बुधवार, 11 सितंबर 2013

यादव होने की पीड़ा

यादव होने की पीड़ा
सन् 1964 में मेरा दाखिला कानपुर के एक सर्वाधिक प्रतिष्ठित कालेज महापालिका गंाधी स्मारक इंटर कालेज में छठे दरजे में हो गया। गोविंद नगर के इस कालेज में प्रवेश पाने के लिए एक कड़ी प्रवेश परीक्षा से गुजरना पड़ता था। मैं छठी क्लास के लिए उपयुक्त पाया गया और वहंा मेरा एडमिशन हो गया। मेरे साथ जिन लड़कों को गांधी स्मारक में प्रवेश मिला उनमें से एक शिवबचन यादव था। सीधा-सादा पुरबिया जो अपने गांव से पांचवीं पास कर यहां आया था। पिता कानपुर की एक मिल में मजदूर थे। वह क्लास में अक्सर पाजामा और कमीज पहन कर आया करता था। हमारे कालेज में पीटी के एक टीचर थे मिश्रा जी, शायद उनका पूरा नाम आरके मिश्रा था। वे छठी से बारहवीं तक पीटी का एक पीरियड लेते थे जिसमें सिवाय सावधान और विश्राम मुद्रा में खड़े होने के अलावा और कुछ नहीं था। वे मिश्रा जी पता नहीं क्यों शिवबचन यादव सेे चिढ़ते थे। अक्सर वे उसके पेट की खाल अपने अंगूठे और अंगुलियों के बीच फंसाकर इतनी जोर से मरोड़ते कि बेचारा शिव बचन चिग्घाड़ पड़ता। किसी भी बच्चे की समझ में यह नहीं आता था कि शिवबचन यादव का अपराध क्या है। वैसे भी पीटी की क्लास में अपराध जैसा क्या होगा! इस कारण हमने उन मिश्रा जी का नाम कसाई रख छोड़ा था। १२ वीं वहां से कर लेने के बाद मैं वीएसएसडी कालेज चला गया पर मेरे दिमाग में यह बात हरदम कोंचती रही कि शिवबचन यादव के साथ मिश्रा मास्टर ऐसा क्यों व्यवहार करता था? और हमारे साथ इतना नरम क्यों? बाद में जब जनता पार्टी के समय मैने ब्राह्मण नेताओं, पत्रकारों और बौद्धिकों  को मुलायम सिंह यादव के खिलाफ अनाप शनाप बोलते सुना और देखा तो मुझे लगा कि शिवबचन का अपराध यही था कि वह यादव था वह भी गरीब।

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