सोमवार, 25 नवंबर 2013

प्रभु जी तुम चंदन

प्रभु जी तुम चंदन, मगर हमें पिला दो पानी!
हमारे एक चाचा थे रामाश्रय शुक्ल। वे हमारे पिता के मित्र थे और इतने प्रगाढ़ कि हमें भी बहुत उम्र के बाद पता चला कि वे पिताजी के शेष तीन भाईयों में से नहीं वरन् उनके मित्र हैं। पहले फौज में थे और बर्मा की लड़ाई में गए तथा नेताजी सुभाष की आजाद हिंद फौज मेें भी रहे। बाद में जब देश आजाद हुआ तो पहले पोस्ट मैन और फिर पोस्ट मास्टर बने। तथा इसी पद से रिटायर हुए। कानपुर में उनका घर भी उसी ब्लाक में था जहां हमारा इसलिए हम लोग परस्पर एक दूसरे के यहां तीन-चार फेरे तो लगा ही लेते थे। रामाश्रय चाचा जी सम सामयिक विषयों के इतने जानकार थे कि साठ, सत्तर और अस्सी के दशक की तमाम पत्रकाएं और अखबार उनके यहां नियमित आते थे। एक तरह से चाचा का घर मेरे लिए लायबे्ररी का काम भी करता था। मेरे पिता जी ने अपनी आत्मकथा में चाचा का वर्णन करते हुए लिखा है-
"रामाश्रय हमारी मित्र मंडली में सुमेरु थे यानी कोई भी माला सुमेरु से ही पूरी होती है। रामाश्रय को धर्म-कर्म में कोई रुचि नहीं। वे कहते हैं न मैं सगुण पंथी हूं न निर्गुण पंथी मैं तो सिर्फ अवगुण पंथी हूं। वे प्रभु से कहते हैं-
प्रभू न मैं सदाचारी न ब्रह्मचारी, न अकाली।
आप उठा लो दुनाली।
आप हैं घनश्याम आप ही हैं लालाराम
हे मेरे राम मेट दो द्वंद।
आप पुलिस और पीएसी के वेष में आओ
तड़ातड़ गोलियां बरसाओ
रामाश्रय शुक्ल अपनी व्यंग्य विधा में खूब लिखा करते हैं। यह आपका स्वाभाव है। खिलाने-पिलाने के शौकीन हैं। दिल खोलकर खिलाते हैं। खाने वाले लोग तो बहुत होते हैं पर खिलाने वाले बहुत कम। ऐसा लगता है दूसरे निराला जी हैं। प्रभु कृपा से परिवार संपन्न और शिष्ट है। आपको लगभग एक सहस्त्र मुद्रा पेंशन मिलती है (मालूम हो कि पिताजी ने अपनी यह आत्मकथा 1990 में लिखी थी)  जो आपकी जेबखर्च ही होती है। कम पडऩे पर अधिक ब्याज का लालच देकर अपनी पुत्रवधुओं से मांग लिया करते हैं। लगता है जेब में रखा पैसा उन्हें बिच्छू की डंक की तरह चुभता है, जब तक निकल न जाए चैन  नहीं पड़ता।
बालकाल में भयंकर अभावों मेेेें पले थे इसलिए दुखी के दर्द को भली प्रकार समझते हैं और उसके निवारण के लिए बहुधा घर वालों से छिपाकर भी सहायता किया करते हैं। मेरे पूछने पर आपने एक बार कहा था सखी की कमाई में सबका हिस्सा होता है। मैने इनके वे दिन देखे हैं जब घर में कुछ न होते हुए भी पूरी की पूरी तनख्वाह खोकर आते थे। लगता है रहीम जी का यह दोहा यहां पर फिट बैठ रहा है-
जीबौ तब तक हौं भलो, दीवो परइ न धीम।
जब में जीबो कुचित गति, होय न उचित रहीम।।
गुसाईं जी ने भी कहा है-
परहित बस जिनके मन मांहीं।
तिन्कंह जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
यही कारण है पैकर से पोस्ट मास्टर का दर्जा पाकर अवकाश प्राप्त किया। चार-चार सुयोग्य पुत्रों को पाया। अब घर गृहस्थी की चिंता आपको नहीं, बस डफली बजाकर गाना शेष है।
आपके गुणों का बखान करने पूरी कापी ही छोटी पड़ जाएगी। अत: विश्राम देता हूं। कुछ अवगुण सुन लीजिए-
आप बहुत ही कान के कच्चे हैं। इसीलिए कभी-कभी अपने लोगों पर भी वाणी बाण वर्षा कर देते हैं। और भूल समझ आने पर पैरों पर पड़कर मना भी लेते हैं। फिर तो तुलसी दास जी ही कहते हैं-
जो परि पांव मनावहिं, तिनसौं रूठ विचार।
आपका शुभ नाम है- श्री रामाश्रय शुक्ल, उम्र ६२ वर्ष।
वेषभूषा- सलवार और लम्बी कमीज संभवत पठान सूट रहा होगा। पैरों में किरमिच का बाटा शू और कंधे पर लंबा झोला जिसमें डफली, ढोल, मजीरा आदि रहते हैं। आजकल मौलाना छाप दाढ़ी बढ़ा रखी है। अति श्याम रंग के शुक्ल जी हज से लौटे हाजी प्रतीत होते हैं। शिष्टता में अद्वितीय, हरेक वृद्ध के चरण स्पर्श करने में प्रवीण मानों रहीम जी का पुनरागमन हुआ हो-
धूर धरत निजी शीश पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूंढ़त गजराज।।
मानवतावादी शुक्ल जी के पुस्तकालय में अनेक प्रकार के दर्शन ग्रंथ रखे हैं। और उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। उन्हें बड़ी ही चाव से आप अध्ययन करते हैं। शुक्ल जी सोना हैं यदि धर्म की मर्यादा में बंधकर चलें तो उसमें सुगंध आ ही जाती। फिर भी निर्गन्ध सोना है तो सोना ही।
लीक छांड़ तीनै चलैं, शायर, सिंह, सपूत।

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