शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हुज्जते बंगाल से भिडऩा आसान नहीं

हुज्जते बंगाल से भिडऩा आसान नहीं
शंभूनाथ शुक्ल
कोलकाता का प्रेसीडेंसी कालेज बहुत पुराना और प्रतिष्ठित कालेज रहा है। अब उसे विश्वविद्यालय का दरजा मिल गया है। यहां बुधवार को तमाम अशोभनीय घटनाएं घटीं। इस विश्वविद्यालय के कैंपस में बुधवार को कुछ प्रदर्शनकारी घुस गए और वहां की सर जगदीशचंद्र वसु लैब में काफी तोडफ़ोड़ की। फौरन कुलपति मालबिका सरकार ने मीडिया वालों को बुलवाया और आरोप लगाया कि प्रदर्शनकारी तृणमूल कांग्रेस की छात्र इकाई से थे। वे तृणमूल कांग्रेस का झंडा लिए हुए थे तथा उनका नेतृत्व स्थानीय सभासद पार्थो बसु कर रहे थे। इसके बाद हंगामा मचना स्वाभाविक था। राज्य के उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी ने अगले ही रोज आरोप लगाया कि कुलपति ने बगैर कुलाधिपति को बताए मीडिया से बात कर ली और इस बात की उन्होंने पुष्टि नहीं की कि प्रदर्शनकारी तृणमूल के थे भी या नहीं। इसका असर यह पड़ा कि मालबिका सरकार ने गुरुवार को दोपहर बाद शिक्षा मंत्री सुब्रत मुखर्जी के साथ एक प्रेस वार्ता की और बात साफ की कि वे लोग तृणमूल का झंडा तो लिए हुए थे लेकिन उनमें तृणमूल का कोई नेता नहीं था।
माकपा ने कुलपति के इस बयान की तीव्र आलोचना की है। माकपा का आरोप है कि तृणमूल सुप्रीमो विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण कर रही हैं। हालांकि यह आरोप उतना ही माकपा पर भी फिट बैठता है। पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों का राजनीतिकरण पहले माकपा ने ही किया था और प्रसीडेंसी कालेज तो उसका प्रिय अखाड़ा रहा है। माकपा के ज्यादातर बड़े नेता, यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य भी इसी कालेज से पढ़े थे। इसलिए प्रेसीडेंसी कालेज में राजनीति होनी स्वाभाविक ही है।
माकपा के छात्र संगठन एसएफआई के एक कार्यकर्ता सुदीप्तो घोष की हत्या के बाद से पश्चिम बंगाल की राजनीति गरमा गई थी। माकपा ने पूरे राज्य में धरना प्रदर्शन कर तृणमूल को कठघरे में खड़ा कर दिया था। प्रदेश की राजनीति की उथलपुथल से घबरा कर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ९ अप्रैल को दिल्ली में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पी चिदंबरम से मिलने के लिए आई थीं। पर मुलाकात के कुछ पहले ही उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा के साथ दिल्ली स्थित योजना भवन के सामने एसएफआई के कुछ लोगों ने बदतमीजी कर दी। उनका कुरता फाड़ दिया और उनसे हाथापाई भी की। ममता के तेवर फिर गरम हो गए और उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने से मना कर दिया। केंद्रीय संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ल ममता बनर्जी को समझाने गए तो उन्होंने राजीव शुक्ल को डांट दिया और वापस कोलकाता लौट गईं। जहां ब्लड पे्रशर नीचे हो जाने के कारण उन्हें वहां के बेलव्यू अस्पताल में भरती कराया गया।
सवाल यह उठता है कि पश्चिम बंगाल में जरा-जरा सी बात पर हिंसा क्यों हावी हो जाती है। यूं हुज्जते बंगाल मशहूर है यानी बंगाल के खून में ही हुज्जत करना है। शायद वहां का क्लाईमेट ऐसा है कि लोगबाग जरा सा भी विचलन बरदाश्त नहीं कर पाते। या तो आप हमारी तरफ हैं अथवा दुश्मन खेमे की तरफ और दुश्मन का सफाया बंगाल में मान्य है। १९६७ में शुरू हुई नक्सली हिंसा से लेकर आजतक बंगालियों की मानसिकता में हिंसा को एक मान्यता मिल चुकी है। अपने कोलकाता प्रवास के दौरान की एक घटना यहां बताना समीचीन होगी।
मार्च सन् २००० की तीन या चार की तारीख की रात थी। अखबार का सिटी एडिशन छुड़वा कर मैं अपने घर के लिए निकला ही था कि हाथी बागान में एक युवक दौड़ा-दौड़ा आया और मेरी एंबेसडर कार की बोनट पर एक धारदार हथियार का वार किया। मैं तो सन्न। अभी कोलकाता में जनसत्ता का संपादक पद संभाले हुए कुल तीन ही दिन हुए थे। इतनी जल्दी भला किसी से क्या दुश्मनी होगी? चंडीगढ़ जैसे साफ-सुथरे शहर से आया था इसलिए कोलकाता की गलियों और यहां की आबोहवा से बहुत परिचित भी नहीं था। भीड़ ने कार घेर ली और बांग्ला में जोर-जोर से कुछ बोलने लगे। मुझे डर भी लगा तभी ड्राइवर कार से  उतरा और उसने उन्हें कुछ समझाया और वे नोमस्कार दादा बोलते हुए चले गए। बाद में ड्राइवर ने बताया कि ये लोग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग थे और वे तृणमूल पार्टी के लेागों को पीटने के लिए सड़क पर उतरे थे। हुज्जते बंगाल के पहले दर्शन हुए।
तब तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी गठजोड़ को राज करते हुए २३ साल हो चुके थे तथा बतौर मुख्यमंत्री ज्योति वसु को भी। लेकिन अब वामदलों का पानी उतरने लगा था। ममता बनर्जी की तृणमूल धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाती जा रही थी। मुस्लिम इलाकों और पश्चिम बंगाल के शहरों में ममता की पार्टी की साख बढ़ रही थी। रोज कोई न कोई झगड़ा कहीं न कहीं हो ही जाता था। दोनों पार्टियों के तमाम कार्यकर्ता मारे जा चुके थे। निष्कर्ष यह निकला कि ज्योति वसु को हटाकर माकपा पोलित ब्यूरो ने बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना दिया। बुद्धेदव बाबू ने अपनी अगुआई में २००१ का चुनाव जितवा दिया और २००६ का भी। पर २००९ के लोकसभा चुनाव में तृणमूल और कांग्रेस को अच्छी खासी तादाद में सीटें मिल गईं। तभी से लग गया था कि अगला विधानसभा चुनाव अब वाम गठजोड़ नहीं जीत पाएगा और वही हुआ भी। २०११ में वामपंथी दल बुरी तरह हारे और ममता ने अपने बूते पश्चिम बंगाल में सरकार बना ली। वामदलों ने पश्चिम बंगाल में पूरे ३४ साल राज किया।
लेकिन वह संयम जो वामदलों में था वह ममता की तृणमूल में देखने को नहीं मिला। ममता का कांग्रेस से गठजोड़ टूटा और ममता ने दिल्ली आना ही बंद कर दिया। लेकिन बिना दिल्ली की मदद के कोई भी क्षत्रप अपना राजकाज सुचारू रूप से नहीं चला सकता इसीलिए ममता ९ अप्रैल को दिल्ली आई थीं। दिल्ली की केंद्र सरकार को भी ममता के सहारे की जरूरत है इसीलिए राज्यपाल इतने हंगामे के बावजूद ममता की तारीफ कर रहे हैं और वामदलों की निंदा। लेकिन जहां गुस्सा नाक पर बैठा हो वहां की किसी भी पार्टी से हर समय सहारे की उम्मीद करना बेमानी होगी।

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