शनिवार, 28 नवंबर 2015

अज्ञान-धर्म-करुणा-गरीबी ऐसे ही हैं जैसे चोली-दामन!

अज्ञान-धर्म-करुणा-गरीबी ऐसे ही हैं जैसे चोली-दामन!
भारत सोका गोक्काई का एक कार्यक्रम लोदी रोड स्थित चिन्मय मिशन में था। इस संगठन के दो कार्यकर्ता श्री वीके कालड़ा और श्री खरे मेरे मित्र हैं। वे अक्सर मेरे आवास पर आकर चाँट करते हैं और बुद्घ की प्रतिमा के समक्ष ध्यान भी। इस कार्यक्रम में उन्होंने मुझे भी न्योता। पहले सोचा कि गाड़ी ले जाऊँ पर कल रात यूपी गेट से वसुंधरा तक के रास्ते में जिस तरह का जाम लगा हुआ था उसे अखबार में पढ़कर होश उड़ गए और मैने तय किया कि जाम में फँसने से बेहतर रहे कि मैं मेट्रो से चला जाऊँ और लौटने में वैशाली मेट्रो स्टेशन से चार किमी पैदल चलकर घर आ जाऊँ। क्योंकि जाते समय हमारे आटो वाले ड्राइवर विनोद सिंह ने बताया था कि कल इतना जाम था कि वैशाली मेट्रो से वसुंधरा तक आने में पूरे दो घंटे लग गए थे। यूं भी दिल्ली में कार ले जाने में एक सिरदर्द पार्किंग की है। आप ठीक तरह से पार्क कर गए और पता लगा कोई धनकुबेर आपकी गाड़ी के पीछे अपनी गाड़ी यूं लगा गया कि अब जब तक वह नहीं निकल जाए आप गाड़ी निकाल नहीं सकते इसलिए भी पैदल, मेट्रो व बस सेवा ज्यादा मुफीद प्रतीत होती है। वैशाली मेट्रो में आमतौर पर सीट मिल ही जाती है बशर्ते कि वरिष्ठ नागरिक वाली सीट पर कोई युवती या युवा छात्रा अपने पति या प्रेमी समेत नहीं बैठी हो। आमतौर पर आजकल मेट्रो की इन सीटों पर युवतियां कब्जा कर लेती हैं और अपने पुरुष साथियों को भी बिठा लेती है फिर वे दोनों बेशर्मी के साथ बैठे रहते हैं। इसके अलावा एक प्राणी और हैं जो इन सीटों पर काबिज रहते हैं वे हैं अधेड़ पुरुष जो देखने में तो ठीकठाक और चालीस के ऊपर दीखते हैं तथा वे आम स्थितियों में अपनी उम्र पैंतीस ही बताते हैं लेकिन मेट्रो में सीनियर सिटिजन्स के लिए आरक्षित सीट पर बैठने के लिए वे अपने साठ साला होने का सर्टीफिकेट अपने माथे पर लिखा लेते हैं। खैर मुझे सीट मिल गई और आश्चर्यजनक रूप से मंडी हाउस में चेंज करने के बाद बदरपुर जाने वाली मेट्रो में भी सीट मिल गई। अब मुझे उतरना था खान मार्केट पर जो एनाउंसमेंट हो रहा था वह सुनाई नहीं पड़ रहा था और जो डिजिटल मूकवाणी स्क्रीन पर उभर रही थी वह एक स्टेशन पीछे की सूचना देती थी। उसने खान मार्केट को केंद्रीय सचिवालय बताया और नेहरू स्टेडियम को खान मार्केट। जाहिर है मैं बजाय खान मार्केट उतरने के नेहरू स्टेडियम उतरा।
अब चिन्मय मिशन की लोकेशन के बारे में कन्फ्यूजन हो गया। चूंकि यह चिन्मय मिशन जाने का मेरा पहला ही चांस था इसलिए मैने सोचा कि चिन्मय मिशन वहीं होगा जहां एक आंध्राइट मंदिर है, साईं मंदिर है और जहां रामायण केंद्र है यानी कि भीष्म पितामह मार्ग। सो मैने पहले तो पत्रकारिता के शिरोमणि प्रात: स्मरणीय दयाल सिंह मजीठिया के नाम पर बने दयाल सिंह कालेज का राउंड लिया और पहुंचा साईं मंदिर के पास। वहां आंध्र मंदिर और साईं मंदिर के बीच में एक भगत अपनी होंडा सिटी गाड़ी लगाए पूरी-सब्जी और ब्रेड पकौड़ा बाट रहा था। अपने को हिंदू कहने वालों में करुणा का अथाह सागर लहराता ही रहता है। जहां कोई गरीब, वंचित या निर्धन अथवा लाचार विकलांग या उपेक्षित बीमार देखा नहीं कि ये श्रद्घालु हिंदू पहले तो खखार कर थूकेंगे फिर जेब से एक रुपया निकाल कर उसकी तरफ फेक देंगे या बचा हुआ अन्न अथवा उतरन उसको दे देंगे। सो वहां भी भीड़ जुटी थी और वे गरीब भी कोई कम नहीं होते वे भी करुणा के सागर में डूबते-उतराते रहते हैं तथा अपने दान में पाए भोजन में से वे कुछ अन्न बचा लेते हैं जो वे गाय माता अथवा कुत्तों या रिक्शे-ठेले वालों को दे देते हैं। कुछ तो इतने ढीठ होते हैं कि उन होंडा सिटी कार वाले के लड़के को ही पकड़ा दिया। मुझे प्रतीत हुआ कि हिंदू समाज में गरीबी बहुत अपरिहार्य है। जिस दिन गरीब गरीब न रहे हिंदू समाज रुई के फाहे की तरह उड़ जाएगा। 
पूरे भीष्म पितामह मार्ग पर मुझे चिन्मय मिशन दिखा नहीं। एक ट्रैफिक कान्सटेबल से पूछा तो पहले तो वह मुझे देखता रहा फिर बोला- किसी के चौथे में जाना है? मैने कहा नहीं दरोगा जी एक फंक्शन है तो वह कुछ मंद पड़ा और पूछा- कार है? मैने कहा- नहीं पैदल हूं। तो उसने फटाक से जवाब दिया- फिर क्या है सीधे जाओ, बत्ती से उलटे हो जाना और अगली बत्ती से रांग साइड। बस आ गया चिन्मय मिशन। मैने उसके द्वारा बताए गए पंथ को पकड़ा और इंडिया हैबिटेट सेंटर पहुंच कर फिर कन्फ्यूजन हो गया तो मैने कालड़ा साहब को फोन किया तो वे बोले यहीं पास में है इस्लामिक कल्चरल सेंटर के बगल में। मैने कहा- पहले बता दिया होता तो कब का पहुंच जाता। खैर मैं एक जापानी द्वारा शुरू की गई इस बौद्घ मिशन में पहुंचा। वहां गत दिनों भोपाल जागरण लेकसिटी यूनीवर्सिटी की पहल पर हुए एक कार्यक्रम की फुटेज दिखाई जा रही थी जिसमें सोका गोक्काई इंटरनेशनल के अध्यक्ष डॉ दायसाकू इकेदा ने ही अपनी मातृभाषा जापानी में अपना भाषण दिया पर जागरण लेकसिटी यूनीवर्सिटी के कुलपति अनूप स्वरूप और कुलसचिव आर नेसामूर्ति अपनी नफीस अंग्रेजी में ही बोले और यह भी बताना नहीं भूले कि दैनिक जागरण भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले हिंदी दैनिक है। एक ऐसे संस्थान में जुडऩे का क्या लाभ जो आप अपनी मातृभाषा बोलने में शर्म महसूस करते हैं। भारत सोका गोक्काई संगठन के अध्यक्ष अपनी हिंदीनुमा अंग्रेजी में बोले। मेरा इस पर कहना था कि यह संगठन आम लोगों में कैसे लोकप्रिय हो सकता है जब तक कि इसका प्रचार-प्रसार हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं होगा। यह तो वही करुणा का अथाह सागर में लोट रहे लोगों का मानसिक विलास ही हो गया। 
लौटते वक्त कालड़ा साहब ने एक सिख नौजवान अमर जीत की कार में वापसी की व्यवस्था कर दी थी। वह सिख नौजवान तो मुझसे भी दो कदम आगे का क्रांतिकारी था। उसका कहना था कि सर मैं आज पहली मर्तबे सोका गोक्काई के कार्यक्रम में गया पर मुझे ऐसा लगा कि मानों वहां खाये-पिये-अघाये लोगों का कोई गेट टुगेदर हो। खूब सजी-धजी औरतें और उससे भी ज्यादा सजे-धजे पुरुषों को देखकर लगा ही नहीं कि हम किसी धार्मिक प्रोग्राम में आए हैं। मैने कहा- बच्चा जब तक अज्ञान रहेगा तब तक धर्म रहेगा और जब तक धर्म रहेगा तब तक करुणा और जब तक करुणा तब तक गरीबी!

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

वे मुसलमान थे

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे
ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे
वे मुसलमान थे
उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!
बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया
वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे
वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे
उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की
प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे
न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे
वे मुसलमान थे
वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए
वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू
वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं
वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे
वे मुसलमान थे
यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए
कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे
वे मुसलमान थे
वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता
मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती
वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता
मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता
वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे
वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे
इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे
वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे
वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे
वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे
वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे
वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं
वे शहर के बाहर रहते थे
वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं
उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे
वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे
वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है
अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे
वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे
वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे
कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए
वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे
सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे
वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
(देवीप्रसाद मिश्र की एक पढ़ी जाने लायक और गुनी जाने योग्य कविता)

शनिवार, 26 सितंबर 2015

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!

नेहरू जी की हिंदुस्तानी और दिनकर की संस्कृति!
कोई बहुत अच्छा कवि हो तो जरूरी नहीं कि वह बहुत अच्छा चिंतक भी होगा किसी ने बहुत बिकाऊ उपन्यास या कहानियां लिखी हों तो यह अकाट्य तो नहीं कि सामाजिक विषयों पर उसकी सोच युगान्तकारी ही होगी। कोई व्यक्ति साहित्य सृजन करता है तो यकीनन नहीं कहा जा सकता कि वह आदमी श्रेष्ठकर होगा ही। अब जैसे मुझे रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं पढ़कर नहीं लगा कि यह कोई युगांतरकारी या परिवर्तनकामी कवि है। क्योंकि जो व्यक्ति अतीत के पुनरुत्थान की बात करता हो वह महान कब से होने लगा। मुझे सदैव वे ओज के एक मंचखैंचू कवि ही लगे। मगर उनकी 'संस्कृति के चार अध्याय' उनके बारे में इस धारणा को तोड़ती है। हालांकि संस्कृति के चार अध्याय में भी वे भारतीय अतीत को महान बताते चले आए हैं और भारत की सामासिक संस्कृति के कहीं-कहीं हामी अवश्य नजर आते हैं पर पूरी पुस्तक पढ़कर यह नहीं लगता कि इसमें कुछ भी वे मौलिक बात कर रहे हैं। लेकिन इस पुस्तक का जो अभिनव योगदान है वह है प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की वह प्रस्तावना जिसे मैं अक्सर पढ़ता हूं और हर बार उसमें कुछ नयापन पाता हूं। इस प्रस्तावना में नेहरू जी लिखते हैं-
“मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक व दिलचस्प है। यह एक ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओतप्रोत होता रहा है और मैने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप, आप-से-आप पड़ गयी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल करता हूं, भारत है क्या? उसका तत्त्व या सार क्या है? वे शक्तियाँ कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह इस संपूर्ण विश्व के साथ अकेला ही न्याय कर सके। फिर भी, इसके कुछ खास पहलुओं को लेकर उन्हें समझाने की कोशिश की जा सकती है। कम-से-कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा।“
“भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को समझने में भी असमर्थ रहेंगे। और यदि भारत को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सबके सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की एसेी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।“
“मेरा विचार है कि दिनकर की पुस्तक इन बातों के समझने में, एक हद तक, सहायक होगी। इसलिए, मैं इसकी सराहना करता हूं और आशा करता हूं कि इसो पढ़कर अनेक लोग लाभान्वित होंगे।“
जवाहर लाल नेहरू
नयी दिल्ली
30 सितंबर 1955 ई.
यह पूरी प्रस्तावना नहीं है इसकी कुछ लाइनें भर हैं। आप इसे पढ़ें। पंडित जी ने इसे स्वयं हिंदुस्तानी व नागरी लिपि में लिखा है। उनकी भाषा बड़ी मोहक व बांधे रखने वाली थी तथा उनकी लिखावट गांधी जी की तुलना में ज्यादा साफ और बहिर्मुखी थी। गांधी जी जहां कई दफे अपनी लेखनी से झुझलाहट पैदा करते थे वहीं नेहरू जी की हिंदुस्तानी हिंदुस्तान के दिल के अधिक करीब थी। यह पूरी प्रस्तावना पढऩे के लिए दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय जरूर पढ़ें।

बुधवार, 9 सितंबर 2015

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा

रिपोर्ट पढऩे को हमारा मुख्य स्रोत जीवित ही नहीं रहा
शंभूनाथ शुक्ल
उतरते बैशाख की उस रात गर्मी खूब थी मगर हिंचलाल हमें अपने घर के अंदर ही बिठाए बातचीत कर रहा था ऊपर से चूल्हे का धुआँ और तपन परेशान कर रही थी। मैने कहा कि कामरेड हम बाहर बैठकर बातें करें तो बेहतर रहे। हिंचलाल बोला कि हम बाहर बैठ तो सकते हैं पर आप शायद नहीं समझ रहे हैं कि भीतर की गर्मी बाहर की हवा से सुरक्षित है। बाहर कब कोई छिपकर हम पर वार कर दे पता नहीं। वैसे हमारे दो आदमी बाहर डटे हैं मगर कामरेड आप नहीं जानते कि हम यहां कितनी खतरनाक स्थितियों में रह रहे हैं। हिंचलाल ने बताया कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हैं और दलित समुदाय से हैं लेकिन मौज-मस्ती भरी नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने भाइयों के लिए लडऩा बेहतर समझा। यहां पत्थरों की तुड़ाई होती है और साथ में धान की खेती। एक जमाने में यह पूरा इलाका राजा मांडा और डैया रजवाड़ों की रियासत में था। इन रियासतों के राजाओं ने अपनी जमींदारी जाने पर इस इलाके को फर्जी नामों के पटटे पर चढ़ाकर सारी जमीन बचा ली और जो उनके बटैया अथवा जोतदार किसान थे उनकी जमीन छीन ली। ट्रस्ट बना कर वही रजवाड़े फिर से जमीन पर काबिज हैं। यूं तो सारी जमीन वीपी सिंह के पास है लेकिन वे स्वयं तो राजनीति के अखाड़े पर डटे हैं और ट्रस्ट का कामकाज उनके भाई लोग देखते हैं। यहां वे किसान अब भूमिहीन मजदूर हैं और इन्हीं ट्रस्टों में काम करते हैं। कई मजदूरों को तो ट्रस्ट में बहाल किया हुआ है लेकिन ट्रस्ट के कामकाज में उनकी कोई दखल नहीं है। वे इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते और अपने यहां ही काम करने को मजबूर करते हैं। इंकार करने पर मारपीट करते हैं और इसी के चलते तीन किसानों को मार दिया गया।
ये वे दिन थे जब राजनीति करवट ले रही थी। जनता पार्टी का प्रयोग बुरी तरह फ्लाप रहा था और यूपी की राजनीति में चरण सिंह अब हाशिये पर थे मगर उनका विकल्प उभर नहीं पा रहा था। कांग्रेस भी यहां पर फिर से पैर जमाने की कोशिश कर रही थी। मगर अब कांग्रेस को लग रहा था कि उसे अपने जातीय समीकरण को बदलना पड़ेगा। कांग्रेस की राजनीति में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश चल रही थी। संजय गांधी राजपूतों के बीच से नेतृत्व उभारने के लिए प्रयासरत थे। मगर राजपूतों के बीच से जो सबसे ताकतवर नाम था वह वीर बहादुर सिंह का था। वे खाँटी राजनेता थे और उनकी जड़ें जमीन तक थीं। लेकिन संजय की इच्छा थी कि लखनऊ में वही नेता बैठे जो उनका खास बनकर रहे। इसलिए वीपी सिंह का नाम तलाशा गया। वीपी सिंह इलाहाबाद की मांडा रियासत के वारिस थे और पुणे के फर्ग्युसन कालेज के ग्रेजुएट थे। अंग्रेजी और अवधी में प्रवीण वीपी सिंह केंद्र में एक बार वाणिज्य उपमंत्री भी रह चुके थे। चुप्पा थे इसलिए संजय की पसंद भी थे। मगर उनके भाई लोग रीवा से सटे कुरांव के इलाके में जो कारनामे कर रहे थे इसलिए वीपी सिंह अपने भाइयों से दुखी भी रहते थे। पर इस मोर्चे पर चुप रह जाना ही उन्हें पसं द था। तभी यह घटना घट गई। वीपी सिंह ने अपने संपर्कों का लाभ उठाकर इसे अखबारों में नहीं आने दिया। इसके बावजूद हम वहां पहुंच गए थे। इसे लेकर सुगबुगाहट तो थी। इसलिए हिंचलाल ने हमें बाहर नहीं निकलने दिया।
हिंचलाल ने हमें वह सारी जानकारी दी जिसकी तलाश में हम वहां गए थे। हम उस युवा और उत्साही दलित नौजवान के आतिथ्य से अभिभूत थे। उस व्यक्ति ने दूर से गए अपने इन अनजान मेहमानों को अपने घर में सुरक्षा दी। और जिसके यहां खुद के भोजन के लाले हों वहां हमें भी अपने साथ भोजन कराया। मुझे याद है कि हिंचलाल के यहां कुल तीन थालियां थीं और वह भी अल्यूमीनियम की। उसकी पत्नी ने दाल जिस बटलोई में उबाली थी उसमें हाथ को ही चमचा बनाकर हमें परोसी क्योंकि उनके पास अलग से कोई चमचा नहीं था। हाथ से पकाई गई बेझर एक किस्म का मोटा आनाज की रोटियां परोसीं और बिना छिले प्याज रख दिया। उनके यहां चाकू नहीं था। हिंचलाल ने वह प्याज हमारी थालियों के किनारों से काटा तब हम उसे खा पाए। सारी रात वे बताते रहे और हम सुनते रहे। एक तरह से जमीनी स्तर पर जाकर कोई रिपोर्ट तैयार करने का यह मेरा पहला अनुभव था।

हिंचलाल अगले रोज सुबह हमें बस पकड़वाने के लिए कुरांव छोडऩे आए तो वहां के बुजुर्ग पत्रकार चंद्रमा प्रसाद त्रिपाठी के घर ले गए। चंद्रमा प्रसाद जी पेशे से पत्रकार और स्वभाव से क्रांतिकारी थे। उन्होंने हमें राजा मांडा चैरिटेबल ट्रस्ट और राजा डैया चैरिटेबल ट्रस्ट की और तमाम जानकारियां दीं तथा सबूत भी। बाद में हम थाने गए जहां के थानेदार ने किसान सभा के तीन किसानों के मरने को सामान्य दुर्घटना करार दिया था और पूरे उस कस्बे में कोई हमें यह बताने वाला नहीं मिला कि वे तीन किसान क्यों मारे गए। हम वापस इलाहाबाद आए और वहां से ट्रेन पकड़कर कानपुर। महीने भर बाद मेरी विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन बंबई से छपने वाले साप्ताहिक करंट में छपी पर वह रिपोर्ट पढऩे के लिए हिंचलाल विद्यार्थी जीवित नहीं रहे थे। पता चला कि उन्हें कुछ दादुओं ने सोते वक्त मार दिया था।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

पत्रकारिता का वह जज्बा!

पत्रकारिता का वह जज्बा!
शंभूनाथ शुक्ल
(यह कोई बहबूदी के लिए लिखी जा रही यादें नहीं हैं बल्कि ये उस जमाने की यादें हैं जब हिंदी पत्रकारिता एक करवट ले रही थी। तब पत्रकारों के अंदर जोश था जोखिम की पत्रकारिता का करने का। तब साइंस ने इतनी तरक्की नहीं की थी। संचार सेवाएं नहीं थीं और न ही आज की जैसी सुगम ट्रांसपोर्ट सेवाएं। पत्रकारिता तब वाकई बहुत कष्टसाध्य काम था। और रिपोर्टिंग तो और भी जोखिम भरा काम खासकर तब और जब आप को दूर-दराज के गांवों में जाकर रिपोर्टिंग करनी हो। कोई सुरक्षा नहीं और कोई मदद नहीं। ऐसे ही समय की एक याद।)
यह उन दिनों की बात है जब यूपी में बाबू बनारसी दास की सरकार थी। जोड़तोड़ कर बनाई गई इस सरकार का कोई धनीधोरी नहीं था। बाबू बनारसीदास यूं तो वेस्टर्न यूपी के थे पर वे चौधरी चरण सिंह की बजाय चंद्रभानु गुप्ता के करीबी हुआ करते थे। सरकार चूंकि कई नेताओं की मिलीजुली थी इसिलए भले चंद्रभानु गुप्ता अपना सीएम तो बनवा ले गए मगर चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा ने उनको घेर रखा था। इस सरकार के डिप्टी सीएम नारायण सिंह बहुगुणा जी के आदमी थे। उन पर चौधरी चरण सिंह का भी वरद हस्त था। तब कांग्रेस के भीतर मांडा के पूर्व राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का कद बढ़ रहा था मगर उनके भाई-बंधु अपने इलाकों में कहर ढाए थे। ऐसे ही समय हमें सूचना मिली कि इलाहाबाद के दूर देहाती इलाके में तरांव के जंगलों में तीन किसानों को मार दिया गया है। कानपुर में तब मैं फ्रीलांसिंग करता था इसलिए मैने और दो अन्य मित्रों ने ठान लिया कि हम रीवा सीमा से सटे उस तरांव गांव में जाएंगे। मगर किसी अखबार ने यह खबर नहीं छापी थी और तब नेट का जमाना नहीं था इसलिए यह अनाम-सा तरांव गांव, किसान सभा और उन किसानों के बाबत पता करने में बड़ी मुश्किलें आईं। बस इतना पता चला कि किसान सभा कम्युनिस्टों का संगठन है। इसलिए हमने इलाहाबाद शहर जाकर पहले तो भाकपा की स्थानीय इकाई के दफ्तर में जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि किसान सभा माकपा का संगठन है। फिर हम माकपा के जिला सचिव जगदीश अवस्थी से मिले, जो वहां पर जिला अदालत में वकील थे। उन्होंने बताया कि तरांव की जानकारी तो उन्हें भी नहीं है पर यह मेजा रोड के पास कुरांव थाने की घटना है। उन्होने मेजा रोड के एक कामरेड का नाम दिया और कहा कि वे आगे की जानकारी देंगे। हम मेजा रोड जाकर उन कामरेड से मिल। वे वहां पर बस स्टैंड के सामने मोची का काम करते थे। उन्होंने बताया कि हमारे तहसील सचिव तो आज लखनऊ गए हैं लेकिन आप कुरांव चले जाएं और वहां पर रामकली चाय वाली हमारी कामरेड है, उसे जानकारी होगी।
शाम गहराने लगी थी और इलाका सूनसान जंगलों और पत्थरों से भरा। हम वहां किसी को जानते भी नहीं थे। मगर हमारे अंदर इस अचर्चित घटना को कवर करने की इतनी प्रबल इच्छा थी कि हम सारे जोखिम मोल लेने को तैयार थे। हम फिर बस पर चढ़े और करीब नौ बजे रात जाकर पहुंचे कुरांव कस्बे में। कस्बे में सन्नाटा था और बस अड्डे पर दो-चार सवारियों के अलावा और कोई नहीं। किससे पूछें, समझ नहीं आ रहा था। हमने बस के ड्राइवर व कंडक्टर से रामकली चाय वाले के बारे में पूछा तो बोले आप आगे जाकर पता कर लो। हम बस अडडे की तरफ आने वाली गली में आगे बढ़े। तीन-चार चाय की दूकानें मिलीं तो पर रामकली चायवाली का पता नहीं चला। फिर काफी दूर जाने पर एक दूकान पर एक औरत चाय बना रही थी और अंदर कुछ लोग चाय पी रहे थे। हमने उसी से पूछा कि रामकली जी आप ही हो तो वह गुस्साए स्वर में बोली- कउन रामकली हियाँ कउनो रामकली नाहिन आय। हम आगे बढ़े तो वह फुसफुसा कर बोली अंदर बइठो। हमारे पास चाय आ गई। हमने चाय पी। तब तक अंदर बैठे लोग चले गए तो वह हमारे पास आई और धीमी आवाज में कहने लगी कि हियाँ से दक्खिन की तरफ जाव। चांद रात है निकल जाओ डेढ़ कोस है तरांव। मरते क्या न करते हम चल पड़े। लेकिन इस बात का अहसास हो गया कि यहां जमींदारों व बड़े किसानों का आतंक है। ये दादू टाइप लोग सबको दबा कर रखते हैं। हम गांव की उस कच्ची सड़क पर चल दिए। अभी कोई आधा किलोमीटर निकले होंगे तो पीछे से आवाज आई- अरे बाबू लोगव रुकौ आय रहै हन। पीछे मुड़कर देखा तो एकबारगी तो सनाका खा गए। पहलवान नुमा एक अधेड़ आदमी अपने एक हाथ में लालटेन पकड़े और दूसरे में लाठी लिए लगभग भागते हुए हमारी तरफ आ रहा था। हमें लगा कि वह हमें मारने ही आ रहा होगा। पर वह हमारे पास आकर बोला- साहब हम लोगन का बड़ा बुरा लगा कि आप लोग शहर ते हमरी खातिर आए हव और हम लोग आपकी खातिरदारी तो दूर जंगल मां अकेले भेज दीन। हियां तेंदुआ तो लगतै है ऊपर से ईं ससुर राजा लोग हमार जीना दूभर किए हैं। उसका इशारा वीपी सिंह की मांडा और डैया रजवाड़े की तरफ था। हम समझ गए कि समझ गए कि यहां पर दबंगों को भी हमारे आने की सूचना मिल गई है।
करीब घंटे भर उसी ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते, जिसे वहां के लोग बटहा बोलते हैं, पर चलने के बाद हम एक पगडंडी की तरफ मुड़ गए। थोड़ी ही दूर पर कुछ घास-फूस के घर नजर आने लगे। पता चला कि यही तरांव है। उस पहलवान ने हमें वहां कामरेड हिंचलाल विद्यार्थी से मिलवाया और उन्हें बताया कि ईं बाबू लोग आपसे मिलंय के लिए इलाहाबाद से आए हैं। हिंचलाल ने हमारा परिचय पूछा और परिचय पत्र मांगा। हमारे एक साथी बलराम जो तब कानपुर के आज अखबार में रिपोर्टर थे, के पास बाकायदा आज का कार्ड था, वही उन्हें दिखाया गया तो वे हमें अपने उस झोपड़ेनुमा घर के अंदर ले गए। जिसमें दो कच्चे कमरे बने हुए थे। हमारे कमरे के आधे हिस्से में उनकी पत्नी हमारे लिए दाल-चावल बनाने लगीं और बाकी के आधे हिस्से में हिंचलाल हमें किसानों की हत्या के बारे में बताने लगे। कामरेड हिंचलाल ने जो बताया वह आंखें खोल देने वाला था। दरअसल मांडा और डैया रजवाड़ों की जमीनें बचाने के लिए वीपी सिंह और उनके भाइयों ने ट्रस्ट बना रखे थे।

(बाकी का कल)

सोमवार, 7 सितंबर 2015

नेपाल यात्रा-1

एक पराये देश में
शंभूनाथ शुक्ल
मैं उस दुर्लभ प्रजाति का प्राणी हूं जो घूमने जाने के पहले दस बार बजट बनाता है और सबसे सस्ते वाहन से जाने की कोशिश करता है। मसलन हवाई यात्रा की तो सोचना मुश्किल है और रेलवे में भी थर्ड क्लास की यात्रा करता रहा हूं और आज भी करता हूं। हालांकि आज थर्ड क्लास का मतलब एसी थर्ड हो गया है और वह लगभग वैसा ही है जैसा कि पहले थर्ड शयनयान होता था जिसे अब स्लीपर क्लास कहा जाता है। ठहरने के लिए धर्मशालाएं अथवा गांधी आश्रम या सरकारी गेस्ट हाउस ढूंढ़ता हूं। अब अगर परिवार के साथ यात्रा करनी हो तो अपनी गाड़ी सबसे सस्ती और मजेदार साधन है। मैने एक बार तो अपनी पहली विदेश यात्रा, सिक्किम यात्रा, निजी वाहन से की थी और फिर नेपाल यात्रा भी अब सोचता हूं कि भूटान भी घूम आया जाए। खाते में तीन विदेश यात्राएं दर्ज हो जाएंगी। मैं कभी सरकारी खर्चे से यात्राएं करना पसंद नहीं करता और न ही पीएम-सीएम या किसी डेलीगेशन के साथ जाना क्योंकि पीएम-सीएम के साथ जाकर आप सिवाय सेल्फी खींचने के और कुछ न तो देख पाते हैं न एन्जॉय कर पाते हैं। सिक्किम यात्रा की तो ज्यादातर बातें विस्मृत हो गई हैं पर 2012 की नेपाल यात्रा जस की तस याद है। गर्मियां शुरू होने के थोड़ा पहले मैं, मलकिनी, बेटी और दामाद तथा नाती-नातिन चले नेपाल घूमने। हमारे एक मित्र और एक समाचार पत्र समूह के गोरखपुर स्थित संपादक ने सुझाव दिया कि सर आप काहे परेशान हैं। यहां नौतनवां के करीब भैरहवां से फ्लाइट लें और सीधे काठमाडौं उतरें। मैं तो अक्सर अपने परिवार के साथ पशुपतिनाथ हवाई जहाज से ही जाया करता हूं। पर किराया सुनकर होश उड़ गए और मैने कहा कि हो सकता है कि आपकी हवाई यात्रा का खर्च गोरखपुर मठ के आपके सजातीय महंत उठाते हों पर मुझे तो अपने ही खर्च से जाना है इसलिए मैं अपनी इनोवा गाड़ी से ही जाऊँगा। तब वह नई-नई थी इसलिए इच्छा भी थी कि कोई लांग ड्राइव पर निकला जाए। पहले तो इस पर खूब माथापच्ची की गई कि नेपाल में एंट्री किस प्वाइंट से ली जाए। तय हुआ कि बजाय गोरखपुर से जाने के हम वाया बलराम पुर बढऩी बार्डर से नेपाल में घुसेंगे। इस बहाने श्रावस्ती घूमने का मौका मिला और वहां पर सहेट-महेट व बुद्घ मंदिर देखा। बढऩी सीमा पर सीमा सुरक्षा बल तैनात रहती है। वहां जाकर भन्सार लिया चार दिनों का। सीमा सुरक्षा बल वाले हमें नेपाल पुलिस की चौकी तक भेज आए। 
वहां पर हमें अपनी गाड़ी का नया नंबर मिला हरे रंग की एक नंबर प्लेट पर देवनागरी में नंबर लिखा था। मुझे कहा गया कि अब मैं यह नंबर प्लेट लगवाऊं। दोपहर ढल चुकी थी और अनजाना देश सो मैने वह नंबर प्लेट गाड़ी में यथा स्थान फिट करने के उसे आगे के शीशे के वाइपर के नीच दबा लिया और गाड़ी बढ़ा दी। मील भर आगे बढ़ते ही मुझे लगा कि यह वाकई पराया देश है। सड़क ऐसी दिख रही थी मानों एक बहुत लंबा और ऊँचा-सा चबूतरा बना दिया गया हो जिसका ओर-छोर नहीं दिख रहा था। चबूतरे के नीचे दूकानें जिनमें बाहर एक जाली में तली हुई मछलियां लटका दी गई थीं। दोपहर ढल चुकी थी और हमें चाय की तलब थी इसलिए एक जगह गाड़ी सड़क से उतार कर मैने त्रिपाठी टी स्टाल पर रोकी। चाय का आर्डर देने पर उसने अनुसनी की और कुछ देर बाद रूखे अंदाज में बोला अभी टाइम लगेगा। कुछ बिस्किट वगैरह मांगने पर बोला यही मछलियां मिलेंगी बस और कुछ नहीं। पता लगा कि नेपाल में चाय की बजाय एक लोकल स्तर का नशीला पेय पिया जाता है। हम वहां से निकल लिए। काफी आगे चलने पर एक कस्बा मिला जहां हमें एक पुलिस वाले ने रोका और बताया कि यहां पर गाड़ी के कागज चेक कराने होंगे और एंट्री दर्ज करानी होगी। यह भैरहवा चौराहा था जहां से एक रोड पोखरा जाती थी, दूसरी नौतनवां, तीसरी नारायणपुर और चौथी जिससे हम आ रहे थे। इसी कस्बे से कुछ पानी की बोतलें खरीदी गईं तथा बिस्किट व फल भी। यहां से आगे का रास्ता खूब चढ़ाई वाली पर सड़क बेहतरीन। इसलिए थकान महसूस नहीं हुई। पता चला कि यह सड़क चीन ने बनवाई है। जगह-जगह पर माओवादी लड़के टैक्स लेते और ऐतराज करने पर नेपाली में हड़काते। जब मैने कहा कि मुझे नेपाली नहीं आती तो एक गुर्राया- नेपाली नहीं आती तो यहां क्या करने आए हो? पहली बार पता चला कि नेपाल को लेकर हमारे अंदर कितने भरम हैं। वे हमें कतई बड़ा भाई या संरक्षक नहीं मानते उलटे वे अपनी तकलीफों की वजह भारत को ही मानते हैं। ऐसे तमाम दादूनुमा टोल टैक्स देने के बाद शाम करीब साढ़े छह बजे हम पहुंचे नारायण पुर। यह एक अच्छा और संपन्न कस्बा लगा। मारवाड़ी व्यापारी यहां छाये हुए हैं। जिस मारवाड़ी व्यापारी के होटल में मैं यह सोचकर रुका कि मारवाड़ी होटल है तो शाकाहारी तो होगा ही। पर पता चला कि शाकाहारी खाने के लिए शहर में कृष्णा मिष्ठान्न भंडार में जाना पड़ेगा। यह पहली बार पता चला कि मारवाड़ी व्यापारी पहले होते हैं। जैसा देश वैसा भेष। यहां यह भी पता चला कि नेपाल के आठ रुपये हमारे पांच रुपये के बराबर होते हैं इसलिए होटल में ठहरने के पूर्व उसका टैरिफ पूछ लें और जान लें कि वह टैरिफ नेपाली करेंसी में बता रहा है या इंडियन करेंसी में सुबह नाश्ते के बाद हम निकले आगे की ओर। 
दोपहर के करीब हम मनकामनेश्वरी देवी के मंदिर में पहुंचे। यहां की देवी की मान्यता का अंदाज तो मुझे नहीं था पर जब यह बताया गया कि यह सबसे ऊँचा रोप वे है तो इस पर सवार होने की उत्कंठा जागी। आवाजाही का किराया था चार सौ नेपाली रुपये यानी भारतीय मुद्रा ढाई सौ रुपये। हम इस रोप वे पर सवार होकर मनकामनेश्वरी मंदिर गए। मंदिर आम भारतीय मंदिरों जैसा ही था। गंदगी और ताजे बकरे का खून मंदिर के प्रांगण को गीला कर रहा था। हमने मंदिर के मुख्य द्वार से ही विग्रह के दर्शन किए और वापस लौट आए तथा निकल पड़े काठमांडौ की ओर। पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी चलाते हम शाम सात के करीब राजधानी काठमांडौ पहुंचे। शहर की शुरुआत से ही दलाल घेरने लगे। मगर हमने शहर जाकर कई होटल तलाशे और आखिर में एक सामान्य-सा होटल लिया। प्रति कमरे का किराया 1500 रुपये था। वह, भी नेपाली मुद्रा में। वहां खाना भी बेहतर था और कमरे में एसी जरूर लगा था पर नेपाल की राजधानी में बिजली की भारी किल्लत थी और होटल वाले ने पहले ही बता दिया था कि जेनरेटर नहीं है। इसलिए उमस भरी गर्मी में रात गुजारनी मुश्किल हो गई।

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

जस यूपी और बिहार मिले

जस यूपी और बिहार मिले
शंभूनाथ शुक्ल
यूपी और बिहार की एक जैसी पहचान है। आज भी है और कल भी थी। हालांकि दोनों के बीच भौगोलिक और ऐतिहासिक एकता कभी नहीं रही मगर राजनीतिक एकता अभूतपूर्व रही है। बंग भंग के पहले सासाराम तक का बिहार अवध सुल्तानेट में था और बाकी का हिस्सा बंगाल सुल्तानेट के अधीन। यूपी में भी दिल्ली जमनापार से लेकर इलाहाबाद संगम तक का पूरा दोआबा मुगल बादशाहों की खालसा जमीन थी और उनके सीधे नियंत्रण में रहा है। इसके अलावा रुहेलखंड और पहाड़ी राज्य अलग रहे हैं। पर दोनों के बीच लोगों का राजनीतिक चिंतन करीब-करीब एक-सा रहा है और इसकी वजह शायद दोनों ही राज्यों में समाज का बंटवारा सीधे-सीधे जाति के आधार पर बटा रहा है और दोनों ही जगह सामान्य जन-जीवन में सामंती जातियों का वर्चस्व का बना रहना है। मालूम हो कि दिल्ली में जब मुसलमानों  का खासकर तुर्कों का हमला हुआ तो राजपूत राजा पास के राजपूताना को छोड़कर बिहार चले गए और अपने साथ वे अपनी प्रजा भी ले गए। पुरोहितों के लिए उन्होंने काशी और कान्यकुब्ज इलाके के ब्राह्मणों को चुना। इस वजह से जाति की राजनीति लगभग वही है जो सेंट्रल और ईस्टर्न यूपी में है। यही कारण है कि दोनों ही राज्यों में पिछड़ा उभार लगभग एक ही समय का है। अस्सी का दशक दोनों के लिए महत्वपूर्ण बिंदु है और इसके लिए कुछ भी हो पर इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और प्रधानमंत्री रोजगार योजनाओं तथा ग्रामीणों को बैंक कर्जों का लाभ पिछड़ों के क्रीमी तबके खासकर यादव और कुर्मियों ने खूब उठाया। कुर्मियों के पास जमीन थी और अहीरों-गड़रियों के पास ढोर थे तथा काछी सब्जी बोने का काम करते थे। इन्हें अपनी उपज को बेचने के लिए शहरी बाजार मिले इससे इन जातियों के पास पैसा आया तब इनके अंदर इच्छा शक्ति पैदा हुई कि समाज के अंदर उन्हें वही रुतबा शामिल हो जो कथित ऊँची जातियों को हासिल थी पर इसके लिए उन्हें अपने रोबिनहुड चाहिए थी ताकि उनकी छवि एक दबी-कुचली जाति के रूप में नहीं बल्कि दबंग, ताकतवर और रौबदाब वाली जाति के रूप में उभरे।
यह वही दौर था जब अहीरों ने अपनी लाठियां भाँजीं। मगर अगड़ों ने पुलिस की मदद से उन्हें जेल में डलवाया और आंखफोड़ो जैसे कारनामे करवाए। मुझे याद है कि साल 1980 में जब मैं भागलपुर आंखफोड़ो कांड कवर करने गया था तब यह जानकर दंग रह गया कि जिन लोगों की आंखें फोड़ी गईं वे सब के सब पिछड़ी जातियों के, खासकर यादव जातियों से थे। सवर्ण शहरी पत्रकार और बौद्घिक वर्ग इसकी निंदा ता कर रहा था पर किसी ने भी तह तक जाने की कोशिश नहीं की यह एक पुलिसिया हरकत थी जो अगड़ों के इशारे पर पिछड़ा उभार को दबाने के प्रयास में की गई थी। मुझे याद है कि जिन पुलिस इंसपेक्टरों को इस कांड में घेरा गया था वे सब के सब अगड़ी जातियों के ही थे। पर अत्याचार एक नए किस्म के प्रतिरोध को जन्म देता है। वही यहां भी हुआ और धीरे-धीरे पिछड़ों की एकता बढ़ती गई मगर दलितों की तरह वे मार्क्सवादी पार्टियों की ओर नहीं गए। भाकपा (माले) के कामरेड विनोद मिश्रा की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछड़े उनके साथ नहीं गए और उनका आधार वही ब्राह्मण व अन्य अगड़े व दलित ही रहे जिनका बड़ा तबका कांग्रेस में था। मगर कांग्रेस को बहुमत में लाती थी उस पार्टी को मुसलमानों का एकतरफा सपोर्ट। यहां मुसलमान नहीं था और ब्राहमणों व अन्य अगड़ों का एक छोटा तबका ही था। पिछड़ी जातियां अपने ही किसी सजातीय दबंग नेता का इंतजार कर रही थीं। उन्हें सौम्य नेता नहीं चाहिए था बल्कि एक ऐसा नेता चाहिए था जो सार्वजनिक तौर पर अगड़ी अभिजात्यता को चुनौती दे सके। यह वह दौर था जब यूपी और बिहार में क्रमश दो यादव नेता मिले। यूपी में थोड़ा पहले और बिहार में कुछ बाद में। एक लोहिया का शिष्य दूसरा जेपी आंदोलन से उपजा पर दोनों ही लाठियों के मजबूत।
ऐसे ही दिनों में मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के गांवों का कवरेज का मौका मिला। तब मैने पाया कि मध्य उत्तर प्रदेश की मध्यवर्ती जातियों के कुछ नए नायक उभर रहे थे। ये नायक उस क्षेत्र के डकैत थे। अगड़ी जातियों के ज्यादातर डकैत आत्म समर्पण कर चुके थे। अब गंगा यमुना के दोआबे में छविराम यादव, अनार सिंह यादव, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह और मुस्तकीम का राज था। महिला डकैतों की एक नई फौज आ रही थी जिसमें कुसुमा नाइन व फूलन प्रमुख थीं। छविराम और अनार सिंह का एटा व मैनपुरी के जंगलों में राज था तो विक्रम, मलखान व फूलन का यमुना व चंबल के बीहड़ों में। मुस्तकीम कानपुर के देहाती क्षेत्रों में सेंगुर के जंगलों में डेरा डाले था। ये सारे डकैत मध्यवर्ती जातियों के थे। और सब के सब गांवों में पुराने जमींदारों खासकर राजपूतों और चौधरी ब्राह्मïणों के सताए हुए थे।
उस समय वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे। यह उनके लिए चुनौती थी। एक तरफ उनके सजातीय लोगों का दबाव और दूसरी तरफ गांवों में इन डाकुओं को उनकी जातियों का मिलता समर्थन। वीपी सिंह तय नहीं कर पा रहे थे। यह मध्य उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों के पराभव का काल था। गांवों पर राज किसका चलेगा। यादव, कुर्मी और लोध जैसी जातियां गांवों में चले सुधार कार्यक्रमों और सामुदायिक विकास योजनाओं तथा गांंव तक फैलती सड़कों व ट्रांसपोर्ट सुलभ हो जाने के कारण संपन्न हो रही थीं। शहरों में दूध और खोए की बढ़ती मांग ने अहीरों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया था। यूं भी अहीर ज्यादातर हाई वे या शहर के पास स्थित गांवों में ही बसते थे। लाठी से मजबूत वे थे ही ऐसे में वे गांवों में सामंती जातियों से दबकर क्यों रहें। उनके उभार ने उन्हें कई राजनेता भी दिए। यूपी में चंद्रजीत यादव या रामनरेश यादव इन जातियों से भले रहे हों लेकिन अहीरों को नायक मुलायम सिंह के रूप में मिले। इसी तरह कुर्मी नरेंद्र सिंह के साथ जुड़े व लोधों के नेता स्वामी प्रसाद बने। लेकिन इनमें से मुलायम सिंह के सिवाय किसी में भी न तो ऊर्जा थी और न ही चातुर्य। मुलायम सिंह को अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा घृणा मिली लेकिन उतनी ही उन्हें यादवों व मुसलमानों में प्रतिष्ठा भी।

बुधवार, 26 अगस्त 2015

हिंदी सीखने के लिए अपने पिता से विद्रोह करना पड़ा था आचार्य रामचंद्र शुक्ल को !

हिंदी सीखने के लिए अपने पिता से विद्रोह करना पड़ा था आचार्य रामचंद्र शुक्ल को !
शंभूनाथ शुक्ल
हिंदी के प्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल को बचपन में हिंदी या संस्कृत पढऩे की घोर मनाही थी। उनके पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल राठ (तब जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश) के सुपरवाइजर कानूनगो थे और फारसी के उद्भट विद्वान। पंडित चंद्रबली शुक्ल की वेशभूषा और जबान किसी मौलवी से कमतर नहीं थी। पंडित जी की काली घनी दाढ़ी, गोल मोहरी के पायजामे, पट्टेदार बालों तथा अल्पाके की शेरवानी तक ही बात न थी बल्कि उनकी जबान भी सर सैयद की जबान थी। जब उन्हें पता चला कि उनका बड़ा बेटा रामचंद्र हिंदी मिडिल का इम्तहान देगा तो उन्होंने दांत चबाते हुए बेटे को झाड़ लगाई- "कम्बख्त, बज्जात, बदतमीज, बदबख्त, नामाकूल, नालायक हिंदी पढ़ेगा। पुरखों का नाम डुबोएगा?" उन्हें क्या पता था कि आगे चलकर यह बालक हिंदी का इतना बड़ा आचार्य बनेगा।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के पुरखे गोरखपुर के भेड़ी नामक गांव के थे। लेकिन रामचंद्र शुक्ल जी के दादा की अल्पायु में मृत्यु हो गई इसलिए उनकी दादी अपने अल्पवयस्क बालक को लेकर बस्ती जिले के अगौना नामक स्थान में आ बसीं। यहां उनको नगर के राजपरिवार की तरफ से यथेष्ट भूमि मिली हुई थी। पंडित रामचंद्र शुक्ल की माता गाना के पुनीत मिश्र घराने की कन्या थीं। इसी गाना के मिश्र घराने के भक्त-शिरोमणि महाकवि तुलसीदास भी थे। इस तरह तुलसीदास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मातुल वंश से थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जब एंट्रेस कर चुके तो इनके पिता पंडित चंद्र बली शुक्ल, जो तब मिर्जापुर में सदर तहसीलदार थे, ने कलेक्टर मिस्टर बिंडहम से कहकर रामचंद्र के लिए नायब तहसीलदार की पैरवी करा ली। मगर इसके लिए कलेक्टर के बंगले पर जाना पड़ता और वहां उसकी जी-हुजूरी जरूरी थी। युवक रामचंद्र कलेक्टर के बंगले पर गए तो लेकिन जोहार नहीं की और घर लौटकर इलाहाबाद के अंग्रेजी पत्र हिंदुस्तान रिव्यू में एक लेख लिखा- व्हाट हैज इंडिया टू डू। लेख मिस्टर बिंडहम के हाथों पड़ गया। वह इतना चिढ़ा कि युवक रामचंद्र शुक्ल को नालायक कहते हुए नायब तहसीलदारी के लिए इनका नामिनेशन रद्द कर दिया। अच्छा हुआ अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल नायब तहसीलदार बनकर एसडीएम के पद से रिटायर भी हो जाते तो भले वे रायबहादुरी पा जाते लेकिन हिंदी जगत अपना हीरा खो देता।
आचार्य शुक्ल की शुरुआती शिक्षा भले हमीरपुर के राठ कस्बे से शुरू हुई हो पर बाद में उनके पिता जी का तबादला मिर्जापुर हो गया तो परिवार मिर्जापुर आ कर बस गया। मिर्जापुर प्रकृति की अनुपम क्रीड़ा स्थली है। प्रकृति की इस विविधता का असर शुक्ल जी पर भी पड़ा और उनकी कल्पना की उड़ान मुखर हुई। साहित्य के प्रति अनुराग शुक्ल जी को मिर्जापुर की विविधता भरी प्रकृति से ही हुआ। मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले मिर्जापुर की साहित्य मंडली ने उन्हें वहां बुलाकर उनका अभिनंदन किया तो उस समारोह में शुक्ल जी की वाणी से जो अनुपम शब्द फूटे वे यूं थे-
यद्यपि मैं काशी में रहता हूं और लोगों का यह विश्वास है कि वहां मरने से मुक्ति मिलती है तथापि मेरी हार्दिक इच्छा तो यही है जब मेरे प्राण निकलें तब मेरे सामने मिर्जापुर का यही भूखंड रहे। मैं यहां के एक-एक नाले से परिचित हूं- यहां की नदियों, नालों, काँटों और पत्थरों तथा जंगली पौधों में एक-एक को मैं जानता हूं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पुत्र पंडित केशव चंद्र शुक्ल ने अपने संस्मरणों में आचार्य जी के बारे में वर्णन करते हुए लिखा है-
मिर्जापुर की जिस रमईपट्टी में इनके पिता रहते थे, उसके सौंदर्य का संकेत हृदय का मधुर भार शीर्षक कविता में पंडित रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं किया है। हरे-भरे खेतों के बीच लाल खपरैल के सँवारे धान इसी रमईपट्टी के लिए आया है। रमईपट्टी के जिस छोर पर इनके पिता ने आवास बनाया, उस ओर कुल चार-पांच मकान पहले से बने हुए थे। उनमें पंडित विंध्येश्वरी प्रसाद तथा बाबू बलभद्र सिंह डिप्टी कलेक्टर के नाम उल्लेखनीय हैं। बाबू बलभद्र सिंह आगरे के क्षत्रिय थे। पुरानी संस्कृति के वे अनुमोदक मात्र ही नहीं उसके अनन्य उपासक भी थे। उनके यहां सदा रामायण, महाभारत, श्रीमद भागवत पुराण आदि का पाठ होता रहता था। तीस-चालीस सुनने वाले एकत्रित होते थे। उधर पंडित विंध्वेश्वरी प्रसाद के घर पर संस्कृत का वास था। नित्य बहुत-से विद्यार्थी माघ, कालिदास, भवभूति आदि महाकवियों की कृतियों का अध्ययन करने आया करते थे। पंडित जी प्राय: संध्या के समय अपने विद्यार्थियों को लेकर पर्वतों की ओर निकल जाया करते थे, जो कि वहां से दो-तीन मील दूरी पर था। अथवा किसी निर्जन स्थान में जाकर किसी सरोवर या नदी-नाले के किनारे स्वछंद समय व्यतीत करते तथा मग्न होकर अत्यंत सुमधुर स्वर से कालिदास, भवभूति आदि के श्लोक पढ़ते। कुछ बढऩे पर पंडित रामचंद्र शुक्ल भी विद्यार्थियों में मिलकर प्रकृति के इस भावुक पुजारी के साथ घूमने के लिए निकलने लगे।
मिर्जापुर पहुंचते ही उनकी अंग्रेजी शिक्षा शुरू हो गई। फारसी की ओर भी उनके पिता का ध्यान पूर्ववत रहा। इन्हें पढ़ाने के लिए एक मौलवी साहब घर पर आते थे। उन दिनों पंडित रामगरीब चौबे अंग्रेजी के असाधारण लेखक वहीं पर रहते थे। सर विलियम क्रुक्स की हिल टाइब्स एंड कास्ट्स नामक पुस्तक निकल रही थी। पंडित रामगरीब चौबे उसे लिखते जाते और क्रुक्स साहब उसे थोड़ा संशोधित कर उसे छपाते जाते। उनके द्वारा जो प्रोत्साहन पंडित रामचंद्र शुक्ल को अपने अंग्रेजी अध्ययन में मिला उसे शुक्ल जी आजीवन मानते रहे। इसी तरह शुक्ल जी के हिंदी अध्यापक पंडित वागीश्वरी जी का उल्लेख करते हुए आचार्य शुक्ल के पुत्र केशव बाबू ने लिखा है कि वे बड़े विनोदप्रिय थे। उनकी भी शिष्यमंडली घूमने निकलती इस प्रकार राठ से एकदम भिन्न माहौल आचार्य जी को मिर्जापुर में मिला। इसी बीच पंडित रामचंद्र शुक्ल जब कुल 11 वर्ष के थे तब ही इनके विधुर पिता की दूसरी शादी हो गई और घर में विमाता आ गई। मगर चूंकि घर पर दादी की ही चलती थी इसलिए विमाता का कोई भी असर बालक रामचंद्र शुक्ल पर नहीं पड़ा। लेकिन अगले ही साल 12 साल की उम्र में उस समय की रीति के अनुसार रामचंद्र शुक्ल का भी विवाह हो गया। तीन साल बाद रामचंद्र शुक्ल की पत्नी गौने के बाद ससुराल आईं। पर तब तक दादी का निधन हो चुका था और विमाता का शासन इन्हें और इनके सहोदर भ्राताओं को नागवार गुजरने लगा।

कई बार तो ये विमाता की कलह के कारण अपने पुश्तैनी गांव अगौना जिला बस्ती भाग जाने का विचार करने लगे। किसी प्रकार गृह कलह जब शांत हुआ तो दसवीं पास करने के बाद ये इलाहबाद जाकर पढऩे का उपक्रम करने लगे पर इनके पिता चाहते थे कि युवक रामचंद्र कचेहरी जाकर काम सीखे। एक साल तक द्वंद चला अंत में इनके पिता ने इन्हें वकालत पढ़ाने के उद्देश्य से प्रयाग भेजा। लेकिन इनकी रुचि वकालत में कतई नहीं थी इसलिए वहां पर ये अनुत्तीर्ण रहे और मिर्जापुर लौट आए। इस बीच इनके पिता में भी कई बदलाव आ गए थे और वे फारसी छोड़ हिंदी की तरफ खिंचे। इसका असर इन पर भी पड़ा और युवक रामचंद्र हिंदी में भी लिखने लगे। इस तरह हम देखते हैं कि तमाम संघर्षों और जद्दोजहद के बीच हिंदी का यह प्रथम आचार्य हिंदी की शिक्षा पा पाया।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

'मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान!'

'मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।'
हिंदी साहित्य सम्मेलन 1914 में लखनऊ में हुआ। और उसी मौके पर दशहरा और मोहर्रम एक साथ पड़ गए। हिंदू-मुसलमान दोनों ने ही इसे परस्पर भाईचारे को जताने का एक अवसर समझा और दोनों त्योहार अपने-अपने तरीकों से मनाए गए। मोहर्रम के जुलूस भी निकले और मातम भी मना तथा रावण भी फुँका व दशहरे का मेला भी संपन्न हुआ। ऐसे में हिंदी-उर्दू साहित्यकारों व लेखकों को भी परस्पर सौहार्द दिखाने का भी अवसर मिला। इसी मौके पर लखनऊ चौक में दो लोग टकराए। इनमें से एक थे 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और 'प्रभा' के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ एक भारतीय आत्मा। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। आपस में सलाम-बंदगी हुई। गणेश जी उसी समय 'एक भारतीय आत्मा' को कानपुर खींच ले गए और बाद में स्वयं गणेश जी भी एक भारतीय आत्मा के आवास खंडवा शहर आने-जाने लगे। इस आवाजाही में गणेश जी एक भारतीय आत्मा की छुपा कर रखी गई कविताएं उठा लाते और प्रताप में छापते। यह प्रताप का ही प्रताप था कि माखनलाल जी की किशोर अवस्था में लिखी यह कविता हिंदी जगत को मिली-
"जायगो हमारो धनधाम लुटि दूर देश
कोई नहीं चलिबे को मारग बतायगो
तायगो हरेक बलवान बनि, दीनन को
हीनन को मानहु खजानो दिखलायगो"
यह तो उनकी किशोर अवस्था की कविता थी। मगर लखनऊ से लौटकर एक भारतीय आत्मा जब खंडवा आए तो प्रभा के लिए उन्होंने लखनऊ सम्मेलन को आधार बनाकर एक कविता लिखी-
"मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होवें आपस में कुर्बान॥"
एक भारतीय आत्मा को जब कर्मवीर से हटाया गया तो फिर गणेश जी उन्हें प्रताप में ले आए। यहां उन्होंने एक कविता लिखी-
"भला किया, जो इस उपवन के सारे पुष्प तोड़ डाले।
भला किया, मीठे फल वाले ये तरुवर मरोड़ डाले॥
भला किया, सींचो पनपाओ, लगा चुके हो जो कलमें।
भला किया, दुनिया पलटा दी, प्रबल उमंगों के बल में॥
लो, हम तो चल दिए, नए पौधो, प्यारो आराम करो।
दो दिन की दुनिया में आए, हिलो-मिलो कुछ काम करो॥"
इसी बीच फतेहपुर में एक राजद्रोही भाषण देने के आरोप में गणेश जी जेल भेज दिए गए। तब गणेश जी ने एक भारतीय आत्मा को कहा कि प्रताप के संपादन की पूरी जिम्मेदारी उनकी अनुपस्थित में वही संभालें। उन्होंने गणेश जी की आज्ञा मानी। और प्रताप का 'झंडा अंक' माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में ही निकला। पर जैसे ही जेल से गणेश जी वापस आए एक भारतीय आत्मा की आत्मा भटकने लगी और एक दिन गणेश जी से कहा कि कानपुर में उनका मन नहीं लगता क्योंकि कहां कानपुर का रूखा मौसम और कहां खंडवा की विविधता। गणेश जी ने उन्हें बहुत रोका पर वे चले गए।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मलेरिया गाथा

आज की तारीख में लोग बस संकीर्ण सोच में डूबते-उतराते रहते हैं जबकि असल समस्या औसत भारतीयों के स्वास्थ्य को लेकर है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य, जानेमाने एफआरसीएस और अन्य तमाम तमगाचार्य तथा योगाचार्य मधुमेह, रक्तचाप, हृदयाघात और कैंसर तथा यकृत की बीमारियों का इलाज तलाश लेने का दावा करते हैं। पर क्या आप लोगों को पता है कि आज भी भारत में सबसे अधिक मौतें मलेरिया से होती हैं। जी हां यह विश्व की जानीमानी मेडिकल जरनल का आंकड़ा है। मलेरिया भगाने के खूब दावे किए गए पर 1962 से 1967 का साल छोड़ दिया जाए तो मलेरिया के वीषाणु और भी भयानक रूप से प्रकट हो गए हैं। दिक्कत तो यह है कि मलेरिया का वीषाणु पकड़ में नहीं आता। आप लाख बड़ी-बड़ी लैब से परीक्षण कराएं पर यह वीषाणु ऐसा जुगाड़ू है कि अपने सोतीगंज वाले रहमान मियाँ भी उसके जुगाड़ के आगे फेल हैं। लाख दवा की और दुआ की मगर यह मलेरिया पैरासाइट कभी पकड़ में नहीं आता और जब इसका पता चलता है तो यह वीषाणु शरीर के किसी न किसी अंग को अपंग कर देता है। और मौत की वजह बताई जाती है हार्ट फेल्योर या बीपी का शूटआउट कर जाना अथवा सुगर का अचानक बढ़ जाना या पेट फूलना और शरीर का पीला पड़ते-पड़ते पीलिया की चपेट में आ जाना। सरकार को पहले सारे सरकारी अस्पतालों में मलेरिया विंग को सबसे मजबूत करना चाहिए और हरेक के लिए इसकी जांच फ्री करनी चाहिए तथा सख्ती से एक कानून पास करना चाहिए कि बुखार आते ही पहले सरकारी अस्पताल में सीवीएस, विडाल और एमपी चेक कराएं इसके बाद ही कोई एंटी बायोटिक्स का सेवन करें वर्ना यह एमपी यानी मलेरिया पैरासाइट आपके लीवर में छिप कर बैठ जाएगा फिर चाहे जहां ब्लड चेक कराएं इसका पकड़ा जाना मुमकिन नहीं। और लीवर में छिपकर यह आपके शरीर को कुतरने लगता है। इसलिए सरकार इस चोर को पकडऩे हेतु पहले की तरह ही मलेरिया इंस्पेक्टरों को घर-घर जाकर चौकसी करने का कानून पारित करे। इनकी पावर दिल्ली पुलिस के हवलदार से कम नहीं हो।

(2)
आमतौर पर प्राइवेट पैथलैब की मलेरिया टेस्टिंग में कोई रुचि नहीं होती। एक तो कुल तीन पैसे में हो जाने वाले इस टेस्ट में न तो पैथलैब को कमाई होती है न आपके सलाहकार चिकित्सक को कोई कमीशन दिया जा सकता। इसलिए प्राइवेट लैब अक्सर मलेरिया को टायफायड बता देंगी और टायफायड का इलाज मलेरिया का ठीक उलटा है। आप एंटीबायोटिक्स दवाएं खाते रहेंगे और मलेरिया का पैरासाइट आपके पेट में छिपकर लीवर कुतरता रहेगा। जब पता चलेगा तो डॉक्टर एलएफटी टेस्ट को बोलेगा। और लीवर सिरोसिस या लीवर एक्सपेंड का इलाज चलेगा और मलेरिया का पैरासाइट अपना काम करता रहेगा। अगर कुछ हो गया तो कुंदबुुुद्घि वाले सरकारी प्रचारक कह देंगे कि आदमी लीवर सिरोसिस अथवा बीपी शूटआउट होने से मरा। यह सरकारी तंत्र का फेल्योर है। सत्य यह है कि आज देश में न तो कैंसर कोई घातक रोग है न डायबिटिक न हार्ट प्राब्लम। समस्या मलेरिया की है। मलेरिया पैरासाइट पर नियंत्रण कर लिया तो काफी हद तक बीमारियां दूर हो जाएंगी। स्वच्छ भारत अभियान से ज्यादा जरूरी है मलेरिया मुक्त अभियान। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मलेरिया पर काबू पाया था। याद करिए वे दिन जब मलेरिया इंस्पेक्टर घर-घर आकर लाल खडिय़ा से आपके घर की पहचान दिखाता था कि घर में कितने लोगों को मलेरिया का टीका लग चुका है। मगर स्वास्थ्य सेवाओं को बिजनेस बना देने से सब ध्वस्त हो गया।

(3)

मलेरिया या कोई भी वायरल अगर आपको हो गया हो तो कृपया किसी भी प्राइवेट पैथालाजी लैब में टेस्ट न कराएं। किसी योग्य चिकित्सक से दवा लेने के पूर्व उससे अनुरोध करें कि आप मेरे ब्लड की स्लाइड बना दें। इसके बाद ही कोई बुखार खत्म करने वाली दवा अथवा एंटीबायोटिक्स ग्रहण करें। इसके बाद जब भी सुविधा हो आप अपनी यह ब्लड स्लाइड किसी सरकारी चिकित्सालय अथवा मलेरिया निरोधक केंद्र में भेजें। सीएमओ के पास मलेरिया विंग होता है और उसे यह ब्लड स्लाइड चेक करनी ही पड़ेंगी। आप चाहें तो एम्स या एनआईसीडी (राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान), शामनाथ मार्ग दिल्ली को सीधे जाकर दिखा आएं। वहां के टेक्नीशियन आधे घंटे में आपको मलेरिया की रिपोर्ट दे देंगे। लेकिन अगर इसके पूर्व आप किसी भिषगाचार्य, तमगाचार्य, योगाचार्य या एमडी अथवा एफआरसीएस के पल्ले पड़ गए तो समझो गई भैंस पानी में। मेरी राय कुछ कड़वी लगेगी मगर है सौ फीसदी पक्की। अगर प्राइवेट डाक्टर ब्लड स्लाइड बनाने से मना करे तो आप खुद अपने बाएं हाथ की अंगुली से खून निकालिए और स्लाइड में चार पांच जगह लगा दीजिए। बाद में जब वह सूख जाए तो जाएं सरकारी पैथ लैब में। ध्यान रखें कि किसी भी सरकारी अस्पताल में इसकी कोई फीस नहीं ली जाती।
एक बात और मलेरिया की दवा किसी प्राइवेट डाक्टर की सलाह पर लेने की बजाय किसी सरकारी चिकित्सक अथवा मलेरिया डॉक्टर या मलेरिया इंस्पेक्टर की सलाह पर ही लें। अब यह स्वस्थ रहने का नुस्खा मानों तो सही न मानों तो भुगतो।

बुधवार, 29 जुलाई 2015

Azeemullah Khaan

1857 के योद्घाओं में झांसी की रानी के समकक्ष एक नाम और है बेगम हजरतमहल का। जब नवाब वाजिदअली शाह को अंग्रेज कलकत्ता ले गए और नवाब ने चुपचाप हथियार डाल दिए तथा मय फौज-फाटा के अंग्रेजों की रहनुमाई में कलकत्ता चल दिए तो उनकी एक बेगम हजरत महल, जो किसी नवाब की बेटी या बहन नहीं थीं बल्कि वाजिदअली शाह के मुसाहिब उन्हें किसी गांव से उड़ा लाए थे, ने अंग्रेजों के विरुद्घ मोर्चा खोला। अपने 12 साल के बेटे बिरजिसकद्र को ताज पहना कर उन्होंने उसे अवध का बादशाह घोषित किया और तलवार उठा ली। बेगम ने लंबी लड़ाई लड़ी। बेगम गजलें भी लिखा करती थीं। उनकी एक गजल-
साथ दुनिया ने दिया और मुकद्दर ने न दिया
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया
एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए
जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया
जमीं की आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी
हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया
बिखर चला वो काफिला मकामे बौड़ी से
चाल दुश्मन की कुछ ऐसी, उभरने न दिया
जुल्म की आँधियाँ बढ़ती रहीं लम्हा-लम्हा
फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया

Mangal Pandey

अब हम कोई शोध तो करते नहीं सिर्फ भावनाओं के आधार पर अपने शहीदों को पूजते रहते हैं। मंगल पांडेय प्रथम स्वाधीनता संग्राम का एक ऐसा चितेरा था जिसे पूजा तो वर्षों से जा रहा है लेकिन उस पर शोध नहीं किया जा रहा। 1857 के रणबांकुरों पर हिंदी में सबसे उल्लेखनीय काम अमृतलाल नागर ने किया है। वे गांव-गांव घूमे और किंवदंती ही नहीं इतिहास भी खगाला। मंगल पांडेय के बारे में नागर जी अपनी मशहूर पुस्तक 'गदर के फूल' में लिखा है-
"श्री मंगल पांडेय का जन्म फैजाबाद जिले की अकबरपुर तहसील के सुरहुपुर नामक ग्राम में असाढ़ शुक्ल द्वितीया शुक्रवार संवत 1884 विक्रमी तदनुसार 19 जुलाई ईस्वी सन 1827 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री दिवाकर पांडेय था। वे वस्तुत फैजाबाद जिले की सदर तहसील के दुगवाँ रहीमपुर नामक ग्राम के रहने वाले थे और अपने ननिहाल की संपत्ति के उत्तराधिकारी होकर सुरहुपुर गांव जाकर बस गए थे। वहीं पर उनकी पत्नी अभयरानी देवी के गर्भ से मंगलपांडे का जन्म हुआ। इनकी लंबाई सामान्य से ज्यादा थी। 22 वर्ष की अवस्था में अर्थात दस मई सन 1849 में आप ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल इन्फैंट्री में भरती हुए।"

Begum Hazarat Mahal

एक शायर थे मुनीर शिकोहाबादी। इन्हें 1857 की क्रांति के समर्थन में कविता लिखने के कारण अंग्रेजों ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। अंग्रेज सरकार तो खैर चली गई और किसी को उस अफसर का नाम भी नहीं मालूम जिसने फाँसी का आदेश दिया। मगर मुनीर शिकोहाबादी अमर हो गए। मुनीर साहब की एक कविता मसाइबे-कैद को पढि़ए। यह कविता तो बहुत लंबी है पर इसके कुछ ही अंश आज दे रहा हूं।
फर्रुखाबाद और याराने-शफीक
छूट गए सब गर्दिशे-तकदीर से
आए बांदा में मुकैयद होके हम
सौ तरह की जिल्लतो-तहकीर से
जिस कदर अहबाबे - खालिस थे वहां
दर गुजर करते न थे तदबीर से
पर कहूं क्या काविशे-अहले-नफाक
थे वह खूरेंजी में बढ़के तीर से
बांदा के जिंदा में लाखों सितम
सहते थे हम गर्दिशे- तकदीर से
कोठरी गर्मी में दोजख से फुजूँ
दस्तो-पा बदतर थे आतशगीर से
था बिछौना टाट, कंबल ओढऩा
गर्म पर पश्मीन - ए- कश्मीर से।
कठिन शब्दों के अर्थ-
याराने शफीक- मेहरबान दोस्त, मुकैयद- कैद, तहकीर- अपमान, अहबाबे खालिस- सच्चे मित्र. अहले नफाक- दुश्मनों की कोशिश, बांदा के जिंदा- बांदा की जेल, फुजूँ- अधिक, दस्तो पा- हाथ पांव)

रविवार, 19 जुलाई 2015

वे वीरबांकुरे कहां गए!

राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं। हालांकि भाकपा वाले भी सादगी वाला जीवन जीते रहे हैं मगर माकपा नेताओं में तो गजब की सादगी देखने को मिलती है। 2001 में एक बार मैं कोलकाता से दिल्ली आ रहा था हावड़ा-दिल्ली राजधानी से। एसी फर्स्ट के कूपे में मेरे अलावा तीन लोग और थे पर उनके नाम मुझे नहीं पता थे न उनके बाबत कोई जानकारी थी। वे तीनों परस्पर बांग्ला में बातें कर रहे थे इसलिए मैं समझ भी नहीं पाया कि ये लोग हैं कौन? अलबत्ता उनमें से दो लोग ऊपर की बर्थ पर चले गए। न किसी ने मुझसे नीचे की बर्थ देने को कहा और न मैने खुद आफर की। सुबह तड़के कानपुर निकल गया और जब इटावा पार हो गया तब नाश्ते की प्लेट सजाई जाने लगी। वे दोनों लोग भी नीचे आ गए और चूंकि मैं तब तक बर्थ पर लेटा हुआ था इसलिए उनमें से किसी ने कहा भी नहीं कि थोड़ा खसक जाओ। वे तीनों नीचे की बुजुर्ग महिला के साथ उन्हीें की बर्थ पर शेयर कर के बैठ गए। नाश्ता लग भी गया और तब मैं उठा और अपनी बर्थ पर अकेला चौड़ा होकर बैठा। नाश्ते के बाद उन महिला ने मुझसे हिंदी में पूछा- आप कोलकाता में रहते हैं? मैने बताया कि जी फिलहाल तो कोलकाता प्रवास पर हूं लेकिन दिल्ली से हूं। बात बढऩे लगी और मैने उन्हें बताया कि मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक हूं। फिर क्या था बातों का सिलसिला चल निकला तब मुझे पता चला कि वे महिला माकपा की राज्यसभा में सदस्य चंद्रकला पांडेय हैं। और बाकी के दो सहयात्री में से एक उलबेडिय़ा (हावड़ा) से लोकसभा सदस्य हन्नन मोल्ला हैं और दूसरे सज्जन बांकुड़ा से जीत कर आए बासुदेव आचार्य हैं। अब मैं तो शर्म से डूब गया। इतनी बड़ी हस्तियां और मेरा व्यवहार उज्बक की तरह। तीनों की वेशभूषा सामान्य थी। मोल्ला साहब एक चौड़ी मोहरी का पाजामा और कुरता डांटे थे। उसे देखकर लग रहा था कि प्रेस शायद ही कभी किया जाता होगा। और बासुदेव दा एक पैंट-शर्ट और हाफ स्वेटर पहने थे। चंद्रकला जी सामान्य-सी सूती धोती। मुझे अचानक याद आया कि अरे ये वही हन्नन मोल्ला हैं जिन्होंने सांसदों का वेतन-भत्ता बढ़ाए जाने का विरोध किया था। पर आज देखिए कि एक संन्यासी योगी आदित्यनाथ ने सांसदों का वेतन-भत्ता दूना कर देने की सिफारिश की है। काश हमारे सारे सांसद बासुदेव दा, मोल्ला दा और चंद्रकला पांडेय सरीखे होते तो गरीब आदमियों की गति उतनी खराब नहीं होती जितनी कि मोदी राज और उसके पहले के मनमोहन राज में हो गई है।

शनिवार, 11 जुलाई 2015

Veer Shaiv

हिंदू धर्म और और हिंदू समाज की सबसे बड़ी विशेषता है कि जब-जब कट्टरता बढ़ती है लगभग उसी तेजी से यहां सुधार आंदोलन भी शुरू होते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में जब देश में न तो इस्लाम को लेकर तुर्क आए थे न ईसाइयत का प्रचार हुआ था हिंदू समाज के भीतर से ही एक स्वत: स्फूर्त वीर शैव आंदोलन पनपा था। सिर्फ एक ईश्वर शिव को ही अपना आराध्य मानने वाले इस आंदोलन के जनक कर्नाटक के बसव थे और बाद में उनका भतीजा चिन्नबसव इस मत का प्रचारक हुआ। इनके यहां चार प्रतीक थे रेवान, मरूल, एकोराम और पण्डित। और 'नम: शिवाय' इनका मूलमंत्र था। ये सभी लोग अपने गले में शिवलिंग धारण करते थे। इनके कुछ सिद्घान्त थे-
1. बलि देना व्यर्थ है।
2. व्रत मत रखो
3. भोज मत दो
4. तीर्थयात्रा मत करो और कोई नदी पवित्र नहीं है।
5. ब्राह्मण और चमार बराबर हैं।
6. सभी मनुष्य पवित्र हैं।
7. विवाह स्त्री की सहमति पर ही होना चाहिए। उसकी अनिच्छा से विवाह हरगिज न हो।
8. बाल विवाह नहीं होना चाहिए।
9. तलाक हो सकता है।
10. विधवाओं की इज्जत होनी चाहिए तथा पुनर्विवाह हो सकता है।
11. मुर्दे को जलाना नहीं चाहिए, गाडऩा चाहिए।
12. मुर्दे को स्नान कराना आवश्यक है।
13. श्राद्घ नहीं करना चाहिए। पुनर्जन्म नहीं होता।
14. सब लिंगधारी एक हैं और लिंगार्चन आवश्यक और उचित है।
15. विवाह सगोत्री होने चाहिए।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

JANSATTA DAY'S-3

प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं होता हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम काम ऐसे किए हैं जिनसे जनसत्ता का कोई जुड़ाव नहीं है मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल। यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी जनसत्ता की नहीं। जनसत्ता में तो 1992 के बाद वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहे जो बाबरी विध्वंस को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल भाजपा के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं। आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है।
प्रभाष जी कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे। प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना तथा समझा। प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढऩे में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। 28 मई 1983 को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और 4/11/2009 को उनके अंतिम दर्शन किए थे।
4 जनवरी १९८० में मैने कानपुर में दैनिक जागरण अखबार में बतौर प्रशिक्षु ज्वाइन किया था। जागरण के मालिक संपादक दिवंगत नरेंद्र मोहन (जिन्हें वहां मोहन बाबू के नाम से बुलाया जाता था) उन दिनों हर सोमवार को संपादकीय विभाग की एक बैठक करते तथा हर एक साथी का सामान्य ज्ञान जांचने के लिए दुनिया भर के तमाम सवाल पूछते, जिसने भी सही जवाब दे दिया वही पुरस्कृत होता। उन दिनों फाकलैंड युद्घ चल रहा था। एक सोमवार को मैने कौतूहलवश अपने प्राध्यापक रह चुके डॉ. जेबी सिंह से पूछा कि  डॉक्टर साहब यह फॅाकलैंड आखिर है कहां? डॉक्टर साहब ने ग्लोब मंगाया और मुझे उसकी स्थिति बता दी। उसी दिन शाम को मोहन बाबू ने फॉकलैंड के बारे में प्रश्न पूछ लिया। पूरा संपादकीय विभाग सन्न। सभी एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। मैने अपना हाथ उठाया और कहा- मैं बताऊं? सही जवाब मिलने पर मोहन बाबू खुश हो गए और अगले रोज ही मेरा ट्रेनिंग पीरियड खत्म मानकर मुझे  उप संपादक बना दिया गया। दो साल का टर्म मैने छह महीने में ही पूरा कर लिया। उन दिनों जागरण की पकड़ मध्य उत्तर प्रदेश में बहुत अच्छी थी लेकिन इसकी पहुंच सिर्फ शहरों तक सीमित थी गांवों में इटावा व फर्रुखाबाद के कुछ छोटे अखबारों का कब्जा था। एक दिन मैने मोहन बाबू से पूछा कि अपना अखबार गांवों में अगले रोज पहुंच पाता है और वह भी न के बराबर। मेरी इच्छा है कि मैं कानपुर देहात, औरय्या, इटावा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, एटा व जालौन आदि के गांवों-गांवों का दौरा करूं और वहां की खासकर डकैत समस्या पर कुछ लिखूं इससे हमारी गांवों तक पैठ हो जाएगी। मोहन बाबू मेरे इस सुझाव से प्रसन्न हुए और मैने इन इलाकों की अपराध समस्याओं पर तमाम स्टोरीज लिखीं। इसका असर भी हुआ और जागरण का इस पूरे क्षेत्र के गांवों व कस्बों तक प्रसार खूब बढ़ गया।
मोहन बाबू मेरे उत्साह को पसंद करते थे। उन्होंने मुझे जागरण के प्रसार क्षेत्र से बाहर के इलाकों में भी खूब भेजा। उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादक अरुण शौरी ने भागलपुर के आंख फोड़ो कांड पर खूब तहलका मचा रखा था। वे जिस पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज) के राष्ट्रीय संयोजक थे उसका मैं कानपुर शहर इकाई का संयोजक था। भागलपुर आंख फोड़ो कांड पर स्टोरीज करने के लिए मुझे जागरण की तरफ से भागलपुर भेजा गया। वहां जिस होटल में मैं रुका उसी में अरुण शौरी भी ठहरे हुए थे। मैं उनसे मिला और बेहद गद्गद भाव से कहा कि शौरी साहब आप अकेले अंग्रेजी संपादक हैं जिन्हें हिंदी पट्टी के गांव-गांव में लोग जानते हैं और इसकी वजह हमारा अखबार है क्योंकि हम आपके लेखों के अनुवाद अपने यहां छापते हैं। शौरी साहब मेरी तारीफ से काफी खुश हुए और एक्सप्रेस ग्रुप की शानदार पत्रकारीय परंपराओं के बारे में बताने लगे। मैं इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका की हिम्मत व साहस से ऐसा मुग्ध हुआ कि लगा अगर पत्रकार बनना है तो इंडियन एक्सप्रेस समूह में ही काम करना चाहिए। मैने उनसे पूछा कि क्या वे मुझे अपने यहां काम दे सकते हैं? लेकिन मुझे अंग्रेजी बस इतनी ही आती है कि मैं अंग्रेजी में आई खबरों का हिंदी में अनुवाद कर सकता हूं। उन्होंने मुझे साफ मना कर दिया लेकिन यह जरूर कहा कि अगर तुम्हारे यहां कोई खबर हो तो मुझे फोन कर दिया करना। दैनिक जागरण में नौकरी करते मुझे तीन साल हो गए थे और तब तक यह भी लगने लगा कि यहां कोई भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है। इसलिए अब मैने ठान लिया कि अगर कुछ नया करना है तो दिल्ली का रुख करना चाहिए। पर कहां? दिल्ली में मैं किसी को जानता नहीं था। परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि मैं रहूं दिल्ली में और खर्चा पानी घर से मंगा लूं। निराशा के इन्हीं दिनों में मैने इंडियन एक्सप्रेस में एक विज्ञापन देखा कि एक्सप्रेस ग्रुप के जल्दी ही निकलने वाले हिंदी दैनिक के लिए पत्रकारों की जरूरत है। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मैने बगैर किसी से पूछे फौरन इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक बीजी वर्गीज के नाम हिंदी में एक आवेदन लिखा कि मैं कानपुर के दैनिक जागरण में तीन साल से उप संपादक हूं। सबिंग, संपादन, रिपोर्टिंग व लेखन में मेरी गति अच्छी है। इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़कर पत्रकारिता करने की मेरी दिली इच्छा है। मार्च 1983 में मैने यह आवेदन भेजा था लेकिन महीनों बीत गए कोई जवाब नहीं। तब तक यह पता चल गया कि जागरण से कई लोगों ने आवेदन किया हुआ है। एक्सप्रेस ग्रुप के भावी हिंदी अखबार की लिखित परीक्षा के लिए उन सभी लोगों के पास बुलावा आने लगा जिन्होंने वहां आवेेदन किया था। राजीव शुक्ला उन दिनों जागरण में मेरे सीनियर साथी थे। अक्सर उनकी डेस्क में मुझे रहना पड़ता। एक दिन अकेले में मैने उन्हें बताया कि यार एक्सप्रेस में मैने भी एप्लीकेशन भेजी थी लेकिन मेरे पास अभी तक कोई जवाब नहीं आया। राजीव शुक्ला भी दिल्ली जाकर एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार का टेस्ट दे आए थे। राजीव ने पूछा कि किसके नाम एप्लीकेशन भेजी थी? मैने बताया बीजी वर्गीज के नाम भेजी थी हिंदी में लिखकर। राजीव ने कहा- तुमने हिंदी में आवेदन भेजा है वह भी बीजी वर्गीज के नाम। पता है वो हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं पढऩा तो दूर। मुझसे पूछ लिया होता मैं बता देता कि किसके नाम भेजनी है? और कम से कम एप्लीकेशन तो अंग्रेजी में भेजनी थी। आगे राजीव ने बताया कि एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अखबार का नाम जनसत्ता है और उसके संपादक प्रभाष जोशी हैं। मैने हिंदी में यह नाम ही पहली बार सुना था। मैने मान लिया कि गलती हो गई अब मेरा एक्सप्रेस समूह में काम करना सपना बनकर ही रह जाएगा। लेकिन इसके तीन चार दिनों बाद ही 27 मई की शाम पांच बजे के आसपास मेरे घर पर इंडियन एक्सप्रेस से एक तार आया जिसमें लिखा था कि 28 मई 1983 को सुबह 11 बजे दिल्ली की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में मुझे उनके हिंदी अखबार जनसत्ता की लिखित परीक्षा में शरीक होना है। तार पढ़ते ही मैं उत्साह से गद्गद। फौरन तैयारी की और रात आठ बजे कानपुर सेंट्रल से इलेवन अप पकड़ कर सुबह पांच बजे पुरानी दल्ली स्टेशन आ गया।
मैने तब तक दिल्ली देखी भी नहीं थी। यहां किसी को मैं जानता तक नहीं था अलबत्ता मेरे एक साथी संतोष तिवारी जरूर दिल्ली में रहकर स्ट्रगल कर रहे थे। वे कहां रहते हैं, यह तो पता नहीं था पर इतना मालूम था कि वे टाइम्स की हिंदी पत्रिका दिनमान के संपादकीय विभाग में कुछ करते हैं। मैने स्टेशन पर ही दिनमान खरीदा और उसका पता देखा- 10, दरियागंज, नई दिल्ली। वहीं पूछताछ से मालूम हुआ कि यहां से पास ही है। स्टेशन पर ही मैं फ्रेश हुआ तब तक आठ बज चुके थे। पैसे बचाने और समय काटने के लिए मैं पैदल चलते हुए करीब नौ बजे तक दिनमान के कार्यालय तक पहुंच गया। उस समय तक वहां सक्सेना नाम का एक चपरासी ही आया हुआ था। उसी से संतोष के बारे में पूछा तो पता चला कि दस के बाद आएंगे। सक्सेना मजेदार आदमी थे। उन्होंने मेरा पूरा पता जान लिया और यह भी पूछ लिया कि मैं यहां क्यों आया हूं। उन्होंने मुझे बिठाया, चाय पिलाई व नीचे से समोसे मंगाकर भी खिलाए। तथा यह भी बता दिया कि एक्सप्रेस बिल्डिंग यहां से दो किमी सीधी सड़क पर है मैं चाहूं तो पैदल ही चला जाऊं। मैं दस के पहले ही निकल लिया और कह दिया कि संतोष को बता देना। साढ़े दस बजे मैं एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंच गया। ग्यारह बजे से परीक्षा शुरू हुई। परचा था तो बहुत लंबा लेकिन समय भी खूब था। हर सवाल के जवाब दिए। सामान्य ज्ञान का तो वैसे भी मैं मास्टर था इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। करीब छह बजे शाम को जब मैं परचा देकर निकला तो बाहर ही संतोष तिवारी मिल गए और अपने यहां ले गए। संतोष तब पटपड़ गंज गांव के एक घर की परछत्ती में रहते थे। मैने कहा कि तुम्हारा दिल्ली रहने का क्या फायदा है जो तुम्हें एक ऐसे गांव में ही रहना है जिसके नाम में कोई रिदम न हो। इससे तो अच्छा है कि तुम कानपुर के अपने गांव में रहते। कम से कम घर तो विशालकाय होता। संतोष ने कहा कि दिल्ली जब तुम आ जाओगे तब इसकी अहमियत जानोगे। मैने कहा कि देखो जनसत्ता की लिखित परीक्षा में तो पास हो जाऊंगा बाकी इंटरव्यू अगर अंग्रेजी में हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। संतोष बोला अगर अंग्रेजी से डरे तो दिल्ली नहीं रह पाओगे।
13 जून को मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। चूंकि एक बार दिल्ली हो आया था इसलिए  कुछ आत्मविश्वास भी था। एक्सप्रेस बिल्डिंग के हाल में तमाम लोग बैठे थे कुछ इंटरव्यू दे चुके थे कुछ का नंबर अभी आना था। वहां की फुसफुसाहट से पता चला कि अंदर सारे लोग अंग्रेजी के ही हैं। प्रभाष जोशी जो उस वक्त तक इंडियन एक्सप्रेस के रेजीडेंट एडिटर थे, बीजी वर्गीज, एलसी जैन तथा राजगोपाल। मुझे लगा कि मेरा लौट जाना श्रेयस्कर होगा। ये लोग लगता है कि हिंदी पत्रकारों से अंग्रेजी में ही अखबार निकलवाएंगे। तभी मेरा नाम बुलाया गया। अंदर पहुंचा तो पहले प्रभाष जी ने ही पूछा कि आपने ज्यादातर रपटें गांवों के बारे में लिखी हैं आप मुझे सेंट्रल यूपी के जातीय समीकरण के बारे में बताइए। मेरा आत्मविश्वास लौट आया और मैं फटाफट बोलने लगा। कुछ सवाल वर्गीज जी ने पूछे तथा कुछ एलसी जैन ने। लेकिन अब मैं आश्वस्त था कि मेरा चयन सेंट परसेंट पक्का है। 18 जुलाई को प्रभाष जी का एक पत्र आया जिसमें लिखा था- प्रिय श्री शुक्ल, बधाई! आपका जनसत्ता में चयन हो गया है। आपका नाम मेरिट लिस्ट में है। चुनने का हमारा तरीका शायद बेहद थकाऊ और उबाऊ रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिष्ठाओं और सिफारिशों को छानने के लिए इससे बेहतर कोई चलनी नहीं थी। मेरा मानना है कि पहाड़ वही लोग चढ़ पाते हैं जो बगैर किसी सहारे के अपने बूते चलते हैं।
अद्भुत पत्र था यह। घर में सब ने पढ़ा और पहली बार मेरे घर में सबने माना कि जनसत्ता का टेस्ट पास कर मैने एक बड़ा काम तो कर ही लिया है। अगले ही दिन मैने दैनिक जागरण में इस्तीफा दिया और 20 जुलाई की सुबह गोमती एक्सप्रेस पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया। स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला मिल गए और तब भेद खुला कि हम दोनों ही जनसत्ता के लिए जा रहे हैं। उनका चयन भी पहले ही बैच में हो गया था। दोपहर बाद जब हम एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचे तो पता चला कि जनसत्ता के साथियों के लिए बैठने की व्यवस्था तो एक अगस्त तक हो पाएगी। आप लोग अभी जाओ एक तारीख को आना। अब बड़ी मुसीबत थी घर से पूरी तैयारी कर के आए थे। कुछ सामान भी ले आए थे अब सब कुछ वापस ले जाओ और फिर एक को लाओ इस झंझट से बचने के लिए संतोष तिवारी के यहां सामान रख दिया और अगले रोज 21 को वापस चले गए। दिल्ली में कुछ लोगों ने बताया कि इंडियन एक्सप्रेस का हिंदी में प्रयोग कभी सफल नहीं हुआ है। आप लोग गलत फंस गए हैं। बेहतर रहे कि वापस लौट जाओ। कानपुर में अब क्या करूं? जनसत्ता में काम शुरू नहीं किया और जागरण की लगी लगाई नौकरी से इस्तीफा दे चुका था। राजीव ने बताया कि उसने तो अभी इस्तीफा नहीं दिया है क्योंकि उसे इस बात का अंदेशा था कि  जनसत्ता शुरू भी होगा या नहीं। घर में अब मन नहीं लग रहा था इसलिए यह इंतजार मैने गांवों में रहकर काटा और फिर एक की बजाय दो अगस्त को दिल्ली आया। पता लगा कि राजीव ने तो एक को ही ज्वाइन कर लिया था। जनसत्ता के अभी दूर-दूर तक निकलने की संभावना नहीं थी। न तो साथियों के बैठने की जगह बन पाई थी न ही संपादकीय विभाग का कोई ताना-बाना था। सिर्फ बनवारी जी, हरिशंकर व्यास और सतीश झा को छोड़कर बाकी सब उप संपादक की पोस्ट पर थे। कुछ अन्य वरिष्ठ लोगों में गोपाल मिश्रा को न्यूज एडिटर और देवप्रिय अवस्थी को डिप्टी न्यूज एडिटर बनाया गया था। रामबहादुर राय के नेतृत्व में 5 लोगों की एक रिपोर्टिंग टीम भी बनी लेकिन राजनीतिक ब्यूरो नहीं बनाया गया। कुछ प्रशिक्षु भी रखे गए।
प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाषजी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया।
हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा  हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के  समक्ष एक चुनौती पेश कर दी।

इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।