान बुरी तरह पीडि़त था। कांग्रेस के आंदोलन का लाभ शहरी व्यापारियों को तो मिला लेकिन किसान उससे वंचित रहे। कौंसिलों में शहरी मध्यवर्ग की चिंताओं को लेकर तो हुक्मरान चिंता करते पर किसानों का वहां जिक्र तक नहंी होता।
ऐसे समय में मोहनदास कर्मचंद गांधी फलक पर प्रकट होते हैं और निलहे गोरों के जुल्मों को उघाड़ कर किसानों की पीड़ा को उन्होंने धार दी। चंपारन में राजकुमार शुक्ल के साथ मोतिहारी जाकर उन्होंने किसानों की पीड़ा को महसूस किया। उन्होंने अपनी लिखा पढ़ी और अपनी वकालत की ताकत से किसानों को निलहे गोरों के जुल्म से आजाद कराया। लेकिन गांधी जी इसके बाद कांग्रेस के बड़े नेता हो गए। कांग्रेस ने उन्हें हाथों हाथ लिया और वे धीरे-धीरे किसान आंदोलन से दूर होते गए। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से किसानों का गांधी से मोहभंग हो गया। अब किसान आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका सिर्फ जमींदारों और सेठ साहूकारों के हितों के पोषक भर की रह गई। पूरे अवध के इलाके में किसान तबका बुरी तरह परेशान था। शहरी क्षेत्रों में नई मिलें खुल जाने तथा रेलवे, कचेहरी और व्यापार के चलते गांवों का पढ़ा लिखा तबका शहर आ बसा। और शहरों की इस कमाई से उसने गांवों में जमींदारी खरीदनी शुरू कर दीं। ये नए कुलक किसी और गांव में जाकर जमींदारी खरीदते और अपनी रैयत से गुलामों जैसा सलूक करते। इन नए शहरी जमींदारों को कांग्रेस का परोक्ष समर्थन भी रहता। इसीलिए किसानों की गांधीबाबा से दूरी बढऩे लगी। यह वह दौर था जब अवध में किसानों के संगठन बाबा रामचंदर या मदारी पासी के नेतृत्व में बनने लगे। बिहार में त्रिवेणी संघ और अवध में तीसा आंदोलन इसी दौर में पनपे। इनको परोक्ष रूप से क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी और साम्यवादी संगठनों का भी समर्थन था। सत्यभक्त, राधा मोहन गोकुल जी, राहुल संाकृत्यायन, स्वामी सहजानंद भी किसानों को संगठित करने में लगे थे। यह तीसा आंदोलन काफी व्यापक रूप से फैला लेकिन गांधी जी के असहयोग और जवाहर लाल नेहरू की उदासीनता के चलते यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया पर इससे यह समाप्त नहंी हुआ। अंग्रेजों को किसानों को तमाम सहूलियतें देर सबेर देनी पड़ीं और एक निश्चित अवधि के बाद किसानों को जमीन पट्टे पर लिखनी पड़ीं।
इस किसान आंदोलन ने पत्रकारिता के साथ-साथ उस दौर के कथा साहित्य पर भी व्यापक असर डाला। प्रेमचंद का गोदान गुलाम बनते किसानों की पीड़ा को दर्शाता है कि कैसे होरी बाद में किसान से मजूर बन गया। किस तरह किसान पीडि़त था और कैसे उसे सेठ साहूकार और महाजन तथा जमींदार कभी-कभी लगान के नाम पर तो कभी बेगार के नाम पर और कभी धर्म के नाम पर परेशान कर रहे थे। मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार मुल्कराज आनंद ने १९४२ में अपना मशहूर उपन्यास द स्वोर्ड एंड द सिकल ( ञ्जद्धद्ग स्2शह्म्स्र ड्डठ्ठस्र ञ्जद्धद्ग स्द्बष्द्मद्यद्ग) रायबरेली के किसान आंदोलन पर ही लिखा है। असंख्य कविताएं भी इस दौर में लिखी गईं। पर हिंदी में इस आंदोलन को केंद्र में रखकर कोई भी उपन्यास नहीं लिखा गया। हालंाकि कमला प्रसाद त्रिपाठी ने पाहीघर, अमृतलाल नागर ने गदर के फूल और अमरकांत ने १८५७ को आधार बनाकर किसानों पर कुछ अच्छे उपन्यास लिखे। लेकिन मदारी पासी और बाबा रामचंदर के आंदोलन पर कुल जमा दो ही उपन्यास उल्लेखनीय हैं। एक तो कमला प्रसाद त्रिपाठी का बेदखल और दूसरा कामतानाथ का काल कथा। बेदखल बाबा रामचंदर के तीसा आंदोलन पर लिखा गया है। जबकि काल कथा के केंद्र में मदारी पासी है। इसके अलावा वीरेंद्र यादव का शोध इस आंदोलन की सर्वाधिक प्रामाणिक जानकारी देता है। कामतानाथ का उपन्यास काल कथा के केंद्र में दूसरे विश्व युद्ध के बाद का दौर है जब देश में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी कांग्रेस के समानांतर एक संगठन बन गया था और लोगों में गांधी से मोहभंग होने लगा था। काल कथा में हालांकि कामता जी ने शहरी आंदोलन पर ज्यादा फोकस किया है लेकिन अवध के गांवों की मानसिकता तथा वहां पर हो रही सुगबुगाहट को उन्होंने अनदेखा नहीं किया है।
दरअसल कामतानाथ समानांतर कथा अंादोलन की उपज थे इसलिए उन्होंने वही लिखा जिसे करीब से देखा, महसूस किया और सुना। निजी जीवन में वे एक शहरी थे। पूरा जीवन उनका लखनऊ व कानपुर में कटा। रिजर्ब बैंक में स्टाफ अफसर थे लेकिन गांव और गंवई परिवेश की इतनी समझ कम लोगों के पास रही होगी। उनका सपना था बीसवीं सदी के शुरुआती तौर के अवध के गांवों की एक तस्वीर अपनी कलम से उतार देने की। इसीलिए उन्होंने काल कथा को चार खंडों में लिखने की योजना बनाई थी पर दो लिखने के बाद ही काल ने उन्हें हमसे छीन लिया। लेकिन इन दो खंडों में ही वे अपनी पूरी बात कहते हुए प्रतीत होते हैं। एक कानून गो कायस्थ परिवार के सहारे उन्होंने इस उपन्यास का ताना बाना बुना और उसमें एकदम खरे उतरे। उस समय उन्नाव और लखनऊ के गांवों में किसान कैसी समस्याओं से जूझ रहे थे और ताल्लुकेदार अपनी ऐयाशियों मेें डूबे हुए थे। लेकिन अंदर ही अंदर किसानों के अंदर ताल्लुकेदारों के खिलाफ, अंग्रेज निजाम के खिलाफ और गंाव के अंदर परंपरागत ढांचे के खिलाफ एक गुस्सा फूट रहा था इसका अच्छा विवरण काल कथा में मिलता है। वे किसान जो अंगे्रजों की नई बंदोबस्त प्रणाली के कारण किसान से मजदूर बनते जा रहे थे और खेती का दायरा सिमटता जा रहा था, लगातार सुलग रहे थे। भले कांग्रेस किसानों के मामले में एक रहस्यमयी चुप्पी साधे हो पर तमाम ऐसे लोग थे जो इस आंदोलन को हवा दे रहे थे। इसमें किसान सभा से लेकर मदारी पासी का आंदोलन तक था। कामतानाथ ने इन सब आंदोलनों को बखूबी मुखर किया है कालकथा में।
पहले विश्वयुद्ध के कुछ पहले जब निलहे गोरों से किसानों को मुक्ति मिल गई थी तो देसी निलहों ने उन जमीनों पर कब्जा कर लिया और अपने कारकुनों के सहारे किसानों पर जुल्म करने लगे। लगान नगद देने की व्यवस्था के कारण किसान के पास कुछ हो या न हो लगान भरना ही पड़ता था। एक ऐसे समय जब फसलों के नगदीकरण की कोई व्यवस्था न थी लगान नगद देने के कारण अवध के किसान बेहाल थे। किसानी सिर्फ उनकी मर्यादा के लिए जरूरी रह गई थी। उन्नाव के एक गांव चंदन पुर में कानून गो मुंशी रामप्रसाद रहा करते थे। जिनके पास खेती के साथ-साथ कानून गो जैसी नौकरी के कारण गांव में काफी रसूख था और गाजी खेड़ा के ताल्लुकेदार अब्दुल गनी जैसे लोग भी उन्हें बराबरी का मान देते हैं। मुंशी जी के तीन बेटे हैं। जिसमें से बड़े लक्ष्मी गांव में रहते हैं और मझले लखनऊ कचहरी में पेशकार हैं तथा तीसरा दसवीं में कई बार बैठता है पर हर बार फेल हो जाने के कारण लखनऊ चला जाता है नौकरी के लिए। बड़े बेटे लक्ष्मी का बेटा बच्चन भी चाचा के पास चला जाता है लेकिन जल्दी ही वह लखनऊ में चल रहे राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव में आ जाता है। बस इसी बच्चन के सहारे पूरे उपन्यास का तानाबाना बुना गया है। बच्चन कांग्रेस के विदेशी वस्त्रों की होली जलाए जाने के आंदोलन से शुरू कर खुद को क्रांतिकारियों के बीच जल्द ही पाता है और तब उसे पकड़ कर लाहौर ले जाया जाता है जहां उसे फांसी दे दी जाती है। लेकिन इसके बीच उस समय अवध के गांवों में चल रहे आंदोलन को भी बखूबी उघाड़ा गया है। सबसे ज्यादा अपील करता है मदारी पासी का आंदोलन, जो एक मिथकीय चरित्र जैसा लगता है लेकिन उसके आंदोलन ने न सिर्फ सांप्रदायिक सद्भाव पैदा किया वरन् गांवों में नीची कही जाने वाली जातियों में ऐसा रोमांच पैदा किया कि गांवों के बड़े बड़े रसूख वाले लोगों को उनसे बेगार लेना या उनकी औरतों के साथ बदतमीजी महंगी पडऩे लगी। लेकिन इसके लिए मदारी ने उन्हें तैयार किया।
मदारी के पहले चंदन पुर के पास की अछूत बस्ती दुर्जन खेड़ा में मुंशी जी के बेटे के रिश्ते के साले तेज शंकर, जो कांग्रेस के समर्पित सिपाही हैं, एक चेतना पैदा करते हैं। बूढ़े खूंटी की पुत्रवधू टिकुली के रूप में वहां तेजशंकर को ऐसी साहसी महिला मिलती है जो उस पूरे इलाके में गांधी जी के आंदोलन को हवा देती है। टिकुली का ही साहस था कि वहां मदारी पासी अपनी सभा कर पाते हैं वर्ना अब्दुल गनी और ठाकुर ताल्लुकेदार उस पूरी बस्ती को तहस-नहस कर डालने पर तुले थे। उन्नाव, लखनऊ और सीतापुर व हरदोई में मदारी पासी की लोकप्रियता बिल्कुल गांधी जी की तर्ज पर कुछ अलौकिक किस्म की थी। मसलन उनके बारे में कहा जाता था कि वो हनुमान जी की तरह उड़कर कहीं भी पहुंच जाते हैं। गंाधी जी के साथ उनका चरखा जाता था और मदारी पासी के साथ उनकी चारपाई और छोटी कही जाने वाली अछूत जातियां उन्हें भगवान की तरह मानती थी। पासी जातियां उन्हें अपना गांधी ही मानती थीं और उनके बारे मेें वे गर्व से कहती थीं कि उईं हमार पंचन के गांधी आंय। कामतानाथ ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि दुर्जन खेड़ा में जब मदारी पासी के आगमन की बात सुनी गई तो मानों सारी छोटी जातियां- चमार, पासी, काछी, नाई, धोबी, डोम, बेहना, कहार, मनिहार और तमाम गरीब किसान जातियों में उत्साह की लहर दौड़ गई और उन सबका एका सम्मेलन आयोजित किया गया। तब तक इन जातियों का इस बात का अहसास होने लगा था कि अगर गांधी जी व कांग्रेस के प्रयास से आजादी मिल भी गई तो गोरे तो चले जाएंगे लेकिन गांवों में ठाकुरों व बांभनों का ही राज चलेगा और ये उसी तरह अत्याचार करते रहेंगे जैसा कि आज हो रहा है।
मदारी पासी के किसी गांव में जाने के पहले उनके लोग उस गांव में जाते और इन नीची जातियों को एक पोटली को छुआकर कसम दिलाते कि वे एक रहेंगे। इस पोटली में एक ज्वार की रोटी और एक टुकड़ा मांस का होता। इसमें रोटी का मतलब होता- ईका मतलब है कि हमार पंचन की लड़ाई रोटी की है या समझ लेव कि पेट की आय अउर मांस का मतलब कि इस लड़ाई में अपने सरीर का मांस तक देंय पड़ सकत है। कामतानाथ लिखते हैं कि गांव के लोग इसकी व्याख्या यूं करते- मेहनत हमार, धरती की छाती मां हल चलाई हम, फसल काटी हम अउर फल खाएँ सेठ-साहूकार, कि ठाकुर-जमींदार, सो यू अब न चली। जान भले चली जाए मुदा अपन हक हम अब लइके रहब।
इन जातियों को लगता था कि शायद खून खराबा भी होएगा इसलिए जब दुर्जन खेड़ा के कुछ उत्साही युवकों ने पूछा कि का हम कांता-बल्लम लइके आई? तो बुजुर्गों ने समझाया- नहीं कांता-बल्लम अबै न लाओ। जब उइकी जरूरत परी तब वहौ कीन जाई। मदारी पासी अपने साथ सत्यनारायण की कथा की एक किताब और कुरान शरीफ की प्रति लेकर चलते थे। उनके साथ एक पंडित और एक मौलवी भी रहता था जो उन्हें सुनने वाले श्रोताओं को शपथ दिलाते थे कि तुम अपने धर्म की इन किताबों की कसम खाकर कहो कि मदारी पासी की इस लड़ाई में तुम बराबर के साथी रहोगे। मदारी पासी के आगमन पर उसका चित्रण करते हुए कामतानाथ ने लिखा है- "आखिर कोई चार बजे मदारी पासी का आगमन हुआ। भरा हुआ गठीला शरीर, गोल चेहरा, पक्का सांवला रंग, घनी काली गलमुच्छें, सिर के बालों पर मशीन चली हुई, कुर्ता और धोती, कमर में अंगोछे का फेंटा तथा पैर में चमरौधे का जूता। हाथ में लंबा सा बल्लम तथा कमर के फेंटे में तलवार, साथ में लगभग इसी वेशभूषा में चार अंगरक्षक। उनके पीछे एक झोले में सत्यनारायण कथा का सामान और एक गुटका रामायण तथा दूसरे में पीतल के एक पात्र में गंगाजल लिए हुए एक पंडित तथा हरे रंग के कपड़े के बस्ते में कुरान लपेटे हुए एक मौलवी। उनके अतिरिक्त सिर पर उल्टी चारपाई रखे उस पर एक गठरी में खाने पीने का कुछ सामान, गुड़, सत्तू आदि, हुक्का, तंबाकू, लोटा डोर, चारपाई पर बिछाने के लिए एक कथरी और चादर तथा मदारी के दो-एक वस्त्र लिए हुए दो और लोग।"
मदारी पासी अपने भाषण में साफ कहते थे कि "उन्हें बाबा भले कहा जाए पर न तो हम गांधी बाबा हैं और न गांधी बाबा के आदमी हैं। वैसे हमारा उनसे कोई बैर नहीं है। हम भी चाहते हैं कि अंग्रेज इस मुल्क से चले जाएं। मगर हमारी समस्या दूसरी है। अंग्रेज जाएंगे तो अच्छा ही होगा लेकिन हमको तो हमारे हिंदुस्तानी भाई ही चूसे हैं। खेत हम जोतें और फसल ले जाएं सेठ साहूकार और जमींदार। बेगार भरें सो अलग। उस पर हमारी बहू बेटियों की कोई इज्जत नहीं। इस सबकी एक ही वजह है कि हम एक नहंी हैं। इसी लिए हम गांव-गांव घूम कर एका सम्मेलन कर रहे हैं।" मदारी कुछ प्रतिज्ञाएं भी अपने श्रोताओं से कराते थे। जैसे "हम आज से बेगार नहीं भरेंगे। अगर हमारे एक भाई का खेत साहूकार या जमींदार छीनता है तो हमारा दूसरा भाई उससे बटाई पर खेत नहीं लेगा तथा न ही नीलामी में बोली बोलेगा। साहूकार या महाजन को मुनासिब सूद से ज्यादा पैसा नहीं देंगे। सूद के बदले आनाज तो देंगे ही नहीं। काहे कि आनाज दिन-ब-दिन मंहगा होता जा रहा है और साहूकार हमसे कम पैसों में ज्यादा आनाज ले लेता है। साथ ही हमारी बहू बेटियों पर किसी ने बुरी नजर डाली तो हम उसकी आँख निकाल लेंगे।"
मदारी पासी के इस ओजपूर्ण भाषणों को सुनने के लिए अवध के किसान बाट जोहते थे कि कब मदारी बाबा उनके यहां आएंगे। और मदारी भी गांव-गांव जाकर अपने आंदोलन की जमीन तैयार कर रहे थे। यह अलग बात है कि चाहे वह कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग किसान आंदोलन से बराबर की दूरी रखते थे। भले वे आपस में एक मंच पर आकर बात करने को तैयार रहें लेकिन मदारी पासी के आंदोलन को दबाने के लिए वे सरकार को पूर्ण सहयोग करते थे। बाबा रामचंदर के आंदोलन में पिछड़ी जाति के किसान थे लेकिन मदारी पासी ने अछूत कही जाने वाली जातियों में आत्म सम्मान का भाव पैदा किया। मदारी पासी अपनी माटी की ही उपज थे और वे कोई चतुर सुजान नेता नहीं थे लेकिन अनवरत संघर्ष से जो जज्बा पैदा होता है वह मदारी पासी में खूब था। इसके उलट बाबा रामचंदर महाराष्ट्र से भटकते हुए दक्षिण अफ्रीका गए वहां उन्होंने मजदूर आंदोलन में हिस्सा लिया और जब वहां से उन्हें देशनिकाला दे दिया गया तो भारत आकर इलाहाबाद में बस गए। वे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे इसलिए न चाहते हुए भी उनके अंदर बाल गंगाधर तिलक के प्रति सम्मान का भाव था और वे कांग्रेस से उतनी दूरी नहीं रखते थे जितनी कि मदारी पासी। बाबा रामचंदर के आंदोलन का आधार वे पिछड़ी जातियां थीं जो समाज में सम्मान की लड़ाई लड़ रही थीं और उनके पास कुछ बहुत जमीनें भी थीं पर जमींदार उन पर जबरन कब्जा कर लेते थे। इन पिछड़ी जातियों की बहू बेटियों पर ठाकुर जमींदार उतनी आसानी से नजर नहीं डाल पाते थे जितनी सहजता से वे मदारी पासी के साथ जुड़ी जातियों की बहू बेटियों पर। इसलिए दोनों आंदोलनों को जोडऩा फिजूल है। मदारी पासी एक हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे थे जिसकी तुलना आज के नक्सली आंदोलन से की जा सकती है।
कामतानाथ ने दुर्जन खेड़ा की जिस टिकुली का जिक्र किया है वह महिला गांधीवादी तेज शंकर के प्रभाव में आकर चरखा कातने लगती है और यह चरखा उसके लिए मंदिर है, आस्था का केंद्र है। उधर जब मदारी पासी उसके गांव में आते हैं तो वह उनकी हर बात पर गांठ बांध लेती है और बड़कऊ ङ्क्षसह जमींदार, रामप्रसाद कानून गो तथा अब्दुल गनी जैसे ताल्लुकेदारों द्वारा पुलिस से पिटवाए जाने के बावजूद वह अपनी आस्था से नहीं डिगती। यह था उस आंदोलन का असर जो एक तरफ तो गांधी जी शुरू कर रहे थे दूसरी तरफ मदारी पासी।
कामता जी काल कथा को चार खंडों में लिखना चाहते थे। १९९८ में जब ये दोनों खंड छप कर आए तो उन्होंने मुझसे कहा था कि देखो शंभू बाकी के दो खंड भी जल्दी ही छप जाएंगे। लेकिन वे अपनी बीमारी और व्यस्तताओं में ऐसे उलझे कि काल कथा के बाकी दो खंड लिखने के पूर्व ही क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया।