गुरुवार, 2 जुलाई 2015

Jansatta Day's

1983 से 1995 जुलाई तक जनसत्ता के संपादक प्रभाष जी रहे और तब तक जनसत्ता शिखर पर रहा। अपनी साख की वजह से भी और धाक की वजह से भी। जो जनसत्ता में छप जाए वही सही माना जाता था। इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर या करस्पांडेंट तो दूर खुद इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक भी जनसत्ता में छप जाना अपना सौभाग्य समझते थे। यह जनसत्ता का ही जलवा था कि सुमन दुबे से लेकर अरुण शौरी तक जनसत्ता में आकर चिरौरी किया करते थे कि उनका अग्रलेख जनसत्ता भी प्रकाशित कर ले। अरुण शौरी अपने ईगो के कारण प्रभाष जीसे सीधे तो नहीं कहते थे पर सीधे मेरे पास (तब मैं चीफ सब था) आकर कहते थे कि शुक्ला जी मेरे लेख का अनुवाद आप ही कर देना। इसकी वजह भी थी कि जनसत्ता के लेख और रपटों के कारण ही इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाताओं की पूछ और गूँज संसद तक में होती थी। मालूम हो कि 1990 तक जनसत्ता के पास अपना पोलेटिकल ब्यूरो नहीं था इसलिए हम एक्सप्रेस न्यूज सर्विस की खबरें जनसत्ता के नाम से छापा करते थे। यानी रपट अंग्रेजी की पर गूँज हिंदी वालों के बीच। जब जनसत्ता का पोलेटिकल ब्यूरो बना भी तब भी वरीयता इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाताओं को ही मिला करती थी। इसकी वजह थी कि एक्सप्रेस के संवाददाता हिंदी वालों की तरह एक तो लफ्फाजी नहीं करते थे और तथ्यपरक रिपोर्ट ही देते थे। दूसरे वे कास्ट या कम्युनल आधार पर बॉयस्ड नहीं थे। इसके अलावा तीसरी एक बड़ी वजह थी कि हिंदी के संवाददाताओं में लखनऊ से हेमंत शर्मा, पटना से सुरेंद्र किशोर और जयपुर से आत्मदीप और राजीव जैन तथा दिल्ली में अनिल बंसल को छोड़ दिया जाए तो बाकी के संवाददाताओं की कॉपी इतनी कन्फ्यूजिंग और उसमें इतना अधिक मात्रा दोष होता था कि लगता था कि इससे बेहतर है अनुवाद कर लिया जाए। उस समय कहा जाता था कि जनसत्ता की डेस्क तो मजबूत रही पर रिपोर्टिंग एकदम लचर। देवप्रिय अवस्थी, सत्यप्रकाश त्रिपाठी, श्रीश चंद्र मिश्र, अभय कुमार दुबे, मनोहर नायक और कुमार आनंद टिकमाणी जनसत्ता डेस्क के चमकते हुए सितारे थे।
प्रभाष जोशी के जनसत्ता की इस अथाह लोकप्रियता की वजह एक और थी और वह थी प्रभाष जी द्वारा अखबार के व्यवस्थाविरोधी चरित्र को यथावत रखना। रिपोर्ट कतई बॉयस्ड न हो पर डेस्क जब अनुवाद करती थी तब उसमें उसका व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक आक्रोश का अंश आ ही जाया करता था। बाद के दिनों में अंबरीष कुमार, अरुण कुमार त्रिपाठी और सत्येंद्र रंजन ने जनरल डेस्क को व संजय सिंह, अरिहन जैन तथा संजय सिन्हा की तिकड़ी ने डाक डेस्क पर इस परंपरा को आगे बढ़ाया। और यही वजह थी कि जनसत्ता को तोप के मुकाबिल का अखबार समझा जाता था। जब राजीव गांधी बदनामी में उलझे तो इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ही वीपी सिंह के साथ खड़े हो सके और जब देश सांप्रदायिक दंगों की आँच में तपा तब प्रभाष जी ने वह रूप दिखाया जो एक सच्चा संपादक ही दिखा सकता है। जनसत्ता ने तथाकथित व्यवस्था विरोध की बात करने वाले संघियों की वह लानत-मलामत की कि सारे संघी एक तरफ प्रभाष जोशी एक तरफ। अखबार हो या न्यूज चैनल जब तक वह व्यवस्था का विरोधी और जनोन्मुख नहीं बनेगा उसके प्रति आस्था नहीं पैदा होगी। इसीलिए अखबार की भूमिका को तोप के मुकाबिल और चारणभक्ति करने वाला साथ-साथ माना गया है। सवाल इस बात का है कि आप किसके साथ हो।

डेस्क किसी अखबार को धारदार बना सकती है, यह देखना हो तो 17 नवम्बर 1983 से लेकर 14 जुलाई 1995 तक का जनसत्ता देखिए। अगर आलोक तोमर को छोड़ दिया जाए तो जनसत्ता के पास दिल्ली में कोई संजीदा और व्यापक समझ वाला रिपोर्टर नहीं था। लेकिन फिर भी जनसत्ता दिल्ली ढाई लाख बिकता था। और इसकी वजह थी जनसत्ता की डेस्क जो इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर्स की कापी का इस अंदाज़ में अनुवाद करती थी की अंग्रेजी की वह कापी ठेठ हिंदी की कापी बन जाया करती थी। जनसत्ता का एडिट पेज भी बहुत पढ़ा जाता था जिसमे प्रभाष जी के अलावा बनवारी, हरिशंकर व्यास और सतीश झा जैसे सहायक संपादक चार चाँद लगाए रखते थे। उसकी लोकप्रियता की तीसरी वजह काक के कार्टून थे। हरिश्चंद्र शुक्ल 'काक' ऑर्डिनेंस फैक्ट्री कानपुर की अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर जनसत्ता में आ गए थे। साथ ही जनसत्ता में पाठकों की सीधी भागीदारी चौपाल के माध्यम से होती थी। जगदीश उपासने ने खोज खबर- ख़ास खबर नामक ओपेड पेज को इतना लोकप्रिय बना दिया था कि लोगबाग तीन-तीन बाद का जनसत्ता भी चाव से पढ़ते थे। हरिशंकर व्यास का कॉलम गपशप तो मील का पत्थर था। 
पर जनसत्ता की जो उपलब्धि थी वह रही जनसत्ता के मुफस्सिल संवाददाताओं (स्ट्रिंगर्स) का नेटवर्क। इनमे से कुछ तो इतने काबिल थे कि दिल्ली के दिग्गज संवाददाता उनके सामने पानी भरें। और यह कमाल था जनसत्ता न्यूज़ सर्विस के संपादक हरिशंकर व्यास और उनकी रिपोर्टिंग टीम के सिपहसालार हेमंत शर्मा, सुरेन्द्र किशोर, आत्मदीप और राजीव जैन का। चूँकि इस नेटवर्क की डेस्क को मेरे सिपुर्द किया गया था इसलिए अपने हर डिस्ट्रिक्ट कोरेस्पोंडेंट से बेस्ट काम लेना मुझे आता था। मैं इन वीर बांकुरों की बहादुराना स्टोरीज पर कभी लिखूंगा।

यह आरोप आमतौर पर लगाया जाता है कि कोई अखबार संपादक के कारण गिरता है। यदि वह संपादक आत्मश्लाघा में डूबा रहा अथवा उसने संपादकीय विभाग को मोबलाइज नहीं किया या उसके पास विजन नहीं था तब तो यह बात कुछ हद तक सही मानी जा सकती है लेकिन वास्तविकता इसके उलट भी हो सकती है। मैं अपने कैरियर के प्रथम और इतिहास के सबसे चर्चित अखबार जनसत्ता को ही लेता हूं। इसमें कोई शक नहीं कि जनसत्ता का प्रसार न्यूनतम है। पर इसकी वजह जनसत्ता के संपादक या उनकी टीम नहीं बल्कि प्रबंधन है। जनसत्ता को मालिक तो पसंद करते थे पर इंडियन एक्सप्रेस समूह के प्रबंधन की आंख की किरकिरी वह सदैव बना रहा। प्रभाष जी के वक्त तक तो जनसत्ता के मामले में प्रबंधन अपनी दखल करने की हिम्मत नहीं करता था लेकिन प्रभाष जी के हटने के बाद प्रबंधन हावी होता गया और जनसत्ता अनवरत नीचे गिरता गया। पाठकों की मांग के बावजूद प्रबंधन जनसत्ता के प्रसार की तरफ रुचि नहीं लेता था। और उसका सरकुलेशन घटाने के कुत्सित प्रयास वह करता रहा। पर अपने प्रयासों के बावजूद वह जनसत्ता की धाक और साख कम नहीं कर सका। आज भी जनसत्ता बाजार में आसानी से मिले भले नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि जनसत्ता और उसके संपादक श्री ओम थानवी की धाक जबर्दस्त है। और इसकी वजह है श्री थानवी का हर विषय पर स्पष्ट रीति-नीति रखना।



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