बुधवार, 29 जुलाई 2015

Begum Hazarat Mahal

एक शायर थे मुनीर शिकोहाबादी। इन्हें 1857 की क्रांति के समर्थन में कविता लिखने के कारण अंग्रेजों ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। अंग्रेज सरकार तो खैर चली गई और किसी को उस अफसर का नाम भी नहीं मालूम जिसने फाँसी का आदेश दिया। मगर मुनीर शिकोहाबादी अमर हो गए। मुनीर साहब की एक कविता मसाइबे-कैद को पढि़ए। यह कविता तो बहुत लंबी है पर इसके कुछ ही अंश आज दे रहा हूं।
फर्रुखाबाद और याराने-शफीक
छूट गए सब गर्दिशे-तकदीर से
आए बांदा में मुकैयद होके हम
सौ तरह की जिल्लतो-तहकीर से
जिस कदर अहबाबे - खालिस थे वहां
दर गुजर करते न थे तदबीर से
पर कहूं क्या काविशे-अहले-नफाक
थे वह खूरेंजी में बढ़के तीर से
बांदा के जिंदा में लाखों सितम
सहते थे हम गर्दिशे- तकदीर से
कोठरी गर्मी में दोजख से फुजूँ
दस्तो-पा बदतर थे आतशगीर से
था बिछौना टाट, कंबल ओढऩा
गर्म पर पश्मीन - ए- कश्मीर से।
कठिन शब्दों के अर्थ-
याराने शफीक- मेहरबान दोस्त, मुकैयद- कैद, तहकीर- अपमान, अहबाबे खालिस- सच्चे मित्र. अहले नफाक- दुश्मनों की कोशिश, बांदा के जिंदा- बांदा की जेल, फुजूँ- अधिक, दस्तो पा- हाथ पांव)

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