कानपुर का
इतिहास-1
कानपुर किसी
हिंदू सिंह या झण्डू सिंह ने नहीं बसाया। इसे अंग्रेजों ने बसाया। वह भी सामरिक
दृष्टि से इसकी अहमियत को देखते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेजों ने। 1764 में बक्सर की लड़ाई हारने के बाद शाहआलम ने 40 हजार वर्गमील का दोआबा अंग्रेजों को सौंपा और शुजाउद्दौला
ने अवध का एक बड़ा भूभाग तथा मीरकासिम बंगाल की दीवानी खो बैठा। इसी दोआबे में
पड़ता था कानपुर का इलाका जो तब वीरान था। बस गंगा का किनारा था और जाजमऊ, सीसामऊ, नवाबगंज, जुही और पटकापुर ये पांच जागीरदारियां थीं। इनमें
सेनवाबगंज व पटकापुर ब्राह्मणों के पास, जुही ठाकुरों के
पास, सीसामऊ खटिकों के पास और जाजमऊ बनियों की जागीरदारी में था।
इनमें से जुही की जागीरदारिनी रानी कुंअर और नवाबगंज के बलभद्र प्रसाद तिवारी ने
अपने-अपने इलाकों में बड़े काम किए। रानी कुंअर द्वारा दी गई माफी के पट्टे तो आज
भी जुही वालों के पास हैं। अंग्रेज पहले अपनी छावनी हरदोई के पास ले गए फिर उन्हें
लगा कि सामरिक दृष्टि से बेहतर तो जाजमऊ परगना है और वे अपनी छावनी जाजमऊ ले आए।
फिर नवाबगंज परगने के परमट इलाके में कलेक्टर बिठा दिया साल 1803 में।
कानपुर का
इतिहास-2
1764 में बक्सर की लड़ाई में शुजाउद्दौला, शाहआलम और मीरकासिम की साझा फौजों को हराने के बाद अंग्रेज पहले बिलग्राम गए और तय हुआ कि अपनी छावनी यहीं डाली जाए। मगर बिलग्राम से वे शुजाउद्दौला पर नजर नहीं रख सकते थे। वहां के पठान अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए उन्होंने शुजाउद्दौला को घेरने की नीयत से जाजमऊ के निकट सरसैया घाट के किनारे छावनी डालने का तय किया। अगले ही साल यानी 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे सरसैया घाट आ गए। तब तक सरसैया घाट का पंडा शिरोमणि तिवारी को ओरछा नरेश ने बहुत सारी माफी की जागीर दे रखी थी क्योंकि जमनापार के नहानार्थी सरसैया घाट ही गंगा स्नान करने आते थे। सचेंडी के राजा द्वारा कानपुर, कर्णपुर अथवा कान्हपुर बसाए जाने का कहीं कोई सबूत नहीं मिलता। यूं भी सचेंडी राजा अल्मास अली और उसके भाई राजा भागमल जाट का ही कोई कारिंदा रहा होगा क्योंकि कानपुर का अंतिम हिंदू राजा अल्मास अली ही बताया जाता है। मैं एक बार सचेंडी गया था तब वहां किला भग्नावस्था में मौजूद था और राजा के वंशज अत्यंत दीनहीन अवस्था मेें थे। वे एक पीसीओ और फोटोग्राफी की दूकान चलाते थे। सचेंडी का यह किला कालपी रोड से जमना साइड चलने पर दो किमी अंदर है। कालपी रोड अब बारा जोड़ के बाद से एनएच-2 कहलाने लगा है।
1765 में ब्रिगेडियर जनरल कारनाक ने कोड़ा जहानाबाद में नवाब-वजीर शुजाउद्दौला और उसके मराठा सहायक मल्हार राव को हरा दिया। शुजाउद्दौला कालपी की तरफ भागा और जाजमऊ के किले में अपने 14-15 साथी छोड़ गया। बाद में शुजाउद्दौला फर्रुखाबाद चला गया और वे 14 सैनिक जाजमऊ की गढ़ी में जमे। मेजर फ्लेचर की सेना का इन सैनिकों ने डटकर मुकाबला किया। मेजर फ्लेचर ने कप्तान स्विंटन को गढ़ी पर कब्जा करने के लिए भेजा और वह शुजाउद्दौला का पीछा करते हुए चला गया। स्विंटन ने इन सैनिकों को गढ़ी छोड़कर आने के लिए कहा मगर उन सैनिकों ने कहा कि या तो ससम्मान संधि प्रस्ताव रखें अथवा लड़ेंगे। बाद में वे सारे सैनिक लड़ते हुए मारे गए। तब अंग्रेजों ने तय किया कि अब छावनी कानपुर ही रहेगी। इस तरह से शुरु हुई कानपुर की बसावट।
1764 में बक्सर की लड़ाई में शुजाउद्दौला, शाहआलम और मीरकासिम की साझा फौजों को हराने के बाद अंग्रेज पहले बिलग्राम गए और तय हुआ कि अपनी छावनी यहीं डाली जाए। मगर बिलग्राम से वे शुजाउद्दौला पर नजर नहीं रख सकते थे। वहां के पठान अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए उन्होंने शुजाउद्दौला को घेरने की नीयत से जाजमऊ के निकट सरसैया घाट के किनारे छावनी डालने का तय किया। अगले ही साल यानी 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे सरसैया घाट आ गए। तब तक सरसैया घाट का पंडा शिरोमणि तिवारी को ओरछा नरेश ने बहुत सारी माफी की जागीर दे रखी थी क्योंकि जमनापार के नहानार्थी सरसैया घाट ही गंगा स्नान करने आते थे। सचेंडी के राजा द्वारा कानपुर, कर्णपुर अथवा कान्हपुर बसाए जाने का कहीं कोई सबूत नहीं मिलता। यूं भी सचेंडी राजा अल्मास अली और उसके भाई राजा भागमल जाट का ही कोई कारिंदा रहा होगा क्योंकि कानपुर का अंतिम हिंदू राजा अल्मास अली ही बताया जाता है। मैं एक बार सचेंडी गया था तब वहां किला भग्नावस्था में मौजूद था और राजा के वंशज अत्यंत दीनहीन अवस्था मेें थे। वे एक पीसीओ और फोटोग्राफी की दूकान चलाते थे। सचेंडी का यह किला कालपी रोड से जमना साइड चलने पर दो किमी अंदर है। कालपी रोड अब बारा जोड़ के बाद से एनएच-2 कहलाने लगा है।
1765 में ब्रिगेडियर जनरल कारनाक ने कोड़ा जहानाबाद में नवाब-वजीर शुजाउद्दौला और उसके मराठा सहायक मल्हार राव को हरा दिया। शुजाउद्दौला कालपी की तरफ भागा और जाजमऊ के किले में अपने 14-15 साथी छोड़ गया। बाद में शुजाउद्दौला फर्रुखाबाद चला गया और वे 14 सैनिक जाजमऊ की गढ़ी में जमे। मेजर फ्लेचर की सेना का इन सैनिकों ने डटकर मुकाबला किया। मेजर फ्लेचर ने कप्तान स्विंटन को गढ़ी पर कब्जा करने के लिए भेजा और वह शुजाउद्दौला का पीछा करते हुए चला गया। स्विंटन ने इन सैनिकों को गढ़ी छोड़कर आने के लिए कहा मगर उन सैनिकों ने कहा कि या तो ससम्मान संधि प्रस्ताव रखें अथवा लड़ेंगे। बाद में वे सारे सैनिक लड़ते हुए मारे गए। तब अंग्रेजों ने तय किया कि अब छावनी कानपुर ही रहेगी। इस तरह से शुरु हुई कानपुर की बसावट।
कानपुर का
इतिहास-तीन
जाजमऊ की गढ़ी गँवाने के बाद शुजाउद्दौला फर्रुखाबाद के बंगश पठान शासकों और बरेली के रुहिल्लों से मदद मांगी पर दोनों ने उसे टका-सा जवाब दे दिया। उलटे बंगश अहमद खाँ ने उसे सलाह दी कि अंग्रेजों से ही माफी मांग ले। उसने फिर वही किया और पैदल ही फ्लेचर से मिलने चला। फ्लेचर को पता चला तो वह भी कुछ कदम पैदल चलकर आया और शुजाउद्दौला से मिला। जाजमऊ से तीन-चार कोस पश्चिम संभवत: नवाबगंज में दोनों मिले और राजा शिताबराय के मार्फत एक संधिनामा पर दस्तखत किए गए। उत्तर भारत में शुजाउद्दौला और अंग्रेजों के बीच हुई यह संधि गुलामी की पहली कड़ी है। तय हुआ कि शुजाउद्दौला अंग्रेजों को 25 लाख रुपये सालाना देगा और बदले में अंग्रेज उसके भूभाग पर दावा नहीं करेंगे पर लखनऊ में रेजीडेंट बैठेगा तथा कोड़ा व इलाहाबाद की जागीरें शाहआलम को लौटानी होंगी। इसी बीच अहमद खाँ ने डेरापुर और अकबरपुर पर कब्जा कर लिया लेकिन उस पर मराठे भारी पड़े और अंत में शुजाउद्दौला ने 1771 में मराठों और बंगश पठानों को मार भगाया। अहमद खाँ की मौत के बाद शुजाउद्दौला ने कन्नौज को अपने राज्य में मिला लिया। तब कोड़ा और इलाहाबाद से बैठकर अल्मास अली इस पूरे इलाके पर शासन करने लगे। लेकिन यहां के क्षत्रिय राजे अल्मास अली की परवाह नहीं करते थे। यहां पर चंदेलवंशी क्षत्रिय शासक कभी-कभार कोड़ा को कर भेजते थे। पुखरायां का शासक दायम खाँ भी लगभग स्वतंत्र ही था। अंत में 1801 में शुजाउद्दौला ने यह पूरा इलाका ईस्ट इंडिया कंपनी को बेच दिया। तब तक अवध का यह इलाका बेहद अशांत और लड़ाकों व गुंडों से भरा था। इसकी वजह थी कि लखनऊ में जिसे भी जिलावतन किया जाता वह गंगा पार कर अवध के इस इलाके में आ जाता।
छावनी तो पहले से ही कानपुर में बिलग्राम से उखड़कर आ गई थी और उस छावनी के लिए बाजार भी आया। आसपास के हजारों परिवार छावनी के इर्द-गिर्द आ बसे थे। ये सब लोग सरसैया घाट के आसपास ही बसे थे और इस इलाके को कैंटूनमेंट होने के कारण कंपू कहा जाता था। साल 1801 में कंपनी ने यह इलाका लिया और अगले साल ही कानपोर के नाम से इसका नामकरण किया तथा 1803 में यहां मिस्टर वेरांड को कलेक्टर बनाया। यहां आकर उसने अपनी कचहरी सरसैया घाट के पास, जहां आज गोरा कब्रिस्तान है, लगाई। वेरांड लिखता है कि कानपोर एक उजाड़ जिला है। जिसमें कानून नाम की कोई चीज नहीं है। दक्षिण में पठान हैं तो पश्चिम में मराठे। कहीं क्षत्रिय राजा हैं तो कहीं ब्राह्मण। शीशामऊ में खटिक हैं तो जाजमऊ में बनिये। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
जाजमऊ की गढ़ी गँवाने के बाद शुजाउद्दौला फर्रुखाबाद के बंगश पठान शासकों और बरेली के रुहिल्लों से मदद मांगी पर दोनों ने उसे टका-सा जवाब दे दिया। उलटे बंगश अहमद खाँ ने उसे सलाह दी कि अंग्रेजों से ही माफी मांग ले। उसने फिर वही किया और पैदल ही फ्लेचर से मिलने चला। फ्लेचर को पता चला तो वह भी कुछ कदम पैदल चलकर आया और शुजाउद्दौला से मिला। जाजमऊ से तीन-चार कोस पश्चिम संभवत: नवाबगंज में दोनों मिले और राजा शिताबराय के मार्फत एक संधिनामा पर दस्तखत किए गए। उत्तर भारत में शुजाउद्दौला और अंग्रेजों के बीच हुई यह संधि गुलामी की पहली कड़ी है। तय हुआ कि शुजाउद्दौला अंग्रेजों को 25 लाख रुपये सालाना देगा और बदले में अंग्रेज उसके भूभाग पर दावा नहीं करेंगे पर लखनऊ में रेजीडेंट बैठेगा तथा कोड़ा व इलाहाबाद की जागीरें शाहआलम को लौटानी होंगी। इसी बीच अहमद खाँ ने डेरापुर और अकबरपुर पर कब्जा कर लिया लेकिन उस पर मराठे भारी पड़े और अंत में शुजाउद्दौला ने 1771 में मराठों और बंगश पठानों को मार भगाया। अहमद खाँ की मौत के बाद शुजाउद्दौला ने कन्नौज को अपने राज्य में मिला लिया। तब कोड़ा और इलाहाबाद से बैठकर अल्मास अली इस पूरे इलाके पर शासन करने लगे। लेकिन यहां के क्षत्रिय राजे अल्मास अली की परवाह नहीं करते थे। यहां पर चंदेलवंशी क्षत्रिय शासक कभी-कभार कोड़ा को कर भेजते थे। पुखरायां का शासक दायम खाँ भी लगभग स्वतंत्र ही था। अंत में 1801 में शुजाउद्दौला ने यह पूरा इलाका ईस्ट इंडिया कंपनी को बेच दिया। तब तक अवध का यह इलाका बेहद अशांत और लड़ाकों व गुंडों से भरा था। इसकी वजह थी कि लखनऊ में जिसे भी जिलावतन किया जाता वह गंगा पार कर अवध के इस इलाके में आ जाता।
छावनी तो पहले से ही कानपुर में बिलग्राम से उखड़कर आ गई थी और उस छावनी के लिए बाजार भी आया। आसपास के हजारों परिवार छावनी के इर्द-गिर्द आ बसे थे। ये सब लोग सरसैया घाट के आसपास ही बसे थे और इस इलाके को कैंटूनमेंट होने के कारण कंपू कहा जाता था। साल 1801 में कंपनी ने यह इलाका लिया और अगले साल ही कानपोर के नाम से इसका नामकरण किया तथा 1803 में यहां मिस्टर वेरांड को कलेक्टर बनाया। यहां आकर उसने अपनी कचहरी सरसैया घाट के पास, जहां आज गोरा कब्रिस्तान है, लगाई। वेरांड लिखता है कि कानपोर एक उजाड़ जिला है। जिसमें कानून नाम की कोई चीज नहीं है। दक्षिण में पठान हैं तो पश्चिम में मराठे। कहीं क्षत्रिय राजा हैं तो कहीं ब्राह्मण। शीशामऊ में खटिक हैं तो जाजमऊ में बनिये। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
कानपुर का इतिहास-चार
कलेक्टर मिस्टर वेराण्ड ने पाया कि कानपुर की सीमा के अंदर आने वाले इलाके में कई दोआब थे। एक तो गंगा और यमुना का दोआब। दूसरा यमुना और सेंगुर का, तीसरा रिंद व सेंगुर का, चौथा पांडु व रिन्द का। इसके अलावा ईशन-गंगा का दोआब तथा पांडु एवं गंगा के दोआबे में शहर बसाने की योजना बनाई गई। कानपुर का ढाल दक्षिण-पूर्व की तरफ था। और आज भी है। गंगा यहां पर कन्नौज के करीब पश्चिम दिशा में प्रवेश करती है और दक्षिण-पूर्व की तरफ फतेहपुर जिले की सीमा में प्रवेश करती है। इसी तरह यमुना कालपी के निकट प्रवेश करती है और भरुआ सुमेरपुर के पास कानपुर की सीमा से फतेहपुर की सीमा में दाखिल हो जाती है। इसके अलावा यहां के कुछ झाबरों से दो और नदियां निकलती हैं वे हैं उत्तरी नोन व दक्षिणी नोन। ये दोनों नदियां बाकी के महीनों में तो सामान्य नाले जैसी प्रतीत होती हैं पर सावन भादों में इतना रौद्र रूप धारण कर लेती हैं कि एक बार तो मैं गजनेर के करीब दक्षिणी नोन नदी में डूब ही गया था। पर इन दोआबों के कारण यहां पर तीनों फसलें होती थीं। गंगा का किनारा यदि तिलहन और गेहूं-जौ आदि के लिए जाना जाता था तो यमुना का किनारा दलहन के कारण। नोन नदी के किनारे-किनारे जायद की फसलें खूब होती थीं और खरबूजा तो कसकर होता था। जबकि रिंद व यमुना के दोआबे में गन्ना। अमरौधा भले यमुना किनारा हो पर पठान लोग अपने साथ आम व अमरूद लेकर आए थे इसलिए यहां की अमराई मशहूर थी। तब यहां पर झील भी कई थीं। एक तो रिंद और सेंगुर के किनारे की गोगूमऊ-रसूलपुर झील पूर साल पानी से लबालब रहती थी और दूर-दूर से पक्षी यहां पानी के लिए आया करते थे। इनमें साइबेरियन क्रेन भी थीं। इसी गोगूमऊ के तिवारियों के यहां मेरा ममाना है। हमारे नाना के पास रिंद नदी के किनारे लगभग एक वर्ग मील का ऐसा जंगल था जिसमें तेंदुये और भेडिय़े भी थे। अंग्रेज हाकिम उनके इस जंगल में शिकार करने आते थे। अब वह जंगल उजाड़ हो चुका है और महुए के आठ-दस पेड़ ही बचे हैं। कानपुर का दुर्भाग्य कि पानी के वे सारे अथाह स्रोत अब सूख गए हैं और अमराई नष्ट हो चुकी है। पहले तो यह पानी और हरियाली नील की खेती करने आए निलहे खा गए। फिर आजादी के बाद ईंट-भठ्ठा उद्योग रही-सही हरियाली चाट गया। जब पानी नहीं रहा न जंगल तब बचा सिर्फ एक रूखा-सूखा कानपुर, जो आज है।
(बाकी का हिस्सा फिर कभी। यहां यह भी बता दूं कि इस साल दिसंबर तक कानपुर के इतिहास पर मेरी यह पुस्तक छपकर आ जाएगी। शायद यह कानपुर के इतिहास की अनूठी पुस्तक होगी जो इसके इतिहास-भूगोल और सामाजिक व राजनीतिक दायरे आदि सब को समेटेगी।)
कलेक्टर मिस्टर वेराण्ड ने पाया कि कानपुर की सीमा के अंदर आने वाले इलाके में कई दोआब थे। एक तो गंगा और यमुना का दोआब। दूसरा यमुना और सेंगुर का, तीसरा रिंद व सेंगुर का, चौथा पांडु व रिन्द का। इसके अलावा ईशन-गंगा का दोआब तथा पांडु एवं गंगा के दोआबे में शहर बसाने की योजना बनाई गई। कानपुर का ढाल दक्षिण-पूर्व की तरफ था। और आज भी है। गंगा यहां पर कन्नौज के करीब पश्चिम दिशा में प्रवेश करती है और दक्षिण-पूर्व की तरफ फतेहपुर जिले की सीमा में प्रवेश करती है। इसी तरह यमुना कालपी के निकट प्रवेश करती है और भरुआ सुमेरपुर के पास कानपुर की सीमा से फतेहपुर की सीमा में दाखिल हो जाती है। इसके अलावा यहां के कुछ झाबरों से दो और नदियां निकलती हैं वे हैं उत्तरी नोन व दक्षिणी नोन। ये दोनों नदियां बाकी के महीनों में तो सामान्य नाले जैसी प्रतीत होती हैं पर सावन भादों में इतना रौद्र रूप धारण कर लेती हैं कि एक बार तो मैं गजनेर के करीब दक्षिणी नोन नदी में डूब ही गया था। पर इन दोआबों के कारण यहां पर तीनों फसलें होती थीं। गंगा का किनारा यदि तिलहन और गेहूं-जौ आदि के लिए जाना जाता था तो यमुना का किनारा दलहन के कारण। नोन नदी के किनारे-किनारे जायद की फसलें खूब होती थीं और खरबूजा तो कसकर होता था। जबकि रिंद व यमुना के दोआबे में गन्ना। अमरौधा भले यमुना किनारा हो पर पठान लोग अपने साथ आम व अमरूद लेकर आए थे इसलिए यहां की अमराई मशहूर थी। तब यहां पर झील भी कई थीं। एक तो रिंद और सेंगुर के किनारे की गोगूमऊ-रसूलपुर झील पूर साल पानी से लबालब रहती थी और दूर-दूर से पक्षी यहां पानी के लिए आया करते थे। इनमें साइबेरियन क्रेन भी थीं। इसी गोगूमऊ के तिवारियों के यहां मेरा ममाना है। हमारे नाना के पास रिंद नदी के किनारे लगभग एक वर्ग मील का ऐसा जंगल था जिसमें तेंदुये और भेडिय़े भी थे। अंग्रेज हाकिम उनके इस जंगल में शिकार करने आते थे। अब वह जंगल उजाड़ हो चुका है और महुए के आठ-दस पेड़ ही बचे हैं। कानपुर का दुर्भाग्य कि पानी के वे सारे अथाह स्रोत अब सूख गए हैं और अमराई नष्ट हो चुकी है। पहले तो यह पानी और हरियाली नील की खेती करने आए निलहे खा गए। फिर आजादी के बाद ईंट-भठ्ठा उद्योग रही-सही हरियाली चाट गया। जब पानी नहीं रहा न जंगल तब बचा सिर्फ एक रूखा-सूखा कानपुर, जो आज है।
(बाकी का हिस्सा फिर कभी। यहां यह भी बता दूं कि इस साल दिसंबर तक कानपुर के इतिहास पर मेरी यह पुस्तक छपकर आ जाएगी। शायद यह कानपुर के इतिहास की अनूठी पुस्तक होगी जो इसके इतिहास-भूगोल और सामाजिक व राजनीतिक दायरे आदि सब को समेटेगी।)
Gajraj Singh used to be the landlord from your villages. Still I hold two lease agreement of him, even have the possession on land too. 7207171304
जवाब देंहटाएं"फरुखशियर के समय कोड़ा जहानाबाद का सूबा बादशाह ने अपने एक वफादार सेवक अल्मास अली को दे दिया था जो एक हिजड़ा था।"
जवाब देंहटाएंalmas ali around 1775 ke hoga, aur farukhsiyar to 1719 me mar hi gaya tha.. ye line aapki hi ek line se contradict karti hai.. almas ali sujjaudaula ki shadi ka dahej tha, jo mughalo se gaya tha.. phir vo unke liye hi kaam karta tha.. aur aapki hi line khud dekhe jo sahi bhi hai ki lucknow ne ye company ko bech diya hissa kanpur aur kora ka..