रविवार, 24 अप्रैल 2016

भारतीय समाज में राष्ट्र और राज्य!



भारतीय समाज में राष्ट्र और राज्य!
शंभूनाथ शुक्ल
किसी देश की जनता को समझने, उसके मूड को भाँपने में दो तरह की शक्तियों का रोल बड़ा अहम होता है. एक तो वे जो उस समाज को गिनी पिग समझते हैं और खुद को निर्विकार और निर्विवाद मानते हुए वे एक परायी मानसिकता से उसके मूड को जान लेने का अभिनय करते हैं. दूसरे वे जो उसी समाज से आते हैं और आधुनिक समझ का उनमें घोर अभाव होता है और वे उसी समाज की कूपमंडूकता का शिकार होकर कोई निष्कर्ष निकाल कर खुद को त्रिकालज्ञ होने का भ्रम पैदा करते हैं. दिक्कत यह है कि भारतीय समाज में राष्ट्र और राज्य की अवधारणा इन्हीं दो तरह के लोगों में सिमटी हुई है. इसलिए यहां सदैव भ्रम की स्थिति बनी ही रहती है कि भारतीय सामाजिक तानेबाने में राष्ट्र और राज्य दरअसल हैं क्या! इन्हें अगर मोटे रूप में हम बाटें तो कह सकते हैं कि पहली तरह की समझ वाले लोग दरअसल मतिभ्रम का शिकार हैं. ये अधिकतर कम्युनिस्ट चिंतन वाले लोग हैं जो परंपरा से विहीन होकर समाज को समझने का प्रयास करते हैं. निश्चय ही उनमें आधुनिकता बोध अधिक होता है पर यह बोध इतना ज्यादा होता है कि धरातल पर वे आते ही नहीं. और अक्सर समाज के एलीट क्लास के आचरण को ही मुख्यधारा मान लेने की भूल कर बैठते हैं. दूसरी तरह की जानकारी होने का दावा करने वाले कट्टर और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले कूपमंडूक हैं जो यह मानते हैं कि हमारी प्राचीन लोक परंपरा को आधुनिकता से जोडऩे के चक्कर में सारा गुड़ गोबर कर डालते हैं.
लेकिन इन दोनों के बीच का एक रास्ता भी है जिसे मध्य मार्गी कह सकते हैं. जो जनता के पक्ष के साथ जुड़ते हैं या बुद्घ के शब्दों में इसे मज्झिम निकाय भी कहा जा सकता है. आधुनिक काल में गांधी इस रास्ते पर चलते प्रतीत होते हैं. हर एक समस्या का हल उनके पास है जो सर्वमान्य है और जिसमें सब समाहित हैं. गांधी की भी एक परंपरा रही है और इस परंपरा में बुद्घ थे और कबीर थे. जबकि वामपंथी और दक्षिणपंथी बुद्घिवादियों के रास्ते पर अनगिनत नाम मिल जाएंगे. आधुनिक काल में रवींद्र नाथ टैगोर यदि पहली परंपरा के बुद्घिवादी हैं तो दूसरी परंपरा के सावरकर व गोलवलकर. इसीलिए टैगोर और सावरकर में चिंतन का अंतर है. गुरुदेव टैगोर भले गांधी के करीब रहे हों मगर उनका चिंतन या तो अंग्रेजीदाँ लोगों की परंपरा का था और इसी वजह से वे जब भी आधुनिक भारत का भाष्य लिखते उनके समक्ष संस्कृत भाषी कुलीन संस्कृतनिष्ठ परपंरा वाला भारत मिलता. टैगोर जनभाषा और जनपक्षधरता को उस तरह नहीं स्वीकार कर पाते थे जिस तरह गांधी कर लेते थे. उनकी कुलीनता में और परंपरा में दलित, पिछड़े व आदिवासी नहीं थे. दूसरी बुद्घिवादी परंपरा में दामोदर वीर सावरकर, केशव बलिराम हेडगेवार और एमएस गोलवलकर थे. यह परंपरा सिर्फ उतना ही देखती है जितना कि प्राचीन ब्राह्मणवादी उन्हें दिखाते हैं. इसमें आधुनिकता सिर्फ इसी संदर्भ में है जहां तक वे अपनी परंपरा को आज से जोड़ सकें. इसीलिए यह परंपरा एक ऐसे भारतवर्ष की रचना करती है जिसमें संस्कृत के कूपमंडूक ग्रन्थ हैं और अपने धर्म के अंधविश्वासों को सही साबित करने में वे समर्थ हैं. इसमें वैज्ञानिकता नहीं है न ही जनता को समझने की उनमें शक्ति. इस परंपरा में बुद्घि के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह परंपरा मानती है कि उसके पूर्वज इतना कुछ कर गए हैं कि अब उन्हें कुछ नया करने की जरूरत ही नहीं है.
मगर जैसे-जैसे दूसरी परंपरा तीव्र हुई स्वयं रवींद्र नाथ को भी लगने लगा कि राष्ट्रवाद एक दुमुँही छुरी है और वे इससे दूर होने लगे. तब राष्ट्रवाद उस दौर में सिर्फ तीव्र दक्षिणपंथी परंपरा को मिल गया जिसने आधुनिक राष्ट्रवाद की परिभाषा मुसोलिनी और हिटलर से सीखी तथा उनके दिमाग में भी विशुद्घ आर्य नस्लीय राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद के रूप में ध्वनित होने लगा. तब पश्चिमी उदारवादी परंपरा में राष्ट्रवाद दो और राष्ट्रीय नेताओं के दिमाग में पनपा वे थे जवाहर लाल नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस. ये दोनों पहली परंपरा के थे. इनके दिमाग में राष्ट्रवाद ब्रिटेन का  राष्ट्रवाद  था जहां आधुनिक कही जाने वाली तमाम उप राष्ट्रीयताएं ब्रिटेन में विद्यमान थीं. नेहरू और सुभाष बोस की यह नजर उन्हें दक्षिणपंथियों से अलग करती थी. वे राष्ट्र और राज्य को किसी धर्मविशेष से जोडऩे के पक्षपाती नहीं थे. जबकि बंगाल के पुनर्जागरण के वक्त से जो परंपरा चली आ रही थी उसमें राष्ट्र कहीं न कहीं हिंदू कट्टरवाद की तरफ जा रही थी. एक तरह से कहा जाए तो बंगाल के पुनर्जागरण का काल कुलीन और अभिजात्य हिंदू पुनर्जागरण था. इसमें मुसलमान म्लेच्छ और हमलावर थे। बंकिमचंद्र चटर्जी इस कुलीन हिंदू पुनर्जागरण के जनक थे और इसके पीछे कहीं न कहीं अंग्रेजों की विस्तारवादी कूटनीति थी. बंकिमचंद्र चटर्जी जिस वक्त में अपना आनंदमठ लिखकर एक नए किस्म का कुलीन हिंदू भद्रलोक तैयार कर रहे थे तब १८५७ के पहली आजादी की लड़ाई को गुजरे ज्यादा वक्त नहीं हुआ था और अंग्रेज चाहते थे कि अगर इंडिया में हिंदू और मुस्लिम भद्रलोक अलग होकर अपने लिए अलग राष्ट्रीयता का निर्माण कर ले तो अंग्रेजों को भारतीय बाजार में कब्जा करने में ज्यादा परेशानी नहीं आने वाली. सर सैयद अहमद खाँ और बंकिम चंद्र चटर्जी इसी अभियान के अगुआ बने। दोनों की पृष्ठभूमि भी समान. दोनों ही अंग्रेजों के मुलाजिम थे और दोनों ही अंग्रेजी राज में डिप्टी कलेक्टर थे. दोनों ही क्रमश मुसलमान व हिंदुओं की कुलीन तथा अभिजात्य कही जाने वाली जातियों से आते थे और अंग्रेजीदाँ थे.
भारत में राष्ट्रीयताओं का उदय यहीं से हुआ. पर यह एक ऐसी संकुचित राष्ट्रीयता थी जिसकी परंपरागत भारतीय अस्मिताओं से कोई वास्ता नहीं था. अपने स्वर्णिम सामंतीकाल में भी भारत कोई एक राष्ट्र नहीं रहा. यहां तक कि नंद वंश, मौर्य वंश और शुंग वंश के समय भी भारत कोई एक राष्ट्र या राज्य नहीं बस एक क्षेत्र विशेष तक सिमटा था जिसे अधिक से अधिक गंगा घाटी की सभ्यताओं वाला भूभाग कह सकते थे. तब भी दक्षिणापथ अलग था और उत्तरापथ इस पाटिलपुत्र साम्राज्य में नहीं आते थे. जब भारत में इस्लाम पंथ को मानने वाले विदेशी आए तब भी भारत में कोई ऐसी शक्ति नहीं थी जो उनका मुकाबला कर सके. दसवीं शताब्दी में सिंध के राजा दाहिर ने अकेले लड़ाई लड़ी और हारे. इसके बाद महमूद गजनवी ने जब सोमनाथ मंदिर लूटा तब उसका मुकाबला करने के लिए कोई संगठित राज्य शक्ति नहीं थी और पृथ्वीराज चौहान का जब पतन हुआ तब वह दिल्ली के पास पिथौरा किले में रहने वाला एक छोटा राजा था और तब कान्यकुब्ज साम्राज्य के जयचंद से उसके तीन और छह के रिश्ते थे. इसीलिए मुहम्मद गोरी को हिंदुस्तान फतेह करने में ज्यादा शक्ति नहीं जाया करनी पड़ी.  यही नहीं पृथ्वीराज के पतन के मात्र चार साल के भीतर ही तुर्कों ने बंगाल पर भी कब्जा कर लिया. जबकि दिल्ली से बंगाल के बीच उन्हें कान्यकुब्ज व पाटिलपुत्र को पार कर के ही जाना पड़ा होगा. अगर इतिहास को सच मानें तो जब तुर्क बंगाल पहुंचे तब मात्र 75  लोग थे और बंगाल का शक्तिशाली सेन वंशीय साम्राज्य का शासक लक्ष्मण सेन अपने अंत:पुर के रास्ते गंगा नदी की ओर निकल गया. जाहिर है भारत तब अपनी अंतर्कलह में जूझ रहा था और कोई भी शक्ति उन्हें एक नहीं करती थी. हिंदू धर्म कभी एक समुदाय के रूप में नहीं उभरा. यहां पर अनगिनत संप्रदाय और समुदाय हैं. इसलिए हिंदू राष्ट्र की बात करना ही बेमानी है. लेकिन अंग्रेजों ने इस ऐतिहासिक सत्य को झुठला कर हिंदू राष्ट्रवाद पनपाने की कोशिश की. इसके लिए भाषा और धर्म को अलग किया गया. बंकिम चंद्र के आनंद मठ के बाद ही हिंदुओं के लिए हिंदी और मुसलमानों के लिए उर्दू का बोलबाला पनपाया गया.
मुसलमानी काल भी कोई एकच्छत्र साम्राज्य नहीं दे सका. अलाउददीन खिलजी ने जरूर एक शक्तिशाली सल्तनत की कल्पना की और इसके लिए उसने किसानों से लगान वास्ते कुछ नियम कायदे बनाए पर ध्वस्त रहे. बाबर जब हिंदुस्तान आया तब उसने पाया तब यहां मुसलमान राजे भी थे और हिंदू राजे भी जो परस्पर लड़ते थे. उस समय पूरे भारत में छह सल्तनतें थीं. एक तो दिल्ली सल्तनत जिस पर इब्राहीम लोदी सुल्तान था। दूसरी बंगाल सल्तनत,  तीसरा राजपूताना और चौथा गुजरात का सुल्तान, दक्कन अलग था और मालवा अलग. इनमें से राजपूताना और मालवा में हिंदू थे तथा बाकी की सल्तनतें मुसलमानों के पास थीं. बाबर ने यहां आकर पूरे भारत में एक सल्तनत का सपना देखा था. बाबर और हुमायूँ तो खैर इस सपने को पूरा नहीं कर पाए मगर बाबर के पोते अकबर ने इसे काफी हद तक पूरा किया और एक हिंदुस्तान बनाया. मगर इसके बनने में जितना वक्त लगा उससे भी कम वक्त इसके बिखरने में लगा. इसकी वजह थी कि हिंदुस्तान में इस तरह की एकता की कोई वाजिब वजह नहीं थी. न तो भौगोलिक एकता थी न भाषाई और न ही सांस्कृतिक न धार्मिक. इसलिए यह एकता दिखावटी ही रही और औरंगजेब के अंतिम समय तक मुगल बादशाह नाम को ही पूरे हिंदुस्तान का बादशाह रह गया था.  इस हिंदुस्तान के टुकड़ों को जोड़ा व्यापार के बहाने भारत आए अंग्रेजों ने. वे एक नई सोच लाए थे और व्यापार के नए तरीके भी. कृषि भूमि की लगान को नकद लेने की नीति ने किसानों को पुश्तैनी भूमि से बेदखल किया और जमीन का मालिक जमींदार बना जिसने ठेके पर जमीन देनी शुरू की. और इस तरह किसान अचानक सड़क पर आ गया जिसके कारण उसका गांवों से सामूहिक पलायन हुआ और शहरों में जाकर वह औद्योगिक कारखानों में मजदूर बन गया. पर इन कल कारखानों ने मजदूरों को जातिपात के दायरे से निकाला और अपने हितों के लिए उनमें एकता पैदा की. इसके साथ ही अंग्रेजों ने जो अपनी प्रेसीडेंसी बनाई उससे वहां के इलाके में रहने वालों की एक पहचान बनी. मसलन मद्रास प्रेसीडेंसी के मद्रासी कहलाए और बम्बई प्रेसीडेंसी वाले गुजरात व महाराष्ट्र के मरहट्टे कहे गए। बंगाल प्रेसीडेंसी तथा चौथा था नार्थ वेस्ट प्राविंस जो मुगल बादशाह शाहआलम से ली गई जमीन पर बनाया गया. इस प्राविंस में कड़ा जहानाबाद से लेकर आगरा व अजमेर तक का इलाका आता था. इसकी राजधानी पहले आगरा फिर इलाहाबाद बनाई गई.
इसलिए यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इंडिया में राष्ट्र की परिकल्पना अंग्रेजों के आने के बाद से विकसित हुई इसलिए जातीय अस्मिताएं कमजोर पड़ गईं. पहले तो ऊपर लिखी तीन प्रेसीडेंसी स्थापित की गईं और उत्तर भारत का कामकाज देखने के लिए जिसे अंग्रेजों ने नार्थ वेस्टर्न प्राविंस बताया उन्होंने आगरा में मुख्यालय बनाया जहां पर एक लेफ्टीनेंट गवर्नर बैठा करता था. इस तरह उन्होंने भारत में ऐसी अस्मिताएं विकसित कीं जिनमें परस्पर कोई तालमेल नहीं था. न ही उनमें कोई सांस्कृतिक ऐक्य था. इसलिए यहां कोई ऐसी अस्मिता बन ही नहीं सकी जो सबको समान रूप से मान्य हो. राष्ट्रीयता का निर्माण ही अंग्रेजों ने किया सत्ता का केंद्रीकरण कर. किसी भी मामले की पैरवी सिर्फ कलकत्ता होती थी जहां गवर्नर जनरल बैठा करता था जिसे बड़ा लाट भी कहते थे. छोटी-छोटी सी बात के लिए हिंदुस्तानियों को कलकत्ता जाकर पैरवी करनी पड़ती थी. जाहिर है इसके कारण एक ऐसी राष्ट्रीय छवि बनी जिसमें अंग्रेज हमारा नियंता था और किसी अस्मिता या पहचान का घोर अभाव था. हमारे लिए राष्ट्र का मतलब कलकत्ता का बड़ा लाट और उसके स्थानीय गोरे प्रतिनिधि थे जिन्होंने हर शहर में अपने सिविल लाइन्स और दि माल बना रखे थे. यही कारण था कि राष्ट्र से हमारे देश के आम नागरिक को कोई लगाव जैसी व्युत्पत्ति कभी नहीं हुई.
अंग्रेजों ने 1857 के बाद कुछ प्रान्तों का गठन किया और प्रेसीडेंसी की ताकत कम की लेकिन अंग्रेजों का स्वयं चूंकि इस देश से कोई भावनात्मक लगाव नहीं था और न ही वे यहां बसने के इच्छुक थे इसलिए इन प्रान्तों के अंग्रेज लाट और उनके मातहत कलेक्टरों के प्रति भी देशी आदमी को कोई सहानुभूति नहीं हुई. अंग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के बाद की सरकारों ने न तो नौकरशाही का चक्रव्यूह भेदा न ही राष्ट्र व राज्य की अवधारणा की कोई व्यापक समझ जनता के बीच पैठाई. नतीजा यह है कि औसत भारतीय न तो राष्ट्र को समझता है न देश को लेकर उसके अंदर कोई स्पष्ट सोच विकसित हुई. एक स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के लिए सबसे अधिक जरूरी है मजबूत लोकतंत्र और लोकतंत्र में दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. एक तो लोक और दूसरा तंत्र जो कानून बनाता है और उस पर अमल करवाता है. पर यहां एक चीज और महत्वपूर्ण है वह यह कि लोकतंत्र कभी दोनों के सामंजस्य के बिना नहीं चल पाता. सामंजस्य के लिए लोकतंत्र एक तरफ तो कुछ अधिकार देता है और दूसरी तरफ कुछ दायित्व भी. ये दोनों चीजें लोक और तंत्र दोनों के लिए ही बराबर के महत्वपूर्ण होते हैं. पर हम पाते हैं कि भारत में दोनों के बीच खूब रस्साकशी मचती है अधिकार और दायित्वों के बटवारे को लेकर. यह रस्साकशी लोकतंत्र को उस रूप में यहां नहीं पनपने देती जिस रूप में कभी संविधान निर्माताओं ने सोचा था. नतीजा यह होता है कि एक सक्षम और सबल लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद यहां आम आदमी अपने न तो कर्त्तव्यों को जानता है तथा न ही अपने दायित्वों को. और वह इस व्यवस्था के प्रति उदासीन बना रहता है. उसकी इस उदासीनता का लाभ वे तत्व उठाते हैं जो संविधान के प्रावधानों को अपने स्वार्थ के लिए तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं. तब फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था के चलते हमने वाकई क्या सीखा, यह सवाल उठना लाजिमी है. अब ये स्वार्थी तत्व कौन हैं, यह समझना भी आवश्यक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था जनता के द्वारा ही चलती है और अगर जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि अपने कर्त्तव्यों को लेकर लापरवाही बरतें तो ऐसा ही होता है.
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था एक ऐसे समाज का निर्माण करती है जिसमें भय न हो पक्षपात न हो और संप्रदायवाद तथा जातिवाद की राजनीति नहीं हो. जिसमें समाज का हर व्यक्ति समान हो और हर एक के समक्ष तरक्की करने के समान अवसर उपलब्ध हों. मगर अगर सतह पर देखा जाए तो हम अपने देश में ऐसे समाज को तो नहीं ही पाते हैं. समाज का हर व्यक्ति भयभीत है और डरा हुआ दीखता है. उसे पुलिस से डर लगता है, उसे लगता है कि न्याय पाने के लिए पैसे खर्चने पड़ते हैं इसलिए वह आमतौर पर कोर्ट कचहरी की शरण में नहीं जाता. वह राजनेताओं से कोई उम्मीद नहीं करता इसलिए उनसे भी दूरी बरतता है और चुप रहकर सब कुछ सहने को मजबूर होता है. लोकतंत्र का यह विकृत रूप है और जब तक यह रूप विकृत रहेगा तब तक एक सक्षम लोकतंत्र की उम्मीद कैसे की जाए. इसके विपरीत समाज के जो सक्षम लोग हैं वे हरसंभव लोकतंत्र के नियमों और अनुच्छेदों को अपने मुताबिक तोड़ते-मरोड़ते हैं. उनके लिए यह लोकतंत्र वरदान है. तब फिर ऐसा लोकतंत्र हम कहां बना पाए जो सर्वकल्याण की भावना से पनपे. यही कारण है कि हमारा लोकतंत्र योरोप और अमेरिका के मुकाबले कमजोर लोकतंत्र कहलाता है. यह सही है कि पश्चिम तथा मध्य एशियाई देशों के मुकाबले हमारे देश में ज्यादा लोकतांत्रिक व्यवस्था है मगर इन मुल्कों में अधिकांशत: वे लोग हैं जिनके यहां कबीलाई व्यवस्था आज भी कायम है और जहां कभी धर्म के नाम पर तो कभी क्षेत्र के नाम पर गृहयुद्घ होते ही रहते हैं.
अगर किसी देश की जनता लोकतंत्र को लेकर सचेत है तो यकीनन वहां लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं होगा. महाजनेन गतेन सा पंथा:” यानी जिस रास्ते पर बड़े लोग गए हों उसे वही जनता अपना रास्ता मान सकती है जिसके अंदर खुद का विवेक नहीं हो. और जब विवेक नहीं हो तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जनता लोकतंत्र की सच्ची परिभाषा नहीं समझती. एक ऐसे लोकतंत्र में लोकतांत्रिक व्यवस्था रूढ़ बन कर रह जाती है जो समाज का कल्याण करने की बजाय बस लीक की फकीर बनी रहती है. इसलिए अगर लोकतंत्र को समझना है तो अपने दायित्व भी समझने होंगे और उन पर अमल करना होगा. जब तक हम अपने दायित्वों को खुद नहीं स्वीकार करते तब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी ही पंगु ही बनी रहेगी और वही व्यक्ति लाभ उठाता रहेगा जो जितना अधिक कानून को तोड़ता-मरोड़ता होगा. लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे तत्वों को पहचानना और उन्हें अलग-थलग करना जरूरी होता है. वर्ना लोकतंत्र का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच पाएगा.
लोकतंत्र व राष्ट्र दोनों ही पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की देन हैं. चूंकि योरोप में औद्योगिक क्रांति पहले हो चुकी थी इसलिए वह देश सैकड़ों वर्ष पूर्व ही गांवों की परिधि से छुटकारा पा चुका था. इसी वजह से वहां पर सामंती व्यवस्था पर करारी चोट हुई और देश या मुल्क के रूप में एक ऐसे भूभाग की उत्पत्ति हुई जिसमें एक जैसी अर्थव्यवस्था और एक जैसे राजनीतिक विश्वास के लोग परस्पर हेलमेल से रहते हैं. अगर भारत में औद्योगिक पूंजीवाद स्वतंत्र रूप से पनपा होता तो न तो राष्ट्र को पहचानने व राष्ट्रीय अस्मिताओं को लेकर यह अंतर्संघर्ष होता न ही देश को लेकर कोई अस्पष्ट नीति बनती. इससे हमारा लोक भी मजबूत होता और लोकतंत्र भी. शायद यही कारण है कि हम राष्ट्रद्रोह या देशद्रोह के सवालों पर भावुक तो हो जाते हैं पर कभी भी उन्हें समझने का प्रयास नहीं करते. राष्ट्र को लेकर हमारा यह अज्ञान ही हमें अपने राष्ट्र के प्रति किसी मजबूत चिंतनशील डोर से नहीं बांधता. राष्ट्र की परिभाषा आज भी वही है जो अंग्रेज बना गए थे. हमारी अपनी अस्मिता यहां कहीं नहीं जुड़ती. यह एक दुर्भाग्य ही है कि हम न तो अपने लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने से रोक पा रहे हैं न ही राष्ट्र के प्रति सच्ची निष्ठा बना पा रहे हैं.
इसलिए राष्ट्र की परिभाषा को किसी संकुचित दृष्टि से बांधने का मतलब है कि हम आधुनिक भारत राष्ट्र को कमजोर ही कर रहे हैं. राष्ट्र न हिंदू होते हैं न मुस्लिम. वे वहां रहने वाले मनुष्यों की निजी अस्मिता से बनते हैं और यह अस्मिता वहां की सांस्कृतिक उदारता से विकसित होती है. अगर योरोप व अमेरिका में हम आज आधुनिक राष्ट्र देखते हैं तो भले ही हमें वहां ईसाई समुदाय के लोग बहुतायत में दिखाई देते हों पर किसी भी देश में यह बहुसंख्या वालों की निजी धार्मिकता हावी नहीं होती. अभी पिछले दिनों सीरियाई शरणार्थियों के लिए जिस तरह योरोपीय देशों ने दरवाजे खोले वह उनकी इसी विशाल हृदयता का द्योतक है.  इसलिए आधुनिक राष्ट्र व राज्य की कल्पना करते वक्त यह ख्याल रखना चाहिए कि हमें धर्म आधारित राष्ट्र की कल्पना नहीं करनी वरन एक ऐसी राष्ट्रीय अस्मिता गढऩी है जिसमें उदारता और उदात्तता हो. तब ही यह एक सर्वस्वीकार्य राष्ट्र बन पाएगा और सर्व सुविधासंपन्न ताकतवर देश भी. आधुनिक राज्य की यही परिभाषा है.