1983 में जब दिल्ली आया तो शुरू-शुरू में राजघाट के गेस्ट हाउस में रहा
करता था। जनसत्ता के संपादक दिवंगत प्रभाष जोशी ने मेरा, राजीव शुक्ल और
सत्यप्रकाश त्रिपाठी के रहने का इंतजाम वहीं पर करवा दिया था। उस गेस्ट
हाउस की खास बात यह थी कि वहां पर लंच व डिनर में अरहर की दाल भी मिलती थी।
यह दाल हमारी सबसे बड़ी कमजोरी थी। इतनी अधिक कि हम जनसत्ता की नौकरी छोड़
वापस कानपुर जाने की ठान रखे थे। और तब चूंकि दिल्ली के ढाबों में
छोले-भटूरे व मां-चने की दाल के सिवाय कुछ नहीं मिलता था इसलिए हमने
ठान लिया था कि हम कानपुर लौट जाएंगे। भाड़ में जाए यह जनसत्ता की नौकरी
जो नवभारत टाइम्स व हिंदुस्तान से कम वेतन देता था। सब एडिटर के तीन
इंक्रीमेंट देने के बाद भी मात्र 1463 रुपये और वह भी हर महीने दो-तीन दिन
के पैसे कट जाते क्योंकि हम जब छुट्टी लेते तो वह छुट्टी अवैतनिक हो जाती।
ऊपर से इंडियन एक्सप्रेस के लोगों ने हमें बता रखा था कि इस समूह के मालिक
रामनाथ गोयनका हिंदी अखबार पटापट बंद कर देते हैं। इसलिए उनके मूड का कोई
भरोसा नहीं है। पर सही समय में प्रभाष जी ने राजघाट गेस्ट हाउस में अरहर की
दाल का इंतजाम कर दिया। उसी गेस्ट हाउस के परिसर में कवि भवानी प्रसाद
मिश्र रहा करते थे। हम रोज उस आवास के बाहर हिंदी में लिखी उनकी नेमप्लेट
देखते और सोचते कि एक दिन उनके पास जाना है। उनकी एक नहीं अनगिनत कविताएं
हमें याद थीं। एक रोज पिताजी को मैने पत्र लिखा कि मैं कानपुर आ रहा हूं
बहुत हो गई यह दिल्ली की नौकरी। यहां की पत्रकारिता में वह चार्म नहीं जो
डकैतों के इलाके में रिपोर्टिंग करते हुए महसूस होता था। जनसत्ता से तो
दैनिक जागरण भला। भले वहां पगार कम थी और मेहनत ज्यादा पर मनोनुकूल काम का
अवसर तो था। इस पर पिताजी का पत्र आया जिसमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
कोट थी-
जन्म लिया है खेल नहीं है/
यहां नाचना ही होता है/ हर राधा को
भले किसी के पास मनाने को/ छटाक भर तेल नहीं है।
इसके बाद कानपुर सिकनेस कुछ दिन के लिए रुक गई। पर जब फिर कानपुर की हूक उठी तो मैं हिम्मत कर भवानी बाबू के आवास पर पहुंच गया और काफी देर के इंतजार के बाद जब वे मिले तो मैने उनको अपने पिताजी का वह खत दिखाया और कहा कि क्या आपके पास ऐसी और कोई कविता है जो मुझे दिल्ली रोक सके। भवानी बाबू के धीर-गंभीर चेहरे पर मुस्कान झलकी और फिर उन्होंने कई कविताएं सुनाईं। उनमें से जो मुझे सबसे अधिक पसंद आई वह थी- "कठपुतली गुस्से से उबली .......!"
बाद में भवानी बाबू ने हमारे संपादक प्रभाष जी को कहा कि आपके परचे से अच्छे लोग जुड़े हैं। जब प्रभाष जी ने यह बात बताई तो हमने कहा कि बस अब नहीं जाना। यहीं रहना है। आज उन्हीं भवानी बाबू यानी भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म दिन है।
जन्म लिया है खेल नहीं है/
यहां नाचना ही होता है/ हर राधा को
भले किसी के पास मनाने को/ छटाक भर तेल नहीं है।
इसके बाद कानपुर सिकनेस कुछ दिन के लिए रुक गई। पर जब फिर कानपुर की हूक उठी तो मैं हिम्मत कर भवानी बाबू के आवास पर पहुंच गया और काफी देर के इंतजार के बाद जब वे मिले तो मैने उनको अपने पिताजी का वह खत दिखाया और कहा कि क्या आपके पास ऐसी और कोई कविता है जो मुझे दिल्ली रोक सके। भवानी बाबू के धीर-गंभीर चेहरे पर मुस्कान झलकी और फिर उन्होंने कई कविताएं सुनाईं। उनमें से जो मुझे सबसे अधिक पसंद आई वह थी- "कठपुतली गुस्से से उबली .......!"
बाद में भवानी बाबू ने हमारे संपादक प्रभाष जी को कहा कि आपके परचे से अच्छे लोग जुड़े हैं। जब प्रभाष जी ने यह बात बताई तो हमने कहा कि बस अब नहीं जाना। यहीं रहना है। आज उन्हीं भवानी बाबू यानी भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म दिन है।
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