मंगलवार, 29 मार्च 2016

रख लेव या लछमिनियां!



रख लेव या लछमिनियां!
कानपुर में एक थे सांवलदास बाबा। दलितों की कुरील जाति से थे और पेशे से जमींदार थे। कानपुर शहर के दक्षिणी हिस्से यानी जूही से लेकर पांडु नदी के किनारे तक का विशाल इलाका उनकी जमींदारी में था। नदी के किनारे बसे अहीर और लोध उनके हलवाहे थे। एक ठाकुर साहब उनके मैनेजर। एक जमाने में जब कानपुर में अंग्रेजों ने रेलवे का जूही यार्ड बनवाया तथा कानपुर-बांदा रेल लाइन बिछवाई तब जो जमीन अधिग्रहीत की गई वह सारी की सारी सांवलदास भगत की थी। कुछ थोड़ी सी जमीन रानी कुंवर की थी। रानी कुंवर को तो सभी जानते हैं पर दलित नरेश सांवलदास को भूल गए। रानी कुंवर का एक मंदिर पुरानी जुही में है। हालांकि हमीरपुर रोड पर लोअर गंगा कैनाल के किनारे सांवलदास जी की समाधि बनी है जिसे सांवलदास की छतरी बोलते हैं पर उसकी देखरेख नहीं हो पाने के कारण आज वह छतरी उजाड़ हो गई है। बचपन में मैं उसे देखता था तब शुद्घ संगमरमर की बनी वह छतरी ताजमहल से कम आकर्षक नहीं थी। आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जब रेलवे में मुलाजिम थे तब वे सांवलदास की जमींदारी के एक गांव जुही में ही रहे थे। उन्होंने सांवलदास बाबा पर एक लेख सरस्वती में छापा था।
सांवलदास बाबा मस्त आदमी थे। रईसी आन-बान-शान उनकी पोशाक से टपकती। जब वह पूरी धज के साथ निकलते तो जो भी आदमी सामने पड़ता उन्हें सलाम ठोकता। चाहे हिंदू हो अथवा मुसलमान, शेख हो या पठान अथवा राजपूत, लोधे या अहीरों के गोल सब सांवलदास को सलाम जरूर करते। सांवलदास बाबा हर सलाम करने वाले के सामने क्वीन विक्टोरिया के छापे वाला विशुद्घ चांदी का एक सिक्का फेकते और कहते रख लो लछमिनियां को। लोग पूछते यह क्यों बाबा? वे बताते- मैं तो हूं दलित तुम मुझे तो सलाम करने से रहे। तुम तो मेरी संपत्ति और राजसी ठाठबाट यानी मेरी लक्ष्मी को सलाम कर रहे हो सो लो रख लो यह लछमिनियां। मशहूर दलित चिंतक बद्री नारायण ने अपने एक शोध लेख में लिखा है कि सांवलदास का बनवाया मंदिर बहुत मशहूर है और ज्योरा में बनवाया उनका गंगा घाट भी।
सांवलदास बाबा के मैनेजर बाबू ने जागीर का कामकाज देखते-देखते उनकी सारी संपत्ति अपने नाम करवा ली। पर बाबा कभी उदास नहीं हुए। वे कहा करते थे कि लछमिनियां भला किसकी हो कर रही। उनका एक प्रिय दोहा था-
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।

पुरुष पुरातन की वधू क्यों न चंचला होय॥

गुरुवार, 24 मार्च 2016

उईं अउर आँय हम अउर आँय!



उईं अउर आँय हम अउर आँय!
शंभूनाथ शुक्ल
राजनीतिक दलों के नेता गण समझाया करते हैं हम गरीबों के साथ हैं। यह सरासर गलत बात है। चाहे वह बीजेपी हो या कम्युनिस्ट अथवा कांग्रेसी सब के सब पूंजीपतियों के हाथों दलालों की तरह खेलते हैं। सारा मीडिया और हर स्तंभ भी यही आचरण करता है। अगर पैसा न हो तो कोई भी संस्था या पोलेटिकल पार्टी आपका साथ देने से रही। भले वह सपा हो या बसपा अथवा जदयू। इसीलिए गरीब और गरीबी को पीछे कर अब हर राजनीतिक दल कभी मंडल के नाम पर कभी कमंडल के नाम पर अपने-अपने हितों की पूर्ति कर रहा है। जिस पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट 34 साल सत्ता में रहे वहां पर दलित आज भी सबसे उपेक्षित हैं। जहां पिछड़ों का राज रहा उस तमिलनाडु, कर्नाटक व केरल तथा आंध्र में दलित जिंदा जला दिए जाते हैं। और बिहार व यूपी में जहां सपा, बसपा व जदयू रही वहां दलित व गरीब आज भी बस वोट भर है। सारे के सारे नेता अरबों में खेल रहे हैं और जिस कीमत पर खेल रहे है उस दलित, पिछड़े, वंचित व गरीब वर्ग को कुछ नहीं मिला। नरेंद्र शर्मा की एक कविता है-
इस दुनिया में दो दुनिया हैं जिनके नाम गरीब-अमीर।
पर सोने के महल बने हैं, मिट्टी का ही सीना चीर॥
दीन भी उनका, दुनिया उनकी, उनके तोप और तलवार।
उनके अफसर और गवर्नर, उनके ही साहब सरकार॥
मंदिर उनके, मस्जिद उनके, गिरजे उनकी बाजू में।
पैगम्बर, अवतार, मसीहा जैसे बाट तराजू में॥
अब देखिए नरेंद्र शर्मा से बहुत पहले पैदा हुए और कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म के भी काफी पहले अवधी के कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस ने भी यही बात कही थी कि उई अउर आँय हम अउर आँय, यानी वे और हैं तथा हम और हैं। सीधे-सीधे कहें तो कहां राजा भोज कहां गंगू तेली।
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
सोचति समुझति इतने दिन बीते
तहूँ न कहूँ खुलीं आँखी?
काकनि यह बात गाँठि बाँधउ-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
उयि लाट कमहटर के बच्चा,
की संखपतिन के पर-पोता,
उयि धरमधुरंधर के नाती,
दुनिया का बेदु लबेदु पढ़े,
उयि दया करैं तब दानु देयिं,
उयि भीख निकारैं हुकुम करैं,
सब चोर-चोर मौस्यइिति भाई,
तोंदन मा गड़वा हाथी अस-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
उयि बड़े-बड़े महलन ते हँसि-हँसि
लाखन के व्यउहार करैं;
घंटिन ते चपरासी ग्वहरावैं
फाटक पर घंटा बाँधे हैं।
गुरयि उठैं आँखी काढ़े
पदढिट्ठी कै भन्नायि जायँ।
उयि महराजा, महंत दुनिया के
अक्किल वाले ग्यानवान।
अक्किल ते अक्किल काटि देंयि-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
काकनि, तुमार लरिका बिटिया,
छूढ़ा पानी पी हरू जोतैं,
उनके तन ढकर - ढकर चितवैं
बसि कटे पेट पर मुँहुँ बाँधे।
खाली हाथन भुकुरयि लागैं।
उयि राजि रहे उयि गाजि रहे-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
हम लूकन भउकन पाला पथरन
बीनि - बीनि दाना जोरी,
की बड़े-बड़े पुतरी-घर भीतर
मूड़ हँथेरी धरे फिरी ?
चूरै हालीं नस - नस डोली
यी राति दउस की धउँपनि मा,
तब यहै भगति और भलमंसी
हम हरहा गोरू तरे पिसे।
पंचाइति मा तुम पूँछि लेउ-
उयि अउर आयिं हम अउर आन!
और विस्तार पर जाना हो तो मेरा ब्लाग पढ़ें-

गुरुवार, 10 मार्च 2016

सोमनाथ का श्राप उनके अंतर से फूटा

सोमनाथ का श्राप उनके अंतर से फूटा
शंभूनाथ शुक्ल
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमा शास्वतीसमा
यत्क्रौंचमिथुनादेकंवधी काममोहितम्
महर्षि वाल्मीकि ने बहेलिए को शाप देते हुए कहा था कि हे बहेलिए! तुम युगों युगों तक प्रतिष्ठा को नहीं पा पाओगे क्योंकि तुमने कामातुर क्रौंच जोड़े को उस वक्त मारा जब वे मैथुनरत थे। महर्षि वाल्मीकि अपनी गहन तपश्चर्या से जीवन के राग विराग से दूर हो गए थे लेकिन बहेलिएका यह अत्याचार देखकर उनकेअंदर की स्वाभाविक पीड़ा फूट पड़ी और उन्होंने बधिक को शाप दे दिया। मनुष्य की भावनाएं पीड़ा से ही फूटती हैं। भले वे शाप के रूप में हों अथवा वरदान के रूप में। कविता का तो सृजन ही पीड़ा से होता है। 
तभी तो अपने दादा सोमनाथ चटर्जी ने चौदहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में सदस्यों को शाप दे डाला कि तुम सब हार जाओगे। दादा के इस क्रोध से सदन में सन्नाटा फैल गया। शून्य प्रहर में अपनी-अपनी बात कहने को आतुर संासदों ने इस कदर हंगामा बरपा कर दिया था कि दादा आपा खो बैठे और सांसदों को हारने का शाप दे डाला। दादा का यह शाप उनकेमुंह से एक रिदम के रूप में फूटा- यू आल आर डिफीटेड यानी हार जाओ तुम सब!
दादा सोमनाथ चटर्जी तो कम्युनिस्ट हैं। यकीनन वे यह बात तो मानेंगे नहीं लेकिन हमारे देश की लोक परंपरा कहती है कि ब्राह्मïण का श्राप निष्फल नहीं जाता है। संयोग यह भी है कि दादा ब्राह्मïण भी हैं। लोकसभा के अध्यक्ष होने के नाते वे पूरी लोकसभा के सभी सदस्यों के पुरोधा हैं। इसलिए उनका दरजा एक स्कूल के प्राचार्य जैसा ही है। प्राचार्य अपने विद्यार्थियों से चाहे जितना आजिज हो आम तौर पर उनकी चलाचली की बेला में ऐसा श्राप तो नहीं देता। जाहिर है दादा ने यह श्राप तभी दिया होगा जब वे सांसदों के आचरण से इतना दुखी हुए होंगे कि श्राप उनके मुंह से यकायक फूट पड़ा। दादा के शाप के बाद से लोकसभा के सदस्य ऐसे घबड़ाए कि बसपा के सांसद राजेश वर्मा ने भयाक्रांत होते हुए कहा कि दादा का गुस्सा जायज है। आखिर कब तक वे सांसदों का तमाशा देखते रहते। 
यूं सोमनाथ दादा आजकल अपनी पार्टी की वजह से भी दुखी हैं। उनकी पार्टी ने उन्हें निष्कासित कर रखा है। दादा पुराने खांटी साम्यवादी हैं। इस तथ्य के बावजूद कि उनके पिता पश्चिम बंगाल से हिंदू महासभा से सांसद रहे हैं और दादा के सबसे अच्छे मित्र अटलबिहारी बाजपेयी हैं। लेकिन दादा के कम्युनिस्ट होने पर किसी को शुबहा नहीं होगा। इसके बावजूद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी केनए निजाम ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। सोमनाथ दादा कामरेड ज्योति वसु खेमे के हैं और माकपा के नए महासचिव प्रकाश करात माकपा में पुरानी पीढ़ी के लोगोंं को पसंद नहींं करते हैं। प्रकाश अभी तक यह भी फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि वे केरल में विजयन और अच्युतानंदन की रार को कैसे सुलझाएं। वे अब्दुल्ला कुट्टी की धार्मिक कट्टरता के बारे में भी कोई निर्णय नहीं ले पाए। पोलित ब्यूरो के युवातुर्कों को पुरानी पीढ़ी के माकपाई फूटी आंख भी नहींं सुहाते। लेकिन नई पीढ़ी के माकपाई अमेरिका को गरियाते तो खूब हैं लेकिन जीवन शैली के मामले में वे अमेरिका के कायल हैं।
गुस्से और दुख में श्राप दे देने की परंपरा हमारे मिथ में अनगिनत हैं। दुर्वासा ऋषि के श्राप तो प्रसिद्घ हैं ही। सभी उनके श्राप से घबड़ाते थे। पांडवों को उनके श्राप से बचाने के लिए द्रोपदी ने कृष्ण की मदद ली थी लेकिन कृष्ण अपने ही वंश को उनकेश्राप से नहीं बचा पाए और द्वारिका का सारा यदुवंश दुर्वासा के श्राप से नष्ट हो गया था। शाप महिलाएं भी देती थीं। शची के श्राप से अर्जुन को वृहन्नला बनना पड़ा था और देवयानी के श्राप से वृहस्पति पुत्र कच को अमरत्व की विद्या विस्मृत हो गई थी। देवयानी के श्राप से ही ययाति अपना पुंसत्व खो बैठे थे। दादा सोमनाथ चटर्जी का श्राप कितना असर दिखाएगा यह तो भविष्य में पता चलेगा। लेकिन अगर दादा का श्राप सच हो गया तो हमारी पंद्रहवीं लोकसभा में वे लोग जीत कर आएंगे जो परदे पर गांधीगिरी करते हैं। या सट्टेबाजों से पैसा लेकर क्रिकेट खेलते हैं। ये जितने लोग शून्य प्रहर में हंगामा कर रहे थे इनमें से कोई भी ऐसा नहीं था जो संसद के सत्र के दौरान अनुपस्थित रहा हो या जिसे अपने क्षेत्र से कोई लगाव न हो। परेशानी तो इस बात की है कि संसद के सत्र चलते नहीं और अगर चलते भी हैं तो उनमें पिछड़े इलाकों की आवाज तक नहीं उठ पाती। सत्ता पक्ष और विपक्ष के वे सांसद जो कभी कभार ही सदन में आते हैं। उनके हारने की कामना करना तो समझ में आता है लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि १९ फरवरी को जो सांसद हंगामा कर रहे थे वे अपने इलाकों की वाजिब समस्याओं की तरफ सदन का ध्यान खींचना चाहते थे। 
हमारे सदन में गोविंदा, धर्मेंद्र और नवजोत सिंह सिद्घू जैसे सांसद भी हैं जिनका रिकार्ड मंगाया जाए कि वे कितने दिन सदन में आए। तब पता चलेगा कि संसद के सत्रों की अनदेखी कौन कर रहा है? लॉफ्टर चैलेंज जैसे टीवी शो में फूहड़ चुटकुलों पर ठहाका मारने वाले सिद्घू ने कब किस वाजिब समस्या की तरफ संसद का ध्यानाकर्षण किया। तब क्या हम ऐसे शांतिप्रिय सांसदों से सदन की गरिमा को बहाल कराएंगे जिन्हें पार्टियां हंसी ठठ्ठे के लिए लोकसभा चुनाव लड़ाने को आतुर हैं। शोर शराबा करने वाले सांसद भले ही सदन के कामकाज में खलल डाल रहे हों लेकिन वे अपने क्षेत्रों की समस्याओं को संसद का ध्यान खींचने की मंशा तो रखते हैं।