1857 के योद्घाओं में झांसी की रानी के समकक्ष एक नाम और है बेगम हजरतमहल
का। जब नवाब वाजिदअली शाह को अंग्रेज कलकत्ता ले गए और नवाब ने चुपचाप
हथियार डाल दिए तथा मय फौज-फाटा के अंग्रेजों की रहनुमाई में कलकत्ता चल
दिए तो उनकी एक बेगम हजरत महल, जो किसी नवाब की बेटी या बहन नहीं थीं बल्कि
वाजिदअली शाह के मुसाहिब उन्हें किसी गांव से उड़ा लाए थे, ने अंग्रेजों
के विरुद्घ मोर्चा खोला। अपने 12 साल के बेटे बिरजिसकद्र को ताज पहना कर
उन्होंने उसे अवध का बादशाह घोषित किया और तलवार उठा ली। बेगम ने लंबी लड़ाई लड़ी। बेगम गजलें भी लिखा करती थीं। उनकी एक गजल-
साथ दुनिया ने दिया और मुकद्दर ने न दिया
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया
एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए
जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया
जमीं की आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी
हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया
बिखर चला वो काफिला मकामे बौड़ी से
चाल दुश्मन की कुछ ऐसी, उभरने न दिया
जुल्म की आँधियाँ बढ़ती रहीं लम्हा-लम्हा
फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया
साथ दुनिया ने दिया और मुकद्दर ने न दिया
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया
एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए
जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया
जमीं की आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी
हाँ, मगर उल्टी हवाओं ने ठहरने न दिया
बिखर चला वो काफिला मकामे बौड़ी से
चाल दुश्मन की कुछ ऐसी, उभरने न दिया
जुल्म की आँधियाँ बढ़ती रहीं लम्हा-लम्हा
फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया
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