सोमवार, 30 मार्च 2015

यहां नाचना ही होता है हर राधा को !

1983 में जब दिल्ली आया तो शुरू-शुरू में राजघाट के गेस्ट हाउस में रहा करता था। जनसत्ता के संपादक दिवंगत प्रभाष जोशी ने मेरा, राजीव शुक्ल और सत्यप्रकाश त्रिपाठी के रहने का इंतजाम वहीं पर करवा दिया था। उस गेस्ट हाउस की खास बात यह थी कि वहां पर लंच व डिनर में अरहर की दाल भी मिलती थी। यह दाल हमारी सबसे बड़ी कमजोरी थी। इतनी अधिक कि हम जनसत्ता की नौकरी छोड़ वापस कानपुर जाने की ठान रखे थे। और तब चूंकि दिल्ली के ढाबों में छोले-भटूरे व मां-चने की दाल के सिवाय कुछ नहीं मिलता था इसलिए हमने ठान लिया था कि हम कानपुर लौट जाएंगे। भाड़ में जाए यह जनसत्ता की नौकरी जो नवभारत टाइम्स व हिंदुस्तान से कम वेतन देता था। सब एडिटर के तीन इंक्रीमेंट देने के बाद भी मात्र 1463 रुपये और वह भी हर महीने दो-तीन दिन के पैसे कट जाते क्योंकि हम जब छुट्टी लेते तो वह छुट्टी अवैतनिक हो जाती। ऊपर से इंडियन एक्सप्रेस के लोगों ने हमें बता रखा था कि इस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका हिंदी अखबार पटापट बंद कर देते हैं। इसलिए उनके मूड का कोई भरोसा नहीं है। पर सही समय में प्रभाष जी ने राजघाट गेस्ट हाउस में अरहर की दाल का इंतजाम कर दिया। उसी गेस्ट हाउस के परिसर में कवि भवानी प्रसाद मिश्र रहा करते थे। हम रोज उस आवास के बाहर हिंदी में लिखी उनकी नेमप्लेट देखते और सोचते कि एक दिन उनके पास जाना है। उनकी एक नहीं अनगिनत कविताएं हमें याद थीं। एक रोज पिताजी को मैने पत्र लिखा कि मैं कानपुर आ रहा हूं बहुत हो गई यह दिल्ली की नौकरी। यहां की पत्रकारिता में वह चार्म नहीं जो डकैतों के इलाके में रिपोर्टिंग करते हुए महसूस होता था। जनसत्ता से तो दैनिक जागरण भला। भले वहां पगार कम थी और मेहनत ज्यादा पर मनोनुकूल काम का अवसर तो था। इस पर पिताजी का पत्र आया जिसमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविता कोट थी-
जन्म लिया है खेल नहीं है/
यहां नाचना ही होता है/ हर राधा को
भले किसी के पास मनाने को/ छटाक भर तेल नहीं है।
इसके बाद कानपुर सिकनेस कुछ दिन के लिए रुक गई। पर जब फिर कानपुर की हूक उठी तो मैं हिम्मत कर भवानी बाबू के आवास पर पहुंच गया और काफी देर के इंतजार के बाद जब वे मिले तो मैने उनको अपने पिताजी का वह खत दिखाया और कहा कि क्या आपके पास ऐसी और कोई कविता है जो मुझे दिल्ली रोक सके। भवानी बाबू के धीर-गंभीर चेहरे पर मुस्कान झलकी और फिर उन्होंने कई कविताएं सुनाईं। उनमें से जो मुझे सबसे अधिक पसंद आई वह थी- "कठपुतली गुस्से से उबली .......!"
बाद में भवानी बाबू ने हमारे संपादक प्रभाष जी को कहा कि आपके परचे से अच्छे लोग जुड़े हैं। जब प्रभाष जी ने यह बात बताई तो हमने कहा कि बस अब नहीं जाना। यहीं रहना है। आज उन्हीं भवानी बाबू यानी भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म दिन है।

किसान की चिंता किसी को नहीं

हिंदुस्तान में पढ़ाई मंहगी है, इलाज मंहगा है और ऐय्याशी (शराबखोरी, होटलबाजी, शौकिया पर्यटन आदि-आदि) मंहगी है। लेकिन सबसे सस्ता है भोजन। आज भी मंहगे से मंहगा गेहूं का आटा भी 45 रुपये किलो से अधिक नहीं है और गेहूं 28 से अधिक नहीं। रोजमर्रा की सब्जियां भी 40 से ऊपर की नहीं हैं। अगर आप दिन भर में एक स्वस्थ आदमी की तरह 2400 कैलोरी ग्रहण करना चाहें तो भी अधिक से अधिक 50 रुपये खर्चने होंगे। मगर जो किसान आपको इतना सस्ता जीवन जीने की आजादी दे रहा है उसकी चिंता न तो सरकार को है न विपक्षी नेताओं को और न ही शहरी मध्यवर्ग को। एक एकड़ में 25 कुंतल गेहूं पैदा करने के लिए किसान को जो मंहगी-मंहगी खादें व कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है वह उसकी कुल लागत से थोड़ा ही अधिक होता है। और एक किसान अगर उसके पास सिंचाई के पूरे साधन हैं तो भी अधिक से अधिक देा फसलें ले सकता है। उसमें भी धान और गेहूं की फसल लेने वाले ही किसान अधिक होते हैं। सरसों या दालें बोने पर पैसा तो आता है मगर लागत बढ़ जाएगी और कहीं खुदा न खास्ता सावन-भादों सूखा निकल गया और फागुन-चैत भीगा तो फसल गई। अब ऐसे में किसान आत्महत्या न करे तो क्या करे। इसके बाद भी कलेक्टर के यहां से हरकारा आ जाता है लगान और आबपाशी वसूलने। इस धमकी के साथ ढिंढोरा पिटवाया जाता है कि अगर किसान ने वक्त पर लगान व आबपाशी न जमा की तो किसान के खेत की कुर्की तय। हैं न अजीब सरकारें! किसान की फसल चौपट हो जाए, सूखा, बारिश या पाला-पाथर पड़ जाए अथवा हमलावर लूट लें, खेतों में खड़ी फसल को आग लग जाए या नीलगाय फसल चर जाए पर सरकार की वसूली तय है। अरे इन मौजूदा तुर्कों से बेहतर तो अलाउद्दीन खिलजी, शेरशाह सूरी और जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर जैसे मध्ययुगीन शासक थे जिन्होंने लगान के लिए उपज को पैमाना माना था। यानी फसल चौपट तो लगान भी नहीं। मगर हमारी ये लोकप्रिय और लोकतांत्रिक सरकारें बेशर्मी के साथ विधायिका में प्रस्ताव लाकर अपने वेतन-भत्ते तो बढ़वा लेती हैं पर किसानों को आत्महत्या के लिए उकसाती हैं। एक मंतरी से लेकर संतरी तक के वेतन की अनुशंसाओं के लिए आयोग हैं, न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए भी लेकिन आज तक न तो कृषिभूमि रखने की न्यूनतम हदबंदी तय की गई है न किसान को अपनी जमीन न अधिग्रहीत करने देने का अधिकार है। इसमें कांग्रेस और भाजपा और जनतापार्टी व जनतादल की सरकारें बराबर की उस्ताद रही हैं। ऐसी क्रूर व निकृष्ट तथा किसान विरोधी सरकारों की क्षय होवे और ऐसे लोभी व धूर्त राजनेताओं की भी तथा नौकरशाही व मीडिया कर्मियों व शहरी मध्यवर्ग की भी।

सोमवार, 23 मार्च 2015

Bhagat singh

मथुरा के प्रगतिशील बौद्घिकों की एक बहुत ही पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था जन सांस्कृतिक मंच ने मृत्युंजय भगत सिंह की शहादत दिवस की पूर्व संध्या पर भगत सिंह के सपनों का भारत और मौजूदा राजनीति पर एक गोष्ठी कराई। इस गोष्ठी में एक वक्ता मैं भी था। गोषठी में मैने भगत सिंह को कोरा शहीद नहीं बल्कि बोल्शेविक राजनीति की समझ रखने वाले ऐसे नौजवान को देखने की कोशिश की है जो शायद प्रचलित धारणाओं से भिन्न है। आप लोग अगर धीरज से इस यू ट्यूब पर मेरा भाषण सुनें तो काफी कुछ नया जानने और सीखने को भी मिलेगा। यह मेरा अंदाज थोड़ा कुछ लोगों को अहमन्यता भरा लग सकता है मगर सच बोलने से मुंह नहीं चुराना चाहिए। जन सांस्कृतिक मंच के कर्ता-धर्ता श्री अशोक बंसल का धन्यवाद। साथ में मुरारी लाल अग्रवाल का और मुरारी लाल जूनियर का भी तथा आरके चतुर्वेदी और अन्य मित्रों का भी।
https://www.youtube.com/watch?v=fTZxyzOvxKU

रविवार, 22 मार्च 2015

भगत सिंह शहीद नहीं मृत्युंजय थे!

Bhagat Singh
भगत सिंह शहीद नहीं मृत्युंजय थे!
कल 22 मार्च को मथुरा में जन सांस्कृतिक मंच ने मृत्युंजय भगत सिंह को याद किया। विषय था- भगत सिंह के सपनों का भारत और मौजूदा राजनीति। आयोजक और श्रोता दोनों ही भगत सिंह को लेकर रूढि़वादी चिंतन से मुक्त थे। मुझे वहां बतौर मुख्य वक्ता के बुलाया गया था। मथुरा नगरी की खासियत यह है कि वहां के लोग अतीत के किसी आदर्श कालखंड में नहीं जीते। मथुरा के जनजीवन में जो गत्यात्मकता है, उसका अलग ही आनंद है और वह सदैव कुछ नया सोचने को प्रेरित करती है। मेरा मानना है कि भगत सिंह को शहीद, महान शहीद और शहीदे आजम का ताज पहना कर हमने भगत सिंह की मौलिकता, उनके चिंतन और दर्शन को मृत मान लिया है। क्योंकि शहीद में कोई नवीनता नहीं होती। वह एक आदर्श के लिए जिया और कुर्बान हो गया। मगर उस आदर्श में कोई जीवित सिद्घांत, किसी मौलिक चिंतन का घोर अभाव होता है। देश भक्ति अथवा राष्ट्रभक्ति में कोई नवीनता नहीं अगर हमने अपने देशवासियों, खासकर बहुजन लोगों और वंचित व दमित तबकों तथा समुदायों के उत्थान के बारे में नहीं सोचते। भगत सिंह की खासियत यह नहीं थी कि वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे। ऐसे तो तमाम लोग लड़े और कुर्बान हुए। पर वे सब भगत सिंह नहीं बन सके। उनकी विशेषता यह भी नहीं थी कि वे सिख थे और मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो गए। इस तरह के भी अनगितनत उदाहरण मिल जाएंगे। पर वे भी भगत सिंह का दर्जा नहीं पा सके।
मेरा मानना है कि भगत सिंह वह शख्सियत थे जो सिर्फ और सिर्फ भगत सिंह ही हो सकते थे। देखिए उनका जीवन कितना विविधताओं से भरा हुआ था। भगत सिंह अपनी कुल परंपरा से एक जाट सिख परिवार में जन्मे। पर उनके दादा वह शख्सियत थे, जो स्वामी दयानंद और उनके आर्य समाज आंदोलन को पंजाब में लाए थे। आर्य समाज उन दिनों सामाजिक बुराइयों के विरुद्घ तीव्रता से लड़ रहा था। इसलिए भगत सिंह को अपने दादा के संस्कार मिले। उनके दादा ने उनके यज्ञोपवीत के समय कह दिया था कि मेरा यह पोता कुछ बड़ा काम करेगा। उनके चाचा गदर पार्टी से जुड़े थे और अपने क्षेत्र में वे एक अन्य सिख जमींदार के जुल्म के विरुद्घ किसानों को एक जुट करने में लगे थे। भगत सिंह की शिक्षा-दीक्षा लाहौर के खालसा स्कूल में न होकर दयानंद एंग्लो वैदिक डीएवी हाई स्कूल में हुई। जब वे डीएवी हाई स्कूल में दाखिला लेने लाहौर आए अमृतसर में जलियांवाला हत्याकांड हो गया। तब किशोर भगत सिंह मात्र 12 साल के थे। उनके किशोर मन ने कुछ तय कर लिया। हाई स्कूल करने के बाद वे एफए में दाखिला लेने नेशनल कालेज लाहौर पहुंचे। इसी बीच उन्होंने पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक निबंध प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और पंजाब के किसानों की दुर्दशा पर लेख लिखकर पहला पुरस्कार जीता। निराला जी के मतवाला पत्र में उन्होंने एक लेख लिखा कि पंजाबी की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए। इसके बाद भारत नौजवान सभा का गठन हुआ और भगत सिंह धीरे-धीरे हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन के संपर्क में आए। राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्र शेखर आजाद और अशफाक उल्ला खां से उनका संवाद होने लगा। उन्हीं दिनों साइमन कमीशन का विरोध करते हुए शेरे पंजाब लाला लाजपत राय पुलिस की लाठियों ेसे मारे गए। इन जोशीले युवकों ने इसके बाद सांडर्स वध किया और पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह दाढ़ी मंूंछ व केश कटवा कर सफाचट हो गए और ये सारे लोग कानपुर आ गए। भगत सिंह ने यहां गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार प्रताप में बतौर सब एडिटर हो गए। बाद में काकोरी डकैती कांड से लेकर तमाम जोशीले कांड इन युवकों ने किए। मगर  इसके बाद ही भगत सिंह को समझ में आ गया कि अकेले-अकेले कुछ दुस्साहसिक वारदात कर न तो अंग्रेजों को देश से चलता किया जा सकता है न देश में कोई न्यायसंगत, विधि सम्मत व्यवस्था लागू की जा सकती है। भगत सिंह ने इस बीच कानपुर में मेस्टन रोड स्थित गया प्रसाद लायब्रेरी में नियमित जाना शुरू किया और प्रिंस क्रोपाटकिन का अराजकता वाद तथा माक्र्स, लेनिन व एंगेल्स को पढ़ा। भगत सिंह का पूरा चिंतन ही बदल गया और उन्होंने पहला काम किया कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का नाम बदला और उसमें सोशलिस्ट शब्द जुड़वाया। चंद्र शेखर आजाद की सांगठनिक क्षमता को देखते हुए उन्हें इसका डिक्टेटर नियुक्त किया और शुरू कर दी एक नए किस्म की लड़ाई। जिसके तहत एसेंबली बम कांड किया। वे चाहते तो दिल्ली की तत्कालीन नेशनल एसेंबली में बम फोड़कर वे भाग सकते थे पर जानबूझकर उन्होंने स्वयं को गिरफ्तार करवाया और इसके बाद जो जिरह उन्होंने की वह उनकी थाती बन गई। इसीलिए मेरा मानना है कि भगत सिंह की जितनी जरूरत कल थी उससे अधिक आज है। आजादी के बाद सिर्फ शासक बदले। गोरे अंग्रेज गए तो काले आ गए मगर व्यवस्था आज भी उसी तरह अन्यायपूर्ण है। गरीब, वंचित और दमित तबका आज भी उपेक्षित है। इसीलिए भगत सिंह मृत्युंजय है। मृत्युंजय यानी मृत्यु को जीतने वाला। भगत सिंह एक दर्शन हैं, विचारधारा हैं और वे कभी मरा नहीं करते। जिन युवाओं के जीवन में सिर्फ कैरियर है, कमाना-खाना और बच्चे पैदा करना है वे युवा भगत सिंह को नहीं समझ सकते। भगत सिंह  को समझना है तो आपकी तरुणाई के कुछ सपने होने चाहिए। भगत सिंह के लिए ही गढ़वाली जी ने लिखा था-
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की।

देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की॥

शनिवार, 21 मार्च 2015

मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्न:!

मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्न:!

कुछ लोग जो मेरी हर पोस्ट पर अंगुली करते रहते हैं, मुझसे कहते हैं कि आप कभी मुगल या सुल्तानी काल के पीछे क्यों नहीं जाते और हिंदू नरेशों की भव्यता व विशालता तथा न्यायप्रियता की चर्चा क्यों नहीं करते। तो सुनो भाइयों मुझे मिथ में जाने की आदत नहीं है। मैं उसी को इतिहास समझता हो जो लिपिबद्घ हो और तार्किक हो। इसका मतलब यह नहीं कि मैं 1192 के पहले का सारा इतिहास खारिज करता हूं। लेकिन अपने यहां लिखित इतिहास है नहीं इसलिए श्रुति व परंपराओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है। मगर परंपराएं इतिहास नहीं होतीं। वे मिथ हैं उनसे प्रवृत्ति का पता तो चलता है पर हकीकत का नहीं। मैने महाकाव्य पढ़े हैं। वेद क्रमश: तो नहीं पढ़े लेकिन फिर भी टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़े हैं और विद्वान लोगों की संगत में रहकर बहुत कुछ सीखा और जाना है। मैं कुछ वर्षों तक बौद्घ भिक्खु रहा हूं इसलिए उनसे बहुत कुछ जाना मगर फिर भी मैं उस इतिहास से अनजान ही हूं। मेरा मानना है कि भारत में हर्षवर्धन से कुतबुद्दीन के बीच का इतिहास चारणों की मदद से ही पता पड़ता है। लेकिन यह इतिहास को समझना जरूरी है। यही वह इतिहास है जब ब्राहमणों व क्षत्रियों के बीच ऐसी युद्घरेखा खिंच गई कि ब्राहमणों ने विदेशी आक्रांताओं को जनेऊ पहना कर क्षत्रिय दर्जा दिया। आबू पर्वत पर एक यज्ञ इसी हेतु हुआ था। मगर उत्तर में चंदेल, बर्मन और खंगार, दक्षिण में यादव तथा पोस्सल और पूर्व में सेन वंशी राजा इसी दौर में आए। इस पूरे काल में भारतवंशी हिंदू राजा परस्पर लड़ रहे थे और उनकी जनता  ब्राह्मणबौद्घ, शैव व वैष्णव में बटी हुई थी। शैवों ने पहले तो बौद्घ दर्शन की नकल कर एक अद्वैतवाद को अमली जामा पहनाया फिर वैष्णवों के साथ तालमेल कर शैव व वैष्णव मिथक आपस में मिला दिए। नतीजा यह रहा कि गैर ब्राह्मण जातियों की स्थिति नरक बन गई। यह वह दौर था जब इन शैवों व वैष्णव नरेशों ने पूरे देश से बौद्घों का उच्छेद किया। यही वह स्थिति थी जब अरब में जन्मा मुहम्मद का मत भारत आया और यहां की जनता ने उसका स्वागत किया। बौद्घों ने इसलिए कि ब्राह्मणों की क्रूरता से निजात दिलाने के लिए त्राता आ गया और ब्राह्मणों ने इसलिए कि मुहम्मद के अनुयायी उन्हें इन बौद्घ मुंडियों से छुटकारा दिला देंगे।