सोमवार, 19 अगस्त 2013

यूं ही कुछ मुस्करा कर तुमने परिचय की यह गांठ लगा दी
शंभूनाथ शुक्ल
त्रिलोचनजी को पहली बार मैंने 1981 में सुल्तानपुर में देखा था। वे वहां कूड़ेभार के एक कालेज में सेमिनार को संबोधित करने आए थे। खादी के कुरते पाजामे में त्रिलोचनजी एक साधारण ग्रामीण लग रहे थे। वे इतने बड़े कवि थे इसका एहसास कतई नहीं था पर जब उन्होंने वहां अपने भाषण के दौरान यह कविता पढ़ी- यूं ही कुछ मुस्करा कर तुमने परिचय की यह गांठ लगा दी, तब लगा कि वह हिंदी के प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं। मैंने  उनसे पूछा कि वे तो नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन त्रयी वाले त्रिलोचन हैं तो यह छायावादी कविता क्यों पढ़ी? वे बोले- छायावाद ही तो प्रगतिशील कविता की शुरुआत है। क्योंकि वही स्वाधीन है। किसी भी परंपरा से, मीटर से और रिदम से। त्रिलोचनजी छायावादी कवियों से प्रभावित  थे, निराला उन्हें सबसे प्रिय थे। पर उन्हें कभी छायावादी कवि नहीं माना गया लेकिन पता नहीं क्यों त्रिलोचन जी को खुद जो कविता सबसे प्रिय लगी वह छायावादी रुझान की थी- था, पथ पर मैं भूला-भूला, फूल उपेक्षित कोई फूला जाने कौन लहर थी उस दिन तुमने अपनी याद जगा थी।
त्रिलोचनजी तो उन कवियों में से थे जिन्होंने अज्ञेय, रघुवीर सहाय और शमशेर जैसे कवियों की नई कविता के विपरीत जनवादी रुझान की कविताओं को चुना। चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती और उस जनपद का कवि हूं जैसी कविताएं लिखने वाले त्रिलोचन रहे मस्त मौला और फक्कड़ ही। 1984 में उन्हें जब दिल का दौरा पड़ा तब वे दिल्ली माडल टाउन में रहते थे। उनसे मिलने उनके घर गया तो बोले शुक्ल जी कानैपुर छोड़कर दिल्ली आ गए। उनका खिलंदड़ीपन उनसे कभी नहीं छूटा। वे दुख में भी गहरा मजाक कर लेते थे। सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के चक्कर में त्रिलोचनजी कभी नहीं पड़े। कविता और कहानी के बारे में उनकी धारणाएं थीं। उन्होंने भले कविता में सोनेट का इस्तेमाल किया हो पर उनका अवधी पंच कहीं नहीं गया। यही त्रिलोचन जी की विशेषता थी। इतना बड़ा कवि पर अवधी के कवियों के प्रति उनका अनुराग बहुत रहा। त्रिलोचनजी के प्रिय कवियों में अवधी के बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ रमई काका भी थे। वे कहते थे इन जनपदीय कवियों के बूृते ही हिंदी बलवती है। पिछले साल अप्रैल जब उनसे मिलने हरिद्वार गया तो त्रिलोचनजी ने देखते ही कहा तुम अपने पिताजी की कविताओं का संकलन क्यों नहीं निकलवाते। वे कहते थे हिंदी राष्ट्रीय नहीं जनपदीय भाषा है इसलिए जनपद के कवि और जनपदों के अखबार ही हिंदी को जीवित रख पाएंगे। वे कहते थे कि हिंदी अमर उजाला जैसे क्षेत्रीय पहचान वाले अखबारों के बूते ही चल पाएगी। अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित करने से हिंदी का कतई भला नहीं होगा।
हिंदी के ऐसे जड़ों से जुड़े कवि की शासन प्रशासन ने कभी सुधि नहीं ली। बीस अगस्त 1917 को सुल्तान पुर के चिरानपट्टी में जनमे त्रिलोचन जी अपने पुत्र अमितप्रकाश सिंह के गाजियाबाद में वैशाली स्थित घर में चिर निद्रा में लीन हुए। लेकिन त्रिलोचन जैसे कवि सदा लोगों के जेहन में रहते हैं। आखिर तुमने परिचय की गांठ जो लगा दी है।
ार ता

रविवार, 18 अगस्त 2013

कल मशहूर सिने लेखक, गीतकार और निर्देशक संपूर्ण ङ्क्षसह गुलजार का जन्म दिन था। पूरे दिन रेडियो और टीवी पर उनके गीत चलते रहे। यहां तक कि न्यूज चैनल भी गुलजार की स्तुति से गुलजार रहे। लेकिन किसी ने भी नहीं बताया कि गुलजार की इस सफलता के पीछे उन अनजान लोगों का कितना बड़ा हाथ है जिनकी रचनाएं गुलजार बगैर कोई आभार प्रदर्शन के लिफ्ट कर  लेते रहे हैं। हर सफल कवि या लेखक की तरह गुलजार भी तमाम अनाम लेखकों को क्रेडिट देना नहीं जानते। सन् २०१० की एक फरवरी को अमर उजाला के संपादकीय पेज पर मेरा यह लेख छपा था तब टीवी चैनल वालों ने गुलजार से खूब पूछताछ की लेकिन गुलजार चुप्पी साध गए।
कहो इब्नेबतूता! कहां से लाए जूता
शंभूनाथ शुक्ल
गुलजार रचनाधर्मी हैं, प्रयोगधर्मी हैं। हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखते हैं, निर्देशन भी करते हैं। बड़े आदमी हैं। पूरे फिल्मजगत में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। जब वे दिल्ली आते हैं तो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का हर बुद्घिजीवी उनकी अगवानी में पहुंचता है। गुलजार साहब फिल्मों के लिए अपनी स्क्रिप्ट और गीत लिखने के लिए अरबी-फारसी लिपि का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि वे हिंदी अच्छी तरह लिख-पढ़ व बोल लेते हैं। एक बार मैने उनसे पूछा था कि वे हिंदी गीत के लिए नागरी लिपि का इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं या हिंदी फिल्मों के अन्य तमाम नामचीन नायकों, खलनायकों और सहनायकों की तरह रोमन लिपि का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? उनका जवाब था कि वे ऐसा उनके आइडियाज चोरी न हो जाने के लिए करते हैं। नागरी और रोमन कामन लिपियां हैं लेकिन अरबी-फारसी लिपि कंप्यूटरी पीढ़ी के बहुत लोग नहीं पढ़ पाएंगे। लेकिन इन्हीं गुलजार ने विशाल भारद्वाज की फिल्म इश्किया के लिए इब्नेबतूता! बगल में जूता, नाम से जो गीत लिखा है वह मूल रूप से हिंदी कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का है। लेकिन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (जो दिनमान में सदस के नाम से कालम लिखते थे और हिंदी के बड़े कवियों में से एक हैं) को इस गीत के लिए क्रेडिट नहीं दिया गया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मूल कविता है-
इब्नेबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफान में।
थोड़ी हवा नाक में घुस गई, थोड़ी घुस गई कान में।
कभी नाक को कभी कान को मलते इब्नेबतूता।
इसी बीच में निकल गया उनके पैर का जूता।
उड़ते-उड़ते उनका जूता जा पहुंचा जापान में।
इब्नेबतूता खड़े रह गए मोची की दूकान में।
अब जरा इश्किया के लिखे गए गुलजार के बोल देखिए-
इब्नेबतूता! बगल में जूता
पहनो तो करता है चुर्र, उड़ गई चिडिय़ा फुर्र।
गुलजार साहब कह सकते हैं कि इब्नेबतूता नाम किसी कवि का पेटेंट नहीं है। लेकिन किसी कवि के मूल भावों को भी अगर लिया जाता है तो उस कवि को क्रेडिट मिलना ही चाहिए। हिंदी फिल्मों में अभी तक लोकगीत और प्रचलित आरतियों या कविताओं को ही किसी के द्वारा सीधे ले लेने के मामले थे। पर अब तो किसी कवि की कविता को ही ले लिया गया। मुझे जीने दो में सुनील दत्त ने गुलाब बाई द्वारा गाए और लिखे गए गीत- नदी नारे न जाव स्याम पैयां परौं, को सीधे-सीधे उठा लिया गया था। बड़ी ही धृष्टतापूर्वक गुलाब बाई के विरोध करने के बावजूद उन्हें न तो कोई पारिश्रमिक दिया गया और न ही उनसे माफी मांगी गई।
ओम जय जगदीश हरे आरती मनोज कुमार ने पूरब पश्चिम में जस की तस इस्तेमाल की है लेकिन इसके लिए इसके मूल रचयिता को याद तक नहीं किया गया। शायद इसके मूल लेखक का नाम भी किसी को पता नहीं होगा। कहत शिवानंद स्वामी से ऐसा लगता है कि यह आरती किसी शिवानंद स्वामी ने लिखी है। जबकि हकीकत अलग है। इसे पंडित श्रद्घाराम फिल्लौरी पंजाब वाले ने १८७० में लिखा था। पंडितजी की यह आरती अब तक के ज्ञात इतिहास में सर्वाधिक लोकप्रिय आरती है। पूरी दुनिया भर के हिंदू इसे गाते हैं। पर मजे की बात कि पंडित जी ने इसे अरबी-फारसी लिपि में ही लिखा था क्योंकि पंजाब में उन दिनों यही अकेली लिपि मान्य थी। किसी कृति को रचने वाले को क्रेडिट देना चाहिए। मनोज कुमार को फिल्म जगत ने लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान दिया हुआ है। लेकिन उन्होंने फिल्लौरी जी को याद नहीं किया।
गुलजार चाहे छप्पा-छप्पा छई, छपाका छई लिख रहे हों या चड्ढी पहन कर फूल खिला है जैसे गाने, सहज शब्दों को साधने की उनकी प्रतिभा असाधारण है। हम चाहे जितने भी मशीनी हो गए हों आज भी हमारे खुशी या रंज के मौकों पर हम आदिम स्वर ही निकालते हैं। वे स्वर जो प्रकृति ने स्वयंमेव हमें दिए हैं और जिनके लिए हमें सोचना विचारना नहीं पड़ता है। वाह, आह, ओफ या ऐसे ही वे स्वर जो पत्तों के डोलने, नदी के बहने या अंधेरी रातों में पानी बरसने से उत्पन्न होते हैं। सागर की तरंगें ज्वार के वक्त जो स्वर पैदा करती हैं या पहाड़ों के ऊपर हवा के बहने का स्वर अथवा निर्जन जंगल में पत्तों की सरसराहट, किसी हिंसक जानवर के पानी पीने का स्वर। आकुलता, व्याकुलता और अतिशय प्रफुल्लता के मौके पर हर प्राणी लगभग एक ही अंदाज में अपने भावों को जताता है। प्रकृति में मनुष्य की ही क्षमता है कि वह इन मनोभावों को शब्दों में बांध पाता है। कवि अपनी कृति से ऐसे भावों में अभिव्यक्ति भरते हैं। हमारे लोकगीतों, अतिशय निराशा के वक्त उपजी प्रार्थनाओं में ऐसे भाव व्यक्त होते हैं। लेकिन जो व्यक्ति उसे शब्दों में पहले पहल बांधने की कोशिश करता है उसकी कोशिश को सम्मान देना उचित है। जाहिर है इब्नेबतूता के साथ जूता जोडऩे का काम सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने किया है। फिल्म में इस गीत के साथ उनका नाम न देना एक कवि की कृति की अनदेखी है। विशाल भारद्वाज और गुलजार को सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को भी क्रेडिट देना चाहिए।
यूं आजकल जो फिल्में आ रही हैं उनमें ऐसे हास्यास्पद दृश्य होते हैं कि उनकी सच्चाई गले से नीचे नहीं उतरती। मसलन बहुचर्चित फिल्म थ्री इडियट्स को ही ले लें। राजकुमार हीरानी की निर्देशित, आमिर खान द्वारा अभिनीत इस फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य हैं जो उसकी तकनीकी खामियों को बड़ी ही बेशर्मी के साथ सामने लाती हैं। मसलन दिल्ली से शिमला और फिर लेह तक बाकी दोनों ईडियट्स का साधारण कपड़ों में पहुंच जाना। उसमें से एक ने तो सिर्फ पारदर्शी कुरता ही पहन रखा है। लद्दाख में हीरोइन का शादी के कास्ट्यूम्स में स्कूटर चलाना आदि। क्या लद्दाख में इतनी गर्मी पड़ती है कि वहां बगैर कोई गर्म कपड़ा पहने जाया जा सकता है वह भी सड़क मार्ग से।
यूं विशाल भारद्वाज इश्किया में जिस महिला का चरित्र दिखा रहे हैं वह बहुत अधिक गालियां देती है। जाहिर है कि यह एक फूहड़पन और अभद्रता है इस चरित्र को अभिनेत्री विद्या बालन ने अभिनीत किया है। विद्या बालन उस चरित्र की तरह की साड़ी पहने आजकल घूम-घूम कर फिल्म का प्रमोशन कर रही हैं। पिछले दिनों वे महुआ चैनल में थीं। उनसे एंकर ने पूछा कि क्या आपको नहीं लगता कि यह चरित्र बड़ी ही अभद्र भाषा का प्रयोग करता है। इस पर विद्या बालन ने कहा कि नहीं यह बहुत ही स्वाभाविक चरित्र है क्योंकि यह गोरखपुर की तरफ के माहौल पर बनी है और वहां महिलाएं ऐसी ही भाषा बोलती हैं। यह बेहद आपत्तिजनक है। संभव है कि दक्षिण की विद्या बालन गोरखपुर के बारे में ज्यादा न जानती हों लेकिन विशाल तो यूपी के हैं वे तो अच्छी तरह जानते होंगे।