बुधवार, 18 सितंबर 2013

Hey Manniyon!

सब धान बाईस पसेरी नहीं होते!
मुझसे ब्राह्मण नाराज हैं क्योंकि ब्राह्मणों के ब्राह्मणवाद का मैं सख्त विरोधी हूं। आस्तिक नाराज हैं क्योंकि मुझे ईश्वर पर भरोसा नहीं है। आरक्षण विरोधी नाराज हैं क्योंकि मुझे लगता है कि आरक्षण सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों का अधिकार है। मंडल के दिनों में भी मैं अकेला ब्राह्मण पत्रकार था जिसने जनसत्ता में पिछड़ों के आरक्षण के समर्थन में लेख लिखा था। और रामपूजन पटेल ने सार्वजनिक मंच से यह बात उद्धृत की थी। पर आज उत्तर प्रदेश की माननीय विधायक अनुप्रिया पटेल जी भी नाराज हो गईं क्योंकि उन्हें फीडबैक दिया गया कि मैने आरक्षण समर्थकों का विरोध किया है। सपा सुप्रीमो नाराज हंै क्योंकि मैं मुजफ्फर नगर के मामले में सपा सरकार के रवैये का विरोधी रहा हूं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ईमानदारी, उनकी नेकनीयती का मैं कायल हूं और मैं ही क्यों यूपी में जो भी संजीदा व्यक्ति होगा उनकी साफगोई का कायल तो होगा ही। पर हे माननीयों! मेरी भी बात सुन लें। मैं एक अमनपसंद शहरी हूं और जो भी मुझे न्यायसंगत लगता है मैं लिखता व कहता हूं। मुझे अगर लगता है कि किसी भी देश प्रदेश की सरकार का दायित्व है कि वह अपने मुल्क, अपने राज्य की कमजोर व अल्पसंख्यक जनता के साथ किस तरह पेश आती है। बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के प्रति एक नरम रुख अपनाना चाहिए। एक बड़े भाई की तरह उनसे पेश आना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि पहला हक उनका है जो हमारी तुलना में कमजोर रहे अथवा अपना वाजिब हक नहीं पा पाए। पर लगता है कि मेरी बात समझने की कोशिश कोई नहीं कर रहा। मुझे माननीया अनुप्रिया पटेल की पोस्ट से दुख हुआ। मेरे अपन दल के संस्थापक स्वर्गीय सोनेलाल पटेल से बेहद करीबी रिश्ते थे और अक्सर हमारा मिलना जुलना रहा करता था। पर आज उनके परिवार के समक्ष मेरी तस्वीर बतौर आरक्षण विरोधी पेश की जा रही है।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

वही शमशेर मुजफ्फरनगरी है शायद

गुजरात की डगर पर मुजफ्फर नगर
मुजफ्फर नगर की सांप्रदायिक हिंसा ने अंदर तक हिला दिया है। मुझे गुजरात की हिंसा से दुख हुआ था और तब मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक था। मैने गुजरात की हिंसा के विरोध में अन्य बंगाली संपादकों की तरह एक सेकुलर फोरम से भाषण दिया था। जिसे वहां के बर्तमान, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया, आजकल तथा आनंदबाजार पत्रिका ने छापा था। बंगाली भद्रलोक मेरे भाषण और मेरी धर्मनिरपेक्षता से प्रभावित हुआ था। पर गुजरात हिंसा पर मेरा दुख इतना ही है  जितना कि नाइन एलेवन से। मेरे फ्रेंड सर्किल में कोलकाता में बसे गुजरातियों जैसे कि दिनेश त्रिवेदी के अलावा अन्य कोई गुजराती नहीं हैं और गुजरात राज्य मेें सिवाय द्वारिका शहर के अन्य कोई शहर भी मुझे पसंद नहीं है। पर एक शहर के रूप में मुजफ्फर नगर से मेरा लगाव बहुत ज्यादा है। पांचवें दरजे में हमें यह पढ़ाया गया था कि हमारा प्रदेश जो कि एक बैठे हुए बाघ की आकृति का है, में सबसे संपन्न जिला मुजफ्फर नगर है। साल १९६३ में मुजफ्फर नगर और जालौन में सबसे जयादा ट्रैक्टर थे। तब हमारे घर में नया-नया ट्रैक्टर आया था और ट्यूब वेल लगा था सो हमें  आधुनिक और वैज्ञानिक खेती का महत्व पता था। मुजफ्फर नगर पहली बार मैं तब आया जब यहां के चौधरी नारायण सिंह यूपी में डिप्टी चीफ मिनिस्टर बने। चौधरी साहब हेमवती नंदन बहुगुणा खेमे के थे। और बहुगुणा जी से हमारे पारिवारिक रिश्ते थे। मैं मुजफ्फर नगर जाता तो चौधरी साहब की सिविल लाइन्स स्थित कोठी में ठहरता। शाम को चौधरी साहब के यहां दरबार लगता। हरेंद्र मलिक, परमजीत मलिक, सईदुज्जमां और हुकुम सिंह सब चौधरी साहब के चेले थे। खूब राजनीति बतियाई जाती। चौधरी साहब के मंझले पुत्र सुनील चौहान खुद चाणक्य की भूमिका में रहते और इतना अच्छा राजनीतिक विश्लेषण करते कि शायद आज जो पोलेटिकल कमेंटेटर आपको टीवी और अखबारों में दिखाई पड़ते हैं सब उनके सामने तौबा करते। पर वे अपने पैरों से लाचार थे। उठने-बैठने के लिए भी उन्हें सहारे की जरूरत होती। चौधरी साहब का छोटा बेटा संजय चौहान इस समय बिजनौर लोकसभा सीट से रालोद के टिकट पर सांसद हैं।
इसीलिए मुजफ्फर नगर का दंगा मुझे अंदर तक हिला गया है। यह सच है कि मुजफ्फर नगर में अपराध का ग्राफ बहुत ऊपर रहता है पर संपन्नता अपने साथ अपराध भी लाती ही है। मुजफ्फर नगर के बनियों का साम्राज्य दक्षिण तक फैला है। तमाम लोगों के तो गोआ, मुंबई व लंदन में भी  होटल हैं। गांवों में गन्ने की खेती ने यहां समृद्धि के नए द्वार खोले हैं। मेरठ और मुजफ्फर नगर के बीच होड़ चला करती है। मेधा में भी, ताकत में भी और पैसे में भी। लेकिन मुझे लगता है कि मेरठ मुजफ्फर नगर के आगे बौना है। मेरठ में साहित्यकारों के नाम पर गुलशन नंदा के नए संस्करण ही दीखते हैं जबकि मुजफ्फर नगर में शमशेर बहादुर सिंह, विष्णु प्रभाकर और गिरिराज किशोर साहित्य के आसमान पर। दंगों के लिए मेरठ तो बदनाम था पर मुजफ्फर नगर कभी नहीं रहा लेकिन देखिए अखिलेश यादव की सरकार के निकम्मेपन ने मुजफ्फर नगर को गुजरात बना दिया है। ५० हजार लोगों का पलायन गुजरात में नहीं हुआ था पर मुजफ्फर नगर से हुआ और न तो अखिलेश बबुआ कुछ कर पा रहे हैं न मुलायम चच्चा।

शनिवार, 14 सितंबर 2013

गवाह होस्टाइल हो गया

हर शरीफ शहरी की तरह मैं भी कोर्ट कचेहरी से बहुत डरता हूं। पर हर आदमी की तरह जीवन में कभी न कभी काले कोट के दर्शन करने ही पड़ते ही हैं। 1993 की मार्च में मुझे भी दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में जाना पड़ा। मुझे इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने 1987 में हुई हड़ताल के संदर्भ में गवाह बनाया था। हड़ताल खत्म होने के बाद इंडियन एक्सप्रेस के कुछ कर्मचारियों खासकर जनसत्ता के पत्रकारों पर तेजाब फेंका गया था। जिन छह लोगों पर तेजाब फेंका गया, उनमें से एक मैं भी था। आरोप था कि कर्मचारी यूनियन के नेता टीएस रंगाराजन के इशारे पर कुछ हड़ताल समर्थक लोगों ने तेजाब फेंका था। हड़ताल खत्म हो चुकी थी इसीलिए हम लोग काम करने पहुंचे थे लेकिन कुछ लोग अभी भी हड़ताल को यथावत मान रहे थे। एक दिसंबर की रात जब हम लोग नगर संस्करण छुड़वा कर घर के लिए निकले तो प्रताप बिल्डिंग के पास कुछ लोगों ने स्टील के एक जग से हम पर तेजाब फेंका। कुछ पर ज्यादा पड़ा और कुछ पर सिर्फ छींटें ही पड़ीं। जिन पर छींटें ही पड़ीं उनमें से एक मैं भी था। इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने एक मुकदमा कायम कराया और पुलिस की डायरी में मेरा भी नाम बतौर गवाह डलवा दिया गया। उस समय दिल्ली में पुलिस की डायरी उर्दू में भरी जाती थी इसलिए मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे दस्तखत कहां कराए गए हैं। कुछ दिन बाद बताया गया कि हमें अपने ही हड़ताली साथियों के विरोध में गवाही देनी है कि उन्होंने ही तेजाब डाला। अब यह सरासर गलत था क्योंकि साफ-साफ हम देख ही नहीं पाए कि तेजाब डालने वाले कौन लोग थे। इसलिए मैने तो गवाही देने से मना कर दिया। लेकिन पांच साल बाद एक दरोगा हमारे घर आया और दबाव डालने लगा कि सर आप कोर्ट कल चले ही जाइएगा वर्ना आपके नाम गैर जमानती वारंट जारी हो जाएगा। खैर मैं गया तीस हजारी कोर्ट। वह ठीक वैसा ही था जैसा कि बांदा, झांसी, उरई, हमीरपुर आदि के कोर्ट होते हैं। जीनों के कोने पर पान की पीकें और वकीलों के बस्तों पर उदास अंाखों वाले क्लांइट्स की भीड़। खैर एक मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में मेरा नंबर भी आया। नाम जैसे ही बुलाया गया मैं फटाफट हाजिर हो गया। वकील ने कहा कि आप पर तेजाब पड़ा था? मैने कहा कि हां। उसने कुछ लोगों की तरफ इशारा कर कहा कि यही लोग थे? मैने कहा नहीं। उसने अब मजिस्ट्रेट से कहा कि सर गवाह होस्टाइल हो गया है। यह होस्टाइल शब्द मुझे गाली जैसा ही लगा। मैने जज साहब से कहा सर मैं कतई होस्टाइल नहीं हुआ हूं। वकील साहब बताएं कि मैने ऐसा कब बयान दिया है कि मैं इन्हें पहचानता हूं? दिसंबर १९८७ की दरिया गंज पुलिस थाने की डायरी का वह पेज मंगाया गया। पर उसे न तो वकील साहब पढ़ पाए न पेशकार और न ही जज साहब। बड़ी विचित्र स्थिति थी। लंच तक सब इसी में उलझे रहे। मैने कहा सर इसमें यह लिखा ही नहीं है कि मैने इन लोगों को देखा था। मैं उर्दू पढ़ सकता हूं और वकील साहब जान बूझकर गलत बातें कर रहे हैं। एक मुल्ला जी आए और वे संयोग से उन्हीं लोगों के समर्थक थे जिन पर तेजाब फेंकने का आरोप था। उनसे पढ़ाया गया और उन्होंने मेरी ही बात की तस्दीक की। लिहाजा जज साहब ने मुकदमा खारिज ही कर दिया। वैसे प्रबंधन भी इस केस को खत्म करने का ही इच्छुक था। ऊपर से उर्दू की डायरी पढ़े जाने की जहमत। इसलिए जज साहब ने वकील साहब को नसीहत दी कि भविष्य में वे जब भी कोई केस लेकर आएं पहले होमवर्क कर लिया करें। अब वकील साहब ने उनकी नसीहतों पर पालन किया होगा, पता नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले 25 वर्षों के भीतर पुलिस डायरी के हिंदी में लिखे पेज भी पढऩे वाला कोई नहीं होगा क्योंकि अब वकालत की भाषा लोकल कोर्ट में भी अंग्रेजी हो गई है। अगर हिंदी में कोई शब्द लिखा भी जाए तो उसे रोमन में लिखा जाता है। जय हो हिंदी मैया की

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हुज्जते बंगाल से भिडऩा आसान नहीं

हुज्जते बंगाल से भिडऩा आसान नहीं
शंभूनाथ शुक्ल
कोलकाता का प्रेसीडेंसी कालेज बहुत पुराना और प्रतिष्ठित कालेज रहा है। अब उसे विश्वविद्यालय का दरजा मिल गया है। यहां बुधवार को तमाम अशोभनीय घटनाएं घटीं। इस विश्वविद्यालय के कैंपस में बुधवार को कुछ प्रदर्शनकारी घुस गए और वहां की सर जगदीशचंद्र वसु लैब में काफी तोडफ़ोड़ की। फौरन कुलपति मालबिका सरकार ने मीडिया वालों को बुलवाया और आरोप लगाया कि प्रदर्शनकारी तृणमूल कांग्रेस की छात्र इकाई से थे। वे तृणमूल कांग्रेस का झंडा लिए हुए थे तथा उनका नेतृत्व स्थानीय सभासद पार्थो बसु कर रहे थे। इसके बाद हंगामा मचना स्वाभाविक था। राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी ने अगले ही रोज आरोप लगाया कि कुलपति ने बगैर कुलाधिपति को बताए मीडिया से बात कर ली और इस बात की उन्होंने पुष्टि नहीं की कि प्रदर्शनकारी तृणमूल के थे भी या नहीं। इसका असर यह पड़ा कि मालबिका सरकार ने गुरुवार को दोपहर बाद शिक्षा मंत्री सुब्रत मुखर्जी के साथ एक प्रेस वार्ता की और बात साफ की कि वे लोग तृणमूल का झंडा तो लिए हुए थे लेकिन उनमें तृणमूल का कोई नेता नहीं था।
माकपा ने कुलपति के इस बयान की तीव्र आलोचना की है। माकपा का आरोप है कि तृणमूल सुप्रीमो विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण कर रही हैं। हालांकि यह आरोप उतना ही माकपा पर भी फिट बैठता है। पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों का राजनीतिकरण पहले माकपा ने ही किया था और प्रसीडेंसी कालेज तो उसका प्रिय अखाड़ा रहा है। माकपा के ज्यादातर बड़े नेता, यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य भी इसी कालेज से पढ़े थे। इसलिए प्रेसीडेंसी कालेज में राजनीति होनी स्वाभाविक ही है।
माकपा के छात्र संगठन एसएफआई के एक कार्यकर्ता सुदीप्तो घोष की हत्या के बाद से पश्चिम बंगाल की राजनीति गरमा गई थी। माकपा ने पूरे राज्य में धरना प्रदर्शन कर तृणमूल को कठघरे में खड़ा कर दिया था। प्रदेश की राजनीति की उथलपुथल से घबरा कर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ९ अप्रैल को दिल्ली में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पी चिदंबरम से मिलने के लिए आई थीं। पर मुलाकात के कुछ पहले ही उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा के साथ दिल्ली स्थित योजना भवन के सामने एसएफआई के कुछ लोगों ने बदतमीजी कर दी। उनका कुरता फाड़ दिया और उनसे हाथापाई भी की। ममता के तेवर फिर गरम हो गए और उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने से मना कर दिया। केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ल ममता बनर्जी को समझाने गए तो उन्होंने राजीव शुक्ल को डांट दिया और वापस कोलकाता लौट गईं। जहां ब्लड पे्रशर नीचे हो जाने के कारण उन्हें वहां के बेलव्यू अस्पताल में भरती कराया गया।
सवाल यह उठता है कि पश्चिम बंगाल में जरा-जरा सी बात पर हिंसा क्यों हावी हो जाती है। यूं हुज्जते बंगाल मशहूर है यानी बंगाल के खून में ही हुज्जत करना है। शायद वहां का क्लाईमेट ऐसा है कि लोगबाग जरा सा भी विचलन बरदाश्त नहीं कर पाते। या तो आप हमारी तरफ हैं अथवा दुश्मन खेमे की तरफ और दुश्मन का सफाया बंगाल में मान्य है। १९६७ में शुरू हुई नक्सली हिंसा से लेकर आजतक बंगालियों की मानसिकता में हिंसा को एक मान्यता मिल चुकी है। अपने कोलकाता प्रवास के दौरान की एक घटना यहां बताना समीचीन होगी।
मार्च सन् २००० की तीन या चार की तारीख की रात थी। अखबार का सिटी एडिशन छुड़वा कर मैं अपने घर के लिए निकला ही था कि हाथी बागान में एक युवक दौड़ा-दौड़ा आया और मेरी एंबेसडर कार की बोनट पर एक धारदार हथियार का वार किया। मैं तो सन्न। अभी कोलकाता में जनसत्ता का संपादक पद संभाले हुए कुल तीन ही दिन हुए थे। इतनी जल्दी भला किसी से क्या दुश्मनी होगी? चंडीगढ़ जैसे साफ-सुथरे शहर से आया था इसलिए कोलकाता की गलियों और यहां की आबोहवा से बहुत परिचित भी नहीं था। भीड़ ने कार घेर ली और बांग्ला में जोर-जोर से कुछ बोलने लगे। मुझे डर भी लगा तभी ड्राइवर कार से  उतरा और उसने उन्हें कुछ समझाया और वे नोमस्कार दादा बोलते हुए चले गए। बाद में ड्राइवर ने बताया कि ये लोग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग थे और वे तृणमूल पार्टी के लेागों को पीटने के लिए सड़क पर उतरे थे। हुज्जते बंगाल के पहले दर्शन हुए।
तब तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी गठजोड़ को राज करते हुए २३ साल हो चुके थे तथा बतौर मुख्यमंत्री ज्योति वसु को भी। लेकिन अब वामदलों का पानी उतरने लगा था। ममता बनर्जी की तृणमूल धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाती जा रही थी। मुस्लिम इलाकों और पश्चिम बंगाल के शहरों में ममता की पार्टी की साख बढ़ रही थी। रोज कोई न कोई झगड़ा कहीं न कहीं हो ही जाता था। दोनों पार्टियों के तमाम कार्यकर्ता मारे जा चुके थे। निष्कर्ष यह निकला कि ज्योति वसु को हटाकर माकपा पोलित ब्यूरो ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना दिया। बुद्धेदव बाबू ने अपनी अगुआई में २००१ का चुनाव जितवा दिया और २००६ का भी। पर २००९ के लोकसभा चुनाव में तृणमूल और कांग्रेस को अच्छी खासी तादाद में सीटें मिल गईं। तभी से लग गया था कि अगला विधानसभा चुनाव अब वाम गठजोड़ नहीं जीत पाएगा और वही हुआ भी। २०११ में वामपंथी दल बुरी तरह हारे और ममता ने अपने बूते पश्चिम बंगाल में सरकार बना ली। वामदलों ने पश्चिम बंगाल में पूरे ३४ साल राज किया।
लेकिन वह संयम जो वामदलों में था वह ममता की तृणमूल में देखने को नहीं मिला। ममता का कांग्रेस से गठजोड़ टूटा और ममता ने दिल्ली आना ही बंद कर दिया। लेकिन बिना दिल्ली की मदद के कोई भी क्षत्रप अपना राजकाज सुचारू रूप से नहीं चला सकता इसीलिए ममता ९ अप्रैल को दिल्ली आई थीं। दिल्ली की केंद्र सरकार को भी ममता के सहारे की जरूरत है इसीलिए राज्यपाल इतने हंगामे के बावजूद ममता की तारीफ कर रहे हैं और वामदलों की निंदा। लेकिन जहां गुस्सा नाक पर बैठा हो वहां की किसी भी पार्टी से हर समय सहारे की उम्मीद करना बेमानी होगी।

बुधवार, 11 सितंबर 2013

मदारी पासी के जरिए किसानों का एका

मदारी पासी के जरिए किसानों का एका
शंभूनाथ शुक्ल
स्वतंत्रता की पहली लड़ाई १८५७, जिसे अंग्रेजों ने गदर कहा है को दबा देने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने अवध के किसानों का सबसे ज्यादा दमन किया। जमीनें उनसे छीनकर अंग्रेजों के दलाल जमींदारों के अधीन कर दी गईं और वे जमींदार अंग्रेजों के एजेंट के तौर पर काम करते थे। एक मई १८७६ को महारानी विक्टोरिया ने इंडिया को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन कर लिया। लेकिन इससे न तो भारत का भाग्य बदला न किसानों की पीड़ा। उल्टे अब दो-दो स्तर पर उनका दमन होता था। अंग्रेज सरकार अपने स्तर पर उनका दमन तो करती ही थी स्थानीय महाजनों, साहूकारों और जमींदारों ने कभी बेगार के बदले तो कभी सूद के बदले उनके खेत व जेवर छीनने शुरू कर दिए। किसानों की बहुएं बेटियां भी इन जमींदारों की क्रूरता के चलते सुरक्षित नहीं थीं। ऊपर से नगदी लगान के कारण वे साहूकारों व महाजनों के आगे पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी जमीन जायदाद ही गिरवी नहंी रखते गए वरन् खुद को भी गिरवी रखते गए। बीसवीं सदी शुरू होते ही बंगाल सूबे का बटवारा हो गया और नई रैयतवारी व्यवस्था तथा बंदोबस्त प्रणाली लागू हुई। अवध के किसानों पर इसका और भी बुरा असर पड़ा। जमीनें बढ़ाने के लिए जंगलों को तोड़ा जाने लगा और नौतोड़ की इस व्यवस्था में किसानों ने मेहनत तो खूब की पर उन्हें उसका अपेक्षित लाभ नहंी मिला। उपजाऊ नई जमीनें समतल तो किसान करते लेकिन जैसे ही उनमें फसल उगाने का क्रम शुरू होता उन पर लगान की नई दरें लागू हो जातीं। किसान सपरिवार मेहनत कर जमीनें तोड़ते लेकिन इसका लाभ उन्हें नहीं मिलता। यह वह दौर था जब पूरे अवध के इलाके में किसान बुरी तरह पीडि़त था। कांग्रेस के आंदोलन का लाभ शहरी व्यापारियों को तो मिला लेकिन किसान उससे वंचित रहे। कौंसिलों में शहरी मध्यवर्ग की चिंताओं को लेकर तो हुक्मरान चिंता करते पर किसानों का वहां जिक्र तक नहंी होता।
ऐसे समय में मोहनदास कर्मचंद गांधी फलक पर प्रकट होते हैं और निलहे गोरों के जुल्मों को उघाड़ कर किसानों की पीड़ा को उन्होंने धार दी। चंपारन में राजकुमार शुक्ल के साथ मोतिहारी जाकर उन्होंने किसानों की पीड़ा को महसूस किया। उन्होंने अपनी लिखा पढ़ी और अपनी वकालत की ताकत से किसानों को निलहे गोरों के जुल्म से आजाद कराया। लेकिन गांधी जी  इसके बाद कांग्रेस के बड़े नेता हो गए। कांग्रेस ने उन्हें हाथों हाथ लिया और वे धीरे-धीरे किसान आंदोलन से दूर होते गए। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से किसानों का गांधी से मोहभंग हो गया। अब किसान आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका सिर्फ जमींदारों और सेठ साहूकारों के हितों के पोषक भर की रह गई। पूरे अवध के इलाके में किसान तबका बुरी तरह परेशान था। शहरी क्षेत्रों में नई मिलें खुल जाने तथा रेलवे, कचेहरी और व्यापार के चलते गांवों का पढ़ा लिखा तबका शहर आ बसा। और शहरों की इस कमाई से उसने गांवों में जमींदारी खरीदनी शुरू कर दीं। ये नए कुलक किसी और गांव में जाकर जमींदारी खरीदते और अपनी रैयत से गुलामों जैसा सलूक करते। इन नए शहरी जमींदारों को कांग्रेस का परोक्ष समर्थन भी रहता। इसीलिए किसानों की गांधीबाबा से दूरी बढऩे लगी। यह वह दौर था जब अवध में किसानों के संगठन बाबा रामचंदर या मदारी पासी के नेतृत्व में बनने लगे। बिहार में त्रिवेणी संघ और अवध में तीसा आंदोलन इसी दौर में पनपे। इनको परोक्ष रूप से क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी और साम्यवादी संगठनों का भी समर्थन था। सत्यभक्त, राधा मोहन गोकुल जी, राहुल संाकृत्यायन, स्वामी सहजानंद भी किसानों को संगठित करने में लगे थे। यह तीसा आंदोलन काफी व्यापक रूप से फैला लेकिन गांधी जी के असहयोग और जवाहर लाल नेहरू की उदासीनता के चलते यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया पर इससे यह समाप्त नहंी हुआ। अंग्रेजों को किसानों को तमाम सहूलियतें देर सबेर देनी पड़ीं और एक निश्चित अवधि के बाद किसानों को जमीन पट्टे पर लिखनी पड़ीं।
इस किसान आंदोलन ने पत्रकारिता के साथ-साथ उस दौर के कथा साहित्य पर भी व्यापक असर डाला। प्रेमचंद का गोदान गुलाम बनते किसानों की पीड़ा को दर्शाता है कि कैसे होरी बाद में किसान से मजूर बन गया। किस तरह किसान पीडि़त था और कैसे उसे सेठ साहूकार और महाजन तथा जमींदार कभी-कभी लगान के नाम पर तो कभी बेगार के नाम पर और कभी धर्म के नाम पर परेशान कर रहे थे। मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार मुल्कराज आनंद ने १९४२ में अपना मशहूर उपन्यास द स्वोर्ड एंड द सिकल ( ञ्जद्धद्ग स्2शह्म्स्र ड्डठ्ठस्र ञ्जद्धद्ग स्द्बष्द्मद्यद्ग) रायबरेली के किसान आंदोलन पर ही लिखा है। असंख्य कविताएं भी इस दौर में लिखी गईं। पर हिंदी में इस आंदोलन को केंद्र में रखकर कोई भी उपन्यास नहीं लिखा गया। हालंाकि कमला प्रसाद त्रिपाठी ने पाहीघर, अमृतलाल नागर ने गदर के फूल और अमरकांत ने १८५७ को आधार बनाकर किसानों पर कुछ अच्छे उपन्यास लिखे। लेकिन मदारी पासी और बाबा रामचंदर के आंदोलन पर कुल जमा दो ही उपन्यास उल्लेखनीय हैं। एक तो कमला प्रसाद त्रिपाठी का बेदखल और दूसरा कामतानाथ का काल कथा। बेदखल बाबा रामचंदर के तीसा आंदोलन पर लिखा गया है। जबकि काल कथा के केंद्र में मदारी पासी है। इसके अलावा वीरेंद्र यादव का शोध इस आंदोलन की सर्वाधिक प्रामाणिक जानकारी देता है। कामतानाथ का उपन्यास काल कथा के केंद्र में दूसरे विश्व युद्ध के बाद का दौर है जब देश में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी कांग्रेस के समानांतर एक संगठन बन गया था और लोगों में गांधी से मोहभंग होने लगा था। काल कथा में हालांकि कामता जी ने शहरी आंदोलन पर ज्यादा फोकस किया है लेकिन अवध के गांवों की मानसिकता तथा वहां पर हो रही सुगबुगाहट को उन्होंने अनदेखा नहीं किया है।
दरअसल कामतानाथ समानांतर कथा अंादोलन की उपज थे इसलिए उन्होंने वही लिखा जिसे करीब से देखा, महसूस किया और सुना। निजी जीवन में वे एक शहरी थे। पूरा जीवन उनका लखनऊ व कानपुर में कटा। रिजर्ब बैंक में स्टाफ अफसर थे लेकिन गांव और गंवई परिवेश की इतनी समझ कम लोगों के पास रही होगी। उनका सपना था बीसवीं सदी के शुरुआती तौर के अवध के गांवों की एक तस्वीर अपनी कलम से उतार देने की। इसीलिए उन्होंने काल कथा को चार खंडों में लिखने की योजना बनाई थी पर दो लिखने के बाद ही काल ने उन्हें हमसे छीन लिया। लेकिन इन दो खंडों में ही वे अपनी पूरी बात कहते हुए प्रतीत होते हैं। एक कानून गो कायस्थ परिवार के सहारे उन्होंने इस उपन्यास का ताना बाना बुना और उसमें एकदम खरे उतरे। उस समय उन्नाव और लखनऊ के गांवों में किसान कैसी समस्याओं से जूझ रहे थे और ताल्लुकेदार अपनी ऐयाशियों मेें डूबे हुए थे। लेकिन अंदर ही अंदर किसानों के अंदर ताल्लुकेदारों के खिलाफ, अंग्रेज निजाम के खिलाफ और गंाव के अंदर परंपरागत ढांचे के खिलाफ एक गुस्सा फूट रहा था इसका अच्छा विवरण काल कथा में मिलता है। वे किसान जो अंगे्रजों की नई बंदोबस्त प्रणाली के कारण किसान से मजदूर बनते जा रहे थे और खेती का दायरा सिमटता जा रहा था, लगातार सुलग रहे थे। भले कांग्रेस किसानों के मामले में एक रहस्यमयी चुप्पी साधे हो पर तमाम ऐसे लोग थे जो इस आंदोलन को हवा दे रहे थे। इसमें किसान सभा से लेकर मदारी पासी का आंदोलन तक था। कामतानाथ ने इन सब आंदोलनों को बखूबी मुखर किया है कालकथा में।
पहले विश्वयुद्ध के कुछ पहले जब निलहे गोरों से किसानों को मुक्ति मिल गई थी तो देसी निलहों ने उन जमीनों पर कब्जा कर लिया और अपने कारकुनों के सहारे किसानों पर जुल्म करने लगे। लगान नगद देने की व्यवस्था के कारण किसान के पास कुछ हो या न हो लगान भरना ही पड़ता था। एक ऐसे समय जब फसलों के नगदीकरण की कोई व्यवस्था न थी लगान नगद देने के कारण अवध के किसान बेहाल थे। किसानी सिर्फ उनकी मर्यादा के लिए जरूरी रह गई थी। उन्नाव के एक  गांव चंदन पुर में कानून गो मुंशी रामप्रसाद रहा करते थे। जिनके पास खेती के साथ-साथ कानून गो जैसी नौकरी के कारण गांव में काफी रसूख था और गाजी खेड़ा के ताल्लुकेदार अब्दुल गनी जैसे लोग भी उन्हें बराबरी का मान देते हैं। मुंशी जी के तीन बेटे हैं। जिसमें से बड़े लक्ष्मी गांव में रहते हैं और मझले लखनऊ कचहरी में पेशकार हैं तथा तीसरा दसवीं में कई बार बैठता है पर हर बार फेल हो जाने के कारण लखनऊ चला जाता है नौकरी के लिए। बड़े बेटे लक्ष्मी का बेटा बच्चन भी चाचा के  पास चला जाता है लेकिन जल्दी ही वह लखनऊ में चल रहे राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव में आ जाता है। बस इसी बच्चन के सहारे पूरे उपन्यास का तानाबाना बुना गया है। बच्चन कांग्रेस के विदेशी वस्त्रों की होली जलाए जाने के आंदोलन से शुरू कर खुद को क्रांतिकारियों के बीच जल्द ही पाता है और तब उसे पकड़ कर लाहौर ले जाया जाता है जहां उसे फांसी दे दी जाती है। लेकिन इसके बीच उस समय अवध के गांवों में चल रहे आंदोलन को भी बखूबी उघाड़ा गया है। सबसे ज्यादा अपील करता है मदारी पासी का आंदोलन, जो एक मिथकीय चरित्र जैसा लगता है लेकिन उसके आंदोलन ने न सिर्फ सांप्रदायिक सद्भाव पैदा किया वरन् गांवों में नीची कही जाने वाली जातियों में ऐसा रोमांच पैदा किया कि गांवों के बड़े बड़े रसूख वाले लोगों को उनसे बेगार लेना या उनकी औरतों के साथ बदतमीजी महंगी पडऩे लगी। लेकिन इसके लिए मदारी ने उन्हें तैयार किया।
मदारी के पहले चंदन पुर के पास की अछूत बस्ती दुर्जन खेड़ा में मुंशी जी के बेटे के रिश्ते के साले तेज शंकर, जो कांग्रेस के समर्पित सिपाही हैं, एक चेतना पैदा करते हैं। बूढ़े खूंटी की पुत्रवधू टिकुली के रूप में वहां तेजशंकर को ऐसी साहसी महिला मिलती है जो उस पूरे इलाके में गांधी जी के आंदोलन को हवा देती है। टिकुली का ही साहस था कि वहां मदारी पासी अपनी सभा कर पाते हैं वर्ना अब्दुल गनी और ठाकुर ताल्लुकेदार उस पूरी बस्ती को तहस-नहस कर डालने पर तुले थे। उन्नाव, लखनऊ और सीतापुर व हरदोई में मदारी पासी की लोकप्रियता बिल्कुल गांधी जी की तर्ज पर कुछ अलौकिक किस्म की थी। मसलन उनके बारे में कहा जाता था कि वो हनुमान जी की तरह उड़कर कहीं भी पहुंच जाते हैं। गंाधी जी के साथ उनका चरखा जाता था और मदारी पासी के साथ उनकी चारपाई और छोटी कही जाने वाली अछूत जातियां उन्हें भगवान की तरह मानती थी। पासी जातियां उन्हें अपना गांधी ही मानती थीं और उनके बारे मेें वे गर्व से कहती थीं कि उईं हमार पंचन के गांधी आंय। कामतानाथ ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि दुर्जन खेड़ा में जब मदारी पासी के आगमन की बात सुनी गई तो मानों सारी छोटी जातियां- चमार, पासी, काछी, नाई, धोबी, डोम, बेहना, कहार, मनिहार और तमाम गरीब किसान जातियों में उत्साह की लहर दौड़ गई और उन सबका एका सम्मेलन आयोजित किया गया। तब तक इन जातियों का इस बात का अहसास होने लगा था कि अगर गांधी जी व कांग्रेस के प्रयास से आजादी मिल भी गई तो गोरे तो चले जाएंगे लेकिन गांवों में ठाकुरों व बांभनों का ही राज चलेगा और ये उसी तरह अत्याचार करते रहेंगे जैसा कि आज हो रहा है।
मदारी पासी के किसी गांव में जाने के पहले उनके लोग उस गांव में जाते और इन नीची जातियों को एक पोटली को छुआकर कसम दिलाते कि वे एक रहेंगे। इस पोटली में एक ज्वार की रोटी और एक टुकड़ा मांस का होता। इसमें रोटी का मतलब होता- ईका मतलब है कि हमार पंचन की लड़ाई रोटी की है या समझ लेव कि पेट की आय अउर मांस का मतलब कि इस लड़ाई में अपने सरीर का मांस तक देंय पड़ सकत है। कामतानाथ लिखते  हैं कि गांव के लोग इसकी व्याख्या यूं करते- मेहनत हमार, धरती की छाती मां हल चलाई हम, फसल काटी हम अउर फल खाएँ सेठ-साहूकार, कि ठाकुर-जमींदार, सो यू अब न चली। जान भले चली जाए मुदा अपन हक हम अब लइके रहब।
इन जातियों को लगता था कि शायद खून खराबा भी होएगा इसलिए जब दुर्जन खेड़ा के कुछ उत्साही युवकों ने पूछा कि का हम कांता-बल्लम लइके आई? तो बुजुर्गों ने समझाया- नहीं कांता-बल्लम अबै न लाओ। जब उइकी जरूरत परी तब वहौ कीन जाई। मदारी पासी अपने साथ सत्यनारायण की कथा की एक किताब और कुरान शरीफ की प्रति लेकर चलते थे। उनके साथ एक पंडित और एक मौलवी भी रहता था जो उन्हें सुनने वाले श्रोताओं को शपथ दिलाते थे कि तुम अपने धर्म की इन किताबों की कसम खाकर कहो कि मदारी पासी की इस लड़ाई में तुम बराबर के साथी रहोगे। मदारी पासी के आगमन पर उसका चित्रण करते हुए कामतानाथ ने लिखा है- "आखिर कोई चार बजे मदारी पासी का आगमन हुआ। भरा हुआ गठीला शरीर, गोल चेहरा, पक्का सांवला रंग, घनी काली गलमुच्छें, सिर के बालों पर मशीन चली हुई, कुर्ता और धोती, कमर में अंगोछे का फेंटा तथा पैर में चमरौधे का जूता। हाथ में लंबा सा बल्लम तथा कमर के फेंटे में तलवार, साथ में लगभग इसी वेशभूषा में चार अंगरक्षक। उनके पीछे एक झोले में सत्यनारायण कथा का सामान और एक गुटका रामायण तथा दूसरे में पीतल के एक पात्र में गंगाजल लिए हुए एक पंडित तथा हरे रंग के कपड़े के बस्ते में कुरान लपेटे हुए एक मौलवी। उनके अतिरिक्त सिर पर उल्टी चारपाई रखे उस पर एक गठरी में खाने पीने का कुछ सामान, गुड़, सत्तू आदि, हुक्का, तंबाकू, लोटा डोर, चारपाई पर बिछाने के लिए एक कथरी और चादर तथा मदारी के दो-एक वस्त्र लिए हुए दो और लोग।"                                                                                                         
मदारी पासी अपने भाषण में साफ कहते थे कि "उन्हें बाबा भले कहा जाए पर न तो हम गांधी बाबा हैं और न गांधी बाबा के आदमी हैं। वैसे हमारा उनसे कोई बैर नहीं है। हम भी चाहते हैं कि अंग्रेज इस मुल्क से चले जाएं। मगर हमारी समस्या दूसरी है। अंग्रेज जाएंगे तो अच्छा ही होगा लेकिन हमको तो हमारे हिंदुस्तानी भाई ही चूसे हैं। खेत हम जोतें और फसल ले जाएं सेठ साहूकार और जमींदार। बेगार भरें सो अलग। उस पर हमारी बहू बेटियों की कोई इज्जत नहीं। इस सबकी एक ही वजह है कि हम एक नहंी हैं। इसी लिए हम गांव-गांव घूम कर एका सम्मेलन कर रहे हैं।" मदारी कुछ प्रतिज्ञाएं भी अपने श्रोताओं से कराते थे। जैसे "हम आज से बेगार नहीं भरेंगे। अगर हमारे एक भाई का खेत साहूकार या जमींदार छीनता है तो हमारा दूसरा भाई उससे बटाई पर खेत नहीं लेगा तथा न ही नीलामी में बोली बोलेगा। साहूकार या महाजन को मुनासिब सूद से ज्यादा पैसा नहीं देंगे। सूद के बदले आनाज तो देंगे ही नहीं। काहे कि आनाज दिन-ब-दिन मंहगा होता जा रहा है और साहूकार हमसे कम पैसों में ज्यादा आनाज ले लेता है। साथ ही हमारी बहू बेटियों पर किसी ने बुरी नजर डाली तो हम उसकी आँख निकाल लेंगे।"
मदारी पासी के इस ओजपूर्ण भाषणों को सुनने के लिए अवध के किसान बाट जोहते थे कि कब मदारी बाबा उनके यहां आएंगे। और मदारी भी गांव-गांव जाकर अपने आंदोलन की जमीन तैयार कर रहे थे। यह अलग बात है कि चाहे वह कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग किसान आंदोलन से बराबर की दूरी रखते थे। भले वे आपस में एक मंच पर आकर बात करने को तैयार रहें लेकिन मदारी पासी के आंदोलन को दबाने के लिए वे सरकार को पूर्ण सहयोग करते थे। बाबा रामचंदर के आंदोलन में पिछड़ी जाति के किसान थे लेकिन मदारी पासी ने अछूत कही जाने वाली जातियों में आत्म सम्मान का भाव पैदा किया। मदारी पासी अपनी माटी की ही उपज थे और वे कोई चतुर सुजान नेता नहीं थे लेकिन अनवरत संघर्ष से जो जज्बा पैदा होता है वह मदारी पासी में खूब था। इसके उलट बाबा रामचंदर महाराष्ट्र से भटकते हुए दक्षिण अफ्रीका गए वहां उन्होंने मजदूर आंदोलन में हिस्सा लिया और जब वहां से उन्हें देशनिकाला दे दिया गया तो भारत आकर इलाहाबाद में बस गए। वे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे इसलिए न चाहते हुए भी उनके अंदर बाल गंगाधर तिलक के प्रति सम्मान का भाव था और वे कांग्रेस से उतनी दूरी नहीं रखते थे जितनी कि मदारी पासी। बाबा रामचंदर के आंदोलन का आधार वे पिछड़ी जातियां थीं जो समाज में सम्मान की लड़ाई लड़ रही थीं और उनके पास कुछ बहुत जमीनें भी थीं पर जमींदार उन पर जबरन कब्जा कर लेते थे। इन पिछड़ी जातियों की बहू बेटियों पर ठाकुर जमींदार उतनी आसानी से नजर नहीं डाल पाते थे जितनी सहजता से वे मदारी पासी के साथ जुड़ी जातियों की बहू बेटियों पर। इसलिए दोनों आंदोलनों को जोडऩा फिजूल है। मदारी पासी एक हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे थे जिसकी तुलना आज के नक्सली आंदोलन से की जा सकती है।
कामतानाथ ने दुर्जन खेड़ा की जिस टिकुली का जिक्र किया है वह महिला गांधीवादी तेज शंकर के प्रभाव में आकर चरखा कातने लगती है और यह चरखा उसके लिए मंदिर है, आस्था का केंद्र है। उधर जब मदारी पासी उसके गांव में आते हैं तो वह उनकी हर बात पर गांठ बांध लेती है और बड़कऊ ङ्क्षसह जमींदार, रामप्रसाद कानून गो तथा अब्दुल गनी जैसे ताल्लुकेदारों द्वारा पुलिस से पिटवाए जाने के बावजूद वह अपनी आस्था से नहीं डिगती। यह था उस आंदोलन का असर जो एक तरफ तो गांधी जी शुरू कर रहे थे दूसरी तरफ मदारी पासी।
कामता जी काल कथा को चार खंडों में लिखना चाहते थे। १९९८ में जब ये दोनों खंड छप कर आए तो उन्होंने मुझसे कहा था कि देखो शंभू बाकी के दो खंड भी जल्दी ही छप जाएंगे। लेकिन वे अपनी बीमारी और व्यस्तताओं में ऐसे उलझे कि काल कथा के बाकी दो खंड लिखने के पूर्व ही क्रूर काल ने उन्हें हमसे छीन लिया।

बीहड़ में फूलन

साल १९८० जून का आखिरी हफ्ता। हम तीन लोग यानी मैं खुद, सुमनराज और हमारा एक अन्य पत्रकार साथी अनिल शर्मा जालौन से लौट रहे थे। आसमान में बादल छाए थे और हमें जल्दी थी कि हम जितनी जल्दी हो यहां से निकल लें। जालौन जिले में धरती पर बूंद पड़ी नहीं कि एक कदम चलना भारी हो जाता है। वहंा लतरी लगने लगती है इस वजह से मोटर साइकिल के फिसलने का डर बहुत रहता है। दूसरे कदम-कदम पर बागियों यानी डकैतों का डर। फिर एक बुलेट फटफटिया और हम तीन लोग। तीनों ब्राह्मण जो अगर तीन मिल जाएं तो कोई सेफ नहीं। एक तो परस्पर सिर्फ इस बात पर लड़ेंगे कि हम तुमसे श्रेष्ठ हैं दूसरे शायद लोक ने भी यह उक्ति बनाई होगी कि ब्राह्मणों की पारस्परिकता कतई ठीक नहीं। कम्युनिस्ट होने से हम अपनी जाति तो नहीं बदल सकते थे। खैर हम किसी तरह उरई आ गए। वहां से अनिल को छोड़ देना था और हमें ट्रेन पकड़कर कानपुर आ जाना था। साबरमती एक्सप्रेस के आने में अभी करीब चार घंटे बाकी थे अब करें तो क्या करें। एकदम ध्यान आया कि अरे खेमू का होटल तो यहीं है। खेमू यानी खेमचंद सिंधी। कानपुर में गोविंदनगर में उसके मकान पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया था। हमने उसकी लड़ाई लड़ी और उसे न्याय दिलाकर रहे। उसका यहीं एक ढाबा था जो शायद कानपुर रोड पर उरई से बाहर निकलकर था।
उरई शहर भी कितना बड़ा हम पैदल ही चल पड़े और शहर पारकर करीब एक किमी तक कानपुर की दिशा में चलने पर उसका होटल मिल गया। दोनों तरफ करील के जंगल और बुंदेलखंड के बीहड़। एकदम सूनसान इलाका। समझ में नहीं आया कि यहां उसे ग्राहक कहां से मिलते होंगे। पर उसके ढाबे के बाहर ट्रकों की लाइन लगी थी लगा कि उसका होटल इन्हीं ट्रक ड्राइवरों की बदौलत चलता होगा। हमें देखते ही खेमू उठकर बाहर आया और हमें ससम्मान अंदर ले गया। एक खपरैल का सहन था जहां पंखा भी लगा था और उसके पीछे की खिड़की से दूर दूर तक बियाबां दिखता था। वहंा हवा भी चल रही थी और मौसम वाकई सुहाना लग रहा था। वहां एक बान की चारपाई बिछा दी गई और पटरे लगा दिए गए। हमने पहले तो चाय पी फिर कुछ देर तक आराम किया। अभी हम आराम कर ही रहे थे कि खेमू दौड़ता हुआ आया और बत्ती बुझा गया। कुछ देर की खटर-पटर रही जैसे कि कुछ लोग हड़बड़ी में कहीं भाग रहे हों। सारे ट्रक अचानक वहां से चले गए और पूरे ढाबे में हम शायद अकेले यात्री बचे। खेमू कुछ फुसफुसा रहा था- पाहुन आय गए हैं। हम समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह किसे पाहुन कह रहा है।
कुछ ही देर बाद कुछ लोग पैदल और कुछ जावा मोटरसाइकिल पर आ गए। खेमू हमें बता गया कि पाहुन आ गए हैं इनकी व्यवस्था कर दूं फिर आता हूं। वह चला गया तो मैने उसके एक वेटर से पूछा कि कौन आया है? उसने बताया कि विक्रम मल्लाह का गैंग आओ है। आने वालों में कुछेक के पास राइफिलें तथा बाकी के पास दुनाली बंदूकें थीं। एक तेजतर्राक सा दिखने वाला युवक अपनी कमर में पिस्तौल लगाए था। और उसके साथ एक औरत भी थी वह भी बंदूक लिए थी तथा पुलिस के जवानों जैसी वर्दी पहने थी। उनकी कड़क आवाज गूंजी जे कमरे मां कौन है? खेमू ने बताया कि हमारे रिश्तेदार हैं बंबई से आए हैं पाहुन। कुछ देर उन्होंने हमें घूरा फिर दूसरे खपरैल के कमरे में जा बैठे। कुछ बंदूकधारी बाहर पहरे पर बैठ गए और कुछ इधर-उधर पानी से भरी बोतलें लेकर चले गए। थोड़ी देर बाद उधर से बंदूकों के रखे जाने की झनझनाहटें और बोतलें खनकने की आवाजें आने लगीं। खेमू ने उनके लिए मुर्गे कटवाए और पकाए। करीब तीन चार घंटे के बाद वो लोग चले गए। तब खेमू हमारे पास आया और बताने लगा कि बिक्रम और फूलनदेवी हते। एकबारगी तो हमें झुरझुरी दौड़ गई। तब तक फूलन ने बेहमई कांड नहंी किया था और बिक्रम उसका प्रेमी था। इस इलाके के दुर्दांत डकैतों के हम इतने करीब थे कि उनकी हर आवाज हमें सुन रही थी। उनके खिलखिलाने और एक दूसरे से नट जाने की आवाजें। डकैतों के अपने रोने-गाने की आवाजें, उनके गम और खुशी के क्षणों के हम गवाह थे। पर तब अगर हम अपना परिचय दे देते तो हमारे साथ बेचारा खेमू भी मारा जाता। हमें वो सीधे-सीधे पुलिस का मुखबिर समझते। उनके जाने के बाद जो पहला ट्रक उधर आया हम उसपर सवार होकर सीधे उरई आ गए और संयोग से साबरमती हमें मिल गई तथा सुबह तक हम कानपुर आ गए।

किसान की कहानी बकलम खुद

किसान की कहानी बकलम खुद
शंभूनाथ शुक्ल
शंभूनाथ शुक्ल वल्द रामकिशोर शुक्ल साकिन मौजा दुरौली डाकखाना गजनेर जिला कानपुर। अपने होशोहवाश से मैं बता सकता हूं कि हमारे गांव में हमारे पास कुल जमा १४ बीघा तीन विस्वांसी जमीन थी। यह सारी जमीन हमारे परबाबा स्वर्गीय मनीराम सुकुल ने नौतोड़ के जरिए बनाई थी। और दो हारों में बटी थी। सिंचित खेती एक पटिया थी जो पांच बीघे का चक था। यह सुकुल जमींदारों के जंगल बिलहा को तोड़कर बनाई गई थी और दूसरी करीब दस बीघा जमीन का एक चक जो अकबरपुर के कुर्मी जमींदारों के महुए के जंगल को तोड़कर। इसके एवज में मनीराम बाबा ने सलामी तो दी ही थी और दस साल तक हमारे परिवार को गांव के दोनों जमींदारों के यहां बेगार करनी पड़ी थी। कुर्मी जमींदार के यहां रसोई संभालने का काम तथा जाड़ों में उनकी फसलों की सुरक्षा का काम व गर्मी में उनके खलिहान में सोना पड़ता। दादी को कुर्मियों की बहू को खुश रखने के लिए उनके यहां जाकर दही बिलोना पड़ता और पीसन का काम करना पड़ता। और सुकुल जमींदारों के यहां पानी पिलाने से लेकर उनकी बहुओं के मायके जाने पर उनके साथ बतौर सिपाही बनकर जाना पड़ता या फिर जमींदारनी के तीरथ जाने पर उनकी गाड़ी के पीछे-पीछे भागना पड़ता। जमींदार इसके बदले उन्हें कोई ईनाम इकराम तो नहीं देते बस नौतोड़ की जमीन का लगान दस साल तक के लिए माफ था।
मेरे बचपन तक गांव में नील की कोठियां बनी थीं। हम उनमें जाकर छुपन छुपाई खेलते या रात को कुर्मी लोग अपने ढोर बांधते। कुछ और काम भी यहां होते मसलन जिसको प्रेम की प्रबल चाह होती तो वह गांव की नजरों से बचकर यहीं आ जाता भले किसी भोले भाले लड़के को पटाकर लाया हो अथवा किसी लड़की को उड़ाकर। पर एक जमाने में अंग्रेज सौदागर लुईस पफ ने यहां पर जमींदार से जमीनें ठेके पर लेकर किसानों से जबरिया नील की खेती करवानी शुरू की थी। और उसकेे बदले में उन्हें न तो खाद्यान्न मिलता न कोई खास नगदी। यहां तक कि उनकी मजूरी भी न मिलती। पर गांधी बाबा के कारण जब निलहे भाग गए तो कोठियां वीरान हो गईं और उनके लगाए जंगल भी उजड़ गए। तब जमींदारों ने उन जंगलों को खालसा मानकर उन्हें अपनी जमीन में मिला लिया और साधारण सलामी लेकर उन्हें भूमिहीन किसानों को विकसित करने को दे दिया गया। इन जंगलों को तोडऩा आसान नहीं था। आमतौर पर जंगल तोडऩे के लिए हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती और पांच साल तक तो उनमें दाना भी नहीं उगता। पर जमींदार इसके लिए किसानों को अपने अहसान तले दबा लेता। यह साल १९२० का जमाना था जब हमारे परबाबा और बाबा ने जमीन तोड़ी। पंाच बीघे के इस जंगल को तोडऩे के लिए दादी और बुआदादी को भी जाकर फड़वा चलाना पड़ता। मालूम हो कि हमारी बुआदादी छह साल तक चूडिय़ां पहनने के बाद विधवा हो गई थीं और विधवा होने के बाद वे सारा जीवन हमारे यहां ही रहीं। बेहद गरीबी और भुखमरी के दिन थे वे।
दरअसल मनीराम बाबा हमारे सगे परबाबा नहीं थे वे बाबा के ताऊ जी थे और अपने छोटे भाई व उसकी पत्नी के भरी जवानी में ही चल बसने के बाद से उन्होंने हमारे बाबा को पाला पोसा था। बाबा कुल चार साल के थे जब उनके पिता और मां चल बसीं। मनीराम बाबा ने शादी नहीं की थी। कहना चाहिए कि हुई ही नहीं थी। इसकी भी विचित्र कहानी है। मनीराम बाबा अपने तीन भाईयों में मंझले थे। उनके पिता कन्हाई बाबा रानी झांसी की फौज में सिपाही हुआ करते थे। जब १८५७ में लड़ाई शुरू हुई और १८५८ में रानी को मार दिया गया और झांसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया तो रानी समर्थक वहंा से भागे। अधिकंाश लोग सुदूर सिंध के कराची शहर में जा बसे। वहंा अंग्रेजों का खतरा कम था। हमारे परबाबा के पिता कन्हाई बाबा अपनी पत्नी चिरौंजी देवी व अपने बच्चों को लेकर कराची चले गए पर उनके भाई व चाचा लोग अपने पुश्तैनी गांव कानपुर जिले में ही भोगनीपुर तहसील के तहत गिरसी के पास गुलौली में ही रहते रहे। कराची में रहते हुए १८८५ में कन्हाई बाबा का निधन हो गया। उनकी धर्मपत्नी एक दिन रोती-कलपती अपने बच्चोंं को लेकर गुलौली लौट आईं। हमारे परिवार में बताया जाता है कि एक ङ्क्षसधी उन्हें बैलगाड़ी में बिठाकर कराची से गुलौली लेकर आया था। वह  ङ्क्षसधी परिवार फिर कराची वापस नहीं गया और कानपुर शहर में रहकर व्यापार करने लगा। बाद में उसका परिवार कानपुर शहर में साडिय़ों को थोक व्यापारी बना और नौघड़ा में सबसे बड़ी दूकान उसी की हुई। गुलौली में अपनी भाभी को तीन बच्चों समेत आया देख कन्हाई बाबा के छोटे भाई बनवारी बाबा के मन में पाप आ गया और उन्होंने अपनी भाभी तथा उनके बच्चों को  मार डालने की ठान ली। बताया जाता है कि चिरौंजी दादी के खाने में जहर दिया गया। पर मरते-मरते उन्होंने अपने बच्चों को जीवनदान दे दिया। बच्चों को उन्होंने फौरन गुलौली से भगाकर अपनी बड़ी बेेटी की ससुराल रठिगांव भेज दिया। कन्हाई बाबा अपनी बेटी की शादी पहले ही कर गए थे। चिरौंजी दादी तो नहीं रहीं पर बच्चे बहन के घर में आ गए। रठिगांव गुलौली से करीब तीन कोस पूरब में है। बहन की ससुराल वाले खाते पीते किसान थे। शुरू में तो बहन के ससुराल वालों ने इन बच्चों को प्यार से लिया पर जब पता चला कि वे यहीं रहेंगे तो उनसे दुरदुराने लग। बहन अपने छोटे भाईयों को अपमान सहती रही पर एक दिन उसने कह दिया कि देखो तुम लोगों के पास अपनी खेती है सो अपने गांव जाओ वर्ना तुम्हारे चाचा लोग जमीन हड़प कर जाएंगे। उस समय सबसे बड़े शिवरतन बाबा लगभग आठ साल के तथा मनीराम बाबा पांच साल के व रामचरन बाबा ढाई तीन साल के रहे होंगे। अब ये तीनों भाई कहां जाएं? ये अनाथ बच्चे नहर के किनारे-किनारे गिरसी की तरफ बढ़े। नहर के किनारे तब घोर जंगल था। बर्घरे व भेडिय़ों का भी आतंक। तीनों रोते कलपते जा रहे थे। रास्ते में दुर्गादेवी का मंदिर पड़ा तो ये परसाद के लालच  में मंदिर चले गए। मंदिर एकदम निर्जन और खंडहर जैसा था। मंदिर के अंदर बैरागी सुकुल जोर-जोर से दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे थे। बच्चे कुछ पाने की आस में बैठे रहे। जब पूजा के बाद बैरागी सुकुल ने इन्हें देखा तो चौंके पूछा इस घने जंगल में कस? बच्चे रोने लगे और बोले भूख लगी है। बैरागी बाबा ने भुट्टे भून कर खिलाए। तब इन बच्चों ने अपनी रामकहानी बताई।  बैरागी सुकुल ने पूछा जाति? बच्चों ने बताया कि सुकुल बांभन हैं। जनेऊ हुआ कि नहीं तो बच्चे चुप। बैरागी सुकुल तीनों बच्चों को अपने गांव दुरौली ले आए जहां पहले तो इनका जनेऊ किया फिर अपने घर पर ही खेतों की देखभाल के काम में लगा दिया।
यहीं पर काम करते हुए जब ये बच्चे बड़े हो गए तो बैरागी सुकुल ने कुछ जमीन छप्पर छाने के लिए दे दी और कुछ पैसे देकर कहा कि बच्चों अब तुम अपना काम अलग करो। शिवरतन बाबा ने सबसे पहले अपना छप्पर अलग किया और एक तिवारी परिवार की सद्य विधवा कन्या को लेकर अलग रहने लगे। शिवरतन बाबा ने लोकलाज के कारण कहना चाहिए कि डर के कारण विवाह तो नहीं किया पर रहते वे उन विधवा दादी के साथ ही थे। एक बेटी उनके हुए जिसकी गांव में ही एक गरीब परिवार में शादी हो गई। दूसरे परबाबा मनीराम ने शादी नहीं की और अपने छोटे भाई के साथ रहने लगे। छोटे भाई रामचरन बाबा की शादी बिनौर के तिवारी परिवार में करवा दी। रामचरन बाबा अपने बड़े  भाई के साथ मिलकर सुकुल जमींदार के यहां नौकर हो गई। पर अब परिवार बढ़ गया था और जमींदार की नौकरी न तो समाज में प्रतिष्ठा दिलाती थी न जमींदार बाबू समय पर पैसा देते थे। इसलिए पहले तो मनीराम बाबा ने गोरू यानी ढोर चराने शुरू किए। पशुपालन का काम करते हुए मनीराम बाबा ने पैसा तो मजे का इकट्ठा कर लिया पर सामाजिक प्रतिष्ठा में यह परिवार शून्य था। इसलिए दोनों भाईयो ने एक जोड़ी बूढ़े बैल खरीदे और बटाई पर कुछ खेत लेकर जोतने बोने लगे। पर तब खाद पानी तो मिलता नहीं था। इसलिए उपज का बड़ा हिस्सा लगान, आबपाशी या अन्य खर्चों में ही निकल जाता। गांव में धनीमानी किसान कम ही थे और जमींदार अपनी जमीन कम देता और बेगारी ज्यादा करवाता। इसलिए मनीराम बाबा जमींदारों की सेवा करते रहते ताकि कोई खुश होकर उन्हें नौतोड़ की जमीन दे दे। रामचरन बाबा बस मनीराम बाबा जो कहते वही करते रहते।  रामचरन बाबा की तीन संतानें हुईं पहले एक बेटी मूला बुआ फिर बेटा जिसका नाम रखा ठाकुरदीन उर्फ पहलवान और तीसरी फिर एक बेटी रज्जो बुआ। ठाकुरदीन हमारे बाबा थे।
अकबर पुर के कुर्मी जमींदारों का कुछ जंगल हमारे गांव में था। उन्होंने सलामी लेकर करीब दस बीघे का महुए का जंगल मनीराम बाबा को दे दिया। मनीराम और रामचरन बाबा दोनों वहीं ढोर चराने जाते और इसके बाद जंगल तोड़ते। एक दिन रामचरन बाबा को सांप ने डस लिया और खूब झाड़ फूंक करवाए जाने के बाद भी उनके प्राण बचाए न जा सके। मनीराम बाबा पर दोहरी आफत आन पड़ी अब वे निपट अकेले थे और उन्हें अपने छोटे भाई  के परिवार को भी पालना था। रामचरन बाबा के मरने के दसवें रोज उनकी पत्नी का भी निधन हो गया। शायद भविष्य का डर उन्हेें ले डूबा। अब मनीराम बाबा के सामने छोटे भाई के तीन अबोध बच्चों को पालना भी था। मूला बुआ की उम्र करीब सात साल की थी और बाबा ठाकुरदीन तब चार साल के थे तथा रज्जो बुआ डेढ़ साल की। घर में मनीराम बाबा के बाद मूला बुआ ही मालकिन थीं लेकिन वे नाक पर मक्खी तक न बैठने देतीं। रज्जो रोतीं तो उन्हें खूब मारतीं अलबत्ता भाई से उन्हें बेपनाह मुहब्बत थी। मनीराम बाबा दिन में जंगल तोड़ते ढोरों की भी रखवाली करते अब उनके पास बटाई के खेत जोतने की कूवत नहीं थी इसलिए किसानों ने उन्हें बटाईदारी से बेदखल कर दिया। पर ढोरोंं से इतनी आमदनी हो जाती कि घर का खर्च चलने लगा। कुछ पैसा जुड़ा तो बाबा ने गांव के ही एक तिवारी परिवार के मुनीम लड़के से मूला बुआ की शादी कर दी। मूला बुआ तब नौ साल की हो गई थीं। शादी अब टाली नहीं जा सकती थी। लेकिन १९ वर्ष की उम्र में ही मूला बुआ विधवा हो गईं तो मनीराम बाबा उन्हें अपने घर ले आए। मूला बुआ की एक लड़की भी थी जो भी अपने ननिहाल आ गई। दस बीघे की खेती भी होने लगी और घर में बूढ़े मनीराम बाबा और उनके पालित पुत्र ठाकुरदीन बाबा। कमाई भी ठीकठाक होने लगी तो बिलहा का जंगल लिया गया और उसे तोडऩे की योजना बनाई गई। पर यहां मनीराम बाबा अकेले पड़ गए क्योंकि अकेले होने के कारण ठाकुरदीन बाबा पर उनकी लगाम ढीली पड़ गई थी। उन्हें पूरा पांच बीघे का चक अकेले ही तोडऩा पड़ा। पर पटिया के नाम से जाना जाने वाला यह चक हमारे परिवार में खुशहाली लेकर आया। रज्जो बुआ की शादी फतेहपुर जिले के बसफरा गांव में एक मिश्र परिवार में कर दी गई।
कामधाम तो ठाकुरदीन बाबा पहले से नहीं करते थे और अब उन्हें जुआ खेलने का चस्का पड़ गया लिखत-पढ़त में जमीन ठाकुरदीन बाबा के ही नाम थी। वे अक्सर कोई न कोई ढोर जुए में हार जाते। यह १९२१ का साल था जब मनीराम बाबा ने पटिया तोड़ ली। यानी अब ठाकुर दीन बाबा के नाम करीब १५ बीघे की खेती थी। इसी साल ठाकुर दीन बाबा की शादी डेरापुर तहसील के गांव डुबकी के एक दुबे परिवार की कन्या से कर दी गई। हमारी दादी यानी कौशिल्या जब अपनी ससुराल आईं तो उनकी अगवानी के लिए कोई सास नहीं बल्कि ननद के रूप में एक ऐसी स्त्री थी जो दादी से कहीं ज्यादा सुंदर और अभिमानिनी थी। मूला बुआ का खूब लंबा चौड़ा कद, दूध की तरह गोरा रंग, सुतवां नाक और ठेठ उर्दू बोलने की उनकी शैली किसी को भी उनके समक्ष बौना बना देती थी। दादी अपेक्षाकृत गरीब परिवार से आई थीं और हमारा परिवार पशुपालन के कारण एक सामान्य किसान की तुलना में संपन्न था बस सामाजिक प्रतिष्ठा के मामले में कमजोर था। मनीराम बाबा मूला बुआ के अहंकार से नाराज भी रहते और अपने भतीजे तथा पालित पुत्र ठाकुरदीन बाबा की हरकतों के चलते भी। ठाकुर दीन बाबा की शादी हो गई थी पर वे रात-रात भर घर से गायब रहते और बीवी के जेवरों से जुआ खेलते। उनके ताऊ उन्हें डांटते तो वे अब आंखें दिखाते क्योंकि जमीन उनके नाम थी। अब हम सिर्फ पशुपालक ही नहीं गांव की मर्यादा के अनुरूप किसान थे। पर भले हमारे पास १५ बीघा यानी १२ एकड़ जमीन रही हो पर पटिया छोड़कर बाकी की जमीन खाखी ही थी जिसमें चना और अरहर के अलावा और कुछ न पैदा होता। तब कैश क्रॉप्स यानी नगदी फसलों का जमाना नहीं था। अरहर की कोई खास कीमत नहीं होती थी। उड़द दलहन में  राजा था और धान अन्य खाद्यान्नों में। पर धान सिर्फ पटिया में ही होता। बड़े हार यानी दस बीघे की जमीन सिंचित नहीं थी भले ऊसर नहीं था पर पानी नहीं मिलता। इसलिए मनीराम बाबा को और पैसे कमाने के लिए कुछ और जमीन तोडऩी पड़ी। वे घर की कलह से खिन्न भी रहते। उन्हें पता था कि उनका पुत्र किसी काम का नहीं और उनकी बेटी बहू से खामखां में जूझती रहती है। दूसरे प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए मूला बुआ पर अंकुश जरूरी था। पढ़े लिखे थे नहीं कि मूला विवाह के दूसरे विवाह की कल्पना भी कर लेते। तब तक ब्राह्मण परिवारों में ऐसा सोचा जाना तक नामुमकिन था। इसलिए वे मूला बुआ को अपने साथ खेतों पर काम के लिए ले जाने लगे। ठाकुरदीन बाबा को इससे कोई मतलब नहीं था कि बुढऊ कैसे कमाते हैं। उन्हें तो बस जुआ खेलने को पैसे चाहिए थे न मिलते तो वे दादी के जेवर तक भेंट चढ़ा आते। हालांकि तब तक वे एक पुत्र के पिता बन चुके थे। ठाकुर दीन बाबा के यही बड़े पुत्र यानी मेरे  पिता ने आगे चलकर अपने घर में वो क्रांति कर दी जिसकी कल्पना तक मनीराम बाबा नहीं कर सकते थे।
पर इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं हो गईं जिससे मनीराम बाबा टूट गए। एक तो बेटी मूला की बेटी की शादी। मूला बुआ जिद पकड़े थीं कि उनकी बेटी की शादी खूब संपन्न परिवार में हो, लड़का सुंदर हो तथा कुल में सर्वश्रेष्ठ हो। विधवा बेटी की जिद। मनीराम बाबा ने हमीर पुर के पहाड़पुर के एक बड़े जमींदार के कुलदीपक को ढूंढ़ निकाला। युवा, सुंदर, गौरवर्णी तथा पोतड़ों के रईस। वह भी खोर के पांडेय यानी कनौजियों में सबसे ऊपर। मनीराम बाबा ने अपनी हैसियत से ज्यादा दहेज दिया और इसके लिए सारे ढोर बेच दिए गए। बारात आई और पांच दिन ठहरी। एक दिन पक्की यानी पूरी सब्जी, दूसरे दिन कच्ची और तीसरे रोज उन्होंने कलिया की मांग कर दी। कलिया यानी बकरा। अब काटो तो खून नहीं। गांव मेंं सिर्फ ब्राह्मण, कुर्मी या एकाध अहीर और कुछ चमार। सब के सब पक्के वैष्णव। दो परिवार बलाहियरों के थे और तीन खटिकों के। पर वे सुअर खाते थे। चमार परिवार स्वामी अछूतानंद के शिष्य थे वह भी कंठीधारी। अब इन कनौजियों के लिए कलिया कहां से लाया जाए? मालूम हो कि कनौजिया ब्राह्मणों में बीसों बिस्वा वाले श्रेष्ठ और कुलीन ब्राह्मण परिवारों में मांसाहार जायज था। ऊपर से बड़े जमींदार जिनकी उठक बैठक अंग्रेजों के साथ होती रहती थी। मनीराम बाबा को कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या करें? भागे-भागे दोनों जमींदारों के पास गए। वे भी भौंचक्के रह गए। पांडेय जी के बुजुर्गों को बुलाकर बात की गई। सहमति यह बनी कि मनीराम बाबा २०० रुपये देंं बाकी कलिया और दारू व भांग का इंतजाम पांडेय जी कर लेंगे। १९३९ में २०० रुपये कोई साधारण बात नहीं थी। मनीराम बाबा और ठाकुरदीन बाबा ने पटिया की जमीन रेहन रख दी और रुपयों का इंतजाम हो गया। ठाकुरदीन बाबा को भी अपनी बहन से असीम प्यार था इसलिए जमीन रेहन रखने को वो भी राजी हो गए। लेकिन मूला बुआ की बेटी जमींदारनी तो बन गई पर हमारा परिवार किसान से मजूर बन गया। जानवर भी गए और जमीन भी।
पिताजी यानी ठाकुरदीन बाबा के बड़े बेटे रामकिशोर ने इस बरबादी और पांडेय जमींदार की इन हरकतों को करीब से देखा। उनकी उम्र तब तक १२ साल की हो गई थी। पंाचवें दरजे की पढा़ई के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता और घर में खाने के लाले। उनके पिता यानी ठाकुरदीन बाबा ने उनकी पढ़ाई छुड़वा दी और कहा कि गोबरधन बनिया के यहां रहकर कुछ मुडिय़ा सीख लो कहीं न कहीं मुनीम तो लग ही जाओगे। यह अप्रत्याशित था और पिताजी ने परिवार से दूर रहकर स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मनीराम बाबा के लिए दोहरी मुसीबत थी। पुत्र जुआरी और पोता अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले था। यही वह दौर था जब इलाहाबाद के आसपास बाबा रामचंदर किसान आंदोलन को सुलगा रहे थे। पर कानपुर के गांवों में इस किसान आंदोलन का असर नहीं पड़ा क्योंकि अंगे्रजों ने पूरब तथा अवध में रैयतवारी की दूसरा कानून बना रखा था लेकिन दोआबे में अलग इसलिए यहां के किसान अवध के किसानों की तरह जमींदारों के चंगुल में नहीं थे तथा यहां पट्टीदारी व्यवस्था न होने से औरतों के भी कानूनी हक थे और जमीन में हिस्सा भी। पर किसान आंदोलन चला तो गंाधी जी का अंादोलन भी यहां पहुंचा। पिताजी स्कूल जाने के बहाने गांवों में चल रही चरखा क्रांति में भी शरीक होने लगे। गांव के ही सुकुल जमींदार के लाड़ले स्वामीदीन सुकुल, कुर्मियों में पराग नाना और मन्ना चमार को मिलाकर गांव में भी कांग्रेस की एक ईकाई खोली गई और रोज सुबह प्रभात फेरी व चर्खा गान होने लगा। इसमें दुर्गा मुंशी, मैकू दरजी, भगवान दीन और गांव के ही एक दूकानदार गोबरधन साहू के साहबजादे भी शामिल थे। पर हिरावल दस्ते में पिताजी व मन्ना चमार तथा पराग नाना व स्वामी दीन  सुकुल थे। स्वामी दीन सुकुल जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ कुछ नहीं बोलते थे।
पिताजी को इस तरह की खुराफातों से दूर करने के लिए दादी ने एक तरीका निकाला। उनकी छोटी बहन अंगदपुर में टंडन जमींदार के एक कारिंदा जी को ब्याही थीं। यह एक बेमेल विवाह था। दादी के मायके वाले गरीब थे इसलिए दादी के पिता ने अपनी तीनों कन्याएं ऐसे परिवारों में ब्याहीं जिन्हेंं लड़की चााहिए थी। दादी की बड़ी बहन जिस परिवार में ब्याही थी वह परिवार कुछ वजहों से अपने समाज से च्युत था। और उनकी छोटी बहन कैलाशी जिन कारिंदा जी को ब्याही थीं वे थे तो राजसी ठाठबाट वाले पर उनकी पहली पत्नी को मरे अरसा हो चुका था। काङ्क्षरदा जी यानी अग्रिहोत्री जी करीब ५० साल के थे और कैलाशी दादी मात्र १५ साल की। उनके  कोई संतान नहीं हुई इसलिए हमारी दादी जिनके तब तक तीन पुत्र हो चुके थे अपने बड़े बेटे को कैलाशी बहन के यहां अंगदपुर भेज दिया। अंगदपुर में खाने पीने की कमी नहीं थी। पिताजी के मौसा अमरौधा के टंडन परिवार के कारिंदा थे। टंडन परिवार की ही अंगदपुर में जमींदारी थी। इसलिए कारिंदाजी यानी पिताजी के मौसा के पास अपने गांव में करीब बीस एकड़ सिंचित भूमि, आम और अमरूद व केले के बगीचे, एक तालाब तथा गांव में दो विशालकाय घर थे। गांव में दोमंजिले घर तब दुर्लभ थे लेकिन अग्निहोत्रीजी का घर दोमंजिला था। यही अग्निहोत्रीजी पिताजी के मौसा थे। जब तक अग्निहोत्रीजी जिंदा थे पिताजी को वे पसंद करते थे लेकिन पिताजी की मौसी अपने इस भतीजे को पसंद नहीं करती थीं। वे अपने भाई को पसंद करती थीं। इस मामले में मेरी दादी और उनके भाइयों के बीच एक प्रतिद्वंदिता चलती थी। हालांकि ऊपर से रिश्ते मधुर दिखते थे लेकिन अंदर ही अंदर भारी मारकाट थी। पिताजी के मौसा के मरते ही पिताजी के बड़े मामा आ धमके और उन्होंने राजनीति करके पिताजी का पत्ता वहां से साफ करवा दिया। हालांकि इसे अंजाम देने में उन्हें दस साल लगे। इसमें पिताजी की कुछ गलती थी दूसरे अपने परिवार से मां के अलावा इसमें उन्हें किसी का सपोर्ट नहीं मिला। ठाकुरदीन बाबा  को अंगदपुर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अंगदपुर की अपनी साली को कतई पसंद नहीं करते थे। मूला बुआ को भी अपने इस बड़े भतीजे से बहुत सनेह था। वे नहीं चाहतीं थीं कि रामकिशोर दूसरों के यहां पड़ा रहे। उन्होंने वे शानदार दिन देखे थे जब हमारे यहां दूध दही की कमी नहीं था और भले गेहूं न हो पर खाद्यान्न कोठारों में भरा ही रहता था। इसिलए उन्हें भी दादी की यह तरकीब पसंद नहीं आई। उधर पिताजी के मौसा यानी कारिंदा जी की मृत्यु हो गई और कैलाशी दादी को अपनी जमीन बचाए रखने के लिए पड़ोस के त्रिवेदी परिवार के बराबर ताकत जरूरी थी। पिताजी अकेले पड़ जाते और त्रिवेदी का कुनबा बड़ा था और वे येन केन प्रकारेण काङ्क्षरदा जी की विधवा से जमीन हड़पना चाहते थे। ठाकुरदीन बाबा अंगद पुर आते नहीं थे हालांकि वे अपने गांव के आसपास पहलवान के रूप में जाने जाते थे लेकिन अंगदपुर की जमीन में उनकी दिलचस्पी कतई नहंी थी। इसलिए पिताजी को अंगदपुर से बेदखल होना ही पड़ा। और उनके मामा लोग वहां काबिज हो गए। बस शुक्र यह रहा कि बेदखल होने के बावजूद पिताजी के  अपनी मौसी व मामाओं से ताल्लुकात मधुर रहे।
लेकिन इसका खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि पंाडेय जी की कलिया की खातिर रेहन रखी जमीन हम छुड़ाई नहीं जा सकी। और पिताजी को गांव आकर जमींदार के यहां मजूरी करनी पड़ी। कभी ईंट पाथो तो कभी पानी लगाओ या खेतों की रखवाली करो। मनीराम बाबा तब तक आंखें गंवा चुके थे और पहलवान यानी ठाकुरदीन बाबा के रूटीन में कोई फर्क नहीं आया था। पर पिताजी इस सबके बावजूद कांग्रेस के आंदोलन से जुड़े रहे और कुछ साहित्यिक मिजाज का होने के कारण गांव में ही स्वामीदीन सुकुल, पराग नाना और मन्ना चमार से कहकर माया व माधुरी तथा चांद व हंस जैसी पत्रिकाएं व प्रताप जैसा अखबार मंगाते रहे। १९४५ में उनकी शादी हो गई और १९५० में वे कानपुर शहर आ गए। यहां उन्हें स्वदेशी काटन मिल में मजदूरी का काम मिल गया। यहीं वे कामरेड सुदर्शन चक्र के संपर्क में आए तथा सीपीआई से जुड़े। १९५६ में जब स्वदेशी मिल में ८० दिनों की स्ट्राइक हुई तो वे मजदूरों में अलख जगाए रखने के लिए उनके बीच जाकर कविताएं सुनाते तथा परचा निकालते। राहुल संाकृत्यायन ने पिताजी की इस निष्ठा की सराहना की थी। पर हम किसानी प्रतिष्ठा खो चुके थे और हमारा परिवार शहरी सर्वहारा बन चुका था।

हिमालय को मौज मस्ती का केंद्र बनाने के खतरे

हिमालय को मौज मस्ती का केंद्र बनाने के खतरे
शंभूनाथ शुक्ल
मध्य हिमालय में सब कुछ स्वाहा हो गया है। अब यह सरकार के बूते की बात नहीं है कि वह केदारनाथ मंदिर को वही स्वरूप दे सके जैसा कि आदि शंकराचार्य ने कल्चुरी राजााओं से बनवाया था। आधुनिक सरकारें सड़क, बांध और भवन तो बनवा सकती हैं लेकिन मंदिर नहीं। करीब एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक केदारनाथ मंदिर अपनी भव्यता और दुर्गमता के कारण जाना जाता रहा है। बद्री और केदार घाटी की खोज आदि शंकराचार्य ने की थी। तब यहां तिब्बती बौद्धों का कब्जा था लेकिन आदि शंकराचार्य का कहना था कि भगवान नारायण ने यहां साक्षात अवतार लिया था और बाद में बौद्धों ने उनकी प्रतिमा कुंड में फेंक कर इस घाटी पर कब्जा कर लिया। आदि शंकराचार्य अपने साथ कुछ दक्षिणात्य ब्राह्मणों को लेकर गए थे और भयानक शीत में वे कुंड में कूदे तथा भगवान बद्री की प्रतिमा निकाली तथा उसे स्थापित किया। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के शिल्पी आए तथा उनकी रक्षा के लिए सेना भी। यहां से दस्युओं और चोरों को मार भगाया गया और शिल्पियंों ने यहीं के पत्थरों से बद्री और केदार घाटी में क्रमश भगवान बद्री तथा शिवङ्क्षलग की भव्य मूर्तियां स्थापित कीं।
आदि शंकराचार्य ने सिर्फ यही नहंी किया। उन्होंने आज से हजार साल पहले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने की एक ऐसी अवधारणा प्रस्तुत की जो शायद उसके पहले किसी ने नहीं सोची थी। बौद्ध धर्म जब विदेशों में पनाह पाने लगा तो उसने विदेशी राजाओं को भारत आकर यहां अपने धर्म को स्थापित करने के लिए न्यौता। शुची वंश इसी का नतीजा है कि कनिष्क ने भारत आकर सुदूर मैदानों में मथुरा तक कब्जा कर लिया। लेकिन तब भी वैदिक धर्म को लगता था कि पंथ भले अलग-अलग हों लेकिन इस आर्यावर्त और दक्षिणात्य देशों में भारतवंशियों को ही राज करना चाहिए और इसके लिए एक आध्यात्मिक तानाशाही जरूरी है। इसके लिए आवश्यक था कि सुदूर दक्षिण का आदमी अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उत्तर जाए और पूरब का आदमी पश्चिम में द्वारिका। इसी तरह पूर्व में पुरी और दक्षिण में रामेश्वरम की स्थापना आदि शंकराचार्य की ही देन थी। उन्होंने इन चारों धामों में शंकराचार्य का पद बनाया और वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना का रास्ता साफ किया।
शंकराचार्य द्वारा बनाए गए ये मंदिर आज सरकारें नहीं बनवा सकती हैं इसलिए बेहतर रहे कि वे अपना सारा ध्यान बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित लोगों को सुरक्षित निकालने तथा उनके गंतव्य पर पहुंचाने पर ही ध्यान दें। यूं भी हिमालय को सरकारोंं ने जिस तरह तोड़-तोड़ कर वहंा शहर बसाए हैं उससे नुकसान ज्यादा हुआ है भला कम। पूरे भारत के पश्चिमोत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय ही फैला है। और इसके नीचे का भूभाग एक प्रायद्वीप जैसा है जिसका सारा मौसम हिमालय की पहाडिय़ों और बर्फ से ढकी चोटियों से प्रभावित होता है। आज अगर भारत का मौसम उष्ण कटिबंधीय है तो उसकी वजह यही हिमालय है। जाड़ा, गरमी और बरसात की वजह यही हिम प्रदेश है। वर्ना शायद भारत में भी अन्य मुल्कों की तरह एक सा मौसम रहा करता। या तो भयानक गर्मी या भयानक जाड़ा अथवा बारहों महीने की बारिश। पर हिमालय में शहर बसाने की कल्पना करने वाले हमारे हुक्मरान भूल जाते हैं कि हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है। इसे आल्पस की तरह तोड़ा नहीं जा सकता है न ही इसे अरावली की तरह रौंदा जा सकता है। इसीलिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में इसे धर्म और अध्यात्म का केंद्र बताया गया है। चाहे वे वैदिक ऋषि-मुनि रहे हों अथवा बौद्ध व सिख हिमालय में अपने अध्यात्म की भूख मिटाने गए। इसीलिए सदैव से हिमालय में तीर्थयात्री जाते रहे हैं पर्यटक नहीं। पर्यटकों के लिए अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत कम ऊँची पहाडिय़ों को विकसित कर लिया था। शिमला, कसौली, मसूरी, नैनीताल से लेकर दार्जिलिंग तक। इसके ऊपर का भाग सिर्फ धार्मिक यात्रियों तक सीमित रखा गया और अभी कुल पचास साल पहले तक ये धार्मिक यात्री बद्री, केदार, गंगोत्री तथा यमुनोत्री की पूरी यात्रा हरिद्वार से ही पैदल तय करते थे। पहले जो भी यात्री इन धामों की यात्रा करने जाया करते थे वे अपने नाते-रिश्तेदारों से मिलकर यात्रा शुरू करते थे क्योंकि उनके सकुशल लौटने की उम्मीद कम ही हुआ करती थी। एक कहावत प्रचलित थी- जाए जो बद्री, वो लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दलिद्दरी। यानी बद्री-केदार जाने वाले का लौटना यदा कदा ही हो पाता था और लौटा तो फिर वह गरीब तो नहीं रहता था। यह एक ङ्क्षकवदंती थी। तब जो पहाड़ों के धाम पर इतनी दूर गया वह लौटेगा, इसकी उम्मीद न के बराबर हुआ करती थी।
लेकिन सुदूर बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा गंगोत्री तो क्या गोमुख तक आज यात्रियों की भीड़ लगी रहती थी। उनमें आध्यातिमकता कम इन इलाकों में जाकर मौज मस्ती करने का भाव अधिक रहता है। इसीलिए वे अपने साथ खाने-पीने की इतनी चीजें ले जाते हैं कि उनकी गंदगी से इस सारे क्ष्ेात्र से पानी निकलने के रास्ते तक बंद हो गए हैं। पहले के यात्री तीर्थ के भाव से निकलते थे और कहीं भी लकडिय़ों को जुगाड़कर चूल्हा जलाया और खिचड़ी बनाकर खा ली लेकिन अब तो उन्हें वह सब चाहिए जो दिल्ली आदि महानगरों में उपलब्ध है। उनकी चाहत के लिए यहां दूकानें तथा होटल खुले। पहाड़ में जगह नहीं मिलती इसलिए अधिकतर होटल नदी द्वारा छोड़ी गई रेती में बनाए गए और सारा कचरा नदी में फेंका जाने लगा नतीजा यह हुआ कि नदी में गाद जमा होने लगी और धारा प्रभावित होने लगी। केदारनाथ का पूरा हादसा पर्यटकों की इसी हरकत की देन है। जो जगह वानप्रस्थ में प्रवेश कर चुके यात्रियों के लिए तय की गई थी उसमें वह लोग भी अपना हक जमाने लगे जिन्होंने अभी जिंदगी शुरू तक नहंी की है।
अब फिर से हिमालय को तोड़ा जाएगा। हाई वे बनाने के लिए और नए सिरे से होटल और रिसोर्ट बनाने के लिए। लोगों की आमद रफ्त बढ़ेगी तो गंदगी और मलबा भी। पर्यावरण भी प्रभावित होगा तथा यहां की जिंदगी भी। इसलिए बेहतर है कि सरकार मंदिर बनाने का सपना छोड़ दे और जैसा है फिलहाल वैसा ही चलने दे। इससे यात्री कम आएंगे और जो आएंगे वे काफी कष्ट सहकर। ऐसा यात्री न तो मलबा फैलाएगा न ही ऐसे धामों में आने के पीछे उसकी मौज मस्ती की इच्छा होगी। केदारनाथ मंदिर का यही पुनर्निर्माण होगा कि उसे तीर्थयात्रियों की इच्छा शक्ति पर छोड़ा जाए पर्यटकों के एन्जायमेंट के लिए उसका दोबारा निर्माण न कराया जाए। आखिर आज तक के ज्ञात इतिहास में केदारनाथ धाम की ऐसी बरबादी का एक भी किस्सा सुना नहीं गया होगा जब जल ने अपने बहाव की प्राकृतिक दिशा बदल ली और पूरे के पूरे धाम को ही लील गया। हिमालय को तोडऩा पूरे भारतीय उप महाद्वीप के लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। पूरे हिमालयी क्षेत्र के खनन और वन कटान के बारे में एक सार्वभौमिक नीति बनाई जाए ताकि पहाड़ की अस्मिता यथावत रह सके।
पहाड़ पर इसके पहले भी कई हमले हुए हैं। पहाड़ी राजाओं के उत्पात किसी से छिपे हुए नहीं हैं लेकिन जैसा हमला उस पर पर्यटन उद्योग ने किया है वैसा कभी नहीं हुआ। हिमालय को बचाने का मतलब देश को बचाना है।

एक ङ्क्षकदवंती थे छविराम यादव उर्फ नेताजी

एक ङ्क्षकदवंती थे छविराम यादव उर्फ नेताजी
मध्यम सा औसत कद था और नैन नक्श तीखे, गंदुमा रंग मगर शरीर कुछ भारी। सफेद कुरता और धोती पहने उस व्यक्ति को मैं देखता ही रह गया। समझ में ही नहीं आया कि पुलिस की क्राइम डायरी में जिस छविराम यादव उर्फ नेता जी उर्फ एटा, मैनपुरी, फरुखाबाद के नामी  डकैत की खौफनाक कहानियां हम पढ़ते रहे हैं वह तो किसी भी नजर से क्रूर या गुंडा नहीं लग रहा। बैठो पंडित जी चारपाई के अदवाइन की तरफ सरकते हुए मुझे सिरहाने की तरफ बैठने को नेताजी ने कहा। मैं उस छवि से न तो आतंकित हो रहा था न मेरे अंदर उसे लेकर कोई खौफ पल रहा था। शायद इसकी वजह आसपास कोई बंदूकधारी या हिंदी फिल्मों के गब्बर ङ्क्षसह टाइप के चेहरे नहीं दिख रहे थे। मैने पहला ही सवाल ठोका नेता जी आप डकैत कैसे बने? उनके चेहरे का मिजाज कुछ बिगड़ा फिर वे शांत भाव से बोले- पंडित जी हम डकैत नाहीं बागी हैं। और बागी कैसे बनत हैं आपको मालुमै होगा। ना मालुम होय तौ एटा और मैनपुरी के कप्तानन से पूछ लिहौ। उनकी डायरी मां दर्ज हुइहै।
साल १९८१ की फरवरी के आखीर के दिन थे। एटा जिले में अलीगंज के जंंगलों में मशहूर दस्यु सम्राट छविराम से मेरी मुलाकात एक छोटे से गांव में हुई थी। मुलाकात के पहले लटूरी ङ्क्षसह यादव और प्रदेश के एक मंत्री से मैने पैरवी कराई थी। मैने छविराम के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। बड़ी इच्छा थी उनसे मिलने की। एटा के एसएसपी विक्रम ङ्क्षसह पूरा जोर लगाए थे डाकुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए इसलिए डकैतों ने अपनी सुरक्षा बढ़ा दी थी और वे जंगलों के बीच के गांवों में ही रहते थे। चूंकि गांवों के अंदर डकैतों को खोजना आसान नहंी था इसलिए पुलिस चाहकर भी हथियार डाले बैठी थी। उधर मुख्यमंत्री वीपी ङ्क्षसह पर उनके सजातीय बंधुओं का दबाव पड़ रहा था कि ईं सारे नए डकैतन का पकड़ौ राजा साहब। पर राजा साहब गांवों के नए समाज शास्त्र को पकड़ नहीं पा रहे थे और जब तक समझते उनकी सरकार चली गई।
दस्यु सम्राट छविराम यानी कि नेता जी ने मुझसे करीब दो घंटे तक बातचीत की। इस बीच एक बड़ा गिलास दूध आया और खाना भी लगाया गया। शुद्ध शाकाहारी खाना। उड़द की दाल आलू टमाटर की तरकारी, खूब घी से तर रोटियां और चावल। नेताजी ने बताया कि खाना पंडित ने ही बनाया है। मैने कहा मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता तो नेता जी बोले मुझे पड़ता है बबुआ जी और खालिस आपके खातिर ही चावल बनवाए गए काहे कि आप पूरब के हो।
बाद में पुलिस ने एक इनकाउंटर में नेता जी को मार गिराया तब मुझे लगा कि चाहे जिस जाति का बागी हो जब वह लोकप्रिय हो जाता है तो राजनेता पुलिस पर दबाव डालकर उसे एनकाउंंटर करवा ही देते हैं। दस्यु सम्राट मानङ्क्षसह, लुक्का और १९८२ में छविराम यादव उर्फ नेता जी को पुलिस ने मार दिया। पर आज उन्हीं नेताजी का बेटा यूपी पुलिस में अधिकारी हैं।

पंख मिलदे होण बजारी

१. उड़के गुरानूं मिलिए जे खंब बिकदे होण बजारी
गुरु से मिलने की हुड़क ऐसी लगी है कि अगर पंख बाजार में मिलते होते तो उड़ के उनसे मिल आते।
२. जे बिच ऐब गुनाह ना होंंदे तब तू बक्शेंदा केणूं
अगर कोई पापी न होता तो तू किसको बख्शता किसको?
३. बाहरो धोती तुम्बड़ी अंदरो विष विकार
पहले अंदर की सफाई करो फिर बाहर की सफाई करना।
४. पंख होते तो मैं उड़ जाती।
५. दिल का हुजरा साफ कर जाना कि आने के लिए
ध्यान गैरों का उठा उसको बिठाने के लिए।
एक दिन लाखों तमन्ना और उसपे ज्यादा हवश
फिर ठिकाना है कहां उसको बिठाने के लिए।।
६. अनाथ कौन है यहां, त्रिलोकनाथ साथ हैं।
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।।
७. लगी आग लंका में, हलचल मची थी।
विभीषण की कुटिया क्योंकर बची थी।
लिखा था यही नाम उसकी कुटी पर
हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत।।

कांग्रेस अध्यक्ष के सामने प्रधानमंत्री की लाचारगी

कांग्रेस अध्यक्ष के सामने प्रधानमंत्री की लाचारगी
शंभूनाथ शुक्ल
याद कीजिए 2004 में जब डॉक्टर मनमोहन सिंह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए की पहली सरकार के प्रधानमंत्री बने थे। उस वक्त उनकी छवि एक भलेमानुष, बेहद ईमानदार और एक बड़े अर्थ शास्त्री की थी। तब लोगों ने माना था कि यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा खुद प्रधानमंत्री न बनना उनके त्याग का एक नायाब उदाहरण तो है ही साथ में इस पद के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह का चयन बेहद बुद्धिमत्ता भरा फैसला है। उस समय डॉक्टर मनमोहन सिंह एक हद तक कंजरवेटिव किस्म के अर्थशास्त्री समझे जाते थे इसलिए सब मानते थे कि डॉक्टर मनमोहन सिंह देश की गिरती अर्थ व्यवस्था को उबार लेंगे। इसके लिए वे कुछ कड़े फैसले करेंगे पर होगा यह सब देशहित में ही। आखिर नरङ्क्षसहराव सरकार में वित्त मंत्री रहते उन्होंने जो बजट पेश किए थे उसकी मिसाल सब के सामने थी। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह काफी हद तक अपनी उम्मीदों पर खरे उतरे थे। ग्रामीण बेरोजगारों के लिए साल में सौ दिन काम देने के अपने फैसले तथा देश में बिजली संकट दूर करने के लिए अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील ने उनकी छवि एक हार्डकोर प्रधानमंत्री की बनाई थी। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो न तो वामपंथियों के सामने झुका न दक्षिणपंथियों के सामने।
पर प्रधानमंत्री की यह छवि उनके दूसरे कार्यकाल के आते ही काफूर होने लगी। पहले तो टू जी घोटाला, फिर कामनवेल्थ घोटाला और इसके बाद कोल ब्लॉक आवंटन घोटालों ने उनकी सरकार की चूलें हिला दीं। हालत यह हो गई है कि प्रधानमंत्री को संसद के अंदर चोर कहा जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें सीबीआई के सामने पेश होने के लिए विपक्ष दबाव बना रहा है। एक प्रधानमंत्री के लिए इससे बड़ी लाचारी क्या होगी कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब तक नहीं दे पा रहा है। उनका हर मंत्री उनसे नहीं कहीं और से आदेश लेता है। पेट्रोलियम संकट पर पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने पेट्रो उत्पादों पर इमरजेंसी लगाने तथा रात आठ के बाद पेट्रोल पंप बंद करने की घोषणा कर दी। बाद में हंगामा मचने पर वे इस बयान से ही मुकर गए। इसके पहले उनकी कैबिनेट के रक्षा मंत्री एंटोनी ने संसद में बयान दिया था कि रात में गश्त करते सीमा सुरक्षा बल के जवानों को आतंकवादियों ने मारा था पाक फौज को तो इसकी जानकारी तक नहीं थी। एक तरह से उन्होंने पाकिस्तान की नवाजशरीफ सरकार को क्लीन चिट दे दी। जब विपक्ष ने हंगामा किया तो सफाई दी कि उन्हें भारतीय सेना के प्रवक्ता ने गलत ब्रीफिंग की। जाहिर है कि प्रधानमंत्री की कैबिनेट के साथी ही उनको तवज्जो नहीं देते। यह  शायद पहला वाकया होगा जब एक प्रधानमंत्री की पकड़ न तो नौकरशाही पर है न अपने साथी मंत्रियों पर। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा खुद ही सुप्रीम कोर्ट में बयान दे आते हैं कि उनसे फाइलें कानून मंत्री मांगी थीं इसलिए उन्होंने दिखा दीं। प्रधानमंत्री दफ्तर के अधीन काम करने वाली संस्था सीबीआई बगैर प्रधानमंत्री को बताए किसी मंत्री को फाइलें कैसे दिखा सकता है?
प्रधानमंत्री का दूसरा टर्म उनके बारे में सभी मिथकों को तोड़ता है। वे स्वतंत्र भारत के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। एक ऐसे प्रधानमंत्री जिन्हें विपक्ष तो चुप करा ही देता है उनकी अपनी पार्टी के लोग भी उनके लिए कम कांटे नहीं बो रहे। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस की अपनी कार्यशैली है। कांग्रेस में पिछले कई वर्षों से कांग्रेस अध्यक्ष का पद और प्रधानमंत्री का पद अमूमन एक ही व्यक्ति के पास रहा है। चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार रही हो अथवा राजीव गांधी की या नरसिंहराव की। जवाहर लाल नेहरू के समय ऐसा नियमित नहीं रहा पर उनका कद इतना बड़ा था कि उनके समक्ष कोई कांग्रेसी उनकी कार्यशैली पर अंगुली नहीं उठा सकता था। पर इसके बावजूद 1951 से 1954 तक वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। बाद के चार साल यूएन ढेबर रहे। फिर 1959 में उनकी बेटी इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। 1966 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनी तब के कामराज कांग्रेस अध्यक्ष थे और वे नेहरू परिवार के समर्थक माने जाते थे। लेकिन उनके बाद निजलिंगप्पा कांग्रेस अध्यक्ष बन गए जिन्होंने इंदिरा गांधी के लिए मुश्किलें खड़ी करनी शुरू कर दीं। पर 1969 में इंदिरा गांधी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र की मदद से कांग्रेेस में दो गुट करवा दिए और निजङ्क्षलगप्पा को ही बाहर कर दिया। बम्बई कांग्रेस में बाबू जगजीवन राम कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए और वे इंदिरा गांधी के खास लोगों में गिने जाते थे। फिर 1972 में कलकत्ता कांग्रेस हुई जिसमें डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा अध्यक्ष चुने गए। इनके बाद 1975 में आए देवकांत बरुआ जिन्होंने नारा दिया इदिरा इज इंडिया। लेकिन 1978 से इंदिरा गांधी खुद ही कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। फिर उन्होंने  यह पद अपने लिए सुरक्षित करवा लिया और इस वास्ते उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान में संशोधन भी करवाया। 1984 में उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष तो बने ही साथ में वे प्रधानमंत्री भी बने। जाहिर है ऐसी स्थिति में कोई भी नेता प्रधानमंत्री के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता था। लेकिन यह पहली मर्तबा हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद सोनिया गांधी के पास रहा तथा प्रधानमंत्री रहे डॉक्टर मनमोहन ङ्क्षसह। इस वजह से कांग्रेसी संासद मनमोहन की बजाय दस जनपथ में हाजिरी लगाते हैं। कांग्रेस की कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह को सपोर्ट करने वाले नहीं वरन् दस जनपथ के अनुयायी हैं।
शायद यह एक बड़ा कारण है कि मनमोहन सिंह अपनी पार्टी में अकेले पड़ गए हैं और कांग्रेस को घेरने की कवायद में जुटी भाजपा उन्हें सॉफ्ट टारगेट पाती है। प्रधानमंत्री के लिए अब एक ही रास्ता बचता है कि या तो वे अपनी पार्टी के साथियों को अपनी ताकत का अहसास कराएं अथवा पद त्यागने की घोषणा कर दें। वर्ना एक साफ सुथरी छवि के प्रधानमंत्री, अर्थशास्त्री और विद्वान को कांग्रेसी ही घेरकर बाहर करवा देंगे।

यादव होने की पीड़ा

यादव होने की पीड़ा
सन् 1964 में मेरा दाखिला कानपुर के एक सर्वाधिक प्रतिष्ठित कालेज महापालिका गंाधी स्मारक इंटर कालेज में छठे दरजे में हो गया। गोविंद नगर के इस कालेज में प्रवेश पाने के लिए एक कड़ी प्रवेश परीक्षा से गुजरना पड़ता था। मैं छठी क्लास के लिए उपयुक्त पाया गया और वहंा मेरा एडमिशन हो गया। मेरे साथ जिन लड़कों को गांधी स्मारक में प्रवेश मिला उनमें से एक शिवबचन यादव था। सीधा-सादा पुरबिया जो अपने गांव से पांचवीं पास कर यहां आया था। पिता कानपुर की एक मिल में मजदूर थे। वह क्लास में अक्सर पाजामा और कमीज पहन कर आया करता था। हमारे कालेज में पीटी के एक टीचर थे मिश्रा जी, शायद उनका पूरा नाम आरके मिश्रा था। वे छठी से बारहवीं तक पीटी का एक पीरियड लेते थे जिसमें सिवाय सावधान और विश्राम मुद्रा में खड़े होने के अलावा और कुछ नहीं था। वे मिश्रा जी पता नहीं क्यों शिवबचन यादव सेे चिढ़ते थे। अक्सर वे उसके पेट की खाल अपने अंगूठे और अंगुलियों के बीच फंसाकर इतनी जोर से मरोड़ते कि बेचारा शिव बचन चिग्घाड़ पड़ता। किसी भी बच्चे की समझ में यह नहीं आता था कि शिवबचन यादव का अपराध क्या है। वैसे भी पीटी की क्लास में अपराध जैसा क्या होगा! इस कारण हमने उन मिश्रा जी का नाम कसाई रख छोड़ा था। १२ वीं वहां से कर लेने के बाद मैं वीएसएसडी कालेज चला गया पर मेरे दिमाग में यह बात हरदम कोंचती रही कि शिवबचन यादव के साथ मिश्रा मास्टर ऐसा क्यों व्यवहार करता था? और हमारे साथ इतना नरम क्यों? बाद में जब जनता पार्टी के समय मैने ब्राह्मण नेताओं, पत्रकारों और बौद्धिकों  को मुलायम सिंह यादव के खिलाफ अनाप शनाप बोलते सुना और देखा तो मुझे लगा कि शिवबचन का अपराध यही था कि वह यादव था वह भी गरीब।

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

लौंडा वीआईपी और हवलदार के भाव!


लौंडा वीआईपी!
शंभूनाथ शुक्ल
हमारे एक चाचा हैं, नाम है मुंशीलाल पर हम उन्हें दद्दू कहते हैं। कुल चार साल मुझसे बड़े हैं लेकिन चाचा हैं सगे सो चाचागिरी कभी-कभी दिखा देते हैं। दद्दू ट्रक चलाते हैं। जब मूड आया तो नौकरी कर ली जब जी चाहा घर बैठ गए। चाची खूब खिसियाईं, रोई, पीटीं पर दद्दू पर असर नहीं। हारकर चाची ने खेती बटाई पर उठाई और खुद ही घर संभाल लिया। दो बेटियां ब्याह दीं और एक बेटा भी। बस एक बेटा बचा है।
किस्साकोताह यह कि एक बार मैने चाचा से कहा कि मुझे भी अपने साथ ट्रक पर ले चलो। करीब बारह साल पहले चाचा आ गए कोलकाता और वहां के जनसत्ता में बतौर संपादक मेरा नाम छपा देखकर वे अपने भतीजे से मिलने आ गए। रात को मैं उन्हें घर ले गया। चाचा बोले चाहो तो मेरे साथ चलो अभी तो कानपुर से माल लेकर यहां आया हूं अब इंफल जाऊँगा फिर वहां से देखूंगा कहां का माल मिलेगा। मैने कहा चलिए। चाचा का ट्रक हावड़ा के किसी ट्रांसपोर्ट कंपनी में खड़ा था। वे मुझे अपने साथ ले गए और रात को बड़ा बाजार आकर माल उतारा। रास्ते में हावड़ा ब्रिज पर उन्होंने वहां खड़े हवलदार को पांच का एक सिक्का दिया। मैने कहा कि अरे यहां तो कम्युनिस्ट राज है यहां रिश्वत नहीं चलती। चाचा ने कहा कम्युनिस्ट राज है इसलिए पांच रुपये मुलायम सिंह का राज होता तो ५० रुपये और दिल्ली, हरियाणा व पंजाब में रेट मिनिमम सौ रुपये का है। यह दस्तूर है हम हर रेड लाइट पर दे देते हैं। फिर कोई झंझट नहीं चाहे जितना माल लादो चाहे जितनी बार रेड लाइट जंप करो। नार्थ ईस्ट के राज्यों में यह रेट पांच से दस रुपये के बीच ही था। पर नगालैंड में नगा आदिवासी भी हाथ दे देता तो दद्दू उसे भी पांच रुपये पकड़ा देते। मैने पूछा कि इन्हें क्यों देते हो? बोले यह नगाओं का दस्तूर है। अगर वो हाथ दे दे तो पांच रुपये पकड़ा दो वर्ना अगर उसने कहीं धावा बोल दिया तब फिर खैर नहीं। तब नृपेन दा के अगरतला में रेट बीस रुपये का था और अरुणाचल में २५ रुपये।
अभी पिछले दिनो चाचा ट्रक लेकर दिल्ली आ गए जा रहे थे मुंबई के पास, बोले चलोगे? मैने कहा अभी आप जाइए फिर अगली दफे  चलूंगा। लेकिन उत्सुकतावश मैने ट्रैफिक वालों के रेट पूछ लिए। दद्दू ने बताया कि अब यूपी का भरोसा नहीं रह गया है गाजियाबाद में तो रेट सौ का है पर अगर नोएडा गए तो रेट दिल्ली वाला लगेगा यानी दो सौ रुपये, हरियाणा तथा राजस्थान के बहरोड तक यही रेट है आगे फिर वही सौ रुपये। मोदी के गुजरात में रेट दो सौ रुपये है और महाराष्ट्र में सौ रुपये पर मुंबई में दो सौ रुपये। दद्दू ने कहा कि आजकल पंजाब का रेट पांच सौ चल रहा है पर बाकी देश में हालात इतने खराब नहीं हैं। एक दिलचस्प बात बताई कि बिहार में रेट आजकल यूपी से ज्यादा है लेकिन बंगाल में अभी भी पांच के सिक्के से काम चल जाता है। मैने पूछा कि माणिक सरकार बाबू के त्रिपुरा में? दद्दू ने बताया कि वहां रेट अब पचास रुपये का हो गया है।
दद्दू ने एक बात और बताई कि यूपी व बिहार में गाड़ी ओवरटेक करने के लिए कोई अगर दो बार लगातार डिपर दे तो समझ जाओ कि यह लौंडा वीआईपी है और साइड दे दो।  मैने पूछा कि ये लौंडा वीआईपी क्या होता है तो दद्दू ने बताया कि किसी वीआईपी की बिगड़ैल संतान या कोई बोर्ड का चेयरमैन अथवा राज्यमंत्री का दरजा प्राप्त फोकटिया मंत्री।