बुधवार, 11 सितंबर 2013

किसान की कहानी बकलम खुद

किसान की कहानी बकलम खुद
शंभूनाथ शुक्ल
शंभूनाथ शुक्ल वल्द रामकिशोर शुक्ल साकिन मौजा दुरौली डाकखाना गजनेर जिला कानपुर। अपने होशोहवाश से मैं बता सकता हूं कि हमारे गांव में हमारे पास कुल जमा १४ बीघा तीन विस्वांसी जमीन थी। यह सारी जमीन हमारे परबाबा स्वर्गीय मनीराम सुकुल ने नौतोड़ के जरिए बनाई थी। और दो हारों में बटी थी। सिंचित खेती एक पटिया थी जो पांच बीघे का चक था। यह सुकुल जमींदारों के जंगल बिलहा को तोड़कर बनाई गई थी और दूसरी करीब दस बीघा जमीन का एक चक जो अकबरपुर के कुर्मी जमींदारों के महुए के जंगल को तोड़कर। इसके एवज में मनीराम बाबा ने सलामी तो दी ही थी और दस साल तक हमारे परिवार को गांव के दोनों जमींदारों के यहां बेगार करनी पड़ी थी। कुर्मी जमींदार के यहां रसोई संभालने का काम तथा जाड़ों में उनकी फसलों की सुरक्षा का काम व गर्मी में उनके खलिहान में सोना पड़ता। दादी को कुर्मियों की बहू को खुश रखने के लिए उनके यहां जाकर दही बिलोना पड़ता और पीसन का काम करना पड़ता। और सुकुल जमींदारों के यहां पानी पिलाने से लेकर उनकी बहुओं के मायके जाने पर उनके साथ बतौर सिपाही बनकर जाना पड़ता या फिर जमींदारनी के तीरथ जाने पर उनकी गाड़ी के पीछे-पीछे भागना पड़ता। जमींदार इसके बदले उन्हें कोई ईनाम इकराम तो नहीं देते बस नौतोड़ की जमीन का लगान दस साल तक के लिए माफ था।
मेरे बचपन तक गांव में नील की कोठियां बनी थीं। हम उनमें जाकर छुपन छुपाई खेलते या रात को कुर्मी लोग अपने ढोर बांधते। कुछ और काम भी यहां होते मसलन जिसको प्रेम की प्रबल चाह होती तो वह गांव की नजरों से बचकर यहीं आ जाता भले किसी भोले भाले लड़के को पटाकर लाया हो अथवा किसी लड़की को उड़ाकर। पर एक जमाने में अंग्रेज सौदागर लुईस पफ ने यहां पर जमींदार से जमीनें ठेके पर लेकर किसानों से जबरिया नील की खेती करवानी शुरू की थी। और उसकेे बदले में उन्हें न तो खाद्यान्न मिलता न कोई खास नगदी। यहां तक कि उनकी मजूरी भी न मिलती। पर गांधी बाबा के कारण जब निलहे भाग गए तो कोठियां वीरान हो गईं और उनके लगाए जंगल भी उजड़ गए। तब जमींदारों ने उन जंगलों को खालसा मानकर उन्हें अपनी जमीन में मिला लिया और साधारण सलामी लेकर उन्हें भूमिहीन किसानों को विकसित करने को दे दिया गया। इन जंगलों को तोडऩा आसान नहीं था। आमतौर पर जंगल तोडऩे के लिए हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती और पांच साल तक तो उनमें दाना भी नहीं उगता। पर जमींदार इसके लिए किसानों को अपने अहसान तले दबा लेता। यह साल १९२० का जमाना था जब हमारे परबाबा और बाबा ने जमीन तोड़ी। पंाच बीघे के इस जंगल को तोडऩे के लिए दादी और बुआदादी को भी जाकर फड़वा चलाना पड़ता। मालूम हो कि हमारी बुआदादी छह साल तक चूडिय़ां पहनने के बाद विधवा हो गई थीं और विधवा होने के बाद वे सारा जीवन हमारे यहां ही रहीं। बेहद गरीबी और भुखमरी के दिन थे वे।
दरअसल मनीराम बाबा हमारे सगे परबाबा नहीं थे वे बाबा के ताऊ जी थे और अपने छोटे भाई व उसकी पत्नी के भरी जवानी में ही चल बसने के बाद से उन्होंने हमारे बाबा को पाला पोसा था। बाबा कुल चार साल के थे जब उनके पिता और मां चल बसीं। मनीराम बाबा ने शादी नहीं की थी। कहना चाहिए कि हुई ही नहीं थी। इसकी भी विचित्र कहानी है। मनीराम बाबा अपने तीन भाईयों में मंझले थे। उनके पिता कन्हाई बाबा रानी झांसी की फौज में सिपाही हुआ करते थे। जब १८५७ में लड़ाई शुरू हुई और १८५८ में रानी को मार दिया गया और झांसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया तो रानी समर्थक वहंा से भागे। अधिकंाश लोग सुदूर सिंध के कराची शहर में जा बसे। वहंा अंग्रेजों का खतरा कम था। हमारे परबाबा के पिता कन्हाई बाबा अपनी पत्नी चिरौंजी देवी व अपने बच्चों को लेकर कराची चले गए पर उनके भाई व चाचा लोग अपने पुश्तैनी गांव कानपुर जिले में ही भोगनीपुर तहसील के तहत गिरसी के पास गुलौली में ही रहते रहे। कराची में रहते हुए १८८५ में कन्हाई बाबा का निधन हो गया। उनकी धर्मपत्नी एक दिन रोती-कलपती अपने बच्चोंं को लेकर गुलौली लौट आईं। हमारे परिवार में बताया जाता है कि एक ङ्क्षसधी उन्हें बैलगाड़ी में बिठाकर कराची से गुलौली लेकर आया था। वह  ङ्क्षसधी परिवार फिर कराची वापस नहीं गया और कानपुर शहर में रहकर व्यापार करने लगा। बाद में उसका परिवार कानपुर शहर में साडिय़ों को थोक व्यापारी बना और नौघड़ा में सबसे बड़ी दूकान उसी की हुई। गुलौली में अपनी भाभी को तीन बच्चों समेत आया देख कन्हाई बाबा के छोटे भाई बनवारी बाबा के मन में पाप आ गया और उन्होंने अपनी भाभी तथा उनके बच्चों को  मार डालने की ठान ली। बताया जाता है कि चिरौंजी दादी के खाने में जहर दिया गया। पर मरते-मरते उन्होंने अपने बच्चों को जीवनदान दे दिया। बच्चों को उन्होंने फौरन गुलौली से भगाकर अपनी बड़ी बेेटी की ससुराल रठिगांव भेज दिया। कन्हाई बाबा अपनी बेटी की शादी पहले ही कर गए थे। चिरौंजी दादी तो नहीं रहीं पर बच्चे बहन के घर में आ गए। रठिगांव गुलौली से करीब तीन कोस पूरब में है। बहन की ससुराल वाले खाते पीते किसान थे। शुरू में तो बहन के ससुराल वालों ने इन बच्चों को प्यार से लिया पर जब पता चला कि वे यहीं रहेंगे तो उनसे दुरदुराने लग। बहन अपने छोटे भाईयों को अपमान सहती रही पर एक दिन उसने कह दिया कि देखो तुम लोगों के पास अपनी खेती है सो अपने गांव जाओ वर्ना तुम्हारे चाचा लोग जमीन हड़प कर जाएंगे। उस समय सबसे बड़े शिवरतन बाबा लगभग आठ साल के तथा मनीराम बाबा पांच साल के व रामचरन बाबा ढाई तीन साल के रहे होंगे। अब ये तीनों भाई कहां जाएं? ये अनाथ बच्चे नहर के किनारे-किनारे गिरसी की तरफ बढ़े। नहर के किनारे तब घोर जंगल था। बर्घरे व भेडिय़ों का भी आतंक। तीनों रोते कलपते जा रहे थे। रास्ते में दुर्गादेवी का मंदिर पड़ा तो ये परसाद के लालच  में मंदिर चले गए। मंदिर एकदम निर्जन और खंडहर जैसा था। मंदिर के अंदर बैरागी सुकुल जोर-जोर से दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे थे। बच्चे कुछ पाने की आस में बैठे रहे। जब पूजा के बाद बैरागी सुकुल ने इन्हें देखा तो चौंके पूछा इस घने जंगल में कस? बच्चे रोने लगे और बोले भूख लगी है। बैरागी बाबा ने भुट्टे भून कर खिलाए। तब इन बच्चों ने अपनी रामकहानी बताई।  बैरागी सुकुल ने पूछा जाति? बच्चों ने बताया कि सुकुल बांभन हैं। जनेऊ हुआ कि नहीं तो बच्चे चुप। बैरागी सुकुल तीनों बच्चों को अपने गांव दुरौली ले आए जहां पहले तो इनका जनेऊ किया फिर अपने घर पर ही खेतों की देखभाल के काम में लगा दिया।
यहीं पर काम करते हुए जब ये बच्चे बड़े हो गए तो बैरागी सुकुल ने कुछ जमीन छप्पर छाने के लिए दे दी और कुछ पैसे देकर कहा कि बच्चों अब तुम अपना काम अलग करो। शिवरतन बाबा ने सबसे पहले अपना छप्पर अलग किया और एक तिवारी परिवार की सद्य विधवा कन्या को लेकर अलग रहने लगे। शिवरतन बाबा ने लोकलाज के कारण कहना चाहिए कि डर के कारण विवाह तो नहीं किया पर रहते वे उन विधवा दादी के साथ ही थे। एक बेटी उनके हुए जिसकी गांव में ही एक गरीब परिवार में शादी हो गई। दूसरे परबाबा मनीराम ने शादी नहीं की और अपने छोटे भाई के साथ रहने लगे। छोटे भाई रामचरन बाबा की शादी बिनौर के तिवारी परिवार में करवा दी। रामचरन बाबा अपने बड़े  भाई के साथ मिलकर सुकुल जमींदार के यहां नौकर हो गई। पर अब परिवार बढ़ गया था और जमींदार की नौकरी न तो समाज में प्रतिष्ठा दिलाती थी न जमींदार बाबू समय पर पैसा देते थे। इसलिए पहले तो मनीराम बाबा ने गोरू यानी ढोर चराने शुरू किए। पशुपालन का काम करते हुए मनीराम बाबा ने पैसा तो मजे का इकट्ठा कर लिया पर सामाजिक प्रतिष्ठा में यह परिवार शून्य था। इसलिए दोनों भाईयो ने एक जोड़ी बूढ़े बैल खरीदे और बटाई पर कुछ खेत लेकर जोतने बोने लगे। पर तब खाद पानी तो मिलता नहीं था। इसलिए उपज का बड़ा हिस्सा लगान, आबपाशी या अन्य खर्चों में ही निकल जाता। गांव में धनीमानी किसान कम ही थे और जमींदार अपनी जमीन कम देता और बेगारी ज्यादा करवाता। इसलिए मनीराम बाबा जमींदारों की सेवा करते रहते ताकि कोई खुश होकर उन्हें नौतोड़ की जमीन दे दे। रामचरन बाबा बस मनीराम बाबा जो कहते वही करते रहते।  रामचरन बाबा की तीन संतानें हुईं पहले एक बेटी मूला बुआ फिर बेटा जिसका नाम रखा ठाकुरदीन उर्फ पहलवान और तीसरी फिर एक बेटी रज्जो बुआ। ठाकुरदीन हमारे बाबा थे।
अकबर पुर के कुर्मी जमींदारों का कुछ जंगल हमारे गांव में था। उन्होंने सलामी लेकर करीब दस बीघे का महुए का जंगल मनीराम बाबा को दे दिया। मनीराम और रामचरन बाबा दोनों वहीं ढोर चराने जाते और इसके बाद जंगल तोड़ते। एक दिन रामचरन बाबा को सांप ने डस लिया और खूब झाड़ फूंक करवाए जाने के बाद भी उनके प्राण बचाए न जा सके। मनीराम बाबा पर दोहरी आफत आन पड़ी अब वे निपट अकेले थे और उन्हें अपने छोटे भाई  के परिवार को भी पालना था। रामचरन बाबा के मरने के दसवें रोज उनकी पत्नी का भी निधन हो गया। शायद भविष्य का डर उन्हेें ले डूबा। अब मनीराम बाबा के सामने छोटे भाई के तीन अबोध बच्चों को पालना भी था। मूला बुआ की उम्र करीब सात साल की थी और बाबा ठाकुरदीन तब चार साल के थे तथा रज्जो बुआ डेढ़ साल की। घर में मनीराम बाबा के बाद मूला बुआ ही मालकिन थीं लेकिन वे नाक पर मक्खी तक न बैठने देतीं। रज्जो रोतीं तो उन्हें खूब मारतीं अलबत्ता भाई से उन्हें बेपनाह मुहब्बत थी। मनीराम बाबा दिन में जंगल तोड़ते ढोरों की भी रखवाली करते अब उनके पास बटाई के खेत जोतने की कूवत नहीं थी इसलिए किसानों ने उन्हें बटाईदारी से बेदखल कर दिया। पर ढोरोंं से इतनी आमदनी हो जाती कि घर का खर्च चलने लगा। कुछ पैसा जुड़ा तो बाबा ने गांव के ही एक तिवारी परिवार के मुनीम लड़के से मूला बुआ की शादी कर दी। मूला बुआ तब नौ साल की हो गई थीं। शादी अब टाली नहीं जा सकती थी। लेकिन १९ वर्ष की उम्र में ही मूला बुआ विधवा हो गईं तो मनीराम बाबा उन्हें अपने घर ले आए। मूला बुआ की एक लड़की भी थी जो भी अपने ननिहाल आ गई। दस बीघे की खेती भी होने लगी और घर में बूढ़े मनीराम बाबा और उनके पालित पुत्र ठाकुरदीन बाबा। कमाई भी ठीकठाक होने लगी तो बिलहा का जंगल लिया गया और उसे तोडऩे की योजना बनाई गई। पर यहां मनीराम बाबा अकेले पड़ गए क्योंकि अकेले होने के कारण ठाकुरदीन बाबा पर उनकी लगाम ढीली पड़ गई थी। उन्हें पूरा पांच बीघे का चक अकेले ही तोडऩा पड़ा। पर पटिया के नाम से जाना जाने वाला यह चक हमारे परिवार में खुशहाली लेकर आया। रज्जो बुआ की शादी फतेहपुर जिले के बसफरा गांव में एक मिश्र परिवार में कर दी गई।
कामधाम तो ठाकुरदीन बाबा पहले से नहीं करते थे और अब उन्हें जुआ खेलने का चस्का पड़ गया लिखत-पढ़त में जमीन ठाकुरदीन बाबा के ही नाम थी। वे अक्सर कोई न कोई ढोर जुए में हार जाते। यह १९२१ का साल था जब मनीराम बाबा ने पटिया तोड़ ली। यानी अब ठाकुर दीन बाबा के नाम करीब १५ बीघे की खेती थी। इसी साल ठाकुर दीन बाबा की शादी डेरापुर तहसील के गांव डुबकी के एक दुबे परिवार की कन्या से कर दी गई। हमारी दादी यानी कौशिल्या जब अपनी ससुराल आईं तो उनकी अगवानी के लिए कोई सास नहीं बल्कि ननद के रूप में एक ऐसी स्त्री थी जो दादी से कहीं ज्यादा सुंदर और अभिमानिनी थी। मूला बुआ का खूब लंबा चौड़ा कद, दूध की तरह गोरा रंग, सुतवां नाक और ठेठ उर्दू बोलने की उनकी शैली किसी को भी उनके समक्ष बौना बना देती थी। दादी अपेक्षाकृत गरीब परिवार से आई थीं और हमारा परिवार पशुपालन के कारण एक सामान्य किसान की तुलना में संपन्न था बस सामाजिक प्रतिष्ठा के मामले में कमजोर था। मनीराम बाबा मूला बुआ के अहंकार से नाराज भी रहते और अपने भतीजे तथा पालित पुत्र ठाकुरदीन बाबा की हरकतों के चलते भी। ठाकुर दीन बाबा की शादी हो गई थी पर वे रात-रात भर घर से गायब रहते और बीवी के जेवरों से जुआ खेलते। उनके ताऊ उन्हें डांटते तो वे अब आंखें दिखाते क्योंकि जमीन उनके नाम थी। अब हम सिर्फ पशुपालक ही नहीं गांव की मर्यादा के अनुरूप किसान थे। पर भले हमारे पास १५ बीघा यानी १२ एकड़ जमीन रही हो पर पटिया छोड़कर बाकी की जमीन खाखी ही थी जिसमें चना और अरहर के अलावा और कुछ न पैदा होता। तब कैश क्रॉप्स यानी नगदी फसलों का जमाना नहीं था। अरहर की कोई खास कीमत नहीं होती थी। उड़द दलहन में  राजा था और धान अन्य खाद्यान्नों में। पर धान सिर्फ पटिया में ही होता। बड़े हार यानी दस बीघे की जमीन सिंचित नहीं थी भले ऊसर नहीं था पर पानी नहीं मिलता। इसलिए मनीराम बाबा को और पैसे कमाने के लिए कुछ और जमीन तोडऩी पड़ी। वे घर की कलह से खिन्न भी रहते। उन्हें पता था कि उनका पुत्र किसी काम का नहीं और उनकी बेटी बहू से खामखां में जूझती रहती है। दूसरे प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए मूला बुआ पर अंकुश जरूरी था। पढ़े लिखे थे नहीं कि मूला विवाह के दूसरे विवाह की कल्पना भी कर लेते। तब तक ब्राह्मण परिवारों में ऐसा सोचा जाना तक नामुमकिन था। इसलिए वे मूला बुआ को अपने साथ खेतों पर काम के लिए ले जाने लगे। ठाकुरदीन बाबा को इससे कोई मतलब नहीं था कि बुढऊ कैसे कमाते हैं। उन्हें तो बस जुआ खेलने को पैसे चाहिए थे न मिलते तो वे दादी के जेवर तक भेंट चढ़ा आते। हालांकि तब तक वे एक पुत्र के पिता बन चुके थे। ठाकुर दीन बाबा के यही बड़े पुत्र यानी मेरे  पिता ने आगे चलकर अपने घर में वो क्रांति कर दी जिसकी कल्पना तक मनीराम बाबा नहीं कर सकते थे।
पर इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं हो गईं जिससे मनीराम बाबा टूट गए। एक तो बेटी मूला की बेटी की शादी। मूला बुआ जिद पकड़े थीं कि उनकी बेटी की शादी खूब संपन्न परिवार में हो, लड़का सुंदर हो तथा कुल में सर्वश्रेष्ठ हो। विधवा बेटी की जिद। मनीराम बाबा ने हमीर पुर के पहाड़पुर के एक बड़े जमींदार के कुलदीपक को ढूंढ़ निकाला। युवा, सुंदर, गौरवर्णी तथा पोतड़ों के रईस। वह भी खोर के पांडेय यानी कनौजियों में सबसे ऊपर। मनीराम बाबा ने अपनी हैसियत से ज्यादा दहेज दिया और इसके लिए सारे ढोर बेच दिए गए। बारात आई और पांच दिन ठहरी। एक दिन पक्की यानी पूरी सब्जी, दूसरे दिन कच्ची और तीसरे रोज उन्होंने कलिया की मांग कर दी। कलिया यानी बकरा। अब काटो तो खून नहीं। गांव मेंं सिर्फ ब्राह्मण, कुर्मी या एकाध अहीर और कुछ चमार। सब के सब पक्के वैष्णव। दो परिवार बलाहियरों के थे और तीन खटिकों के। पर वे सुअर खाते थे। चमार परिवार स्वामी अछूतानंद के शिष्य थे वह भी कंठीधारी। अब इन कनौजियों के लिए कलिया कहां से लाया जाए? मालूम हो कि कनौजिया ब्राह्मणों में बीसों बिस्वा वाले श्रेष्ठ और कुलीन ब्राह्मण परिवारों में मांसाहार जायज था। ऊपर से बड़े जमींदार जिनकी उठक बैठक अंग्रेजों के साथ होती रहती थी। मनीराम बाबा को कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या करें? भागे-भागे दोनों जमींदारों के पास गए। वे भी भौंचक्के रह गए। पांडेय जी के बुजुर्गों को बुलाकर बात की गई। सहमति यह बनी कि मनीराम बाबा २०० रुपये देंं बाकी कलिया और दारू व भांग का इंतजाम पांडेय जी कर लेंगे। १९३९ में २०० रुपये कोई साधारण बात नहीं थी। मनीराम बाबा और ठाकुरदीन बाबा ने पटिया की जमीन रेहन रख दी और रुपयों का इंतजाम हो गया। ठाकुरदीन बाबा को भी अपनी बहन से असीम प्यार था इसलिए जमीन रेहन रखने को वो भी राजी हो गए। लेकिन मूला बुआ की बेटी जमींदारनी तो बन गई पर हमारा परिवार किसान से मजूर बन गया। जानवर भी गए और जमीन भी।
पिताजी यानी ठाकुरदीन बाबा के बड़े बेटे रामकिशोर ने इस बरबादी और पांडेय जमींदार की इन हरकतों को करीब से देखा। उनकी उम्र तब तक १२ साल की हो गई थी। पंाचवें दरजे की पढा़ई के लिए दूसरे गांव जाना पड़ता और घर में खाने के लाले। उनके पिता यानी ठाकुरदीन बाबा ने उनकी पढ़ाई छुड़वा दी और कहा कि गोबरधन बनिया के यहां रहकर कुछ मुडिय़ा सीख लो कहीं न कहीं मुनीम तो लग ही जाओगे। यह अप्रत्याशित था और पिताजी ने परिवार से दूर रहकर स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मनीराम बाबा के लिए दोहरी मुसीबत थी। पुत्र जुआरी और पोता अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले था। यही वह दौर था जब इलाहाबाद के आसपास बाबा रामचंदर किसान आंदोलन को सुलगा रहे थे। पर कानपुर के गांवों में इस किसान आंदोलन का असर नहीं पड़ा क्योंकि अंगे्रजों ने पूरब तथा अवध में रैयतवारी की दूसरा कानून बना रखा था लेकिन दोआबे में अलग इसलिए यहां के किसान अवध के किसानों की तरह जमींदारों के चंगुल में नहीं थे तथा यहां पट्टीदारी व्यवस्था न होने से औरतों के भी कानूनी हक थे और जमीन में हिस्सा भी। पर किसान आंदोलन चला तो गंाधी जी का अंादोलन भी यहां पहुंचा। पिताजी स्कूल जाने के बहाने गांवों में चल रही चरखा क्रांति में भी शरीक होने लगे। गांव के ही सुकुल जमींदार के लाड़ले स्वामीदीन सुकुल, कुर्मियों में पराग नाना और मन्ना चमार को मिलाकर गांव में भी कांग्रेस की एक ईकाई खोली गई और रोज सुबह प्रभात फेरी व चर्खा गान होने लगा। इसमें दुर्गा मुंशी, मैकू दरजी, भगवान दीन और गांव के ही एक दूकानदार गोबरधन साहू के साहबजादे भी शामिल थे। पर हिरावल दस्ते में पिताजी व मन्ना चमार तथा पराग नाना व स्वामी दीन  सुकुल थे। स्वामी दीन सुकुल जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ कुछ नहीं बोलते थे।
पिताजी को इस तरह की खुराफातों से दूर करने के लिए दादी ने एक तरीका निकाला। उनकी छोटी बहन अंगदपुर में टंडन जमींदार के एक कारिंदा जी को ब्याही थीं। यह एक बेमेल विवाह था। दादी के मायके वाले गरीब थे इसलिए दादी के पिता ने अपनी तीनों कन्याएं ऐसे परिवारों में ब्याहीं जिन्हेंं लड़की चााहिए थी। दादी की बड़ी बहन जिस परिवार में ब्याही थी वह परिवार कुछ वजहों से अपने समाज से च्युत था। और उनकी छोटी बहन कैलाशी जिन कारिंदा जी को ब्याही थीं वे थे तो राजसी ठाठबाट वाले पर उनकी पहली पत्नी को मरे अरसा हो चुका था। काङ्क्षरदा जी यानी अग्रिहोत्री जी करीब ५० साल के थे और कैलाशी दादी मात्र १५ साल की। उनके  कोई संतान नहीं हुई इसलिए हमारी दादी जिनके तब तक तीन पुत्र हो चुके थे अपने बड़े बेटे को कैलाशी बहन के यहां अंगदपुर भेज दिया। अंगदपुर में खाने पीने की कमी नहीं थी। पिताजी के मौसा अमरौधा के टंडन परिवार के कारिंदा थे। टंडन परिवार की ही अंगदपुर में जमींदारी थी। इसलिए कारिंदाजी यानी पिताजी के मौसा के पास अपने गांव में करीब बीस एकड़ सिंचित भूमि, आम और अमरूद व केले के बगीचे, एक तालाब तथा गांव में दो विशालकाय घर थे। गांव में दोमंजिले घर तब दुर्लभ थे लेकिन अग्निहोत्रीजी का घर दोमंजिला था। यही अग्निहोत्रीजी पिताजी के मौसा थे। जब तक अग्निहोत्रीजी जिंदा थे पिताजी को वे पसंद करते थे लेकिन पिताजी की मौसी अपने इस भतीजे को पसंद नहीं करती थीं। वे अपने भाई को पसंद करती थीं। इस मामले में मेरी दादी और उनके भाइयों के बीच एक प्रतिद्वंदिता चलती थी। हालांकि ऊपर से रिश्ते मधुर दिखते थे लेकिन अंदर ही अंदर भारी मारकाट थी। पिताजी के मौसा के मरते ही पिताजी के बड़े मामा आ धमके और उन्होंने राजनीति करके पिताजी का पत्ता वहां से साफ करवा दिया। हालांकि इसे अंजाम देने में उन्हें दस साल लगे। इसमें पिताजी की कुछ गलती थी दूसरे अपने परिवार से मां के अलावा इसमें उन्हें किसी का सपोर्ट नहीं मिला। ठाकुरदीन बाबा  को अंगदपुर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अंगदपुर की अपनी साली को कतई पसंद नहीं करते थे। मूला बुआ को भी अपने इस बड़े भतीजे से बहुत सनेह था। वे नहीं चाहतीं थीं कि रामकिशोर दूसरों के यहां पड़ा रहे। उन्होंने वे शानदार दिन देखे थे जब हमारे यहां दूध दही की कमी नहीं था और भले गेहूं न हो पर खाद्यान्न कोठारों में भरा ही रहता था। इसिलए उन्हें भी दादी की यह तरकीब पसंद नहीं आई। उधर पिताजी के मौसा यानी कारिंदा जी की मृत्यु हो गई और कैलाशी दादी को अपनी जमीन बचाए रखने के लिए पड़ोस के त्रिवेदी परिवार के बराबर ताकत जरूरी थी। पिताजी अकेले पड़ जाते और त्रिवेदी का कुनबा बड़ा था और वे येन केन प्रकारेण काङ्क्षरदा जी की विधवा से जमीन हड़पना चाहते थे। ठाकुरदीन बाबा अंगद पुर आते नहीं थे हालांकि वे अपने गांव के आसपास पहलवान के रूप में जाने जाते थे लेकिन अंगदपुर की जमीन में उनकी दिलचस्पी कतई नहंी थी। इसलिए पिताजी को अंगदपुर से बेदखल होना ही पड़ा। और उनके मामा लोग वहां काबिज हो गए। बस शुक्र यह रहा कि बेदखल होने के बावजूद पिताजी के  अपनी मौसी व मामाओं से ताल्लुकात मधुर रहे।
लेकिन इसका खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि पंाडेय जी की कलिया की खातिर रेहन रखी जमीन हम छुड़ाई नहीं जा सकी। और पिताजी को गांव आकर जमींदार के यहां मजूरी करनी पड़ी। कभी ईंट पाथो तो कभी पानी लगाओ या खेतों की रखवाली करो। मनीराम बाबा तब तक आंखें गंवा चुके थे और पहलवान यानी ठाकुरदीन बाबा के रूटीन में कोई फर्क नहीं आया था। पर पिताजी इस सबके बावजूद कांग्रेस के आंदोलन से जुड़े रहे और कुछ साहित्यिक मिजाज का होने के कारण गांव में ही स्वामीदीन सुकुल, पराग नाना और मन्ना चमार से कहकर माया व माधुरी तथा चांद व हंस जैसी पत्रिकाएं व प्रताप जैसा अखबार मंगाते रहे। १९४५ में उनकी शादी हो गई और १९५० में वे कानपुर शहर आ गए। यहां उन्हें स्वदेशी काटन मिल में मजदूरी का काम मिल गया। यहीं वे कामरेड सुदर्शन चक्र के संपर्क में आए तथा सीपीआई से जुड़े। १९५६ में जब स्वदेशी मिल में ८० दिनों की स्ट्राइक हुई तो वे मजदूरों में अलख जगाए रखने के लिए उनके बीच जाकर कविताएं सुनाते तथा परचा निकालते। राहुल संाकृत्यायन ने पिताजी की इस निष्ठा की सराहना की थी। पर हम किसानी प्रतिष्ठा खो चुके थे और हमारा परिवार शहरी सर्वहारा बन चुका था।

7 टिप्‍पणियां:

  1. Very realistic and touching. Had there been, in our Hindi belt, somebody like Balzac, Emile Zola, Dickens or Saramago, it would have formed the plot of some great literary fiction.
    I do not know much of indigo plantation in Kanpur area but what I know of my own district, Champaran, points out that indigo plantation ceased to be profitable after Germany introduced synthetic indigo dye in the international market in the last decade of the 19th century and then the European planters started extorting money from the raiyats in the name of 'tawan' and 'sarahbeshi' and it resulted in a rebellion which Gandhiji came in April 1917 to lead.

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    1. Sir,
      whole of British India Britishers started the cultivation of indigo, my own village was also effected but thanx to Mr. Rajkumar Shukla who faught these Britishers with the help of Mahatma Gandhi.
      Regards

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  2. Kahani kahi tootti nahi dikhayi di, ek bar shuru ki to padhta hi chala gaya, isme apni mitti ki khusboo to hai hi sath hi bujurgo ki mehnat aur dukhbhari dasta bhi

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  3. गाॅव का स्वरुप अौर किसानो के हालात का वास्तविक चितऱण किया है।यह भी लगता हैकि जाति का गावॅ की social hiererchy मे कोई रोल नही था अपितु गरीब होते हुए भी ब्याह / सम्बन्ध अपनी बिरादरी मे ही होते थे।पेशे अौर जाति का भी कोई रिश्ता नही दिखता है।किसान कीदयनीय हालत अाज भी वैसी ही है ,हाॅ पर अाज शहर जाकर वे मजदूर बन सकते हैं

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  4. बहुत रोमांचक कथा है। पूरी आत्मकथा लिख ही डालो।

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  5. ye durauli aur akbarpur ke jamindaar ek hi the, gajraj singh ke parivaar vale ?

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  6. Ramchandara vald Rameshwar aapke hi khandaani hai ?

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