रविवार, 17 नवंबर 2013

अपनी-अपनी पेशवाई
शंभूनाथ शुक्ल
ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले जाने-अनजाने उन्हीं ताकतों का सपोर्ट करते रहते हैं जिनके विरुद्ध लडऩे का वो बीड़ा उठाते हैं। चाहे वे दलित हों, ओबीसी हों या अन्य कोई भी। जिन्हें हिंदुस्तान की डायवर्सिटी का अंदाज नहीं है वे अपनी कुंठा इसी तरह निकालते हैं। जरा कुछ बाहर निकलिए तब पता चलेगा कि ठाकुर हर जगह ठाकुर नहीं है। तमाम जगह वह भेड़ भी दिखेगा न ब्राह्मण हर जगह ब्राह्मण। कई जगह उसकी जगह वहीं हैं जो अन्य परजा जातियों की होती है। किसी भी परंपरागत शादी में देखिए न्यौछावर में दस रुपये नाई के, दस रुपये कहार के, दस रुपये बारी के और दस ही रुपये बांभन के। जरा सैफई तहसील जाकर देखिए वहां ब्राह्मण व ठाकुर भेड़ व बकरी ही दिखेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में ब्राह्मण एक भिक्षुक से अधिक की हैसियत नहीं रखता। काका कालेलकर ने पंजाब में ब्राह्मणों को पिछड़ा ही माना था और खुद मंडल कमीशन ने पुजारियों, पंडों और भाट ब्राह्मणों को ओबीसी में रखा है। दरअसल यह अंग्रेजों का  फैलाया हुआ ब्राह्मणवाद है जिसके फरेब वे ये ब्राह्मण विरोधी नव ब्राह्मण उतरे और मुंह की खा गए।
इसकी शुरुआत जिस आरएसएस जैसी संस्था ने की वह दरअसल उन चितपावनों के दिमाग की उपज है जिन्होंने दो सौ सालों तक पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्कन तक उत्पात मचा रखा था। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए वे इस कदर चौथ वसूली करते थे कि न सिर्फ दिल्ली की मुगलिया सल्तनत बल्कि पूरा राजपूताना और बंगाले और मदरासे के अंग्रेज तक थर्राते थे। उनकी नौसेना मजबूत नहीं थी वरन् वे पुर्तगालियों तक को पानी पिला देते। पेशवाओं की मराठा सेनाएं वर्षा के बाद जब निकलतीं तो उनके घोड़े किसानों की फसलेें रौंद डालते। पेशवा रघुनाथ राव तो इतना बदतमीज था कि जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने पेशवा को बैठने के लिए सम्मान में अपना सिंघासन ऑफर किया तो पेशवा उस पर बैठकर हुक्का पीते हुए धुआं महाराज के मुंह पर उड़ाने लगा। ये पेशवा इतने जालिम थे कि कब वे बचन से पलट जाएं और कब सारे के सारे राज्य उजाड़ दें कुछ पता नहीं। पेशवा चूंकि चितपावन ब्राह्मण थे इसलिए अंग्रेजों ने पेशवाओं से पार पाने के लिए पेशवाशाही को ब्राह्मणशाही बता दिया। जिसका असर यह हुआ कि पूरे देश में ब्राह्मणों के प्रति घोर नफरत पैदा हो गई। पर मजे की बात कि पेशवाओं ने कभी भी मुसलमानों को बाहरी नहीं समझा। ध्यान रखिए पेशवा कभी भी हिंदू पादशाही के लिए नहीं लड़े। यह अलग बात है कि शिवाजी औरंगजेब से लड़ते हुए मुस्लिम विरोधी हो गए थे। पर पेशवाओं ने तो हर एक को इस्तेमाल किया। पेशवा मराठाओं से लडऩे के लिए ओबीसी विरोधी तो थे पर वे कभी भी मुस्लिम विरोधी नहीं रहे। मैं जब तंजौर गया तो पता चला कि वहां मुसलमान भी वैसा चंदन टीका लगाते हैं जैसा कभी पेशवा लगाते थे क्योंकि तंजौर के नवाब को पेशवाओं का संरक्षण था इसलिए न तो उनका कुछ फ्रेंच बिगाड़ पाए न अंग्रेज। अंग्रेज एक चतुर कौम है इसलिए उन्होंने हिंदुओं की अन्य जातियों को तंजौर के नवाब के विरुद्ध भड़काया और प्रचारित किया कि चूंकि  इन नवाबों को ब्राह्मणों का संरक्षण है इसलिए ब्राह्मणों का विरोध करो।
पर उत्तर में तो ब्राह्मण न तो कभी शासक रहे न उस तरह के जातिवादी। पर १८५७ में ब्राह्मणों ने मुसलमानों का साथ दिया इसलिए पूरे बैसवाड़े और मध्य उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने उसका धर्म, ईमान और संपदा सब छीन लिए। यही कारण है कि बैसवाड़े के ब्राह्मण और मुसलमान आपको बस्तर में मिल जाएंगे, राजपूताने में भी, गुजरात और महराष्ट्र में भी। यहां तक कि सुदूर पूर्व और पूर्वोत्तर में भी। खुद डॉ अंबेडकर भी मानते थे कि उत्तर भारत में ब्राह्मणों की स्थिति दयनीय है। पर जब ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चले तो उसका विस्तार यहां भी हुआ और ब्राह्मणवाद विरोध की आड़ मेंं ब्राह्मण विरोध की राजनीति शुरू हो गई। ठाकुर या ब्राह्मण कोई जाति नहीं बल्कि प्रभुवर्ग है। जिसकी लाठी भैंस भी उसी की। इसीलिए मैं कहता हूं कि हिंदी के लेखक अपने समाज को नहीं जानते।

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