पहले जब मुगल बादशाह के पास खालसा जमीन आगरा से इलाहाबाद (कोड़ाजहानाबाद) तक हुआ करती थी तब चपरघटा का बड़ा रुतबा था। बादशाह का लाव-लश्कर मुगल रोड से ही आगरा से इलाहाबाद जाता। आगरा से इटावा हालांकि इटावा आने के लिए बाबर के समय तक वाया ऊदी रास्ता था और बादशाही लोग ऊदी से ही यमुना पार कर इटावा आते थे। बाबर ने अपनी डायरी बाबरनामा में इटावा आने का जिक्र किया है। दूसरा रास्ता था वाया एत्मादपुर, फिरोजाबाद होते हुए इटावा। इसके बाद महेवा, बाबरपुर-अजीतमल, मुरादगंज होकर औरय्या फिर सिकन्दरा। इसके बाद भोगनीपुर फिर चपरघटा, मूसानगर, घाटमपुर, जहानाबाद, बकेवर, फिर चौडगरा पहुंच कर बादशाही लश्कर वही पुरानी शेरशाह सूरी मार्ग (जीटी रोड) पकड़ता और फिर मलवाँ, फतेहपुर, खागा होते हुए एक रास्ता जाता कोड़ा जहानाबाद और दूसरा प्रयाग के किले की तरफ। अकबर के समय शहजादा सलीम को कोड़ा जहानाबाद की नवाबी मिली थी। उसने विद्रोह इसी किले से किया था। इसीलिए इस पूरे रास्ते में बादशाही लाव-लश्कर के आराम के लिए सराय थीं। अकबर के अलावा बाकी के बादशाह चूंकि यमुना का पानी पिया करते थे। इसलिए पूरे रास्ते में सड़क से यमुना नदी तक जाने के लिए सुरंगें थीं जिनके अवशेष आज भी मौजूद हैं। मुगलरोड पर यमुना नदी के एकदम किनारे मूसानगर बसा है। जहां सुप्रसिद्घ मजार है, मुक्तादेवी का मंदिर है और चंदेल राजाओं का बनवाया देवयानी तालाब है। जिसमें सीधे यमुना से पानी लाने का स्रोत है।
मूसानगर से करीब 40 किमी पहले है सिकन्दरा। औरंगजेब के समय में जब किसान विद्रोह शुरू हुआ और आगरा दरबार के कट्टरपंथियों ने विद्रोह को दबाने के लिए मंदिरों को भी निशाना बनाया तो नागा साधुओं ने गुसाइयों की फौज तैयार की। ये गुसाईं बड़े ही खतरनाक लड़ाके थे। पर औरंगजेब के बाद वे बेकार हो गए तो उनकी फौज भाड़े पर लडऩे लगी। मुगलों के वजीरे आजम सफदरजंग ने इस गुसाईं फौज का बखूबी इस्तेमाल किया। गुसाइयों की दो बड़ी छावनी थीं। एक सागर और दूसरी सिकन्दरा। पहले दिल्ली दरबार का पतन और बाद में अवध के नवाब की दयनीय दशा के कारण इन गुसाइयों का दबदबा खत्म हो गया तो ये लूटपाट करने लगे। इसके लिए सबसे मुफीद जगह चपरघटा थी। सिकन्दरा से आगे और मूसानगर से थोड़ा पहले जहां पर सेंगुर नदी का मुहाना है, वहीं पर है चपरघटा। वहां पहुंचते ही ऐसा लगता है मानों रोड एकदम-से पाताल में चली गई हो। 45 डिग्री के ढलान से नीचे और बस चंद गज बाद ही इसी अंदाज में चढ़ाई। यही वह जगह थी जहां गुसाईं लोग लूटपाट करते। यह इलाका इतना बीहड़ था और तेंदुओं से भरा हुआ कि कंपनी सरकार कुछ कर ही नहीं पाती। पिण्डारी गुसाईं लूटपाट करते और यमुना व सेंगुर के बीहड़ों से होते हुए वे यमुना पार कर जाते। इसीलिए चपरघटा के बारे में कहावत चल निकली- दिल्ली की कमाई, चपरघटा मां गंवाई। उत्तर प्रदेश का भूसंरक्षण विभाग अभी तक यहां के बीहड़ को खत्म नहीं कर पाया है। हालांकि वन विभाग तेंदुए तो नहीं बचा सका। पर जब आज से 35 साल पहले तक यहां डाकुओं का एकच्छत्र राज था तब स्थानीय पुलिस और नेता पकड़ छुड़ाने के लिए यहीं पर पीडि़त परिवार से मिलकर बंदरबांट किया करते थे। मूसानगर थाना हाल तक उत्तर प्रदेश पुलिस का एसओ रैंक का थाना था और कमाई का एक बड़ा स्रोत। यहां पर आप बीहड़ में उतरकर यमुना को उफान देख सकते हैं तथा प्रकृति की क्रूर मार से पीडि़त लोगों का दर्द भी जान सकते हैं। अरहर, चना और सरसों के अलावा यहां और कुछ नहीं पैदा होता। यहां रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। आपको कानपुर रुकना होगा अथवा भोगनीपुर के किसी टूटे-फूटे डाकबंगले में। चूंकि यह इलाका 1857 में विद्रोह का केंद्र रहा इसलिए अंग्रेजों ने भोगनीपुर से तहसील हटाकर पुखरायां शिफ्ट कर दी थी। पर आप यमुना पार कर कालपी के भी डाकबंगले मेंं रुक सकते हैं। पर मैं राय दूंगा कि आप वापस कानपुर लौट जाएं। मेरा गांव चूंकि मूसानगर से कुल सात किमी है इसलिए मैं तो गांव चला गया।
मूसानगर से करीब 40 किमी पहले है सिकन्दरा। औरंगजेब के समय में जब किसान विद्रोह शुरू हुआ और आगरा दरबार के कट्टरपंथियों ने विद्रोह को दबाने के लिए मंदिरों को भी निशाना बनाया तो नागा साधुओं ने गुसाइयों की फौज तैयार की। ये गुसाईं बड़े ही खतरनाक लड़ाके थे। पर औरंगजेब के बाद वे बेकार हो गए तो उनकी फौज भाड़े पर लडऩे लगी। मुगलों के वजीरे आजम सफदरजंग ने इस गुसाईं फौज का बखूबी इस्तेमाल किया। गुसाइयों की दो बड़ी छावनी थीं। एक सागर और दूसरी सिकन्दरा। पहले दिल्ली दरबार का पतन और बाद में अवध के नवाब की दयनीय दशा के कारण इन गुसाइयों का दबदबा खत्म हो गया तो ये लूटपाट करने लगे। इसके लिए सबसे मुफीद जगह चपरघटा थी। सिकन्दरा से आगे और मूसानगर से थोड़ा पहले जहां पर सेंगुर नदी का मुहाना है, वहीं पर है चपरघटा। वहां पहुंचते ही ऐसा लगता है मानों रोड एकदम-से पाताल में चली गई हो। 45 डिग्री के ढलान से नीचे और बस चंद गज बाद ही इसी अंदाज में चढ़ाई। यही वह जगह थी जहां गुसाईं लोग लूटपाट करते। यह इलाका इतना बीहड़ था और तेंदुओं से भरा हुआ कि कंपनी सरकार कुछ कर ही नहीं पाती। पिण्डारी गुसाईं लूटपाट करते और यमुना व सेंगुर के बीहड़ों से होते हुए वे यमुना पार कर जाते। इसीलिए चपरघटा के बारे में कहावत चल निकली- दिल्ली की कमाई, चपरघटा मां गंवाई। उत्तर प्रदेश का भूसंरक्षण विभाग अभी तक यहां के बीहड़ को खत्म नहीं कर पाया है। हालांकि वन विभाग तेंदुए तो नहीं बचा सका। पर जब आज से 35 साल पहले तक यहां डाकुओं का एकच्छत्र राज था तब स्थानीय पुलिस और नेता पकड़ छुड़ाने के लिए यहीं पर पीडि़त परिवार से मिलकर बंदरबांट किया करते थे। मूसानगर थाना हाल तक उत्तर प्रदेश पुलिस का एसओ रैंक का थाना था और कमाई का एक बड़ा स्रोत। यहां पर आप बीहड़ में उतरकर यमुना को उफान देख सकते हैं तथा प्रकृति की क्रूर मार से पीडि़त लोगों का दर्द भी जान सकते हैं। अरहर, चना और सरसों के अलावा यहां और कुछ नहीं पैदा होता। यहां रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। आपको कानपुर रुकना होगा अथवा भोगनीपुर के किसी टूटे-फूटे डाकबंगले में। चूंकि यह इलाका 1857 में विद्रोह का केंद्र रहा इसलिए अंग्रेजों ने भोगनीपुर से तहसील हटाकर पुखरायां शिफ्ट कर दी थी। पर आप यमुना पार कर कालपी के भी डाकबंगले मेंं रुक सकते हैं। पर मैं राय दूंगा कि आप वापस कानपुर लौट जाएं। मेरा गांव चूंकि मूसानगर से कुल सात किमी है इसलिए मैं तो गांव चला गया।