शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

JANSATTA DAY'S-2

प्रभाष जी के जनसत्ता की सबसे बड़ी खूबी उसमें नीचे से लेकर ऊपर तक सबके योगदान को बराबर की सराहना। प्रभाष जी सबकी बात सुनते और सबको अपनी बात रखने को प्रोत्साहित करते। यही कारण है कि जनसत्ता ने तब व्यावसायिक हिंदी अखबारों की समक्ष तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी कीं। सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर थी। तब दिल्ली से लगाकर कानपुर, जयपुर, पटना, कोलकाता, भोपाल और मुंबई में हिंदी अखबार एक तरह की आर्य समाजी इस्तेमाल करते थे जिसमें शुद्घता, संस्कृतनिष्ठा और जटिलता ही प्रमुख थी। प्रभाष जी ने एक ऐसा अखबार निकाला जिसमें भाषा की ये जंजीरें तोड़ी गई थीं। भाषा सहज, प्रवाहमान और टकसाली रखने का निर्णय उन्होंने किया। मसलन अनुसार की जगह मुताबिक। तब हम सब लोग अनुसार शब्द का प्रयोग करते थे। उनके अनुसार पर प्रभाष जी ने कहा कि नहीं ज्यादा प्रवाहमान होगा- उनके मुताबिक। एक दिन तब मैं और राजीव बुलंदशहर से लौट रहे थे। हमने जीटी रोड (एनएच-91) पर हर पुलिया के पहले यह चेतावनी लिखी देखी- सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है। हमने लौटकर प्रभाष जी से पूछा कि पुलिया संकीर्ण कैसे हो सकती है? यह बात अगस्त की रही होगी। उस समय प्रभाष जी ने कुछ नहीं कहा पर तीन महीने बाद 17 नवंबर 1983 को जनसत्ता के पहले ही अंक में प्रभाष जी ने एक संपादकीय लिखा- सावधान! आगे पुलिया संकीर्ण है। इसके बाद उन्होंने हमसे पूछा कि मिल गया जवाब। इसके अलावा प्रभाष जी ने जनसत्ता की भाषा आम बोलचाल की भाषा रखने का सुझाव दिया। चूंकि जनसत्ता में देश के कमोबेश सभी प्रान्तों के लोग जुड़े थे इसलिए आग्रह हुआ कि देशज शब्द प्रयोग किए जाए। इसी तरह यह प्रभाष जी ने ही कहा कि 'ऑन द स्पॉट' को ठौर तथा किन्तु, परन्तु या मगर के स्थान पर लेकिन और पर आदि इस्तेमाल किया जाए। लिखते वक्त व्यंग्यात्मक शब्द भी जरूरत के मुताबिक किए जाएं। जैसे चिरकुट शब्द का चलन जनसत्ता ने ही शुरू किया। नेहरू टाइप यूटोपिया को जनसत्ता ने तोड़ा। यह प्रभाष जी का ही कमाल था कि जनसत्ता ने आते ही धमाल मचा दिया। हिंदी के पाठकों को नया जीवन मिला और उन्हें तब के नवभारत टाइम्स व हिंदुस्तान के मुकाबले ज्यादा खरा अखबार पढऩे को उपलब्ध हुआ।
संज्ञा को जस का तस लिखने का आग्रह प्रभाषजी का था। और पूरा नाम लिखने का भी। जैसे जनसत्ता ने एनटीआर को नंदमूरि तारक रामराव और एमजीआर को मरुदुर गोपालन रामचंद्रन लिखने पर जोर दिया। किसी के भी आगे विशेषण लगाने से मना किया। जैसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी या राजीव गांधी। उनका कहना था कि जब पदनाम आ ही गया तो श्री विशेषण का क्या मतलब? हम लोग अटलबिहारी वाजपेयी को कभी भी अटल जी नहीं लिखते थे न ही चौधरी चरण सिंह को श्री चौधरी या चरण सिंह जी। राजनारायण को सिर्फ राजनारायण लिखा जाए और मुलायम सिंह को श्री यादव नहीं मुलायम सिंह ही लिखें। यानी व्यक्ति की पहचान उसके प्रथम नामसंज्ञा से होगी सरनेम से नहीं। पर मुझे वे पंडित या सुकल कह कर संबोधित करते। उन्होंने कभी मुझे शंभूनाथ नहीं कहा। मैं जनसत्ता में आने के पहले रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और दिनमान में शंभूनाथ नाम से लिखता था पर प्रभाष जी ने जनसत्ता में मेरा पहला ही लेख शंभूनाथ शुक्ल के नाम से छापा। मेरे ऐतराज करने पर उनका जवाब था कि सरनेम छिपाने से लाभ क्या। लोग आपकी जाति तलाश ही लेंगे। काठमांडू को काठमांडौ लिखा जाए और बंगलौर को बेंगलूरू, बड़ौदा को वडोदरा और कलकत्ता को कोलकाता। इसी तरह बंबई को मुंबई और अहमदाबाद को अमदाबाद आदि-आदि संज्ञाएं जनसत्ता की थीं। राजेंद्र सिंह सब जगह राजेंद्र 
सिंह रहेंगे लेकिन पंजाब में वे राजेन्दर पुकारे जाएंगे। इसी तरह तेजेंद्र तेजेंदर और परमेंद्र परमिंदर। हिंदी को सहज बनाने के लिए उन्होंने चंद्रबिंदु को खत्म करवा दिया। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि जनसत्ता अकेला अखबार था जिसे फोटो टाइप सेटर के जरिए कंपोज किया जाता था और ब्रोमाइड चिपका कर पेज बना करता था।
(बाकी का कल)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें