शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मलेरिया गाथा

आज की तारीख में लोग बस संकीर्ण सोच में डूबते-उतराते रहते हैं जबकि असल समस्या औसत भारतीयों के स्वास्थ्य को लेकर है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य, जानेमाने एफआरसीएस और अन्य तमाम तमगाचार्य तथा योगाचार्य मधुमेह, रक्तचाप, हृदयाघात और कैंसर तथा यकृत की बीमारियों का इलाज तलाश लेने का दावा करते हैं। पर क्या आप लोगों को पता है कि आज भी भारत में सबसे अधिक मौतें मलेरिया से होती हैं। जी हां यह विश्व की जानीमानी मेडिकल जरनल का आंकड़ा है। मलेरिया भगाने के खूब दावे किए गए पर 1962 से 1967 का साल छोड़ दिया जाए तो मलेरिया के वीषाणु और भी भयानक रूप से प्रकट हो गए हैं। दिक्कत तो यह है कि मलेरिया का वीषाणु पकड़ में नहीं आता। आप लाख बड़ी-बड़ी लैब से परीक्षण कराएं पर यह वीषाणु ऐसा जुगाड़ू है कि अपने सोतीगंज वाले रहमान मियाँ भी उसके जुगाड़ के आगे फेल हैं। लाख दवा की और दुआ की मगर यह मलेरिया पैरासाइट कभी पकड़ में नहीं आता और जब इसका पता चलता है तो यह वीषाणु शरीर के किसी न किसी अंग को अपंग कर देता है। और मौत की वजह बताई जाती है हार्ट फेल्योर या बीपी का शूटआउट कर जाना अथवा सुगर का अचानक बढ़ जाना या पेट फूलना और शरीर का पीला पड़ते-पड़ते पीलिया की चपेट में आ जाना। सरकार को पहले सारे सरकारी अस्पतालों में मलेरिया विंग को सबसे मजबूत करना चाहिए और हरेक के लिए इसकी जांच फ्री करनी चाहिए तथा सख्ती से एक कानून पास करना चाहिए कि बुखार आते ही पहले सरकारी अस्पताल में सीवीएस, विडाल और एमपी चेक कराएं इसके बाद ही कोई एंटी बायोटिक्स का सेवन करें वर्ना यह एमपी यानी मलेरिया पैरासाइट आपके लीवर में छिप कर बैठ जाएगा फिर चाहे जहां ब्लड चेक कराएं इसका पकड़ा जाना मुमकिन नहीं। और लीवर में छिपकर यह आपके शरीर को कुतरने लगता है। इसलिए सरकार इस चोर को पकडऩे हेतु पहले की तरह ही मलेरिया इंस्पेक्टरों को घर-घर जाकर चौकसी करने का कानून पारित करे। इनकी पावर दिल्ली पुलिस के हवलदार से कम नहीं हो।

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आमतौर पर प्राइवेट पैथलैब की मलेरिया टेस्टिंग में कोई रुचि नहीं होती। एक तो कुल तीन पैसे में हो जाने वाले इस टेस्ट में न तो पैथलैब को कमाई होती है न आपके सलाहकार चिकित्सक को कोई कमीशन दिया जा सकता। इसलिए प्राइवेट लैब अक्सर मलेरिया को टायफायड बता देंगी और टायफायड का इलाज मलेरिया का ठीक उलटा है। आप एंटीबायोटिक्स दवाएं खाते रहेंगे और मलेरिया का पैरासाइट आपके पेट में छिपकर लीवर कुतरता रहेगा। जब पता चलेगा तो डॉक्टर एलएफटी टेस्ट को बोलेगा। और लीवर सिरोसिस या लीवर एक्सपेंड का इलाज चलेगा और मलेरिया का पैरासाइट अपना काम करता रहेगा। अगर कुछ हो गया तो कुंदबुुुद्घि वाले सरकारी प्रचारक कह देंगे कि आदमी लीवर सिरोसिस अथवा बीपी शूटआउट होने से मरा। यह सरकारी तंत्र का फेल्योर है। सत्य यह है कि आज देश में न तो कैंसर कोई घातक रोग है न डायबिटिक न हार्ट प्राब्लम। समस्या मलेरिया की है। मलेरिया पैरासाइट पर नियंत्रण कर लिया तो काफी हद तक बीमारियां दूर हो जाएंगी। स्वच्छ भारत अभियान से ज्यादा जरूरी है मलेरिया मुक्त अभियान। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मलेरिया पर काबू पाया था। याद करिए वे दिन जब मलेरिया इंस्पेक्टर घर-घर आकर लाल खडिय़ा से आपके घर की पहचान दिखाता था कि घर में कितने लोगों को मलेरिया का टीका लग चुका है। मगर स्वास्थ्य सेवाओं को बिजनेस बना देने से सब ध्वस्त हो गया।

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मलेरिया या कोई भी वायरल अगर आपको हो गया हो तो कृपया किसी भी प्राइवेट पैथालाजी लैब में टेस्ट न कराएं। किसी योग्य चिकित्सक से दवा लेने के पूर्व उससे अनुरोध करें कि आप मेरे ब्लड की स्लाइड बना दें। इसके बाद ही कोई बुखार खत्म करने वाली दवा अथवा एंटीबायोटिक्स ग्रहण करें। इसके बाद जब भी सुविधा हो आप अपनी यह ब्लड स्लाइड किसी सरकारी चिकित्सालय अथवा मलेरिया निरोधक केंद्र में भेजें। सीएमओ के पास मलेरिया विंग होता है और उसे यह ब्लड स्लाइड चेक करनी ही पड़ेंगी। आप चाहें तो एम्स या एनआईसीडी (राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान), शामनाथ मार्ग दिल्ली को सीधे जाकर दिखा आएं। वहां के टेक्नीशियन आधे घंटे में आपको मलेरिया की रिपोर्ट दे देंगे। लेकिन अगर इसके पूर्व आप किसी भिषगाचार्य, तमगाचार्य, योगाचार्य या एमडी अथवा एफआरसीएस के पल्ले पड़ गए तो समझो गई भैंस पानी में। मेरी राय कुछ कड़वी लगेगी मगर है सौ फीसदी पक्की। अगर प्राइवेट डाक्टर ब्लड स्लाइड बनाने से मना करे तो आप खुद अपने बाएं हाथ की अंगुली से खून निकालिए और स्लाइड में चार पांच जगह लगा दीजिए। बाद में जब वह सूख जाए तो जाएं सरकारी पैथ लैब में। ध्यान रखें कि किसी भी सरकारी अस्पताल में इसकी कोई फीस नहीं ली जाती।
एक बात और मलेरिया की दवा किसी प्राइवेट डाक्टर की सलाह पर लेने की बजाय किसी सरकारी चिकित्सक अथवा मलेरिया डॉक्टर या मलेरिया इंस्पेक्टर की सलाह पर ही लें। अब यह स्वस्थ रहने का नुस्खा मानों तो सही न मानों तो भुगतो।

बुधवार, 29 जुलाई 2015

Azeemullah Khaan

1857 के योद्घाओं में झांसी की रानी के समकक्ष एक नाम और है बेगम हजरतमहल का। जब नवाब वाजिदअली शाह को अंग्रेज कलकत्ता ले गए और नवाब ने चुपचाप हथियार डाल दिए तथा मय फौज-फाटा के अंग्रेजों की रहनुमाई में कलकत्ता चल दिए तो उनकी एक बेगम हजरत महल, जो किसी नवाब की बेटी या बहन नहीं थीं बल्कि वाजिदअली शाह के मुसाहिब उन्हें किसी गांव से उड़ा लाए थे, ने अंग्रेजों के विरुद्घ मोर्चा खोला। अपने 12 साल के बेटे बिरजिसकद्र को ताज पहना कर उन्होंने उसे अवध का बादशाह घोषित किया और तलवार उठा ली। बेगम ने लंबी लड़ाई लड़ी। बेगम गजलें भी लिखा करती थीं। उनकी एक गजल-
साथ दुनिया ने दिया और मुकद्दर ने न दिया
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया
एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए
जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया
जमीं की आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी
हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया
बिखर चला वो काफिला मकामे बौड़ी से
चाल दुश्मन की कुछ ऐसी, उभरने न दिया
जुल्म की आँधियाँ बढ़ती रहीं लम्हा-लम्हा
फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया

Mangal Pandey

अब हम कोई शोध तो करते नहीं सिर्फ भावनाओं के आधार पर अपने शहीदों को पूजते रहते हैं। मंगल पांडेय प्रथम स्वाधीनता संग्राम का एक ऐसा चितेरा था जिसे पूजा तो वर्षों से जा रहा है लेकिन उस पर शोध नहीं किया जा रहा। 1857 के रणबांकुरों पर हिंदी में सबसे उल्लेखनीय काम अमृतलाल नागर ने किया है। वे गांव-गांव घूमे और किंवदंती ही नहीं इतिहास भी खगाला। मंगल पांडेय के बारे में नागर जी अपनी मशहूर पुस्तक 'गदर के फूल' में लिखा है-
"श्री मंगल पांडेय का जन्म फैजाबाद जिले की अकबरपुर तहसील के सुरहुपुर नामक ग्राम में असाढ़ शुक्ल द्वितीया शुक्रवार संवत 1884 विक्रमी तदनुसार 19 जुलाई ईस्वी सन 1827 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री दिवाकर पांडेय था। वे वस्तुत फैजाबाद जिले की सदर तहसील के दुगवाँ रहीमपुर नामक ग्राम के रहने वाले थे और अपने ननिहाल की संपत्ति के उत्तराधिकारी होकर सुरहुपुर गांव जाकर बस गए थे। वहीं पर उनकी पत्नी अभयरानी देवी के गर्भ से मंगलपांडे का जन्म हुआ। इनकी लंबाई सामान्य से ज्यादा थी। 22 वर्ष की अवस्था में अर्थात दस मई सन 1849 में आप ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल इन्फैंट्री में भरती हुए।"

Begum Hazarat Mahal

एक शायर थे मुनीर शिकोहाबादी। इन्हें 1857 की क्रांति के समर्थन में कविता लिखने के कारण अंग्रेजों ने फाँसी पर चढ़ा दिया था। अंग्रेज सरकार तो खैर चली गई और किसी को उस अफसर का नाम भी नहीं मालूम जिसने फाँसी का आदेश दिया। मगर मुनीर शिकोहाबादी अमर हो गए। मुनीर साहब की एक कविता मसाइबे-कैद को पढि़ए। यह कविता तो बहुत लंबी है पर इसके कुछ ही अंश आज दे रहा हूं।
फर्रुखाबाद और याराने-शफीक
छूट गए सब गर्दिशे-तकदीर से
आए बांदा में मुकैयद होके हम
सौ तरह की जिल्लतो-तहकीर से
जिस कदर अहबाबे - खालिस थे वहां
दर गुजर करते न थे तदबीर से
पर कहूं क्या काविशे-अहले-नफाक
थे वह खूरेंजी में बढ़के तीर से
बांदा के जिंदा में लाखों सितम
सहते थे हम गर्दिशे- तकदीर से
कोठरी गर्मी में दोजख से फुजूँ
दस्तो-पा बदतर थे आतशगीर से
था बिछौना टाट, कंबल ओढऩा
गर्म पर पश्मीन - ए- कश्मीर से।
कठिन शब्दों के अर्थ-
याराने शफीक- मेहरबान दोस्त, मुकैयद- कैद, तहकीर- अपमान, अहबाबे खालिस- सच्चे मित्र. अहले नफाक- दुश्मनों की कोशिश, बांदा के जिंदा- बांदा की जेल, फुजूँ- अधिक, दस्तो पा- हाथ पांव)

रविवार, 19 जुलाई 2015

वे वीरबांकुरे कहां गए!

राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं। हालांकि भाकपा वाले भी सादगी वाला जीवन जीते रहे हैं मगर माकपा नेताओं में तो गजब की सादगी देखने को मिलती है। 2001 में एक बार मैं कोलकाता से दिल्ली आ रहा था हावड़ा-दिल्ली राजधानी से। एसी फर्स्ट के कूपे में मेरे अलावा तीन लोग और थे पर उनके नाम मुझे नहीं पता थे न उनके बाबत कोई जानकारी थी। वे तीनों परस्पर बांग्ला में बातें कर रहे थे इसलिए मैं समझ भी नहीं पाया कि ये लोग हैं कौन? अलबत्ता उनमें से दो लोग ऊपर की बर्थ पर चले गए। न किसी ने मुझसे नीचे की बर्थ देने को कहा और न मैने खुद आफर की। सुबह तड़के कानपुर निकल गया और जब इटावा पार हो गया तब नाश्ते की प्लेट सजाई जाने लगी। वे दोनों लोग भी नीचे आ गए और चूंकि मैं तब तक बर्थ पर लेटा हुआ था इसलिए उनमें से किसी ने कहा भी नहीं कि थोड़ा खसक जाओ। वे तीनों नीचे की बुजुर्ग महिला के साथ उन्हीें की बर्थ पर शेयर कर के बैठ गए। नाश्ता लग भी गया और तब मैं उठा और अपनी बर्थ पर अकेला चौड़ा होकर बैठा। नाश्ते के बाद उन महिला ने मुझसे हिंदी में पूछा- आप कोलकाता में रहते हैं? मैने बताया कि जी फिलहाल तो कोलकाता प्रवास पर हूं लेकिन दिल्ली से हूं। बात बढऩे लगी और मैने उन्हें बताया कि मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक हूं। फिर क्या था बातों का सिलसिला चल निकला तब मुझे पता चला कि वे महिला माकपा की राज्यसभा में सदस्य चंद्रकला पांडेय हैं। और बाकी के दो सहयात्री में से एक उलबेडिय़ा (हावड़ा) से लोकसभा सदस्य हन्नन मोल्ला हैं और दूसरे सज्जन बांकुड़ा से जीत कर आए बासुदेव आचार्य हैं। अब मैं तो शर्म से डूब गया। इतनी बड़ी हस्तियां और मेरा व्यवहार उज्बक की तरह। तीनों की वेशभूषा सामान्य थी। मोल्ला साहब एक चौड़ी मोहरी का पाजामा और कुरता डांटे थे। उसे देखकर लग रहा था कि प्रेस शायद ही कभी किया जाता होगा। और बासुदेव दा एक पैंट-शर्ट और हाफ स्वेटर पहने थे। चंद्रकला जी सामान्य-सी सूती धोती। मुझे अचानक याद आया कि अरे ये वही हन्नन मोल्ला हैं जिन्होंने सांसदों का वेतन-भत्ता बढ़ाए जाने का विरोध किया था। पर आज देखिए कि एक संन्यासी योगी आदित्यनाथ ने सांसदों का वेतन-भत्ता दूना कर देने की सिफारिश की है। काश हमारे सारे सांसद बासुदेव दा, मोल्ला दा और चंद्रकला पांडेय सरीखे होते तो गरीब आदमियों की गति उतनी खराब नहीं होती जितनी कि मोदी राज और उसके पहले के मनमोहन राज में हो गई है।

शनिवार, 11 जुलाई 2015

Veer Shaiv

हिंदू धर्म और और हिंदू समाज की सबसे बड़ी विशेषता है कि जब-जब कट्टरता बढ़ती है लगभग उसी तेजी से यहां सुधार आंदोलन भी शुरू होते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में जब देश में न तो इस्लाम को लेकर तुर्क आए थे न ईसाइयत का प्रचार हुआ था हिंदू समाज के भीतर से ही एक स्वत: स्फूर्त वीर शैव आंदोलन पनपा था। सिर्फ एक ईश्वर शिव को ही अपना आराध्य मानने वाले इस आंदोलन के जनक कर्नाटक के बसव थे और बाद में उनका भतीजा चिन्नबसव इस मत का प्रचारक हुआ। इनके यहां चार प्रतीक थे रेवान, मरूल, एकोराम और पण्डित। और 'नम: शिवाय' इनका मूलमंत्र था। ये सभी लोग अपने गले में शिवलिंग धारण करते थे। इनके कुछ सिद्घान्त थे-
1. बलि देना व्यर्थ है।
2. व्रत मत रखो
3. भोज मत दो
4. तीर्थयात्रा मत करो और कोई नदी पवित्र नहीं है।
5. ब्राह्मण और चमार बराबर हैं।
6. सभी मनुष्य पवित्र हैं।
7. विवाह स्त्री की सहमति पर ही होना चाहिए। उसकी अनिच्छा से विवाह हरगिज न हो।
8. बाल विवाह नहीं होना चाहिए।
9. तलाक हो सकता है।
10. विधवाओं की इज्जत होनी चाहिए तथा पुनर्विवाह हो सकता है।
11. मुर्दे को जलाना नहीं चाहिए, गाडऩा चाहिए।
12. मुर्दे को स्नान कराना आवश्यक है।
13. श्राद्घ नहीं करना चाहिए। पुनर्जन्म नहीं होता।
14. सब लिंगधारी एक हैं और लिंगार्चन आवश्यक और उचित है।
15. विवाह सगोत्री होने चाहिए।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

JANSATTA DAY'S-3

प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं होता हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम काम ऐसे किए हैं जिनसे जनसत्ता का कोई जुड़ाव नहीं है मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल। यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी जनसत्ता की नहीं। जनसत्ता में तो 1992 के बाद वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहे जो बाबरी विध्वंस को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल भाजपा के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं। आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है।
प्रभाष जी कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे। प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना तथा समझा। प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढऩे में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। 28 मई 1983 को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और 4/11/2009 को उनके अंतिम दर्शन किए थे।
4 जनवरी १९८० में मैने कानपुर में दैनिक जागरण अखबार में बतौर प्रशिक्षु ज्वाइन किया था। जागरण के मालिक संपादक दिवंगत नरेंद्र मोहन (जिन्हें वहां मोहन बाबू के नाम से बुलाया जाता था) उन दिनों हर सोमवार को संपादकीय विभाग की एक बैठक करते तथा हर एक साथी का सामान्य ज्ञान जांचने के लिए दुनिया भर के तमाम सवाल पूछते, जिसने भी सही जवाब दे दिया वही पुरस्कृत होता। उन दिनों फाकलैंड युद्घ चल रहा था। एक सोमवार को मैने कौतूहलवश अपने प्राध्यापक रह चुके डॉ. जेबी सिंह से पूछा कि  डॉक्टर साहब यह फॅाकलैंड आखिर है कहां? डॉक्टर साहब ने ग्लोब मंगाया और मुझे उसकी स्थिति बता दी। उसी दिन शाम को मोहन बाबू ने फॉकलैंड के बारे में प्रश्न पूछ लिया। पूरा संपादकीय विभाग सन्न। सभी एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे। मैने अपना हाथ उठाया और कहा- मैं बताऊं? सही जवाब मिलने पर मोहन बाबू खुश हो गए और अगले रोज ही मेरा ट्रेनिंग पीरियड खत्म मानकर मुझे  उप संपादक बना दिया गया। दो साल का टर्म मैने छह महीने में ही पूरा कर लिया। उन दिनों जागरण की पकड़ मध्य उत्तर प्रदेश में बहुत अच्छी थी लेकिन इसकी पहुंच सिर्फ शहरों तक सीमित थी गांवों में इटावा व फर्रुखाबाद के कुछ छोटे अखबारों का कब्जा था। एक दिन मैने मोहन बाबू से पूछा कि अपना अखबार गांवों में अगले रोज पहुंच पाता है और वह भी न के बराबर। मेरी इच्छा है कि मैं कानपुर देहात, औरय्या, इटावा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, एटा व जालौन आदि के गांवों-गांवों का दौरा करूं और वहां की खासकर डकैत समस्या पर कुछ लिखूं इससे हमारी गांवों तक पैठ हो जाएगी। मोहन बाबू मेरे इस सुझाव से प्रसन्न हुए और मैने इन इलाकों की अपराध समस्याओं पर तमाम स्टोरीज लिखीं। इसका असर भी हुआ और जागरण का इस पूरे क्षेत्र के गांवों व कस्बों तक प्रसार खूब बढ़ गया।
मोहन बाबू मेरे उत्साह को पसंद करते थे। उन्होंने मुझे जागरण के प्रसार क्षेत्र से बाहर के इलाकों में भी खूब भेजा। उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादक अरुण शौरी ने भागलपुर के आंख फोड़ो कांड पर खूब तहलका मचा रखा था। वे जिस पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज) के राष्ट्रीय संयोजक थे उसका मैं कानपुर शहर इकाई का संयोजक था। भागलपुर आंख फोड़ो कांड पर स्टोरीज करने के लिए मुझे जागरण की तरफ से भागलपुर भेजा गया। वहां जिस होटल में मैं रुका उसी में अरुण शौरी भी ठहरे हुए थे। मैं उनसे मिला और बेहद गद्गद भाव से कहा कि शौरी साहब आप अकेले अंग्रेजी संपादक हैं जिन्हें हिंदी पट्टी के गांव-गांव में लोग जानते हैं और इसकी वजह हमारा अखबार है क्योंकि हम आपके लेखों के अनुवाद अपने यहां छापते हैं। शौरी साहब मेरी तारीफ से काफी खुश हुए और एक्सप्रेस ग्रुप की शानदार पत्रकारीय परंपराओं के बारे में बताने लगे। मैं इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका की हिम्मत व साहस से ऐसा मुग्ध हुआ कि लगा अगर पत्रकार बनना है तो इंडियन एक्सप्रेस समूह में ही काम करना चाहिए। मैने उनसे पूछा कि क्या वे मुझे अपने यहां काम दे सकते हैं? लेकिन मुझे अंग्रेजी बस इतनी ही आती है कि मैं अंग्रेजी में आई खबरों का हिंदी में अनुवाद कर सकता हूं। उन्होंने मुझे साफ मना कर दिया लेकिन यह जरूर कहा कि अगर तुम्हारे यहां कोई खबर हो तो मुझे फोन कर दिया करना। दैनिक जागरण में नौकरी करते मुझे तीन साल हो गए थे और तब तक यह भी लगने लगा कि यहां कोई भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है। इसलिए अब मैने ठान लिया कि अगर कुछ नया करना है तो दिल्ली का रुख करना चाहिए। पर कहां? दिल्ली में मैं किसी को जानता नहीं था। परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि मैं रहूं दिल्ली में और खर्चा पानी घर से मंगा लूं। निराशा के इन्हीं दिनों में मैने इंडियन एक्सप्रेस में एक विज्ञापन देखा कि एक्सप्रेस ग्रुप के जल्दी ही निकलने वाले हिंदी दैनिक के लिए पत्रकारों की जरूरत है। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मैने बगैर किसी से पूछे फौरन इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक बीजी वर्गीज के नाम हिंदी में एक आवेदन लिखा कि मैं कानपुर के दैनिक जागरण में तीन साल से उप संपादक हूं। सबिंग, संपादन, रिपोर्टिंग व लेखन में मेरी गति अच्छी है। इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़कर पत्रकारिता करने की मेरी दिली इच्छा है। मार्च 1983 में मैने यह आवेदन भेजा था लेकिन महीनों बीत गए कोई जवाब नहीं। तब तक यह पता चल गया कि जागरण से कई लोगों ने आवेदन किया हुआ है। एक्सप्रेस ग्रुप के भावी हिंदी अखबार की लिखित परीक्षा के लिए उन सभी लोगों के पास बुलावा आने लगा जिन्होंने वहां आवेेदन किया था। राजीव शुक्ला उन दिनों जागरण में मेरे सीनियर साथी थे। अक्सर उनकी डेस्क में मुझे रहना पड़ता। एक दिन अकेले में मैने उन्हें बताया कि यार एक्सप्रेस में मैने भी एप्लीकेशन भेजी थी लेकिन मेरे पास अभी तक कोई जवाब नहीं आया। राजीव शुक्ला भी दिल्ली जाकर एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार का टेस्ट दे आए थे। राजीव ने पूछा कि किसके नाम एप्लीकेशन भेजी थी? मैने बताया बीजी वर्गीज के नाम भेजी थी हिंदी में लिखकर। राजीव ने कहा- तुमने हिंदी में आवेदन भेजा है वह भी बीजी वर्गीज के नाम। पता है वो हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं पढऩा तो दूर। मुझसे पूछ लिया होता मैं बता देता कि किसके नाम भेजनी है? और कम से कम एप्लीकेशन तो अंग्रेजी में भेजनी थी। आगे राजीव ने बताया कि एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अखबार का नाम जनसत्ता है और उसके संपादक प्रभाष जोशी हैं। मैने हिंदी में यह नाम ही पहली बार सुना था। मैने मान लिया कि गलती हो गई अब मेरा एक्सप्रेस समूह में काम करना सपना बनकर ही रह जाएगा। लेकिन इसके तीन चार दिनों बाद ही 27 मई की शाम पांच बजे के आसपास मेरे घर पर इंडियन एक्सप्रेस से एक तार आया जिसमें लिखा था कि 28 मई 1983 को सुबह 11 बजे दिल्ली की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में मुझे उनके हिंदी अखबार जनसत्ता की लिखित परीक्षा में शरीक होना है। तार पढ़ते ही मैं उत्साह से गद्गद। फौरन तैयारी की और रात आठ बजे कानपुर सेंट्रल से इलेवन अप पकड़ कर सुबह पांच बजे पुरानी दल्ली स्टेशन आ गया।
मैने तब तक दिल्ली देखी भी नहीं थी। यहां किसी को मैं जानता तक नहीं था अलबत्ता मेरे एक साथी संतोष तिवारी जरूर दिल्ली में रहकर स्ट्रगल कर रहे थे। वे कहां रहते हैं, यह तो पता नहीं था पर इतना मालूम था कि वे टाइम्स की हिंदी पत्रिका दिनमान के संपादकीय विभाग में कुछ करते हैं। मैने स्टेशन पर ही दिनमान खरीदा और उसका पता देखा- 10, दरियागंज, नई दिल्ली। वहीं पूछताछ से मालूम हुआ कि यहां से पास ही है। स्टेशन पर ही मैं फ्रेश हुआ तब तक आठ बज चुके थे। पैसे बचाने और समय काटने के लिए मैं पैदल चलते हुए करीब नौ बजे तक दिनमान के कार्यालय तक पहुंच गया। उस समय तक वहां सक्सेना नाम का एक चपरासी ही आया हुआ था। उसी से संतोष के बारे में पूछा तो पता चला कि दस के बाद आएंगे। सक्सेना मजेदार आदमी थे। उन्होंने मेरा पूरा पता जान लिया और यह भी पूछ लिया कि मैं यहां क्यों आया हूं। उन्होंने मुझे बिठाया, चाय पिलाई व नीचे से समोसे मंगाकर भी खिलाए। तथा यह भी बता दिया कि एक्सप्रेस बिल्डिंग यहां से दो किमी सीधी सड़क पर है मैं चाहूं तो पैदल ही चला जाऊं। मैं दस के पहले ही निकल लिया और कह दिया कि संतोष को बता देना। साढ़े दस बजे मैं एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंच गया। ग्यारह बजे से परीक्षा शुरू हुई। परचा था तो बहुत लंबा लेकिन समय भी खूब था। हर सवाल के जवाब दिए। सामान्य ज्ञान का तो वैसे भी मैं मास्टर था इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। करीब छह बजे शाम को जब मैं परचा देकर निकला तो बाहर ही संतोष तिवारी मिल गए और अपने यहां ले गए। संतोष तब पटपड़ गंज गांव के एक घर की परछत्ती में रहते थे। मैने कहा कि तुम्हारा दिल्ली रहने का क्या फायदा है जो तुम्हें एक ऐसे गांव में ही रहना है जिसके नाम में कोई रिदम न हो। इससे तो अच्छा है कि तुम कानपुर के अपने गांव में रहते। कम से कम घर तो विशालकाय होता। संतोष ने कहा कि दिल्ली जब तुम आ जाओगे तब इसकी अहमियत जानोगे। मैने कहा कि देखो जनसत्ता की लिखित परीक्षा में तो पास हो जाऊंगा बाकी इंटरव्यू अगर अंग्रेजी में हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। संतोष बोला अगर अंग्रेजी से डरे तो दिल्ली नहीं रह पाओगे।
13 जून को मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। चूंकि एक बार दिल्ली हो आया था इसलिए  कुछ आत्मविश्वास भी था। एक्सप्रेस बिल्डिंग के हाल में तमाम लोग बैठे थे कुछ इंटरव्यू दे चुके थे कुछ का नंबर अभी आना था। वहां की फुसफुसाहट से पता चला कि अंदर सारे लोग अंग्रेजी के ही हैं। प्रभाष जोशी जो उस वक्त तक इंडियन एक्सप्रेस के रेजीडेंट एडिटर थे, बीजी वर्गीज, एलसी जैन तथा राजगोपाल। मुझे लगा कि मेरा लौट जाना श्रेयस्कर होगा। ये लोग लगता है कि हिंदी पत्रकारों से अंग्रेजी में ही अखबार निकलवाएंगे। तभी मेरा नाम बुलाया गया। अंदर पहुंचा तो पहले प्रभाष जी ने ही पूछा कि आपने ज्यादातर रपटें गांवों के बारे में लिखी हैं आप मुझे सेंट्रल यूपी के जातीय समीकरण के बारे में बताइए। मेरा आत्मविश्वास लौट आया और मैं फटाफट बोलने लगा। कुछ सवाल वर्गीज जी ने पूछे तथा कुछ एलसी जैन ने। लेकिन अब मैं आश्वस्त था कि मेरा चयन सेंट परसेंट पक्का है। 18 जुलाई को प्रभाष जी का एक पत्र आया जिसमें लिखा था- प्रिय श्री शुक्ल, बधाई! आपका जनसत्ता में चयन हो गया है। आपका नाम मेरिट लिस्ट में है। चुनने का हमारा तरीका शायद बेहद थकाऊ और उबाऊ रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिष्ठाओं और सिफारिशों को छानने के लिए इससे बेहतर कोई चलनी नहीं थी। मेरा मानना है कि पहाड़ वही लोग चढ़ पाते हैं जो बगैर किसी सहारे के अपने बूते चलते हैं।
अद्भुत पत्र था यह। घर में सब ने पढ़ा और पहली बार मेरे घर में सबने माना कि जनसत्ता का टेस्ट पास कर मैने एक बड़ा काम तो कर ही लिया है। अगले ही दिन मैने दैनिक जागरण में इस्तीफा दिया और 20 जुलाई की सुबह गोमती एक्सप्रेस पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया। स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला मिल गए और तब भेद खुला कि हम दोनों ही जनसत्ता के लिए जा रहे हैं। उनका चयन भी पहले ही बैच में हो गया था। दोपहर बाद जब हम एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचे तो पता चला कि जनसत्ता के साथियों के लिए बैठने की व्यवस्था तो एक अगस्त तक हो पाएगी। आप लोग अभी जाओ एक तारीख को आना। अब बड़ी मुसीबत थी घर से पूरी तैयारी कर के आए थे। कुछ सामान भी ले आए थे अब सब कुछ वापस ले जाओ और फिर एक को लाओ इस झंझट से बचने के लिए संतोष तिवारी के यहां सामान रख दिया और अगले रोज 21 को वापस चले गए। दिल्ली में कुछ लोगों ने बताया कि इंडियन एक्सप्रेस का हिंदी में प्रयोग कभी सफल नहीं हुआ है। आप लोग गलत फंस गए हैं। बेहतर रहे कि वापस लौट जाओ। कानपुर में अब क्या करूं? जनसत्ता में काम शुरू नहीं किया और जागरण की लगी लगाई नौकरी से इस्तीफा दे चुका था। राजीव ने बताया कि उसने तो अभी इस्तीफा नहीं दिया है क्योंकि उसे इस बात का अंदेशा था कि  जनसत्ता शुरू भी होगा या नहीं। घर में अब मन नहीं लग रहा था इसलिए यह इंतजार मैने गांवों में रहकर काटा और फिर एक की बजाय दो अगस्त को दिल्ली आया। पता लगा कि राजीव ने तो एक को ही ज्वाइन कर लिया था। जनसत्ता के अभी दूर-दूर तक निकलने की संभावना नहीं थी। न तो साथियों के बैठने की जगह बन पाई थी न ही संपादकीय विभाग का कोई ताना-बाना था। सिर्फ बनवारी जी, हरिशंकर व्यास और सतीश झा को छोड़कर बाकी सब उप संपादक की पोस्ट पर थे। कुछ अन्य वरिष्ठ लोगों में गोपाल मिश्रा को न्यूज एडिटर और देवप्रिय अवस्थी को डिप्टी न्यूज एडिटर बनाया गया था। रामबहादुर राय के नेतृत्व में 5 लोगों की एक रिपोर्टिंग टीम भी बनी लेकिन राजनीतिक ब्यूरो नहीं बनाया गया। कुछ प्रशिक्षु भी रखे गए।
प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाषजी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया।
हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा  हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के  समक्ष एक चुनौती पेश कर दी।

इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।
History of Gurjars
राणा अली हसन चौहान पाकिस्तान के बहुत ही प्रतिष्ठित इंजीनियर, इतिहास लेखक और भाषाविद रहे हैं। वे उन कम पाकिस्तानियों में से हैं जो उर्दू, फारसी, अरबी के अलावा सिंधी, पंजाबी तथा हिंदी व संस्कृत में भी पारंगत थे। वे नागरी लिपि के एक बड़े प्रवर्तकों में से रहे हैं और मानते रहे हैं अकेले यही एक लिपि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़े रख सकती है। वे मानते थे कि इस सारे इलाके को एक हो जाना चाहिए। उनकी एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ी और समझी जाने वाली पुस्तक है- ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द गुर्जर्स। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे पढ़ाए जाने तथा पाठ्यक्रम में स्वीकृत किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है। यह पुस्तक भारतीय वर्णव्यवस्था और तुर्कों तथा अंग्रेजों की चालों का पर्दाफाश करने के लिए काफी है। यह पुस्तक बताती है कि कैसे कुछ चतुर और कायर जातियों ने पहले मुस्लिम हमलावरों और बाद में अंग्रेजों को यह समझा दिया कि भारत मेें गूजर आदिवासी टाइप की जाति हैं और यहां के असली क्षत्रप तो हम रहे हैं। इस पुस्तक में भारत मेें स्वयं को वीर बहादुर कहने वाली एक जाति राजपूत की चतुराई को बड़े ही तार्किक तरीके से बताया गया है। पुस्तक के मुताबिक राजपूत जाति ने यहां के गूजरों, यादवों और प्रतिहारों को धोखा देकर सत्ता छीनी और फिर खुद शासक बन बैठे। वर्ना सातवीं से बारहवीं सदी तक भारत के पूरे मैदानी इलाके में गुर्जर प्रतिहारों का राज  था। अली हसन चौहान बताते हैं कि कर्नल जेम्स टाड ने राजपूतों के पैसे से एक किताब लिखी- हिस्ट्री आफ राजपूताना, इस किताब में उसने एक ऐसी कहानी लिख दी जिससे लगता है कि गुर्जर विदेशी हैं। अली हसन चौहान का कहना है कि एक जमाने में पूरा हिंदुस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और गंगा यमुना का पूरा दोआबा गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पास था और विदेशी मुसलिमों से इन गुर्जर नरेशों ने ही टक्कर ली थी।
राजपूतों के इतिहास के बारे में लिखते हुए राणा अलीहसन ने लिखा है कि ये वे लोग थे जो विदेशी तुर्क आक्रांताओं से मिल गए और गुर्जर राजाओं के विरुद्ध षडयंत्र कर सत्ता पर कब्जा कर लिया। जबकि पूर्व काल के क्षत्रिय गुर्जर जरायम पेशा जाति के दर्जे में डाल दिए गए। राणा अली हसन के मुताबिक अयोध्या नरेश दशरथ, श्री कृष्ण की मां यशोदा, पन्ना धाय, विजय ङ्क्षसह पथिक, सरदार बल्लभ भाई पटेल, भारत के राष्टपति स्वर्गीय फखरुद्दीन अली अहमद, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति श्री फजल इलाही और भारत में केंद्रीय मंत्री रह चुके स्वर्गीय राजेश पायलट इसी गुर्जर जाति से थे।
आर्यों केे विदेशी होने के सिद्धांत का खंडन करते हुए राणा अली हसन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, ऊपरी पंजाब, ऊपरी उत्तर प्रदेश तथा हिमालय पर्वत की एक-एक इंच जमीन आर्यों के लिए पवित्र थी। आज भी यह सारा इलाका देवी-देवताओं के तीर्थ स्थानों से भरा पड़ा है। वैदिक युग में पूर्वी उत्तर प्रदेश के वर्तमान में सीतापुर जिले में नैमिषारण्य आर्यों का पवित्र तीर्थ स्थान था। ऋग्वेद में जिस तरह की भूमि का जिक्र हमें मिलता है वह यही उपमहाद्वीप था, जो अब भारत, पाकिस्तान और बंाग्ला देश कहा जाता है।
अपने मत की पुष्टि के लिए वे एक और उदाहरण पेश करते हैं। वे बताते हैं वेद में सुदास और नौ राजाओं के बीच युद्ध का वर्णन है। ये राजा असुर कहलाते थे। राणा अलीहसन के अनुसार ये सभी राजा जो असुर कहलाए दरअसल आर्यों की ही शाखा से थे। कहा जाता है कि आर्यों ने स्थानीय लोगों को अपने अधीन कर लिया। उनके क्षेत्र की विशालता तथा अधिक आबादी की व्यवस्था को सुचारू रूप से करने के लिए उन्होंने अपने को चार वर्णों में बांट दिया- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। अधीनस्थ लोगों को शूद्र बनाया तथा स्थानीय विरोधियों को बुरे-बुरे नाम दिए। जैसे- असुर, अनार्य, राक्षस, दस्यु, दैत्य, निषाद तथा दानव। राणा अली हसन इसे गलत बताते हुए अपनी पुस्तक में कहते हैं- धार्मिक पुस्तकों की जानकारी रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि अहले ईमान और काफिर, मोमिन व मुनाफिक मुस्लिम और मूर्ति पूजक, फासिख और फाजिर सब एक ही वंश के थे। इसी प्रकार देव, सुर, आर्य और असुर, अनार्य, राक्षस, दास, दस्यु, दैत्य, निषाद व दानव के बीच भी कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। इन दोनों समूहों की भाषा, नाम तथा परिवार एक ही थे। यह व्यक्ति की नैतिक गुणवत्ता को व्यक्त करने के लिए शब्द प्रयोग होते थे। जैसे ऋग्वेद के दस राजा एक ही जाति के सदस्य थे। उनके नाम संस्कृत में थे। इसके कई उदाहरण हैं। सुदास एक आर्य का नाम था। शतबाहु व कीर्ति असुरों के नाम थे। सुधर्मा किन्नरों का राजा था। एक निषाद का नाम गुह था। कुक्षि एक दानव था। कुक्षि ईक्ष्वाकु देव का नाम भी था। वृत्रासुर इन्द्र के द्वारा मारा गया था। पुष्कल एक असुर था। कश्यप ऋषि के पुत्र वरुण के बेटे का नाम भी पुष्कल था। पुरोचन एक दैत्य का नाम था तथा इन्द्र के ससुर का नाम भी यही था। पुलोमा भृगु ऋषि की पत्नी का नाम था। च्यवन ऋषि की मां का नाम भी यही था। शटाटिक एक असुर का नाम था। ऋषि व्यास के शिष्य तथा नकुल देव के पुत्र का नाम महीश था।
एक महीश असुर भी था जो दुर्गा देवी ने मारा था। सुमन का अर्थ है फूल। ब्राह्मणों अथवा देवों में आज तक यह नाम सामान्यतया रखा ही जाता है। जबकि सुमन एक दानव भी था। सुबाह दुर्योधन के बड़े भाई का नाम था तथा एक दानव का भी यही नाम था। हिरण्यकश्यपु एक राक्षस था, उसी समय उसका पुत्र प्रहलाद देव कहलाता था। इसके पश्चात् प्रहलाद का पोता बलि दैत्य था। हिरण्यकश्यपु विष्णु के अवतार नरसिंह द्वारा मारा गया। मधु शिव या महादेव है। मधु एक दैत्य भी था जो विष्णु द्वारा मारा गया था। शुक्राचार्य नाम का एक आचार्य था उसकी शिक्षाएं अपवित्र घोषित हो गई थीं। उसके शिष्य असुर कहलाते थे और उसे असुर गुरू कहते थे। वह महान ऋषि भृगु का पुत्र था। उसकी पुत्री प्रसिद्ध राजा ययाति से ब्याही गई थी। उसीका पुत्र यदु था जिसकी संतानें आज तक हैं और यादव कहलाती हैं। इसी वंश में श्रीकृष्ण पैदा हुए। एक त्रास दस्यु था जो ऋषि सोमार का ससुर था।
रामायण काल में श्री रामचंद्र, लक्ष्मण प्रतिहार, भरत व शत्रुघ्न रघु के वंशज दशरथ के पुत्र थे यह सब आर्य थे। जनक श्री रामचंद्र की पत्नी सीता के पिता थे। जनक सांवर असुर के पुत्र थे। अब रावण राक्षस की वंशावली पर ध्यान दीजिए जो श्री रामचंद्र का शत्रु था। रावण का पिता विश्रवा एक ऋषि था उसकी पत्नी कैकसी सुमाली नामी एक राक्षस की पुत्री थी। उसकी दूसरी पत्नियां निक्षा व राका थीं। विश्रवा की चार संतानें थीं। रावण अर्थात रावत या राजा। उसका पुत्र मेघनाद था जो इन्द्रजीत भी कहलाता था। वह युद्ध में लक्ष्मण द्वारा मारा गया। लक्ष्मण इस विजय के पश्चात प्रतिहार कहलाया। २ कुंभकर्ण उसका पुत्र निकुम्भ सुग्रीव के सेनापति व रामचंद्र जी के सहयोगी हनुमान द्वारा मारा गया। ३ विभीषण, उसकी पत्नी शर्मा थी। ४ शूर्पणखा नाम की एक पुत्री थी। ध्यान रहे कि शूर्पणखा पुलस्त्य ऋषि की पुत्री का नाम भी था। विश्रवा परिवार के सारे सदस्य, विभीषण को छोड़कर श्री रामचंद्र जी के विरुद्ध लड़े इसीलिए राक्षस कहलाए। परन्तु विभीषण राक्षस नहीं था। एक और राजघराने में बालि और सुग्रीव दो भाई थे। बालि ने श्रीरामचंद्र का विरोध किया इसलिए वह राक्षस कहलाया।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण के मामा कंस राक्षस कहलाते थे क्योंकि उन्होंने अपने पिता उग्रसेन को जेल में डाल दिया था। शिशुपाल चेदि का शुद्ध क्षत्रिय राजा था। उसकी माता सुभद्रा थी जो सात्वत भी कहलाती थी। उसने श्रीकृष्ण का विरोध किया इसलिए राक्षस कहलाया और श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया। भीम ने जटासुर को मारा था। पहली सदी ईसापूर्व में वाराहमिहिर ने जटासुर नाम की एक जाति लिखी है। जाट अब एक जाति है। ये शुद्ध आर्य हैं।
महाभारत नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ी लड़ाई दो परिवारों के बीच लड़ी गई थी। पांडवों और कौरवों के बीच। श्रीकृष्ण ने स्वयं पंाडवों का साथ दिया। उपमहाद्वीप के सभी राजाओं ने किसी न किसी ओर से इस युद्ध में भाग लिया। जो कौरवों की ओर से लड़े थे, उन्हें पुस्तक में जाति बहिष्कृत लिख दिया गया। जैसे शाकर, चिब, हूण व शिना आदि। यह ध्यान देने की बात है कि इन क्षत्रियों को व्यवहार में कभी भी बहिष्कृत नहीं माना गया। पहलवा आधुनिक पहलवी, कंबोज और पख्तू या पख्तून शुद्ध क्षत्रिय माने जाते रहे। दुर्योधन की बहन सिंध के राजा जयद्रथ से ब्याही थी जो कौरवों के पक्ष से लड़ा था।
कम्बोज, पहलव व पुख्तू सिन्ध व गंधार से परे पश्चिमी क्षेत्रों के राजा थे। पश्चिम में पहलव व कंबोज तथा पूर्व में प्राग्ज्योतिषपुर, आधुनिक आसाम व गौड़ देश, आधुनिक बंगाल तक आर्यों का घर था जिसको उन्होंने आर्यावर्त नाम दिया था स्पष्ट है कि आर्य व असुर आदि एक ही जाति से संबंध रखते हैं।
मानव की उत्पत्ति के संबंध में बहुत बड़ा स्रोत संस्कृत साहित्य है। इससे पता चलता है कि आर्यों के पूर्वज देव थे जो वेदों से भी पूर्व अज्ञात समय से इस उपमहाद्वीप में रह रहे थे। वेेदों में भी उपमहाद्वीप के अतीत काल का वर्णन है। उदाहरण के लिए सुदास देवदास का पुत्र था जिसका पिता पिजावन वघ्रयाश्व का पुत्र था। वे त्रत्सु वंश के सदस्य थे। दूसरे कुल-जह्नू, इक्ष्वाकु, वित्ताश्रय, भृगु आदि थे। इनके पूर्वजों के नाम भी वेदों में लिखे हैं। ये सब वेदों से पूर्व भी इस उपमहाद्वीप में रहते थे।
- वेद में आर्यों के विभाजन या किसी जाति-पाति की बात कहीं नहीं मिलती। वेदों में सभी जगह राजा को राजन् तथा पुरोहित को ऋषि कहा गया है। कहीं-कहीं अध्यापक के लिए ब्राह्मण तथा सैनिक के लिए क्षत्रिय शब्द प्रयुक्त हुआ है। परन्तु ये सब किसी जाति को प्रदर्शित नहीं करते। वेद के एक मंत्र का अर्थ है- ब्राह्मण ब्रह्मा का मुख है, क्षत्रिय भुजाएं हैं, वैश्य पेट है तथा शूद्र पैर हैं।। विद्वान संस्कृत शोधकर्ता मिस्टर एफई पार्जिटर अपनी पुस्तक एन्सिएन्ट इंडियन हिस्टोरिकल ट्रेडींस मं लिखते हैं कि ये मंत्र प्रक्षिप्त हैं। आर्यों में विभाजन तथा जातियां बाद में आईं। इन जातियोंं ने स्थायी संस्था बनने में कई सदियां लगाईं तथा उनकी निश्चित जीवन शैली बनने में और भी अधिक वक्त लगा। यदि हम आधुनिक जातियों के गोत्र तथा परिवारों पर दृष्टि डालें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शूद्र शेष तीनों वर्णों की ही शाखा है तथा आर्य जाति से हरगिज अलग नहीं है।
- आर्य संस्कृति तथा सभ्यता का आर्यावर्त से बाहर सब दिशाओं में प्रसार हुआ। यही कारण है कि संस्कृत शब्द पड़ोसी देशों की भाषा में बहुत अधिक तथा दूर देशों की भाषाओं में भी मिलते हैं। ईरान की पुरानी फारसी भाषा में ५० प्रतिशत से अधिक शब्द प्राकृत संस्कृत के हैं।
- इन शब्दों को देखने से पता चलता है कि फारसी भारत-पाक उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय भाषाओं की तरह संस्कृत की ही एक शाखा र्है। संस्कृत शब्द ईरान के माध्यम से तुर्की तथा यूरोप में गए। इस प्रकार श्रीलंका, तिब्बत, नेपाल, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, जावा, सुमात्रा, बाली, स्याम तथा कंबोडिया आर्य संस्कृति से प्रभावित हुए। यद्यपि फिलीपीन्स, चीन तथा जापान की भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द मिलते हैं परन्तु उपमहाद्वीप की भाषाओं में संस्कृत का शत-प्रतिशत प्रभाव है।
- आर्यों की भाषा के कुछ शब्द एशिया तथा यूरोप की किसी भी आर्य भाषा में नहीं मिलते, वे वैदिक संस्कृत में मिलते हैं। इससे पता चलता है कि वैदिक संस्कृत सबसे पुरानी बिना मिलावट की भाषा है। इससे इस बात का भी खंडन होता है सप्तसिंधु आर्यों की यात्रा का अंतिम पड़ाव था। वैदिक आर्य सप्तसिंधु में आने वाली नहीं बल्कि यहां से बाहर जाने वाली जाति थी।
अली हसन लिखते हैं कि मध्यकालीन इतिहासकार- व्रद्धगर्ग, वाराहमिहिर तथा कल्हण महाभारत युद्ध को २४९९ ईपू में हुआ बताते हैं। अब्बूरेहन अलबेरूनी जो इस महाद्वीप में ११वीं सदी के प्रारंभ में वर्षों रहे तथा जिनका न केवल संस्कृत साहित्य अपितु यहां के इतिहास पर भी पूरा अधिकार था, ने अपनी पुस्तक किताब-उल-हिंद अध्याय १९ में गणनाओं के साथ भिन्न-भिन्न कालों का विवेचन किया है। वे कहते हैं कि यदि यज्दीजर्द का ४००वां वर्ष परीक्षण वर्ष या तुलना का पहला पैमाना माना जाए तो हमारे मापन वर्ष से पहले ३४९७ वर्ष इस युुद्ध को हुए हो गए। अबुल फजल ने यह घटना ३००० ईपू की बताई है।
मैगस्थनीज, चौथी सदी ईपू के यूनानी यात्री, ने श्रीकृष्ण और चंद्रगुप्त के बीच १३८ राजाओं के राज्य करने का उल्लेख किया है। चंद्रगुप्त ३१२ ईपू में गद्दी पर बैठा। एक शिलालेख पर कलि संवत लिखा है, कलि संवत महाभारत युद्ध के तुरन्त बाद शुरू हुआ था। विक्रम संवत से तुलना करने पर, विक्रम संवत ईस्वी संवत से ५७ वर्ष पुराना है, युद्ध का समय ३१०१ ईसा पूर्व आता है। पुराने समय में आर्यभट्ट ने भी यही समय बताया है।
राणा अली हसन ने लिखा है कि लाहौर के मशहूर अखबार जंग ने १७ अक्टूबर १९८४ को दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस में डॉक्टर डीएस त्रिवेदी के छपे एक लेख के हवाले से लिखा है कि महाभारत का युद्ध १४ नवंबर ३१३७ ईपू दिन मंगलवार को शुरू हुआ था। वे लिखते हैं कि यदि द्वापर, त्रेता की अवधि कम से कम दस-दस हजार साल की मानी जाए तो वेद की रचना २५ हजार साल पहले की साबित होती है। वैदिक आर्यों के पूर्वज इस उपमहाद्वीप में इससे भी पहले से रह रहे थे। अठारह पुराणों में मानव की उत्पत्ति, राजाओं तथा ऋषियों आदि का वर्णन मिलता है। प्राचीनतम पुराण वेद से भी पुराना है जैसा कि अथर्व वेद में पुराण का नाम दिया गया है। साधारण जनता के लिए उपनिषद के रूप में साधारण साहित्य की रचना हुई। समाज के लिए विधि निषेध स्मृतियों में दिए गए। श्रुतियों में ऋषियों के प्रवचन का संकलन किया गया। युद्धों तथा वीरों की वीरता का वर्णन महाकाव्यों में लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि आर्यों के पूर्वज मानव की उत्पत्ति से या इतिहास के अज्ञात समय से इस देश में रह रहे हैं।
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं के सामान्य स्रोत या उद्गम की खोज की दौड़ १७८४ ईस्वी में शुरू हुई। आर्यावर्त को आर्यों की मूल मातृभूमि तथा संस्कृत को उनकी भाषा सिद्ध करने के लिए बहुत पुराना तथा विशाल संस्कृत साहित्य है। परन्तु योरोप के लोगों ने भाषा शास्त्र, ऐतिहासिक तथ्यों तथा वास्तविकताओं को बहुत तोड़ा मरोड़ा है। आर्यों को इस उपमहाद्वीप से बाहर का साबित करने के लिए विभिन्न मत प्रतिपादित किए गए परन्तु उनके द्वारा इस विषय में दिए गए तर्क आर्यावर्त को आर्यों का मूलस्थान सिद्ध करने में ही प्रयुक्त हो सकते हैं।
- महाभारत में प्राग्ज्योतिष पुर आसाम, किंपुरुष नेपाल, हरिवर्ष तिब्बत, कश्मीर, अभिसार राजौरी, दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गन्धार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दण्डक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आन्ध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग दो सौ जनपद महाभारत में वर्णित हैं जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।
राणा अलीहसन चौहान लिखते हैं कि पुराने वंशों से नए नाम के साथ नई-नई जातियां और कबीले बन जाते हैं। इक्ष्वाकु, पुरु व यदुकुल के उच्च श्रेणी के क्षत्रिय रक्त व साहसिक कार्यों के आधार पर संगठित हो गए तथा गुर्जर नाम से प्रसिद्ध हुए। उस समय गुर्जरों के अधीन जो क्षेत्र था, उसे गुर्जर देश या गुर्जरात्रा कहा जाता था।
संस्कृत में यदि किसी अक्षर पर बिंदु लगा दिया जाए तो वह अक्षर नाक में बोला जाता है, जैसे मां, हां आदि। गुरं का अर्थ शत्रु होता है। उज्जर का अर्थ नष्ट करने वाला। इसमें बिंदु का धीरे-धीरे लोप हो गया तथा गुर उज्जर मिल कर कालक्रम से गुर्जर बन गया जिसका अर्थ है शत्रु को नष्ट करने वाला। यह पुल्लिंग है। अली हसन ने अपने मत की पुष्टि के लिए संस्कृत शब्दकोष, कलद्रुपम का हवाला दिया है जिसे पंडित राधाकांत शर्मा ने संपादित किया है।
गुर्जर राजाओं व गुर्जर जाति का वर्णन करते हुए राणा अलीहसन ने लिखा है कि विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का पहला निशाना गुर्जर अधिपति ही बने। चाहे वे सिंध के राजा दाहिर रहे हों या सिकंदर से लोहा लेने वाले पोरस। गुर्जर प्रतिहार का एक जमाने में पूरे देश में एकक्षत्र राज्य था। इस जाति के एक प्रतापी नरेश राजा मिहिरभोज ने ईस्वी सन् ८३६ से ८८८ तक कन्नौज में राज किया था। उनके राज्य की सीमाएं पश्चिम में गांधार और काबुल से लेकर पूरब में बर्मा तक फैली थीं। अलीहसन साहब लिखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान जैसे वीर गुजर शासकों के पतन के बाद राजपूताने में जो शासक बैठे वे गुर्जर नरेशों की ही संतानें थीं लेकिन उन्होंने चूंकि मुगल व उनके पहले आए तुर्कों न गुर्जरों को उपेक्षित कर रखा था इसलिए उन्होंने खुद को राजपूत कहना शुरू किया यानी राजाओं के पुत्र। बाद में १९ वीं सदी में जब अंग्रेजों ने वीरगुर्जरों के विद्रोहों से आजिज आकर उन्हें जरायमपेशा घोषित कर दिया तो राजपूतों ने उनसे अलग दिखने के लिए कर्नल टॉड जैसे मुंशी का सहारा लिया और उसे रिश्वत देकर अपना एक अलग इतिहास लिखाया जिसमें राजपूतों को एक अलग जाति करार दिया गया।

JANSATTA DAY'S-2

प्रभाष जी के जनसत्ता की सबसे बड़ी खूबी उसमें नीचे से लेकर ऊपर तक सबके योगदान को बराबर की सराहना। प्रभाष जी सबकी बात सुनते और सबको अपनी बात रखने को प्रोत्साहित करते। यही कारण है कि जनसत्ता ने तब व्यावसायिक हिंदी अखबारों की समक्ष तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी कीं। सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर थी। तब दिल्ली से लगाकर कानपुर, जयपुर, पटना, कोलकाता, भोपाल और मुंबई में हिंदी अखबार एक तरह की आर्य समाजी इस्तेमाल करते थे जिसमें शुद्घता, संस्कृतनिष्ठा और जटिलता ही प्रमुख थी। प्रभाष जी ने एक ऐसा अखबार निकाला जिसमें भाषा की ये जंजीरें तोड़ी गई थीं। भाषा सहज, प्रवाहमान और टकसाली रखने का निर्णय उन्होंने किया। मसलन अनुसार की जगह मुताबिक। तब हम सब लोग अनुसार शब्द का प्रयोग करते थे। उनके अनुसार पर प्रभाष जी ने कहा कि नहीं ज्यादा प्रवाहमान होगा- उनके मुताबिक। एक दिन तब मैं और राजीव बुलंदशहर से लौट रहे थे। हमने जीटी रोड (एनएच-91) पर हर पुलिया के पहले यह चेतावनी लिखी देखी- सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है। हमने लौटकर प्रभाष जी से पूछा कि पुलिया संकीर्ण कैसे हो सकती है? यह बात अगस्त की रही होगी। उस समय प्रभाष जी ने कुछ नहीं कहा पर तीन महीने बाद 17 नवंबर 1983 को जनसत्ता के पहले ही अंक में प्रभाष जी ने एक संपादकीय लिखा- सावधान! आगे पुलिया संकीर्ण है। इसके बाद उन्होंने हमसे पूछा कि मिल गया जवाब। इसके अलावा प्रभाष जी ने जनसत्ता की भाषा आम बोलचाल की भाषा रखने का सुझाव दिया। चूंकि जनसत्ता में देश के कमोबेश सभी प्रान्तों के लोग जुड़े थे इसलिए आग्रह हुआ कि देशज शब्द प्रयोग किए जाए। इसी तरह यह प्रभाष जी ने ही कहा कि 'ऑन द स्पॉट' को ठौर तथा किन्तु, परन्तु या मगर के स्थान पर लेकिन और पर आदि इस्तेमाल किया जाए। लिखते वक्त व्यंग्यात्मक शब्द भी जरूरत के मुताबिक किए जाएं। जैसे चिरकुट शब्द का चलन जनसत्ता ने ही शुरू किया। नेहरू टाइप यूटोपिया को जनसत्ता ने तोड़ा। यह प्रभाष जी का ही कमाल था कि जनसत्ता ने आते ही धमाल मचा दिया। हिंदी के पाठकों को नया जीवन मिला और उन्हें तब के नवभारत टाइम्स व हिंदुस्तान के मुकाबले ज्यादा खरा अखबार पढऩे को उपलब्ध हुआ।
संज्ञा को जस का तस लिखने का आग्रह प्रभाषजी का था। और पूरा नाम लिखने का भी। जैसे जनसत्ता ने एनटीआर को नंदमूरि तारक रामराव और एमजीआर को मरुदुर गोपालन रामचंद्रन लिखने पर जोर दिया। किसी के भी आगे विशेषण लगाने से मना किया। जैसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी या राजीव गांधी। उनका कहना था कि जब पदनाम आ ही गया तो श्री विशेषण का क्या मतलब? हम लोग अटलबिहारी वाजपेयी को कभी भी अटल जी नहीं लिखते थे न ही चौधरी चरण सिंह को श्री चौधरी या चरण सिंह जी। राजनारायण को सिर्फ राजनारायण लिखा जाए और मुलायम सिंह को श्री यादव नहीं मुलायम सिंह ही लिखें। यानी व्यक्ति की पहचान उसके प्रथम नामसंज्ञा से होगी सरनेम से नहीं। पर मुझे वे पंडित या सुकल कह कर संबोधित करते। उन्होंने कभी मुझे शंभूनाथ नहीं कहा। मैं जनसत्ता में आने के पहले रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और दिनमान में शंभूनाथ नाम से लिखता था पर प्रभाष जी ने जनसत्ता में मेरा पहला ही लेख शंभूनाथ शुक्ल के नाम से छापा। मेरे ऐतराज करने पर उनका जवाब था कि सरनेम छिपाने से लाभ क्या। लोग आपकी जाति तलाश ही लेंगे। काठमांडू को काठमांडौ लिखा जाए और बंगलौर को बेंगलूरू, बड़ौदा को वडोदरा और कलकत्ता को कोलकाता। इसी तरह बंबई को मुंबई और अहमदाबाद को अमदाबाद आदि-आदि संज्ञाएं जनसत्ता की थीं। राजेंद्र सिंह सब जगह राजेंद्र 
सिंह रहेंगे लेकिन पंजाब में वे राजेन्दर पुकारे जाएंगे। इसी तरह तेजेंद्र तेजेंदर और परमेंद्र परमिंदर। हिंदी को सहज बनाने के लिए उन्होंने चंद्रबिंदु को खत्म करवा दिया। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि जनसत्ता अकेला अखबार था जिसे फोटो टाइप सेटर के जरिए कंपोज किया जाता था और ब्रोमाइड चिपका कर पेज बना करता था।
(बाकी का कल)

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

Jansatta Day's

1983 से 1995 जुलाई तक जनसत्ता के संपादक प्रभाष जी रहे और तब तक जनसत्ता शिखर पर रहा। अपनी साख की वजह से भी और धाक की वजह से भी। जो जनसत्ता में छप जाए वही सही माना जाता था। इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर या करस्पांडेंट तो दूर खुद इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक भी जनसत्ता में छप जाना अपना सौभाग्य समझते थे। यह जनसत्ता का ही जलवा था कि सुमन दुबे से लेकर अरुण शौरी तक जनसत्ता में आकर चिरौरी किया करते थे कि उनका अग्रलेख जनसत्ता भी प्रकाशित कर ले। अरुण शौरी अपने ईगो के कारण प्रभाष जीसे सीधे तो नहीं कहते थे पर सीधे मेरे पास (तब मैं चीफ सब था) आकर कहते थे कि शुक्ला जी मेरे लेख का अनुवाद आप ही कर देना। इसकी वजह भी थी कि जनसत्ता के लेख और रपटों के कारण ही इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाताओं की पूछ और गूँज संसद तक में होती थी। मालूम हो कि 1990 तक जनसत्ता के पास अपना पोलेटिकल ब्यूरो नहीं था इसलिए हम एक्सप्रेस न्यूज सर्विस की खबरें जनसत्ता के नाम से छापा करते थे। यानी रपट अंग्रेजी की पर गूँज हिंदी वालों के बीच। जब जनसत्ता का पोलेटिकल ब्यूरो बना भी तब भी वरीयता इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाताओं को ही मिला करती थी। इसकी वजह थी कि एक्सप्रेस के संवाददाता हिंदी वालों की तरह एक तो लफ्फाजी नहीं करते थे और तथ्यपरक रिपोर्ट ही देते थे। दूसरे वे कास्ट या कम्युनल आधार पर बॉयस्ड नहीं थे। इसके अलावा तीसरी एक बड़ी वजह थी कि हिंदी के संवाददाताओं में लखनऊ से हेमंत शर्मा, पटना से सुरेंद्र किशोर और जयपुर से आत्मदीप और राजीव जैन तथा दिल्ली में अनिल बंसल को छोड़ दिया जाए तो बाकी के संवाददाताओं की कॉपी इतनी कन्फ्यूजिंग और उसमें इतना अधिक मात्रा दोष होता था कि लगता था कि इससे बेहतर है अनुवाद कर लिया जाए। उस समय कहा जाता था कि जनसत्ता की डेस्क तो मजबूत रही पर रिपोर्टिंग एकदम लचर। देवप्रिय अवस्थी, सत्यप्रकाश त्रिपाठी, श्रीश चंद्र मिश्र, अभय कुमार दुबे, मनोहर नायक और कुमार आनंद टिकमाणी जनसत्ता डेस्क के चमकते हुए सितारे थे।
प्रभाष जोशी के जनसत्ता की इस अथाह लोकप्रियता की वजह एक और थी और वह थी प्रभाष जी द्वारा अखबार के व्यवस्थाविरोधी चरित्र को यथावत रखना। रिपोर्ट कतई बॉयस्ड न हो पर डेस्क जब अनुवाद करती थी तब उसमें उसका व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक आक्रोश का अंश आ ही जाया करता था। बाद के दिनों में अंबरीष कुमार, अरुण कुमार त्रिपाठी और सत्येंद्र रंजन ने जनरल डेस्क को व संजय सिंह, अरिहन जैन तथा संजय सिन्हा की तिकड़ी ने डाक डेस्क पर इस परंपरा को आगे बढ़ाया। और यही वजह थी कि जनसत्ता को तोप के मुकाबिल का अखबार समझा जाता था। जब राजीव गांधी बदनामी में उलझे तो इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ही वीपी सिंह के साथ खड़े हो सके और जब देश सांप्रदायिक दंगों की आँच में तपा तब प्रभाष जी ने वह रूप दिखाया जो एक सच्चा संपादक ही दिखा सकता है। जनसत्ता ने तथाकथित व्यवस्था विरोध की बात करने वाले संघियों की वह लानत-मलामत की कि सारे संघी एक तरफ प्रभाष जोशी एक तरफ। अखबार हो या न्यूज चैनल जब तक वह व्यवस्था का विरोधी और जनोन्मुख नहीं बनेगा उसके प्रति आस्था नहीं पैदा होगी। इसीलिए अखबार की भूमिका को तोप के मुकाबिल और चारणभक्ति करने वाला साथ-साथ माना गया है। सवाल इस बात का है कि आप किसके साथ हो।

डेस्क किसी अखबार को धारदार बना सकती है, यह देखना हो तो 17 नवम्बर 1983 से लेकर 14 जुलाई 1995 तक का जनसत्ता देखिए। अगर आलोक तोमर को छोड़ दिया जाए तो जनसत्ता के पास दिल्ली में कोई संजीदा और व्यापक समझ वाला रिपोर्टर नहीं था। लेकिन फिर भी जनसत्ता दिल्ली ढाई लाख बिकता था। और इसकी वजह थी जनसत्ता की डेस्क जो इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर्स की कापी का इस अंदाज़ में अनुवाद करती थी की अंग्रेजी की वह कापी ठेठ हिंदी की कापी बन जाया करती थी। जनसत्ता का एडिट पेज भी बहुत पढ़ा जाता था जिसमे प्रभाष जी के अलावा बनवारी, हरिशंकर व्यास और सतीश झा जैसे सहायक संपादक चार चाँद लगाए रखते थे। उसकी लोकप्रियता की तीसरी वजह काक के कार्टून थे। हरिश्चंद्र शुक्ल 'काक' ऑर्डिनेंस फैक्ट्री कानपुर की अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर जनसत्ता में आ गए थे। साथ ही जनसत्ता में पाठकों की सीधी भागीदारी चौपाल के माध्यम से होती थी। जगदीश उपासने ने खोज खबर- ख़ास खबर नामक ओपेड पेज को इतना लोकप्रिय बना दिया था कि लोगबाग तीन-तीन बाद का जनसत्ता भी चाव से पढ़ते थे। हरिशंकर व्यास का कॉलम गपशप तो मील का पत्थर था। 
पर जनसत्ता की जो उपलब्धि थी वह रही जनसत्ता के मुफस्सिल संवाददाताओं (स्ट्रिंगर्स) का नेटवर्क। इनमे से कुछ तो इतने काबिल थे कि दिल्ली के दिग्गज संवाददाता उनके सामने पानी भरें। और यह कमाल था जनसत्ता न्यूज़ सर्विस के संपादक हरिशंकर व्यास और उनकी रिपोर्टिंग टीम के सिपहसालार हेमंत शर्मा, सुरेन्द्र किशोर, आत्मदीप और राजीव जैन का। चूँकि इस नेटवर्क की डेस्क को मेरे सिपुर्द किया गया था इसलिए अपने हर डिस्ट्रिक्ट कोरेस्पोंडेंट से बेस्ट काम लेना मुझे आता था। मैं इन वीर बांकुरों की बहादुराना स्टोरीज पर कभी लिखूंगा।

यह आरोप आमतौर पर लगाया जाता है कि कोई अखबार संपादक के कारण गिरता है। यदि वह संपादक आत्मश्लाघा में डूबा रहा अथवा उसने संपादकीय विभाग को मोबलाइज नहीं किया या उसके पास विजन नहीं था तब तो यह बात कुछ हद तक सही मानी जा सकती है लेकिन वास्तविकता इसके उलट भी हो सकती है। मैं अपने कैरियर के प्रथम और इतिहास के सबसे चर्चित अखबार जनसत्ता को ही लेता हूं। इसमें कोई शक नहीं कि जनसत्ता का प्रसार न्यूनतम है। पर इसकी वजह जनसत्ता के संपादक या उनकी टीम नहीं बल्कि प्रबंधन है। जनसत्ता को मालिक तो पसंद करते थे पर इंडियन एक्सप्रेस समूह के प्रबंधन की आंख की किरकिरी वह सदैव बना रहा। प्रभाष जी के वक्त तक तो जनसत्ता के मामले में प्रबंधन अपनी दखल करने की हिम्मत नहीं करता था लेकिन प्रभाष जी के हटने के बाद प्रबंधन हावी होता गया और जनसत्ता अनवरत नीचे गिरता गया। पाठकों की मांग के बावजूद प्रबंधन जनसत्ता के प्रसार की तरफ रुचि नहीं लेता था। और उसका सरकुलेशन घटाने के कुत्सित प्रयास वह करता रहा। पर अपने प्रयासों के बावजूद वह जनसत्ता की धाक और साख कम नहीं कर सका। आज भी जनसत्ता बाजार में आसानी से मिले भले नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि जनसत्ता और उसके संपादक श्री ओम थानवी की धाक जबर्दस्त है। और इसकी वजह है श्री थानवी का हर विषय पर स्पष्ट रीति-नीति रखना।



दंगों का वीभत्स चेहरा!

दंगों का वीभत्स चेहरा!
1990 के दिसंबर का महीना था। मुझे कानपुर एक शादी में जाना था और यूपी में उन दिनों मुलायम सिंह का राज था। अपने वीरबहूटी बयानों व हमलावर तेवरों से उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक शक्तियों पर काबू पाने की बजाय उसकी आग में घी जरूर डाल दिया था। गाजियाबाद से लेकर अलीगढ़ और कानपुर तक हिंसा और दंगों की आग फैली हुई थी। तब ही मेरे चचेरे भाई की शादी थी और जाना जरूरी था। जिस दिन का रिजर्वेशन था उसी दिन दोपहर खबर आई थी कि लखनऊ से दिल्ली आ रही गोमती एक्सप्रेस में एक आदमी को अलीगढ़ में काट डाला गया था। मेरा रिजर्वेशन रात दस बजे चलने वाली प्रयागराज एक्सप्रेस में था। उन दिनों मैं दिल्ली की यमुना विहार कालोनी में रहता था। शाम को सात बजे की दूरदर्शन न्यूज में दिखाया गया कि हालात बहुत खराब हैं और यूपी को जाने वाली ट्रेनें सूनी चल रही हैं। खैर राम का नाम लेकर मैं घर से चला और जिस थ्री टायर में मेरा रिजर्वेशन था वह संयोग से एक कूपे में पड़ गया। मैने राहत की सांस ली और लगा कि यह बेहतर रहा कम से कम कूपा अंदर से लॉक तो हो सकता था। पर मुझे ध्यान नहीं रहा कि कूपे में छह बर्थे होती हैं और बाकी की पांच सवारियां कौन होंगी पता नहीं। नई दिल्ली स्टेशन से जब गाड़ी खुली तो लगभग खाली थी लेकिन अचानक कुछ लोग अपनी बर्थ तलाशते हुए कूपे में आ गए। सब के सब हाफिज सईद जैसी दाढ़ी वाले और एक से एक हट्टे-कट्टे व छह फुटा। अब मेरी सांस रुक गई। एक बार तो मन किया कि कूपा छोड़कर बाहर चला जाऊँ। पर दो हिचक थी कि ये लोग अगर भले आदमी हुए तो क्या सोचेंगे और अगर वाकई दंगाई हुए तो बाहर तो 72 में से मात्र पांच ही बर्थ भरी हुई हैं। चूंकि तब प्रयागराज एक्सप्रेस कहीं रुकती नहीं थी और कानपुर तक बचाव का कोई रास्ता नहीं था। उन पांच सवारियों में से एक तो पचास के ऊपर का अधेड़ था और वह लगातार एक माला फिराता जा रहा था तथा कुछ बुदबुदा रहा था। जब देर रात तक टीटी टिकट चेक करने नहीं आया तो उनमें से एक ने कूपे की सिटकनी चढ़ा दी। मेरी बर्थ बीच वाली थी और मैं हर एक की गतिविधि देख रहा था। नींद न मेरी आंखों में थी न बाकी के उन पांचों की आंखों में। रात धीरे-धीरे गाढ़ी होती जा रही थी और ट्रेन सम स्पीड से बगैर कहीं रुके भागी जा रही थी। ट्रेन सुबह चार बजे के आसपास कानपुर पहुंचती थी और मैं यह भी सोच रहा था कि जाड़े में सुबह चार बजे कानपुर मे कोई वाहन मिलेगा भी या नहीं और तब कानपुर में भले-चंगे दिनों में लूट और हत्याएं हो जाया करती थीं। इसी उधेड़बुन में था। तब ही माला फेर रहे बुजुर्गवार ने मुझसे पूछा- बेटा कानपुर कब तक आएगा। मैने घड़ी देखी तीन के ऊपर समय था। मैने कहा- बस आधा-एक घंटे में आ जाएगा। मैने पूछा- कानपुर जाएंगे? बोले- हां बेटा हमें कानपुर जाना है छोटे नवाब का हाता। मैने कहा- बड़े मियाँ सुबह सूरज निकलने पर जाना। इस समय कानपुर के हालात खराब हैं। वे बताने लगे कि उनके चचेरे भाई के बेटी की शादी है और वे पाकिस्तान से आए हैं। अब मुझे उनकी स्थिति पर तरस आया। कहा- बड़े मियाँ बड़े गलत मौके पर पाकिस्तान से निकले। बोले बेटा क्या करता। भतीजी की शादी में तो हिंदुस्तान आना ही पड़ता है। अचानक मुझे लगा कि मैं भी किन लोगों से डर रहा था। वे बेचारे तो खुद वक्त के मारे हैं। अब मेरे अंदर की मानवीयता और मेहमाननवाजी की भावना भी जागी। मैने कहा- देखो मियाँ जी मैं यह कर दूंगा कि आपको कानपुर जीआरपी के हवाले कर दूंगा और जब आपके यहां से कोई लेने आ जाएगा तब ही मैं स्टेशन छोड़ूंगा। क्योंकि जिस छोटे नवाब के हाते में जा रहे हैं वहां रात के वक्त जाना सेफ तो नहीं हैं। अचानक उनके मुँह से मेरे लिए दुआओं का भंडार फूट पड़ा। स्टेशन पर उतर कर पहले मैने उनको सुरक्षित रवाना करवाया फिर अपने गंतव्य तक गया। दंगों का वीभत्स चेहरा कैसा होता है यह मैने उस दिन उन बड़े मियाँ के चेहरे पर देखा था।