शनिवार, 30 नवंबर 2013

Worshipping more False Gods!


नायकों के बीच शिखंडी!
शंभूनाथ शुक्ल
इमरजेंसी के कुछ पहले से ही उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में हालात बदलने लगे थे। ऊपरी सतह पर सब कुछ सामान्य था लेकिन समाज के अंदर एक उठापटक निरंतर चल रही थी। पहली बार गांवों का सामाजिक ढांचा चरमराया था जो शायद इतिहास में पहली दफे हो रहा था। चरमराया पहले भी था जब अनुसूचित जाति के नौजवानों के लिए नौकरियों में आरक्षण आया था और उनके लिए लोकसभा के लिए सीटें आरक्षित की गई थीं। पर एक तो वे कभी भी आर्थिक स्थिति के लिहाज से ऊँची कही जाने वाली ठाकुर व बांभन जातियों के समक्ष वह चुनौती नहीं पेश कर सकीं जो नई उभर रही मध्यवर्ती जातियों ने पेश कर दीं। ये जातियां अधिकतर किसानी का काम करतीं और न तो ये जातियां सामाजिक दम खम में पीछे थीं न गांवों की सामाजिक संरचना में उनकी हैसियत बहुत नीचे थी। लेकिन ग्रामीण सुधार कार्यक्रमों ने उन्हें संपन्न बनाया था मगर शिक्षा व नौकरी के क्षेत्र में वे पिछड़ी हुई थीं। दूसरे उनके पास नायकों का अभाव था। और ये नायक उस समाज के वे खल पात्र ही हो सकते थे जिन्हें हम डकैत कहा करते थे। चूंकि मेरी अपनी रुचि मध्य उत्तर प्रदेश केग्रामीण अपराधों की सामाजिक पृष्ठभूमि को कवर करने में बहुत थी।
इसलिए मैने दैनिक जागरण के तत्कालीन संपादकीय हेड श्री हरि नारायण निगम को कहा कि वे मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के डकैत बहुल इलाकों की स्टोरीज कवर करने के लिए भेज दें। निगम साहब ने मुझे एटा, मैनपुरी व फर्रुखाबाद भेजकर उस समय डकैत समस्याओं पर खूब स्टोरीज कराईं। इसके अलावा हमीरपुर व सुल्तानपुर भी मुझे जाना पड़ता था। तब तक मुफस्सिल इलाकों में अखबारों की पैठ नहीं थी। अखबार ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में ही पढ़े जाते थे। यहां तक कि तहसील हेडक्वाटरों में भी अखबार नहीं पहुंचते थे। छोटे शहरों में वहां के कुछ छोटे अखबारों का राज था। मैने निगम साहब को कहा कि अगर वे मुझे मौका दें तो मैं मुफस्सिल इलाकों में जाकर डकैतों की समस्याओं पर लिख सकता हूं। उन दिनों मध्य उत्तर प्रदेश की मध्यवर्ती जातियों के ये नए नायक  उस क्षेत्र के डकैत थे। अगड़ी जातियों के ज्यादातर डकैत आत्म समर्पण कर चुके थे। अब गंगा यमुना के दोआबे में छविराम यादव, अनार सिंह यादव, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह और मुस्तकीम का राज था। महिला डकैतों की एक नई फौज आ रही थी जिसमें कुसुमा नाइन व फूलन प्रमुख थीं। छविराम और अनार सिंह का एटा व मैनपुरी के जंगलों में राज था तो विक्रम, मलखान व फूलन का यमुना व चंबल के बीहड़ों में। मुस्तकीम कानपुर के देहाती क्षेत्रों में सेंगुर के जंगलों में डेरा डाले था। ये सारे डकैत मध्यवर्ती जातियों के थे। और सब के सब गांवों में पुराने जमींदारों खासकर राजपूतों और चौधरी ब्राह्मïणों के सताए हुए थे।
उस समय वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे। यह उनके लिए चुनौती थी। एक तरफ उनके सजातीय लोगों का दबाव और दूसरी तरफ गांवों में इन डाकुओं को उनकी जातियों का मिलता समर्थन। वीपी सिंह तय नहीं कर पा रहे थे। यह मध्य उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों के पराभव का काल था। गांवों पर राज किसका चलेगा। यादव, कुर्मी और लोध जैसी जातियां गांवों में चले सुधार कार्यक्रमों और सामुदायिक विकास योजनाओं तथा गांंव तक फैलती सड़कों व ट्रांसपोर्ट सुलभ हो जाने के कारण संपन्न हो रही थीं। शहरों में दूध और खोए की बढ़ती मांग ने अहीरों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया था। यूं भी अहीर ज्यादातर हाई वे या शहर के पास स्थित गांवों में ही बसते थे। लाठी से मजबूत वे थे ही ऐसे में वे गांवों में सामंती जातियों से दबकर क्यों रहें। उनके उभार ने उन्हें कई राजनेता भी दिए। यूपी में चंद्रजीत यादव या रामनरेश यादव इन जातियों से भले रहे हों लेकिन अहीरों को नायक मुलायम सिंह के रूप में मिले। इसी तरह कुर्मी नरेंद्र सिंह के साथ जुड़े व लोधों के नेता स्वामी प्रसाद बने। लेकिन इनमें से मुलायम सिंह के सिवाय किसी में भी न तो ऊर्जा थी और न ही चातुर्य। मुलायम सिंह को अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा घृणा मिली लेकिन उतनी ही उन्हें यादवों व समकक्ष जातियों में प्रतिष्ठा भी। मुलायम सिंह समाजवादी थे और राजनीतिक रूप से काफी सजग। उन्हें पता था कि जब तक अपने साथ इन नए नायकों को प्रतीक नहीं बनाया वे राजनीति में सफल नहीं हो पाएंगे। इटावा और फर्रुखाबाद का यादव ही नहीं कुर्मी भी तब मुलायम सिंह के साथ जुड़ रहा था। इसकी वजह थी कि एक तो रामस्वरूप वर्मा के अर्जक संघ के कमजोर हो जाने और अर्जक संघ की अपनी नीतियों के चलते कुर्मी अपने को हिंदू समाज में आर्य समाजी हलचल के अलावा अन्य कोई पहचान दिला पाने में नाकाम रहा। राम स्वरूप वर्मा ने सोचा तो बहुत था पर उनके कर्मकांड से भी दलित बाहर थे। एवं हिंदू समाज की वे जातियां भी जो धार्मिक रूप से कट्टर थीं। यादव के अलावा लोधी व काछी मुलायम सिंह के साथ जुुड़े इसी के साथ मुसलमानों का पसमांडा समाज भी जो तब तक सैयदों, खानों व शेखों का गुलाम जैसा था।
कुर्मियों ने राम स्वरूप वर्मा के निष्क्रिय हो जाने के बाद नरेंद्र सिंह के रूप में अपना नया नायक देखा पर नरेंद्र सिंह पहले तो चौधरी चरण सिंह के पास गए और फिर शीघ्र ही वे कांग्रेस में चले गए और उनका सारा समाजवादी आंदोलन उनके मंत्रिपद पाते ही समाप्त हो गया। कुर्मी अब नेतृत्वविहीन था इसलिए वह न चाहते हुए भी मुलायम सिंह के साथ हो लिया। इस प्रक्रिया में पूरे दस साल लग गए। एक तरफ पिछड़े हिंदू और पिछड़े मुसलमानों के नेता मुलायम सिंह थे दूसरी तरफ अपने जाति भाइयों की तरफ से घोर अवमानना झेल रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह, जिनकी छवि राजनीति में एक ऐसे शिखंडी की बन गई थी जो कहता कुछ था और करता कुछ। अपने मुख्यमंत्रत्व काल के दौरान उन्होंने सबसे ज्यादा नर संहार इन्हीं पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के नायकों का कराया। पूर्वी उत्तर प्रदेश की मांडा रियासत का यह जिमींदार कितना जालिम था जिसने कुरांव के दो दलित किसानों को मरवा दिया जिन्होंने मांडा और डैया रियासतों द्वारा चलाए जा रहे ट्रस्ट में अपनी मजदूरी मांगी थी। उनके नेता हिंचलाल  विद्यार्थी को भी बाद में मार दिया गया। यह अलग बात है कि बाद में हालात के दबाव और अवसर ने उसे उन्हीं जातियों का नायक बना दिया जिनको मरवाने में उसकी प्रमुख भूमिका रही। लेकिन यह तथ्य सर्वविदित है कि चौधरी चरण सिंह के समय ही और उनके बाद भी जिस एक आदमी ने पिछड़ों को लामबंद किया वे मुलायम सिंह थे।

बुधवार, 27 नवंबर 2013

worshiping false "Godfathers!"

एक खोजी पत्रकार थे अरुण और अब ये तरुण!
१९८० में कानपुर में दैनिक जागरण ज्वाइन करने के कुछ ही महीनों बाद मुझे "आंख फोड़ो" कांड कवर करने के लिए भागलपुर भेजा गया। साथ में फोटोग्राफर रामकुमार सिंह थे। सुबह चार बजे हम विक्रमशिला एक्सप्रेस से निकले और शाम करीब सात बजे भागलपुर पहुंचे। वहां के एकमात्र होटल नीलम होटल में हम रुके। होटल का रजिस्टर भरते हुए मुझे ठीक ऊपर अरुण शौरी का नाम दर्ज दिखा। मैने पूछा कि क्या अरुण शौरी यहीं रुके हैं। वहां बैठे युवक ने बताया कि जी अभी दोपहर को आए हैं। मैने फटाफट रजिस्टर की खानपूरी पूरी की और रामकुमार को कमरे की चाभी देकर अरुण शौरी के कमरे की तरफ लपका। वे मिल भी गए और मिले भी बड़ी शालीनता से। मैने कहा कि सर आप अकेले अंग्रेजी पत्रकार हैं जिन्हें हिंदी बेल्ट के गांवों का बच्चा-बच्चा जानता है। अरुण शौरी ने पूछा कि कैसे? मैने उन्हें बताया कि मैं जिस अखबार में हूं वह इंडियन एक्सप्रेस में छपी आपकी रपटों का अनुवाद नियमित छापता है इस कारण। शौरी साहब ने पूछा कि हिंदी पट्टी के लोग मेरी रपटों को किस तरह लेते हैं? मैने कहा कि उनका कहना है कि पत्रकार तो बस अरुण शौरी ही है जो हिम्मत के साथ लिखता है और जिसके लिखने से सरकारें डरती हैं, इंदिरा गांधी डरती है।
बाद के दिनों में जब मैने इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी अखबार जनसत्ता को ज्वाइन किया तब तक अरुण शौरी टाइम्स आफ इंडिया में जा चुके थे पर कुछ ही साल बाद वे फिर से इंडियन एक्सप्रेस में आ गए। मैं एक दिन उनसे मिला और उनको भागलपुर की याद दिलाई तब तो अरुण शौरी इतने खुश हुए कि अपने हर लिखे को जनसत्ता में छपवाने के लिए मुझसे ही कहते। और यह आग्रह भी करते कि उनके लेखों का अनुवाद भी मैं ही करूं। अब यह न तो जनसत्ता के लोगों को अच्छा लगता कि इंडियन एक्सप्रेस का चीफ एडिटर जनसत्ता के चीफ सब एडिटर के पास आ कर मनुहार करे न इंडियन एक्सप्रेस के लोगों को पसंद आता। मगर अरुण शौरी का अपना तरीका जो था। वे कोई तरुण तेजपाल की तरह फाल्स "गॉड फादर" पत्रकार नहीं थे और आज भी नहीं हैं। मंत्री बनने के बाद आईआईटी कानपुर ने उन्हें बुलाया (तब मैं कानपुर में अमर उजाला का संपादक था) तो मैने उनसे मिलने के लिए समय मांगा। लेकिन वे बोले नहीं मैं तुम्हारे घर आता हूं। एक सामान्य हिंदी संपादक के घर का दारिद्रय देखकर वे बोले कि जमीन के पत्रकार तो तुम ही लोग हो।

कहां गए श्रीश मुलगांवकर जैसे संपादक!
प्रिंट मीडिया के संपादकों के उच्च आदर्शों की यह एक उत्कृष्ट कथा है। इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडिटर थे श्रीश मुलगांवकर। वे प्रगतिशील विचारों के पैरोकार और सामंती परंपराओं के जबर्दस्त विरोधी थे। एक दिन इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर एक राजा साहब की पोलो खेलते हुए फोटो छप गई। बस श्रीश मुलगांवकर का पारा गरम। वे गुस्से से भरे हुए सुबह ११ बजे बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचे ही थे तभी उन्हें पोर्टिको पर ही पान दबाए न्यूज एडिटर पीलू सक्सेना आते दिख गए। उन्होंने लगभग चीखते हुए पीलू से पूछा कि यह फोटो कैसे छपा? पीलू की हालत खराब क्योंकि फोटो अखबार के मालिक रामनाथ गोयनका (आरएनजी) की सिफारिश पर छपी थी। और रामनाथ जी सामने पोर्टिको की सीढिय़ां चढ़ते हुए आ रहे थे। डर के मारे उन्होंने पीलू सक्सेना ने कह दिया कि चेयरमैन का आदेश था। बस फिर क्या था, श्रीश मुलगांवकर का पारा और चढ़ गया। तेज आवाज में बोले- पीलू यू नो हू इज द एडिटर? अब बेचारे पीलू क्या बोलें। रामनाथ गोयनका उनके पास आए और सार्वजनिक तौर पर उनसे माफी मांगी। ऐसे आदर्श हैं आज किसी संपादक के पास? इंडियन एक्सप्रेस के चेयरमैन रामनाथ गोयनका ने श्रीश मुलगांवकर को मनाया कि वे अखबार में ही रहें। मैं जब जनसत्ता आया तब तक श्रीश मुलगांवकर रिटायर हो गए थे लेकिन रामनाथ गोयनका ने अपना वायदा निभाया और उन्हें इंडियन एक्सपे्रस से जोड़े रखा। जब तक श्रीश मुलगांवकर जीवित रहे इंडियन एक्सप्रेस की प्रिंट लाइन में बतौर कंसलटेंट एडिटर उनका नाम छपता रहा। हालांकि मेरे समय वहां चीफ एडिटर जार्ज वर्गीज थे। उनके बाद आए सुमन दुबे फिर अरुण शौरी। उनके बाद का हाल तो सबको पता ही है।

सोमवार, 25 नवंबर 2013

प्रभु जी तुम चंदन

प्रभु जी तुम चंदन, मगर हमें पिला दो पानी!
हमारे एक चाचा थे रामाश्रय शुक्ल। वे हमारे पिता के मित्र थे और इतने प्रगाढ़ कि हमें भी बहुत उम्र के बाद पता चला कि वे पिताजी के शेष तीन भाईयों में से नहीं वरन् उनके मित्र हैं। पहले फौज में थे और बर्मा की लड़ाई में गए तथा नेताजी सुभाष की आजाद हिंद फौज मेें भी रहे। बाद में जब देश आजाद हुआ तो पहले पोस्ट मैन और फिर पोस्ट मास्टर बने। तथा इसी पद से रिटायर हुए। कानपुर में उनका घर भी उसी ब्लाक में था जहां हमारा इसलिए हम लोग परस्पर एक दूसरे के यहां तीन-चार फेरे तो लगा ही लेते थे। रामाश्रय चाचा जी सम सामयिक विषयों के इतने जानकार थे कि साठ, सत्तर और अस्सी के दशक की तमाम पत्रकाएं और अखबार उनके यहां नियमित आते थे। एक तरह से चाचा का घर मेरे लिए लायबे्ररी का काम भी करता था। मेरे पिता जी ने अपनी आत्मकथा में चाचा का वर्णन करते हुए लिखा है-
"रामाश्रय हमारी मित्र मंडली में सुमेरु थे यानी कोई भी माला सुमेरु से ही पूरी होती है। रामाश्रय को धर्म-कर्म में कोई रुचि नहीं। वे कहते हैं न मैं सगुण पंथी हूं न निर्गुण पंथी मैं तो सिर्फ अवगुण पंथी हूं। वे प्रभु से कहते हैं-
प्रभू न मैं सदाचारी न ब्रह्मचारी, न अकाली।
आप उठा लो दुनाली।
आप हैं घनश्याम आप ही हैं लालाराम
हे मेरे राम मेट दो द्वंद।
आप पुलिस और पीएसी के वेष में आओ
तड़ातड़ गोलियां बरसाओ
रामाश्रय शुक्ल अपनी व्यंग्य विधा में खूब लिखा करते हैं। यह आपका स्वाभाव है। खिलाने-पिलाने के शौकीन हैं। दिल खोलकर खिलाते हैं। खाने वाले लोग तो बहुत होते हैं पर खिलाने वाले बहुत कम। ऐसा लगता है दूसरे निराला जी हैं। प्रभु कृपा से परिवार संपन्न और शिष्ट है। आपको लगभग एक सहस्त्र मुद्रा पेंशन मिलती है (मालूम हो कि पिताजी ने अपनी यह आत्मकथा 1990 में लिखी थी)  जो आपकी जेबखर्च ही होती है। कम पडऩे पर अधिक ब्याज का लालच देकर अपनी पुत्रवधुओं से मांग लिया करते हैं। लगता है जेब में रखा पैसा उन्हें बिच्छू की डंक की तरह चुभता है, जब तक निकल न जाए चैन  नहीं पड़ता।
बालकाल में भयंकर अभावों मेेेें पले थे इसलिए दुखी के दर्द को भली प्रकार समझते हैं और उसके निवारण के लिए बहुधा घर वालों से छिपाकर भी सहायता किया करते हैं। मेरे पूछने पर आपने एक बार कहा था सखी की कमाई में सबका हिस्सा होता है। मैने इनके वे दिन देखे हैं जब घर में कुछ न होते हुए भी पूरी की पूरी तनख्वाह खोकर आते थे। लगता है रहीम जी का यह दोहा यहां पर फिट बैठ रहा है-
जीबौ तब तक हौं भलो, दीवो परइ न धीम।
जब में जीबो कुचित गति, होय न उचित रहीम।।
गुसाईं जी ने भी कहा है-
परहित बस जिनके मन मांहीं।
तिन्कंह जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
यही कारण है पैकर से पोस्ट मास्टर का दर्जा पाकर अवकाश प्राप्त किया। चार-चार सुयोग्य पुत्रों को पाया। अब घर गृहस्थी की चिंता आपको नहीं, बस डफली बजाकर गाना शेष है।
आपके गुणों का बखान करने पूरी कापी ही छोटी पड़ जाएगी। अत: विश्राम देता हूं। कुछ अवगुण सुन लीजिए-
आप बहुत ही कान के कच्चे हैं। इसीलिए कभी-कभी अपने लोगों पर भी वाणी बाण वर्षा कर देते हैं। और भूल समझ आने पर पैरों पर पड़कर मना भी लेते हैं। फिर तो तुलसी दास जी ही कहते हैं-
जो परि पांव मनावहिं, तिनसौं रूठ विचार।
आपका शुभ नाम है- श्री रामाश्रय शुक्ल, उम्र ६२ वर्ष।
वेषभूषा- सलवार और लम्बी कमीज संभवत पठान सूट रहा होगा। पैरों में किरमिच का बाटा शू और कंधे पर लंबा झोला जिसमें डफली, ढोल, मजीरा आदि रहते हैं। आजकल मौलाना छाप दाढ़ी बढ़ा रखी है। अति श्याम रंग के शुक्ल जी हज से लौटे हाजी प्रतीत होते हैं। शिष्टता में अद्वितीय, हरेक वृद्ध के चरण स्पर्श करने में प्रवीण मानों रहीम जी का पुनरागमन हुआ हो-
धूर धरत निजी शीश पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूंढ़त गजराज।।
मानवतावादी शुक्ल जी के पुस्तकालय में अनेक प्रकार के दर्शन ग्रंथ रखे हैं। और उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। उन्हें बड़ी ही चाव से आप अध्ययन करते हैं। शुक्ल जी सोना हैं यदि धर्म की मर्यादा में बंधकर चलें तो उसमें सुगंध आ ही जाती। फिर भी निर्गन्ध सोना है तो सोना ही।
लीक छांड़ तीनै चलैं, शायर, सिंह, सपूत।

रविवार, 17 नवंबर 2013

अपनी-अपनी पेशवाई
शंभूनाथ शुक्ल
ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले जाने-अनजाने उन्हीं ताकतों का सपोर्ट करते रहते हैं जिनके विरुद्ध लडऩे का वो बीड़ा उठाते हैं। चाहे वे दलित हों, ओबीसी हों या अन्य कोई भी। जिन्हें हिंदुस्तान की डायवर्सिटी का अंदाज नहीं है वे अपनी कुंठा इसी तरह निकालते हैं। जरा कुछ बाहर निकलिए तब पता चलेगा कि ठाकुर हर जगह ठाकुर नहीं है। तमाम जगह वह भेड़ भी दिखेगा न ब्राह्मण हर जगह ब्राह्मण। कई जगह उसकी जगह वहीं हैं जो अन्य परजा जातियों की होती है। किसी भी परंपरागत शादी में देखिए न्यौछावर में दस रुपये नाई के, दस रुपये कहार के, दस रुपये बारी के और दस ही रुपये बांभन के। जरा सैफई तहसील जाकर देखिए वहां ब्राह्मण व ठाकुर भेड़ व बकरी ही दिखेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में ब्राह्मण एक भिक्षुक से अधिक की हैसियत नहीं रखता। काका कालेलकर ने पंजाब में ब्राह्मणों को पिछड़ा ही माना था और खुद मंडल कमीशन ने पुजारियों, पंडों और भाट ब्राह्मणों को ओबीसी में रखा है। दरअसल यह अंग्रेजों का  फैलाया हुआ ब्राह्मणवाद है जिसके फरेब वे ये ब्राह्मण विरोधी नव ब्राह्मण उतरे और मुंह की खा गए।
इसकी शुरुआत जिस आरएसएस जैसी संस्था ने की वह दरअसल उन चितपावनों के दिमाग की उपज है जिन्होंने दो सौ सालों तक पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्कन तक उत्पात मचा रखा था। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वे इस कदर चौथ वसूली करते थे कि न सिर्फ दिल्ली की मुगलिया सल्तनत बल्कि पूरा राजपूताना और बंगाले और मदरासे के अंग्रेज तक थर्राते थे। उनकी नौसेना मजबूत नहीं थी वरन् वे पुर्तगालियों तक को पानी पिला देते। पेशवाओं की मराठा सेनाएं वर्षा के बाद जब निकलतीं तो उनके घोड़े किसानों की फसलेें रौंद डालते। पेशवा रघुनाथ राव तो इतना बदतमीज था कि जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने पेशवा को बैठने के लिए सम्मान में अपना सिंघासन ऑफर किया तो पेशवा उस पर बैठकर हुक्का पीते हुए धुआं महाराज के मुंह पर उड़ाने लगा। ये पेशवा इतने जालिम थे कि कब वे बचन से पलट जाएं और कब सारे के सारे राज्य उजाड़ दें कुछ पता नहीं। पेशवा चूंकि चितपावन ब्राह्मण थे इसलिए अंग्रेजों ने पेशवाओं से पार पाने के लिए पेशवाशाही को ब्राह्मणशाही बता दिया। जिसका असर यह हुआ कि पूरे देश में ब्राह्मणों के प्रति घोर नफरत पैदा हो गई। पर मजे की बात कि पेशवाओं ने कभी भी मुसलमानों को बाहरी नहीं समझा। ध्यान रखिए पेशवा कभी भी हिंदू पादशाही के लिए नहीं लड़े। यह अलग बात है कि शिवाजी औरंगजेब से लड़ते हुए मुस्लिम विरोधी हो गए थे। पर पेशवाओं ने तो हर एक को इस्तेमाल किया। पेशवा मराठाओं से लडऩे के लिए ओबीसी विरोधी तो थे पर वे कभी भी मुस्लिम विरोधी नहीं रहे। मैं जब तंजौर गया तो पता चला कि वहां मुसलमान भी वैसा चंदन टीका लगाते हैं जैसा कभी पेशवा लगाते थे क्योंकि तंजौर के नवाब को पेशवाओं का संरक्षण था इसलिए न तो उनका कुछ फ्रेंच बिगाड़ पाए न अंग्रेज। अंग्रेज एक चतुर कौम है इसलिए उन्होंने हिंदुओं की अन्य जातियों को तंजौर के नवाब के विरुद्ध भड़काया और प्रचारित किया कि चूंकि  इन नवाबों को ब्राह्मणों का संरक्षण है इसलिए ब्राह्मणों का विरोध करो।
पर उत्तर में तो ब्राह्मण न तो कभी शासक रहे न उस तरह के जातिवादी। पर १८५७ में ब्राह्मणों ने मुसलमानों का साथ दिया इसलिए पूरे बैसवाड़े और मध्य उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने उसका धर्म, ईमान और संपदा सब छीन लिए। यही कारण है कि बैसवाड़े के ब्राह्मण और मुसलमान आपको बस्तर में मिल जाएंगे, राजपूताने में भी, गुजरात और महराष्ट्र में भी। यहां तक कि सुदूर पूर्व और पूर्वोत्तर में भी। खुद डॉ अंबेडकर भी मानते थे कि उत्तर भारत में ब्राह्मणों की स्थिति दयनीय है। पर जब ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चले तो उसका विस्तार यहां भी हुआ और ब्राह्मणवाद विरोध की आड़ मेंं ब्राह्मण विरोध की राजनीति शुरू हो गई। ठाकुर या ब्राह्मण कोई जाति नहीं बल्कि प्रभुवर्ग है। जिसकी लाठी भैंस भी उसी की। इसीलिए मैं कहता हूं कि हिंदी के लेखक अपने समाज को नहीं जानते।