सोमवार, 13 अप्रैल 2015

दिल्ली की कमाई, चपरघटा मां गंवाई!

पहले जब मुगल बादशाह के पास खालसा जमीन आगरा से इलाहाबाद (कोड़ाजहानाबाद) तक हुआ करती थी तब चपरघटा का बड़ा रुतबा था। बादशाह का लाव-लश्कर मुगल रोड से ही आगरा से इलाहाबाद जाता। आगरा से इटावा हालांकि इटावा आने के लिए बाबर के समय तक वाया ऊदी रास्ता था और बादशाही लोग ऊदी से ही यमुना पार कर इटावा आते थे। बाबर ने अपनी डायरी बाबरनामा में इटावा आने का जिक्र किया है। दूसरा रास्ता था वाया एत्मादपुर, फिरोजाबाद होते हुए इटावा। इसके बाद महेवा, बाबरपुर-अजीतमल, मुरादगंज होकर औरय्या फिर सिकन्दरा। इसके बाद भोगनीपुर फिर चपरघटा, मूसानगर, घाटमपुर, जहानाबाद, बकेवर, फिर चौडगरा पहुंच कर बादशाही लश्कर वही पुरानी शेरशाह सूरी मार्ग (जीटी रोड) पकड़ता और फिर मलवाँ, फतेहपुर, खागा होते हुए एक रास्ता जाता कोड़ा जहानाबाद और दूसरा प्रयाग के किले की तरफ। अकबर के समय शहजादा सलीम को कोड़ा जहानाबाद की नवाबी मिली थी। उसने विद्रोह इसी किले से किया था। इसीलिए इस पूरे रास्ते में बादशाही लाव-लश्कर के आराम के लिए सराय थीं। अकबर के अलावा बाकी के बादशाह चूंकि यमुना का पानी पिया करते थे। इसलिए पूरे रास्ते में सड़क से यमुना नदी तक जाने के लिए सुरंगें थीं जिनके अवशेष आज भी मौजूद हैं। मुगलरोड पर यमुना नदी के एकदम किनारे मूसानगर बसा है। जहां सुप्रसिद्घ मजार है, मुक्तादेवी का मंदिर है और चंदेल राजाओं का बनवाया देवयानी तालाब है। जिसमें सीधे यमुना से पानी लाने का स्रोत है।
मूसानगर से करीब 40 किमी पहले है सिकन्दरा। औरंगजेब के समय में जब किसान विद्रोह शुरू हुआ और आगरा दरबार के कट्टरपंथियों ने विद्रोह को दबाने के लिए मंदिरों को भी निशाना बनाया तो नागा साधुओं ने गुसाइयों की फौज तैयार की। ये गुसाईं बड़े ही खतरनाक लड़ाके थे। पर औरंगजेब के बाद वे बेकार हो गए तो उनकी फौज भाड़े पर लडऩे लगी। मुगलों के वजीरे आजम सफदरजंग ने इस गुसाईं फौज का बखूबी इस्तेमाल किया। गुसाइयों की दो बड़ी छावनी थीं। एक सागर और दूसरी सिकन्दरा। पहले दिल्ली दरबार का पतन और बाद में अवध के नवाब की दयनीय दशा के कारण इन गुसाइयों का दबदबा खत्म हो गया तो ये लूटपाट करने लगे। इसके लिए सबसे मुफीद जगह चपरघटा थी। सिकन्दरा से आगे और मूसानगर से थोड़ा पहले जहां पर सेंगुर नदी का मुहाना है, वहीं पर है चपरघटा। वहां पहुंचते ही ऐसा लगता है मानों रोड एकदम-से पाताल में चली गई हो। 45 डिग्री के ढलान से नीचे और बस चंद गज बाद ही इसी अंदाज में चढ़ाई। यही वह जगह थी जहां गुसाईं लोग लूटपाट करते। यह इलाका इतना बीहड़ था और तेंदुओं से भरा हुआ कि कंपनी सरकार कुछ कर ही नहीं पाती। पिण्डारी गुसाईं लूटपाट करते और यमुना व सेंगुर के बीहड़ों से होते हुए वे यमुना पार कर जाते। इसीलिए चपरघटा के बारे में कहावत चल निकली- दिल्ली की कमाई, चपरघटा मां गंवाई। उत्तर प्रदेश का भूसंरक्षण विभाग अभी तक यहां के बीहड़ को खत्म नहीं कर पाया है। हालांकि वन विभाग तेंदुए तो नहीं बचा सका। पर जब आज से 35 साल पहले तक यहां डाकुओं का एकच्छत्र राज था तब स्थानीय पुलिस और नेता पकड़ छुड़ाने के लिए यहीं पर पीडि़त परिवार से मिलकर बंदरबांट किया करते थे। मूसानगर थाना हाल तक उत्तर प्रदेश पुलिस का एसओ रैंक का थाना था और कमाई का एक बड़ा स्रोत। यहां पर आप बीहड़ में उतरकर यमुना को उफान देख सकते हैं तथा प्रकृति की क्रूर मार से पीडि़त लोगों का दर्द भी जान सकते हैं। अरहर, चना और सरसों के अलावा यहां और कुछ नहीं पैदा होता। यहां रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। आपको कानपुर रुकना होगा अथवा भोगनीपुर के किसी टूटे-फूटे डाकबंगले में। चूंकि यह इलाका 1857 में विद्रोह का केंद्र रहा इसलिए अंग्रेजों ने भोगनीपुर से तहसील हटाकर पुखरायां शिफ्ट कर दी थी। पर आप यमुना पार कर कालपी के भी डाकबंगले मेंं रुक सकते हैं। पर मैं राय दूंगा कि आप वापस कानपुर लौट जाएं। मेरा गांव चूंकि मूसानगर से कुल सात किमी है इसलिए मैं तो गांव चला गया।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

सत्तावनी विद्रोह भाग- दो

सत्तावनी क्रांति भाग- दो
आदतन और परंपरा से चली आ रही किसी शासन प्रणाली को एकाएक बदलना आसान नहीं होता है और खासकर तब जब विजेता की हर बात शक के दायरे में हो और विजित जाति को सारे न्यायिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। भारत में योरोपीय शासकों ने उनके परंपरागत ढांचे को तोडऩे का काम किया। इसके पूर्व के आक्रामणकारियों ने भारत के पारंपरिक ढांचे को नहीं छुआ था। शायद इसीलिए 1857 में एक ऐसा जनज्वार उठा जो इसके पूर्व भारत में कभी नहीं देखा गया था। इसके पहले के जो भी विजेता रहे वे यहीं रच-बस गए पर ये ऐसे विजेता थे जो संख्या में कम थे और भारत में बसने के नहीं बस परस्पर लड़ाकर पैसा वसूलने के इच्छुक थे। 1757 में प्लासी की लड़ाई और 1764 में बक्सर की लड़ाई में जीते अंग्रेजों ने भारत के ताज पर अपनी दखल पुख्ता कर ली थी। बक्सर में लखनऊ के नवाब शुजाउद्दौला, बंगाल के नवाब मीर जाफर और दिल्ली के बादशाह शाहआलम की संयुक्त सेना को पराजित कर अंग्रेजों ने अवध का एक बड़ा भूभाग और पूरे दोआबे का कोई 40 हजार वर्गमील का इलाका अपने अधीन कर लिया था। दिल्ली के बादशाह के कमजोर पडऩे के कारण अंग्रेज एक के बाद एक तख्त गिराते गए अथवा देस राजाओं की राजधानियों में अपना रेजीडेंट बिठाते चले गए और इस बहाने वे उस राजा के राज्य को न सिर्फ कमजोर करते बल्कि उसके यहां असंतोष को बढ़ावा देते।
हम एक अंग्रेज लेखक से ही शुरू करते हैं। ग्रांट डफ ने लिखा है- उनकी राजधानियों में अंग्रेज रेजीडेंटों को रखना उनकी तबाही का कारण बन गया। क्योंकि इन अधिकारियों को जो काम सौंपे गए थे उनमें से एक था असंतोष पैदा करना। इस कथन की पुष्टि विलियम हेजलिट भी करते हैं। वे लिखते हैं- भारतीय राजाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने ऐसा जहर फैला दिया जिसके कारण पूरा भारत अंदर ही अंदर सुलग उठा। सत्य यह है कि असंतोष को अंग्रेजों ने ही बढ़ाया। भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो जाने का वर्णन करते हुए महान जर्मन दार्शनिक व राजनीतिक चिंतक कार्ल मार्क्स ने 1853 में लिखा था- मुगलों की सर्वोच्च शक्ति को उनके वाइसरायों ने कमजोर किया। इन वाइसरायों की शक्ति को मराठों ने कमजोर किया। मराठों की शक्ति को अफगानों ने कमजोर किया और जब ये सब एक-दूसरे से लड़ रहे थे, तभी अंग्रेजों ने आकर सब को हरा दिया। देश में न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में फूट थी बल्कि जनजातियों के बीच भी फूट थी। समाज का ढांचा एक तरह के संतुलन पर आधारित था जो सभी सदस्यों के बीच परस्पर खिंचाव और लगाव के संतुलन के बूते टिका था। ऐसे देश और ऐसे समाज की नियति पराजित होना नहीं तो और क्या थी?”  इसके आगे तो मार्क्स एक तरह से भारतीयों की मानसिकता पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं- भारत अपने ही खर्चे पर पल रही अपनी ही सेनाओं के माध्यम से अंग्रेजों का गुलाम बना हुआ है।“ 15 जुलाई 1857 को मार्क्स इंटरनेशनल डेली ट्रिब्यून में लिखते हैं- विभिन्न वंशों, जनजातियों, वर्गों और सत्ताओं का सकल रूप जो भौगोलिक एकता बनाता है, उसे ही भारत कहा जाता है। उनके बीच टकराव अंग्रेजों की सर्वोच्चता का अनिवार्य सिद्घांत बना हुआ है। मार्क्स मानते थे कि देसी राजाओं की शक्ति को शक्ति से छल और बल से समाप्त करने के अलावा अंग्रेजों के पास और कोई विकल्प नहीं था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ किए गए वादों को पूरा करने के लिए देशी राजाओं को अंग्रेजों से ऊँचे ब्याज पर भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा और जब वे अदा नहीं कर पाए तो अंग्रेजों ने बदले में या तो मित्रभाव से अपना राज्य छोड़ दें अथवा युद्घ का सामना करें। यह एक ऐसी शर्त थी जिसमें अंग्रेजों को हर हाल में लाभ ही था। उनका कुछ नहीं जाता था और पूरी दीवानी उनके कब्जे में आ जाती थी। मजे की बात कि जिस राजा से वे लड़ते वही राजा अपनी फौज भी पालता और अंग्रेजी फौज का भी खर्च उठाता। एक तरह से 1857 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने ऐसे हालात बना दिए थे कि अगर विद्रोह न होता तो आश्चर्य होता कि इतना बड़ा मुल्क और इतने कायर, आलसी व जाहिल लोग।

(आगे का हिस्सा कल पढि़एगा।)

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सत्तावनी विद्रोह भाग- एक

मैने महसूस किया है कि मेरी राजनीतिक पोस्ट से या तो लोग दुखी हो जाते हैं या अति प्रसन्न। यह दोनों ही अतियां हैं और इससे सिवाय निंदा या प्रशंसा से कुछ नहीं हासिल होता। मेरी अपनी रुचि व पारंगता राजनीति से अधिक समाज शास्त्रीय विषयों और इतिहास व घुमक्कड़ी में है इसलिए मैने तय किया है कि अब मैं इन्हीं विषयों पर लिखूंगा। आज से दस मई तक मैं रोजाना एक पोस्ट 1857 के हालात और अंग्रेज कलेक्टरों, पोलेटिकल एजंटों और गवर्नरों पर लिखूंगा। यह विषय हमें किसान समस्या और औपनिवेशिक भारत की हकीकत जाने के लिए मददगार होगा। तो आज से पहली किस्त शुरू-
1857 के विद्रोह को देखने के तीन नजरिये हैं। पहला अंग्रेज हुक्मरानों खासकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों का, उन्होंने इसे सिपाही गदर बताया है और लिखा है कि यह गदर में शामिल सभी लोग लुंपेन और लफंगे थे। देश भक्ति इसमें नहीं थी बल्कि उनकी अपनी स्वार्थपरता थी। इसीलिए इस गदर को न तो सक्षम नेतृत्व मिला न जनता का समर्थन। दूसरी ओर दक्षिणपंथियों ने इसे स्वतंत्रता का पहला एकजुट संग्राम कहा है। उनके अनुसार फिरंगियों के विरुद्घ यह पहला संगठित विद्रोह था। तीसरा वामपंथियों का जिन्होंने इसे इतिहास की धारा को मोडऩे वाला प्रतिक्रियावादी आंदोलन करार दिया है।
पर ये तीनों मत अपूर्ण और एक आंदोलन का सरलीकरण हैं। अगर ब्रिटिश मत मान लिया जाए तो क्या ब्रिटिश लेखकों बता सके कि अगर यह मात्र सिपाही विद्रोह था तो आखिर दस दिनों के भीतर ही पूरे अवध से कंपनी का राज धूल के कणों की भांति कैसे उड़ गया। खुद एक ब्रिटिश लेखक थामस लोव लिखता है- शिशुहंता राजपूत, धर्मान्ध ब्राह्मण, कट्टर मुसलमान, विलासी-स्थूलकाय-महत्वाकांक्षी मराठा आदि सब समान प्रयोजन से साथ आ गए थे। गो हत्यारे और गो पूजक, सुअर से नफरत करने वालों और सुअर खाने वालों, एक अल्लाह और उसके पैगंबर मोहम्मद की रट लगाने वालों और ब्रह्म के रहस्यों का गुणगान करने वालों ने मिलजुल कर विद्रोह किया। अगर यह मान भी लिया जाए कि यह महज एक सिपाही विद्रोह था तो क्यों महज चंद दिनों में ही सर्वशक्तिमान ब्रिटिशर्स की हुकूमत भारत में जाते-जाते बची। मगर यह कह देने से ही यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी नहीं बन जाता। अगर यह सच है तो इतना संगठित व सशस्त्र विद्रोह मुठ्ठी भर योरोपियन सिपाहियों ने कुचल कैसे दिया? जाहिर है कि यह व्रिदोह तयशुदा नहीं था और जनता की भागीदारी उतनी नहीं थी जितनी कि अपेक्षा थी। विद्रोह के पूर्व किसी नियम-कायदे व कानून की संरचना नहीं की गई थी। कुछ तो गड़बड़ जरूर थी। आप भले मंगल पांडे को पूजो या रानी लक्ष्मी बाई को अथवा नाना धूधूपंत पेशवा को पर विद्रोह एक सामंती भभका भर था।


राम से मंहगा रावण!

राम से मंहगा रावण!
शंभूनाथ शुक्ल

जब कानपुर में नौटंकियों का जोर हुआ करता था और दूर किसी गांव में डुगडुगी पिटते ही लोग भागा करते थे। कितनी दूर इसका पता खेतों से चलता था कि इतने खेत दूर उस गांव में गुलाब बाई, अमीरन बाई या मोती बाई आई हैं। पर इन्हीं दिनों कुछ समाज सुधारकों व पुनरुत्थानवादियों ने नौटंकी के समानांतर परशुरामी विधा शुरू  की। चूंकि परशुरामी विशुद्घ ब्राह्मणी विधा थी और इसमें धर्मान्धता के साथ-साथ एक हद तक साहित्य भी था इसलिए इसमें आनंद तो नहीं था मगर आकर्षण तो था ही खासकर महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों में। शादी, विवाह, जनेऊ या कोई भी अवसर हो जब भी पांच जने तय करते कि धनुषभंग की लीला हो जाए उसी दिन परशुरामी तय। परशुरामी एक तरह से धनुषभंग का हिस्सा था। राम जी जनकपुरी जाकर शिव धनुष तोड़ देते हैं। शिव धनुष टूटने की टंकार से दसों दिशाएं गूंज उठती हैं और मंदराचल में तपश्चर्या में रत परशुराम की तपस्या भंग हो जाती है और वे नारद जी द्वारा दी गई जानकारी पर जनकपुरी पधार जाते हैं। पहले तो वे बहुत क्रोधित होते हैं और जैसे-जैसे लक्ष्मण अपने चिढ़ाने वाले अंदाज में उन्हें बातें सुनाते हैं वैसे-वैसे उनका क्रोध दावानल बनता जाता है। पर अंत में श्रीराम अपने वचनों से परशुराम का क्रोध शांत करते हैं और परशुराम यह जानकर कि राम स्वयं विष्णु के अवतार हैं, संतुष्टï होकर चले जाते हैं। वाल्मीकि ने इस संवाद को बहुत महत्व नहीं दिया पर तुलसी ने इसे शैवों का वैष्णवों के समक्ष समर्पण माना और इस पूरे संवाद का विस्तृत वर्णन किया है। शायद इसीलिए आगम इस कथा को छोड़ देते हैं पर निगम इसे बढ़ाचढ़ा कर लिखते हैं। खैर, कानपुर, कन्नौज, उन्नाव और फतेहपुर में परशरामी लीला का बड़ा चलन है। रात दो बजे जब शिवतांडव और रावण संहिता का सस्वर पाठ करते हुए परशुराम मंच पर प्रकट होते तो तालियां बजने लगतीं और रोमांच हो उठता। खासकर माघ व पूस की रात में सिर्फ लंगोट धारण किए परशुराम का प्रकट होना और परशु उछालते हुए तख्त को तोड़ देना तो परशुराम का पार्ट करने वाले अभिनेता का शगल हुआ करता था। ज्यादातर हिंदी या संस्कृत के मास्टर परशुराम का पार्ट करते। शिवली के शिवराज और जगदीश अवस्थी को तो महारत हासिल थी। कहते हैं कि एक बार कानपुर देहात के एक ठाकुर बहुल गांव मलासा में  शिवराज जब परशुराम की अभिनय करने जा रहे थे तो रास्ते में एक तेंदुआ मिल गया। परशुराम साइकिल पर थे और अपना परशु फरसा साइकिल के हैंडिल पर टांगे थे। उन्होंने उसी फरसे से तेंदुए को मार दिया और रक्तरंजित फरसा लेकर मलासा पहुंच गए। उस दिन उन्होंने जैसा अभिनय किया वह लाजवाब था क्योंकि उस दिन उनका क्रोध साक्षात था। इस परशुरामी में लक्ष्मण की मांग भी बहुत थी और परशुराम के बाद मानदेय पाने मेें भी उन्हीं का नंबर था। फिर जनक का अभिनय करने वाला पात्र मानदेय लेता और इसके बाद नंबर आता दशानन रावण का। बेचारे राम जी का नंबर सबसे आखिर में आता। उनकी हालत वही रहती जैसे कि कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी रामलीला में राम जी की है। फिर समय बदला और बाई साहब रावण के दरबार में आने लगीं और वे समाजसुधारक ब्राह्मण उन बाइयों को परशुराम से ज्यादा धन देने लगे। कथाकार महीप सिंह की एक कहानी परशुराम इस बाबत पढऩे लायक है।

रविवार, 5 अप्रैल 2015

गालिब छूट नहीं रही शराब!

गालिब छूट नहीं रही शराब!
शंभूनाथ शुक्ल
कल ३१ दिसंबर है, साल का आखिरी दिन। असंख्य लोग नए साल की अगवानी में शाम ढलते ही शराब पीना शुरू कर देंगे। उन्हें शायद यह पता भी नहीं होगा कि राजधानी दिल्ली से कुल ३० किमी की दूरी पर स्थित कुछ गांवों की सैकड़ों महिलाओं ने शराब के खिलाफ एक जबर्दस्त मोर्चा खोल रखा है। उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्घ नगर जिले के सैनी सुनपुरा की प्रधान हरवती की अगुआई में चल रहे इस आंदोलन ने पूरे जिले में सनसनी फैला दी है।  गौतमबुद्घ नगर का जिला प्रशासन हरवती के विरुद्घ शराब के ठेके जलाए जाने का मुकदमा कर रहा है। लेकिन हरवती ने भी हार नहीं मानी है वे पूरी दृढ़ता से इस लड़ाई की कमान संभाले हैं। हरवती सरीखी सैकड़ों महिलाएं प्रशासन की धमकी के बावजूद अपने निश्चय पर अडिग हैं। उनका तर्क है कि शराब ने उनके घर बरबाद कर दिए हैं। उनकी जमीनों का ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने जो मुआवजा दिया है उसे उनके परिवार के पुरुष सदस्य शराब में उड़ाए डाल रहे हैं। वे इस बात पर कतई गौर नहीं कर रहे हैं कि शराब की यह लत उनके पूरे परिवार को गर्त में धकेल देगी। लाखों-करोड़ों रुपयों में मिला जमीन का मुआवजा अगर इसी तरह शराब के जरिए बहाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब उनके बच्चे दाने-दाने को मोहताज हो जाएंगे। इसीलिए २० दिसंबर की रात सैनी गांव में ठेकों को महिलाओं ने फूंक डाला और अपने-अपने घरों में पुरुषों द्वारा लाकर रखी गई शराब की सैकड़ों बोतलें फोड़ डालीं।
शिवाज रीगल, ब्लैक लेबल, हंड्रेड पाइपर, टीचर और ब्लैक एंड व्हाइट की न जाने कितनी बोतलों का द्रव उस दिन खेतों में बहा दिया गया। जिन्हें शराब पीने की लत है उन्हें इस बात का अंदाजा होगा कि इनमें से कोई भी बोतल हजार रुपए से कम की नहीं होगी। फिर शिवाज रीगल और ब्लैक लेबल तो विदेशी स्काच हैं जो शायद तीन-तीन हजार रुपयों की आती हों। इतनी मंहगी बोतलें अगर फोड़ी गईं तो जाहिर है महिलाएं किस कदर शराब से परेशान होंगी। शराब कैसे घरों को बरबाद करती है, एक औरत से ज्यादा बेहतर कोई नहीं जानता होगा। शराबी तो पीकर दुनिया जहान की चिंताओं से मुक्त हो गया लेकिन घर के खर्चों और घर चलाने की जिल्लत महिलाओं को ही भोगनी पड़ती है। इसलिए उनका नाराज होना स्वाभाविक है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में राजनीतिक दलों की चुप्पी अचंभे में डालने वाली है। गौतमबुद्घ नगर सीट से लोकसभा के सदस्य सुरेंद्र नागर और दादरी की विधानसभा सीट से विधायक सत्यवीर सिंह गुर्जर बहुजन समाज पार्टी के ही हैं लेकिन मुख्यमंत्री की इस गृहनगरी में महिलाओं के इतने बड़े आंदोलन के प्रति उनका चुप रहना हैरान करता है।
दिल्ली के पास उत्तर प्रदेश के नोएडा-ग्रेटर नोएडा (जिला गौतमबुद्घ नगर) और गाजियाबाद  ही नहीं बल्कि हरियाणा के गुडग़ांव और फरीदाबाद की हालत भी इससे अलग नहीं है और वहां भी सैकड़ों दफे महिलाओं ने शराब के खिलाफ मोर्चा खोला है पर दोनों ही प्रांतों की  सरकारें इस समस्या पर महिलाओं के पक्ष से विचार करने की बजाय हर गांव व कस्बे में शराब के ठेके तथा माडल बियर शॉप खोले जा रही है। शराब की दूकानें खोलने की हड़बड़ी में सरकारें खुद के बनाए नियमों को भी ताक पर रख रही हैं। स्कूल, रिहायशी क्षेत्र, धार्मिक स्थान और सार्वजनिक स्थलों से शराब की दूकानें कम से कम २०० मीटर की दूरी पर होनी चाहिए लेकिन आबकारी से पैसा उगाहने के चक्कर में सरकारें इस नियम का मखौल उड़ा रही हैं। सैनी सुनपुरा में ठेका गांव के ठीक बीचोंबीच है। यही हाल नोएडा तथा ग्रेटर नोएडा की शहरी आबादी का है। वहां भी कई शराब की दूकानें स्कूलों और शहरी आबादी के एकदम करीब हैं। गुडग़ांव तथा फरीदाबाद की स्थिति तो और भी खराब है। एक-एक सेक्टर में दो से ज्यादा शराब की दूकानें हैं। यहां तो दिन में टकीला और रात को जानी वाकर पीने का इतना रिवाज है कि सारा मुआवजा इन्हीं मंहगी शराबों के चक्कर में बहा जा रहा है।
ग्रेटर नोएडा से कुल आठ किमी पर है मायचा। करीब ५००० की आबादी वाला यह गांव मुआवजे की मलाई से एकदम तर है। गांव के सभी मकान पक्के तथा हर घर में स्कार्पियो सरीखी गाडिय़ां खड़ी दीखती हैं। लेकिन प्रशासन ने यहां स्कूल के नजदीक ही ठेका भी खोल दिया है। नतीजा यह है कि १५ साल के किशोर से लेकर साठ साल के बुजुर्ग तक इसी दूकान में दीख जाते हैं। माया कुम्हारिन कहती है कि गरीब के लिए रोटी नहीं है। राशन की दूकान नहीं खुलती लेकिन शराब की दूकान खुली रहती है। यहां सुरेश प्रधानिन ने मोर्चा संभाला हुआ है। गांव के राजेंद्र भगत यह तो नहींं मानते कि यहां के अधिकतर लोग शराबी हैं पर यह जरूर मानते हैं कि शराब के ठेके की वजह से लोग शराबी होते जा रहे हैं। जब से ग्रेटर नोएडा क्षेत्र का शहरीकरण शुरू हुआ है यहां शराब के ठेकों और अंग्रेजी शराब की दूकानों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। पूरे जिले में २८० शराब के ठेके हैं इसमें से अकेले ग्रेटर नोएडा में ही ४५ प्रतिशत हैं। मुआवजा पाए किसानों में से १५ प्रतिशत ऐसे किसान परिवार हैं जहां के पुरुष सदस्य सुबह से ही शराब पीना शुरू कर देते हैं। हालांकि यह भी सच है कि युवकों में शराब पीने की प्रवृत्ति बूढ़ों व अधेड़ों की तुलना में कम है। जहां ३० से ४० की उम्र वाले २० फीसदी लोग ही नियमित पीने की आदत डाले हैं वहीं ४० से ६० की उम्र वालों के बीच यह प्रतिशत ६० का है।
इसके उलट शहरी क्षेत्रों में शराब की खपत युवाओं में ज्यादा है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गुडग़ांव व फरीदाबाद में युवा ज्यादा शराब के लती हो रहे हैं। यहां माल के अंदर निरंतर बढ़ रहे बार और पब ने इस प्रवृत्ति को ज्यादा उकसाया है। बियर, वाइन और व्हिस्की व रम आदि की इस लत को सरकारें राजस्व उगाही का हथियार बनाए रहीं तो यहां भी शायद देर-सबेर महिलाओं को ही मोर्चा संभालना पड़े।
$गम है तो शराब और खुशी है तो शराब। आखिर पीने वालों को कोई बहाना तो चाहिए ही।  क्या करें हम तो शराब छोड़ दें लेकिन न्यू इयर ईव तो मनाना ही पड़ता है। कभी मौसम की बेईमानी का बहाना होता है तो कभी उसके खुशगवार होने का। भुगतना पड़ता है घर की महिलाओं को। जिनके लिए हर वक्त मौसम खुश्क और गमशुर्दा ही होता है। गालिब का शेर है-
गालिब छूटी शराब पर अब भी कभी-कभी
पीता हूं शब-ए-रोज महताब में।