बुधवार, 27 नवंबर 2013

worshiping false "Godfathers!"

एक खोजी पत्रकार थे अरुण और अब ये तरुण!
१९८० में कानपुर में दैनिक जागरण ज्वाइन करने के कुछ ही महीनों बाद मुझे "आंख फोड़ो" कांड कवर करने के लिए भागलपुर भेजा गया। साथ में फोटोग्राफर रामकुमार सिंह थे। सुबह चार बजे हम विक्रमशिला एक्सप्रेस से निकले और शाम करीब सात बजे भागलपुर पहुंचे। वहां के एकमात्र होटल नीलम होटल में हम रुके। होटल का रजिस्टर भरते हुए मुझे ठीक ऊपर अरुण शौरी का नाम दर्ज दिखा। मैने पूछा कि क्या अरुण शौरी यहीं रुके हैं। वहां बैठे युवक ने बताया कि जी अभी दोपहर को आए हैं। मैने फटाफट रजिस्टर की खानपूरी पूरी की और रामकुमार को कमरे की चाभी देकर अरुण शौरी के कमरे की तरफ लपका। वे मिल भी गए और मिले भी बड़ी शालीनता से। मैने कहा कि सर आप अकेले अंग्रेजी पत्रकार हैं जिन्हें हिंदी बेल्ट के गांवों का बच्चा-बच्चा जानता है। अरुण शौरी ने पूछा कि कैसे? मैने उन्हें बताया कि मैं जिस अखबार में हूं वह इंडियन एक्सप्रेस में छपी आपकी रपटों का अनुवाद नियमित छापता है इस कारण। शौरी साहब ने पूछा कि हिंदी पट्टी के लोग मेरी रपटों को किस तरह लेते हैं? मैने कहा कि उनका कहना है कि पत्रकार तो बस अरुण शौरी ही है जो हिम्मत के साथ लिखता है और जिसके लिखने से सरकारें डरती हैं, इंदिरा गांधी डरती है।
बाद के दिनों में जब मैने इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी अखबार जनसत्ता को ज्वाइन किया तब तक अरुण शौरी टाइम्स आफ इंडिया में जा चुके थे पर कुछ ही साल बाद वे फिर से इंडियन एक्सप्रेस में आ गए। मैं एक दिन उनसे मिला और उनको भागलपुर की याद दिलाई तब तो अरुण शौरी इतने खुश हुए कि अपने हर लिखे को जनसत्ता में छपवाने के लिए मुझसे ही कहते। और यह आग्रह भी करते कि उनके लेखों का अनुवाद भी मैं ही करूं। अब यह न तो जनसत्ता के लोगों को अच्छा लगता कि इंडियन एक्सप्रेस का चीफ एडिटर जनसत्ता के चीफ सब एडिटर के पास आ कर मनुहार करे न इंडियन एक्सप्रेस के लोगों को पसंद आता। मगर अरुण शौरी का अपना तरीका जो था। वे कोई तरुण तेजपाल की तरह फाल्स "गॉड फादर" पत्रकार नहीं थे और आज भी नहीं हैं। मंत्री बनने के बाद आईआईटी कानपुर ने उन्हें बुलाया (तब मैं कानपुर में अमर उजाला का संपादक था) तो मैने उनसे मिलने के लिए समय मांगा। लेकिन वे बोले नहीं मैं तुम्हारे घर आता हूं। एक सामान्य हिंदी संपादक के घर का दारिद्रय देखकर वे बोले कि जमीन के पत्रकार तो तुम ही लोग हो।

कहां गए श्रीश मुलगांवकर जैसे संपादक!
प्रिंट मीडिया के संपादकों के उच्च आदर्शों की यह एक उत्कृष्ट कथा है। इंडियन एक्सप्रेस के चीफ एडिटर थे श्रीश मुलगांवकर। वे प्रगतिशील विचारों के पैरोकार और सामंती परंपराओं के जबर्दस्त विरोधी थे। एक दिन इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर एक राजा साहब की पोलो खेलते हुए फोटो छप गई। बस श्रीश मुलगांवकर का पारा गरम। वे गुस्से से भरे हुए सुबह ११ बजे बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचे ही थे तभी उन्हें पोर्टिको पर ही पान दबाए न्यूज एडिटर पीलू सक्सेना आते दिख गए। उन्होंने लगभग चीखते हुए पीलू से पूछा कि यह फोटो कैसे छपा? पीलू की हालत खराब क्योंकि फोटो अखबार के मालिक रामनाथ गोयनका (आरएनजी) की सिफारिश पर छपी थी। और रामनाथ जी सामने पोर्टिको की सीढिय़ां चढ़ते हुए आ रहे थे। डर के मारे उन्होंने पीलू सक्सेना ने कह दिया कि चेयरमैन का आदेश था। बस फिर क्या था, श्रीश मुलगांवकर का पारा और चढ़ गया। तेज आवाज में बोले- पीलू यू नो हू इज द एडिटर? अब बेचारे पीलू क्या बोलें। रामनाथ गोयनका उनके पास आए और सार्वजनिक तौर पर उनसे माफी मांगी। ऐसे आदर्श हैं आज किसी संपादक के पास? इंडियन एक्सप्रेस के चेयरमैन रामनाथ गोयनका ने श्रीश मुलगांवकर को मनाया कि वे अखबार में ही रहें। मैं जब जनसत्ता आया तब तक श्रीश मुलगांवकर रिटायर हो गए थे लेकिन रामनाथ गोयनका ने अपना वायदा निभाया और उन्हें इंडियन एक्सपे्रस से जोड़े रखा। जब तक श्रीश मुलगांवकर जीवित रहे इंडियन एक्सप्रेस की प्रिंट लाइन में बतौर कंसलटेंट एडिटर उनका नाम छपता रहा। हालांकि मेरे समय वहां चीफ एडिटर जार्ज वर्गीज थे। उनके बाद आए सुमन दुबे फिर अरुण शौरी। उनके बाद का हाल तो सबको पता ही है।

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