मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

फुर्सत हो तो ओरछा आएं!
कभी मौका मिले तो सितंबर से मार्च तक ओरछा जरूर जाएं। उस समय वहां न ज्यादा गर्मी पड़ती है न सरदी। बारिश का खतरा भी नहीं और मौसम सुहाना। वहां रुकने के लिए मध्यप्रदेश पर्यटन निगम के अनेकानेक होटल हैं। ओरछा नरेश का बुंदेलखंड रिवरसाइड रिजॉर्ट है जहां पर आप पुराने महाराजा कालीन समय का आनंद ले सकते हैं। उसी समय के फर्नीचर, दीवारें और ऊँची-ऊँची छतों वाले कमरे। जहां पुराने अठारहवीं सदी के लैम्प जलते हैं। और पलंग भी उसी स्टाइल के। इसके बाद आप घूमिए। बेतवा की कल-कल करती उत्ताल लहरों को देखिए और आसपास के घने वृक्षों की आड़ में घूमते वनजीवों को भी। सब से अधिक तो आनंद तो आपको रामराजा का मंदिर के प्रांगण में जुटी भीड़ देखकर आएगा। अब चूंकि मैं किसी भी पूजा स्थल के अंदर नहीं जाता इसलिए अंदर कैसा लगेगा, यह मुझे नहीं पता मगर मैं तथाकथित प्रगतिशील कम्युनिस्ट पत्रकारों व लेखकों की भांति लोकमान्यताओं का मजाक नहीं उड़ाता इसलिए मैं मंदिर के प्रांण तक गया और वहां जुटे लोगों से मिला। सबने बताया कि यह मंदिर सिद्घ है और इसकी मान्यता लोक में अथाह है। पर मंदिर के बगल में जो प्राचीन मंदिर बना था वह उजाड़ और सूना था इसलिए सहज उत्सुकतावश मैने पता करना चाहा कि ऐसा क्यों है। एक नई इमारत में तो खूब चहल-पहल और दूसरी प्राचीन इमारत में सन्नाटा। वहां जो कुछ बताया गया वह वाकई आँखें खोल देने वाला था।
बताया गया कि आज से करीब कई सौ बरस पहले ओरछा के एक राजा अत्यंत धर्मपारायण थे। वे सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहा करते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। रानी संतान की गम में व्याकुल रहा करतीं। वे राम भक्त थीं और वे अपने ईष्टदेव की भक्ति में लीन रहतीं। एक दिन रानी ने सपना देखा कि साक्षात रामलला कह रहे हैं कि हे रानी तू मुझे इस अयोध्या नगरी से ले चल। मैं यहां नहीं रहना चाहता क्योंकि यहां पर लोग मेरे नाम की राजनीति ज्यादा करते हैं पर मेरा घर बनाने में किसी को दिलचस्पी नहीं। जो भी बर्बर व आततायी लुटेरा आता है मेरा घर तोड़ जाता है। रानी की नींद खुल गई और उन्होंने तत्काल राजा को सूचित किया। राजा चूंकि कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्होंने रानी के सपने पर ध्यान नहीं दिया। रानी को अगले रोज फिर वही सपना आया और फिर उन्होंने राजा को बताया और आग्रह किया कि क्यों न हम रामलला के विग्रह को ले आएं। राजा ने कहा कि एक शर्त रहेगी वह यह कि अगर रामलला तुम्हारी संतान बनकर प्रकट हों और वे तुम्हारे पुत्र बनकर रहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। रानी ने राजा की शर्त मान ली और चली गईं अयोध्या। कई महीनों तक तपस्या के बाद भी रामलला उनके समक्ष प्रकट नहीं हुए तो वे दुख और क्षोभ में आकर सरयू नदी में कूद पड़ीं। चारों ओर हाहाकार मच गया और पूरी अयोध्या नगरी शोक में डूब गई। तब ही चमत्कार हुआ और रानी सरयू के ऊपर आ गईं उनके साथ एक सुंदर बच्चा था। जिसकी छवि साक्षात रामलला सरीखी थी। रानी किनारे आईं तो वह बालक बोला- मां तू मुझे ले कर तो चल रही है पर मेरी कुछ शर्तें हैं। एक तो आप को मुझे गोद में उठाकर अपने गंतव्य तक पैदल ले जाना होगा। दूसरे आप आप जहां भी मुझे गोद से उतार कर बिठा दोगी फिर मैं वहीं रम जाऊँगा और तीसरा जिस किसी राज्य में मैं विराजमान हुआ वहां का राजा मैं ही हूंगा। रानी ने ये सारी शर्तें स्वीकार कर लीं। इतना सुनते ही वह बालक फिर विग्रह में बदल गया।

रानी रामलला की उस भारी प्रतिमा को उठाकर पैदल ही अयोध्या से ओरछा को चल दीं। कई महीनों बाद जब वे ओरछा पहुंचीं तो पाया कि महल के सामने रामलला को विराजमान करने हेतु जो मंदिर बनाया गया है वह बस पूरा होने को ही है। शाम हो रही थी इसलिए रानी ने रामलला के उस विग्रह को मंदिर के प्रांगण में रख दिया। अगली सुबह जब रानी ने रामलला के उस विग्रह को उठाना चाहा तो पता चला कि रामलला तो वहीं विराजमान हो गए। वे पल भर भी नहीं खिसके। तब रानी को अपनी भूल का पता चला। लेकिन अब क्या हो सकता था इसलिए उस पुराने मंदिर को छोड़कर यह नया मंदिर बना। पर मूर्ति का विग्रह उसी तरफ को किया गया जिस तरफ की रनिवास था। रानी सुबह उठकर उस विग्रह के दर्शन करतीं और तब पानी पीतीं। राजा ने भी रामलला के चरणों में अपना राज्य समर्पित कर दिया और उनके कस्टोडियन बैठकर राज करना शुरू कर दिया।