यूं ही कुछ मुस्करा कर तुमने परिचय की यह गांठ लगा दी
शंभूनाथ शुक्ल
त्रिलोचनजी को पहली बार मैंने 1981 में सुल्तानपुर में देखा था। वे वहां कूड़ेभार के एक कालेज में सेमिनार को संबोधित करने आए थे। खादी के कुरते पाजामे में त्रिलोचनजी एक साधारण ग्रामीण लग रहे थे। वे इतने बड़े कवि थे इसका एहसास कतई नहीं था पर जब उन्होंने वहां अपने भाषण के दौरान यह कविता पढ़ी- यूं ही कुछ मुस्करा कर तुमने परिचय की यह गांठ लगा दी, तब लगा कि वह हिंदी के प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं। मैंने उनसे पूछा कि वे तो नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन त्रयी वाले त्रिलोचन हैं तो यह छायावादी कविता क्यों पढ़ी? वे बोले- छायावाद ही तो प्रगतिशील कविता की शुरुआत है। क्योंकि वही स्वाधीन है। किसी भी परंपरा से, मीटर से और रिदम से। त्रिलोचनजी छायावादी कवियों से प्रभावित थे, निराला उन्हें सबसे प्रिय थे। पर उन्हें कभी छायावादी कवि नहीं माना गया लेकिन पता नहीं क्यों त्रिलोचन जी को खुद जो कविता सबसे प्रिय लगी वह छायावादी रुझान की थी- था, पथ पर मैं भूला-भूला, फूल उपेक्षित कोई फूला जाने कौन लहर थी उस दिन तुमने अपनी याद जगा थी।
त्रिलोचनजी तो उन कवियों में से थे जिन्होंने अज्ञेय, रघुवीर सहाय और शमशेर जैसे कवियों की नई कविता के विपरीत जनवादी रुझान की कविताओं को चुना। चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती और उस जनपद का कवि हूं जैसी कविताएं लिखने वाले त्रिलोचन रहे मस्त मौला और फक्कड़ ही। 1984 में उन्हें जब दिल का दौरा पड़ा तब वे दिल्ली माडल टाउन में रहते थे। उनसे मिलने उनके घर गया तो बोले शुक्ल जी कानैपुर छोड़कर दिल्ली आ गए। उनका खिलंदड़ीपन उनसे कभी नहीं छूटा। वे दुख में भी गहरा मजाक कर लेते थे। सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के चक्कर में त्रिलोचनजी कभी नहीं पड़े। कविता और कहानी के बारे में उनकी धारणाएं थीं। उन्होंने भले कविता में सोनेट का इस्तेमाल किया हो पर उनका अवधी पंच कहीं नहीं गया। यही त्रिलोचन जी की विशेषता थी। इतना बड़ा कवि पर अवधी के कवियों के प्रति उनका अनुराग बहुत रहा। त्रिलोचनजी के प्रिय कवियों में अवधी के बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ रमई काका भी थे। वे कहते थे इन जनपदीय कवियों के बूृते ही हिंदी बलवती है। पिछले साल अप्रैल जब उनसे मिलने हरिद्वार गया तो त्रिलोचनजी ने देखते ही कहा तुम अपने पिताजी की कविताओं का संकलन क्यों नहीं निकलवाते। वे कहते थे हिंदी राष्ट्रीय नहीं जनपदीय भाषा है इसलिए जनपद के कवि और जनपदों के अखबार ही हिंदी को जीवित रख पाएंगे। वे कहते थे कि हिंदी अमर उजाला जैसे क्षेत्रीय पहचान वाले अखबारों के बूते ही चल पाएगी। अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित करने से हिंदी का कतई भला नहीं होगा।
हिंदी के ऐसे जड़ों से जुड़े कवि की शासन प्रशासन ने कभी सुधि नहीं ली। बीस अगस्त 1917 को सुल्तान पुर के चिरानपट्टी में जनमे त्रिलोचन जी अपने पुत्र अमितप्रकाश सिंह के गाजियाबाद में वैशाली स्थित घर में चिर निद्रा में लीन हुए। लेकिन त्रिलोचन जैसे कवि सदा लोगों के जेहन में रहते हैं। आखिर तुमने परिचय की गांठ जो लगा दी है।
ार ता
शंभूनाथ शुक्ल
त्रिलोचनजी को पहली बार मैंने 1981 में सुल्तानपुर में देखा था। वे वहां कूड़ेभार के एक कालेज में सेमिनार को संबोधित करने आए थे। खादी के कुरते पाजामे में त्रिलोचनजी एक साधारण ग्रामीण लग रहे थे। वे इतने बड़े कवि थे इसका एहसास कतई नहीं था पर जब उन्होंने वहां अपने भाषण के दौरान यह कविता पढ़ी- यूं ही कुछ मुस्करा कर तुमने परिचय की यह गांठ लगा दी, तब लगा कि वह हिंदी के प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं। मैंने उनसे पूछा कि वे तो नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन त्रयी वाले त्रिलोचन हैं तो यह छायावादी कविता क्यों पढ़ी? वे बोले- छायावाद ही तो प्रगतिशील कविता की शुरुआत है। क्योंकि वही स्वाधीन है। किसी भी परंपरा से, मीटर से और रिदम से। त्रिलोचनजी छायावादी कवियों से प्रभावित थे, निराला उन्हें सबसे प्रिय थे। पर उन्हें कभी छायावादी कवि नहीं माना गया लेकिन पता नहीं क्यों त्रिलोचन जी को खुद जो कविता सबसे प्रिय लगी वह छायावादी रुझान की थी- था, पथ पर मैं भूला-भूला, फूल उपेक्षित कोई फूला जाने कौन लहर थी उस दिन तुमने अपनी याद जगा थी।
त्रिलोचनजी तो उन कवियों में से थे जिन्होंने अज्ञेय, रघुवीर सहाय और शमशेर जैसे कवियों की नई कविता के विपरीत जनवादी रुझान की कविताओं को चुना। चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती और उस जनपद का कवि हूं जैसी कविताएं लिखने वाले त्रिलोचन रहे मस्त मौला और फक्कड़ ही। 1984 में उन्हें जब दिल का दौरा पड़ा तब वे दिल्ली माडल टाउन में रहते थे। उनसे मिलने उनके घर गया तो बोले शुक्ल जी कानैपुर छोड़कर दिल्ली आ गए। उनका खिलंदड़ीपन उनसे कभी नहीं छूटा। वे दुख में भी गहरा मजाक कर लेते थे। सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के चक्कर में त्रिलोचनजी कभी नहीं पड़े। कविता और कहानी के बारे में उनकी धारणाएं थीं। उन्होंने भले कविता में सोनेट का इस्तेमाल किया हो पर उनका अवधी पंच कहीं नहीं गया। यही त्रिलोचन जी की विशेषता थी। इतना बड़ा कवि पर अवधी के कवियों के प्रति उनका अनुराग बहुत रहा। त्रिलोचनजी के प्रिय कवियों में अवधी के बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ रमई काका भी थे। वे कहते थे इन जनपदीय कवियों के बूृते ही हिंदी बलवती है। पिछले साल अप्रैल जब उनसे मिलने हरिद्वार गया तो त्रिलोचनजी ने देखते ही कहा तुम अपने पिताजी की कविताओं का संकलन क्यों नहीं निकलवाते। वे कहते थे हिंदी राष्ट्रीय नहीं जनपदीय भाषा है इसलिए जनपद के कवि और जनपदों के अखबार ही हिंदी को जीवित रख पाएंगे। वे कहते थे कि हिंदी अमर उजाला जैसे क्षेत्रीय पहचान वाले अखबारों के बूते ही चल पाएगी। अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित करने से हिंदी का कतई भला नहीं होगा।
हिंदी के ऐसे जड़ों से जुड़े कवि की शासन प्रशासन ने कभी सुधि नहीं ली। बीस अगस्त 1917 को सुल्तान पुर के चिरानपट्टी में जनमे त्रिलोचन जी अपने पुत्र अमितप्रकाश सिंह के गाजियाबाद में वैशाली स्थित घर में चिर निद्रा में लीन हुए। लेकिन त्रिलोचन जैसे कवि सदा लोगों के जेहन में रहते हैं। आखिर तुमने परिचय की गांठ जो लगा दी है।
ार ता
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