मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्न:!
कुछ लोग जो मेरी हर पोस्ट पर अंगुली करते रहते
हैं, मुझसे कहते हैं कि आप कभी मुगल या सुल्तानी काल के पीछे क्यों नहीं
जाते और हिंदू नरेशों की भव्यता व विशालता तथा न्यायप्रियता की चर्चा क्यों नहीं
करते। तो सुनो भाइयों मुझे मिथ में जाने की आदत नहीं है। मैं उसी को इतिहास समझता
हो जो लिपिबद्घ हो और तार्किक हो। इसका मतलब यह नहीं कि मैं 1192 के
पहले का सारा इतिहास खारिज करता हूं। लेकिन अपने यहां लिखित इतिहास है नहीं इसलिए
श्रुति व परंपराओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है। मगर परंपराएं इतिहास नहीं होतीं।
वे मिथ हैं उनसे प्रवृत्ति का पता तो चलता है पर हकीकत का नहीं। मैने महाकाव्य
पढ़े हैं। वेद क्रमश: तो नहीं पढ़े लेकिन फिर भी टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़े हैं और
विद्वान लोगों की संगत में रहकर बहुत कुछ सीखा और जाना है। मैं कुछ वर्षों तक
बौद्घ भिक्खु रहा हूं इसलिए उनसे बहुत कुछ जाना मगर फिर भी मैं उस इतिहास से अनजान
ही हूं। मेरा मानना है कि भारत में हर्षवर्धन से कुतबुद्दीन के बीच का इतिहास
चारणों की मदद से ही पता पड़ता है। लेकिन यह इतिहास को समझना जरूरी है। यही वह
इतिहास है जब ब्राहमणों व क्षत्रियों के बीच ऐसी युद्घरेखा खिंच गई कि ब्राहमणों
ने विदेशी आक्रांताओं को जनेऊ पहना कर क्षत्रिय दर्जा दिया। आबू पर्वत पर एक यज्ञ
इसी हेतु हुआ था। मगर उत्तर में चंदेल, बर्मन और खंगार,
दक्षिण में यादव तथा पोस्सल और पूर्व में सेन वंशी राजा इसी दौर में
आए। इस पूरे काल में भारतवंशी हिंदू राजा परस्पर लड़ रहे थे और उनकी जनता ब्राह्मण, बौद्घ, शैव व वैष्णव
में बटी हुई थी। शैवों ने पहले तो बौद्घ दर्शन की नकल कर एक अद्वैतवाद को अमली
जामा पहनाया फिर वैष्णवों के साथ तालमेल कर शैव व वैष्णव मिथक आपस में मिला दिए।
नतीजा यह रहा कि गैर ब्राह्मण जातियों की स्थिति नरक बन गई। यह वह दौर था जब इन
शैवों व वैष्णव नरेशों ने पूरे देश से बौद्घों का उच्छेद किया। यही वह स्थिति थी
जब अरब में जन्मा मुहम्मद का मत भारत आया और यहां की जनता ने उसका स्वागत किया।
बौद्घों ने इसलिए कि ब्राह्मणों की क्रूरता से निजात दिलाने के लिए त्राता आ गया
और ब्राह्मणों ने इसलिए कि मुहम्मद के अनुयायी उन्हें इन बौद्घ मुंडियों से
छुटकारा दिला देंगे।
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