हिमालय को मौज मस्ती का केंद्र बनाने के खतरे
शंभूनाथ शुक्ल
मध्य हिमालय में सब कुछ स्वाहा हो गया है। अब यह सरकार के बूते की बात नहीं है कि वह केदारनाथ मंदिर को वही स्वरूप दे सके जैसा कि आदि शंकराचार्य ने कल्चुरी राजााओं से बनवाया था। आधुनिक सरकारें सड़क, बांध और भवन तो बनवा सकती हैं लेकिन मंदिर नहीं। करीब एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक केदारनाथ मंदिर अपनी भव्यता और दुर्गमता के कारण जाना जाता रहा है। बद्री और केदार घाटी की खोज आदि शंकराचार्य ने की थी। तब यहां तिब्बती बौद्धों का कब्जा था लेकिन आदि शंकराचार्य का कहना था कि भगवान नारायण ने यहां साक्षात अवतार लिया था और बाद में बौद्धों ने उनकी प्रतिमा कुंड में फेंक कर इस घाटी पर कब्जा कर लिया। आदि शंकराचार्य अपने साथ कुछ दक्षिणात्य ब्राह्मणों को लेकर गए थे और भयानक शीत में वे कुंड में कूदे तथा भगवान बद्री की प्रतिमा निकाली तथा उसे स्थापित किया। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के शिल्पी आए तथा उनकी रक्षा के लिए सेना भी। यहां से दस्युओं और चोरों को मार भगाया गया और शिल्पियंों ने यहीं के पत्थरों से बद्री और केदार घाटी में क्रमश भगवान बद्री तथा शिवङ्क्षलग की भव्य मूर्तियां स्थापित कीं।
आदि शंकराचार्य ने सिर्फ यही नहंी किया। उन्होंने आज से हजार साल पहले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने की एक ऐसी अवधारणा प्रस्तुत की जो शायद उसके पहले किसी ने नहीं सोची थी। बौद्ध धर्म जब विदेशों में पनाह पाने लगा तो उसने विदेशी राजाओं को भारत आकर यहां अपने धर्म को स्थापित करने के लिए न्यौता। शुची वंश इसी का नतीजा है कि कनिष्क ने भारत आकर सुदूर मैदानों में मथुरा तक कब्जा कर लिया। लेकिन तब भी वैदिक धर्म को लगता था कि पंथ भले अलग-अलग हों लेकिन इस आर्यावर्त और दक्षिणात्य देशों में भारतवंशियों को ही राज करना चाहिए और इसके लिए एक आध्यात्मिक तानाशाही जरूरी है। इसके लिए आवश्यक था कि सुदूर दक्षिण का आदमी अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उत्तर जाए और पूरब का आदमी पश्चिम में द्वारिका। इसी तरह पूर्व में पुरी और दक्षिण में रामेश्वरम की स्थापना आदि शंकराचार्य की ही देन थी। उन्होंने इन चारों धामों में शंकराचार्य का पद बनाया और वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना का रास्ता साफ किया।
शंकराचार्य द्वारा बनाए गए ये मंदिर आज सरकारें नहीं बनवा सकती हैं इसलिए बेहतर रहे कि वे अपना सारा ध्यान बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित लोगों को सुरक्षित निकालने तथा उनके गंतव्य पर पहुंचाने पर ही ध्यान दें। यूं भी हिमालय को सरकारोंं ने जिस तरह तोड़-तोड़ कर वहंा शहर बसाए हैं उससे नुकसान ज्यादा हुआ है भला कम। पूरे भारत के पश्चिमोत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय ही फैला है। और इसके नीचे का भूभाग एक प्रायद्वीप जैसा है जिसका सारा मौसम हिमालय की पहाडिय़ों और बर्फ से ढकी चोटियों से प्रभावित होता है। आज अगर भारत का मौसम उष्ण कटिबंधीय है तो उसकी वजह यही हिमालय है। जाड़ा, गरमी और बरसात की वजह यही हिम प्रदेश है। वर्ना शायद भारत में भी अन्य मुल्कों की तरह एक सा मौसम रहा करता। या तो भयानक गर्मी या भयानक जाड़ा अथवा बारहों महीने की बारिश। पर हिमालय में शहर बसाने की कल्पना करने वाले हमारे हुक्मरान भूल जाते हैं कि हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है। इसे आल्पस की तरह तोड़ा नहीं जा सकता है न ही इसे अरावली की तरह रौंदा जा सकता है। इसीलिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में इसे धर्म और अध्यात्म का केंद्र बताया गया है। चाहे वे वैदिक ऋषि-मुनि रहे हों अथवा बौद्ध व सिख हिमालय में अपने अध्यात्म की भूख मिटाने गए। इसीलिए सदैव से हिमालय में तीर्थयात्री जाते रहे हैं पर्यटक नहीं। पर्यटकों के लिए अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत कम ऊँची पहाडिय़ों को विकसित कर लिया था। शिमला, कसौली, मसूरी, नैनीताल से लेकर दार्जिलिंग तक। इसके ऊपर का भाग सिर्फ धार्मिक यात्रियों तक सीमित रखा गया और अभी कुल पचास साल पहले तक ये धार्मिक यात्री बद्री, केदार, गंगोत्री तथा यमुनोत्री की पूरी यात्रा हरिद्वार से ही पैदल तय करते थे। पहले जो भी यात्री इन धामों की यात्रा करने जाया करते थे वे अपने नाते-रिश्तेदारों से मिलकर यात्रा शुरू करते थे क्योंकि उनके सकुशल लौटने की उम्मीद कम ही हुआ करती थी। एक कहावत प्रचलित थी- जाए जो बद्री, वो लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दलिद्दरी। यानी बद्री-केदार जाने वाले का लौटना यदा कदा ही हो पाता था और लौटा तो फिर वह गरीब तो नहीं रहता था। यह एक ङ्क्षकवदंती थी। तब जो पहाड़ों के धाम पर इतनी दूर गया वह लौटेगा, इसकी उम्मीद न के बराबर हुआ करती थी।
लेकिन सुदूर बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा गंगोत्री तो क्या गोमुख तक आज यात्रियों की भीड़ लगी रहती थी। उनमें आध्यातिमकता कम इन इलाकों में जाकर मौज मस्ती करने का भाव अधिक रहता है। इसीलिए वे अपने साथ खाने-पीने की इतनी चीजें ले जाते हैं कि उनकी गंदगी से इस सारे क्ष्ेात्र से पानी निकलने के रास्ते तक बंद हो गए हैं। पहले के यात्री तीर्थ के भाव से निकलते थे और कहीं भी लकडिय़ों को जुगाड़कर चूल्हा जलाया और खिचड़ी बनाकर खा ली लेकिन अब तो उन्हें वह सब चाहिए जो दिल्ली आदि महानगरों में उपलब्ध है। उनकी चाहत के लिए यहां दूकानें तथा होटल खुले। पहाड़ में जगह नहीं मिलती इसलिए अधिकतर होटल नदी द्वारा छोड़ी गई रेती में बनाए गए और सारा कचरा नदी में फेंका जाने लगा नतीजा यह हुआ कि नदी में गाद जमा होने लगी और धारा प्रभावित होने लगी। केदारनाथ का पूरा हादसा पर्यटकों की इसी हरकत की देन है। जो जगह वानप्रस्थ में प्रवेश कर चुके यात्रियों के लिए तय की गई थी उसमें वह लोग भी अपना हक जमाने लगे जिन्होंने अभी जिंदगी शुरू तक नहंी की है।
अब फिर से हिमालय को तोड़ा जाएगा। हाई वे बनाने के लिए और नए सिरे से होटल और रिसोर्ट बनाने के लिए। लोगों की आमद रफ्त बढ़ेगी तो गंदगी और मलबा भी। पर्यावरण भी प्रभावित होगा तथा यहां की जिंदगी भी। इसलिए बेहतर है कि सरकार मंदिर बनाने का सपना छोड़ दे और जैसा है फिलहाल वैसा ही चलने दे। इससे यात्री कम आएंगे और जो आएंगे वे काफी कष्ट सहकर। ऐसा यात्री न तो मलबा फैलाएगा न ही ऐसे धामों में आने के पीछे उसकी मौज मस्ती की इच्छा होगी। केदारनाथ मंदिर का यही पुनर्निर्माण होगा कि उसे तीर्थयात्रियों की इच्छा शक्ति पर छोड़ा जाए पर्यटकों के एन्जायमेंट के लिए उसका दोबारा निर्माण न कराया जाए। आखिर आज तक के ज्ञात इतिहास में केदारनाथ धाम की ऐसी बरबादी का एक भी किस्सा सुना नहीं गया होगा जब जल ने अपने बहाव की प्राकृतिक दिशा बदल ली और पूरे के पूरे धाम को ही लील गया। हिमालय को तोडऩा पूरे भारतीय उप महाद्वीप के लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। पूरे हिमालयी क्षेत्र के खनन और वन कटान के बारे में एक सार्वभौमिक नीति बनाई जाए ताकि पहाड़ की अस्मिता यथावत रह सके।
पहाड़ पर इसके पहले भी कई हमले हुए हैं। पहाड़ी राजाओं के उत्पात किसी से छिपे हुए नहीं हैं लेकिन जैसा हमला उस पर पर्यटन उद्योग ने किया है वैसा कभी नहीं हुआ। हिमालय को बचाने का मतलब देश को बचाना है।
शंभूनाथ शुक्ल
मध्य हिमालय में सब कुछ स्वाहा हो गया है। अब यह सरकार के बूते की बात नहीं है कि वह केदारनाथ मंदिर को वही स्वरूप दे सके जैसा कि आदि शंकराचार्य ने कल्चुरी राजााओं से बनवाया था। आधुनिक सरकारें सड़क, बांध और भवन तो बनवा सकती हैं लेकिन मंदिर नहीं। करीब एक हजार साल से भी ज्यादा समय तक केदारनाथ मंदिर अपनी भव्यता और दुर्गमता के कारण जाना जाता रहा है। बद्री और केदार घाटी की खोज आदि शंकराचार्य ने की थी। तब यहां तिब्बती बौद्धों का कब्जा था लेकिन आदि शंकराचार्य का कहना था कि भगवान नारायण ने यहां साक्षात अवतार लिया था और बाद में बौद्धों ने उनकी प्रतिमा कुंड में फेंक कर इस घाटी पर कब्जा कर लिया। आदि शंकराचार्य अपने साथ कुछ दक्षिणात्य ब्राह्मणों को लेकर गए थे और भयानक शीत में वे कुंड में कूदे तथा भगवान बद्री की प्रतिमा निकाली तथा उसे स्थापित किया। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के शिल्पी आए तथा उनकी रक्षा के लिए सेना भी। यहां से दस्युओं और चोरों को मार भगाया गया और शिल्पियंों ने यहीं के पत्थरों से बद्री और केदार घाटी में क्रमश भगवान बद्री तथा शिवङ्क्षलग की भव्य मूर्तियां स्थापित कीं।
आदि शंकराचार्य ने सिर्फ यही नहंी किया। उन्होंने आज से हजार साल पहले भारत देश को एक सूत्र में पिरोने की एक ऐसी अवधारणा प्रस्तुत की जो शायद उसके पहले किसी ने नहीं सोची थी। बौद्ध धर्म जब विदेशों में पनाह पाने लगा तो उसने विदेशी राजाओं को भारत आकर यहां अपने धर्म को स्थापित करने के लिए न्यौता। शुची वंश इसी का नतीजा है कि कनिष्क ने भारत आकर सुदूर मैदानों में मथुरा तक कब्जा कर लिया। लेकिन तब भी वैदिक धर्म को लगता था कि पंथ भले अलग-अलग हों लेकिन इस आर्यावर्त और दक्षिणात्य देशों में भारतवंशियों को ही राज करना चाहिए और इसके लिए एक आध्यात्मिक तानाशाही जरूरी है। इसके लिए आवश्यक था कि सुदूर दक्षिण का आदमी अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उत्तर जाए और पूरब का आदमी पश्चिम में द्वारिका। इसी तरह पूर्व में पुरी और दक्षिण में रामेश्वरम की स्थापना आदि शंकराचार्य की ही देन थी। उन्होंने इन चारों धामों में शंकराचार्य का पद बनाया और वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना का रास्ता साफ किया।
शंकराचार्य द्वारा बनाए गए ये मंदिर आज सरकारें नहीं बनवा सकती हैं इसलिए बेहतर रहे कि वे अपना सारा ध्यान बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित लोगों को सुरक्षित निकालने तथा उनके गंतव्य पर पहुंचाने पर ही ध्यान दें। यूं भी हिमालय को सरकारोंं ने जिस तरह तोड़-तोड़ कर वहंा शहर बसाए हैं उससे नुकसान ज्यादा हुआ है भला कम। पूरे भारत के पश्चिमोत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय ही फैला है। और इसके नीचे का भूभाग एक प्रायद्वीप जैसा है जिसका सारा मौसम हिमालय की पहाडिय़ों और बर्फ से ढकी चोटियों से प्रभावित होता है। आज अगर भारत का मौसम उष्ण कटिबंधीय है तो उसकी वजह यही हिमालय है। जाड़ा, गरमी और बरसात की वजह यही हिम प्रदेश है। वर्ना शायद भारत में भी अन्य मुल्कों की तरह एक सा मौसम रहा करता। या तो भयानक गर्मी या भयानक जाड़ा अथवा बारहों महीने की बारिश। पर हिमालय में शहर बसाने की कल्पना करने वाले हमारे हुक्मरान भूल जाते हैं कि हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है। इसे आल्पस की तरह तोड़ा नहीं जा सकता है न ही इसे अरावली की तरह रौंदा जा सकता है। इसीलिए हमारे धार्मिक ग्रंथों में इसे धर्म और अध्यात्म का केंद्र बताया गया है। चाहे वे वैदिक ऋषि-मुनि रहे हों अथवा बौद्ध व सिख हिमालय में अपने अध्यात्म की भूख मिटाने गए। इसीलिए सदैव से हिमालय में तीर्थयात्री जाते रहे हैं पर्यटक नहीं। पर्यटकों के लिए अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत कम ऊँची पहाडिय़ों को विकसित कर लिया था। शिमला, कसौली, मसूरी, नैनीताल से लेकर दार्जिलिंग तक। इसके ऊपर का भाग सिर्फ धार्मिक यात्रियों तक सीमित रखा गया और अभी कुल पचास साल पहले तक ये धार्मिक यात्री बद्री, केदार, गंगोत्री तथा यमुनोत्री की पूरी यात्रा हरिद्वार से ही पैदल तय करते थे। पहले जो भी यात्री इन धामों की यात्रा करने जाया करते थे वे अपने नाते-रिश्तेदारों से मिलकर यात्रा शुरू करते थे क्योंकि उनके सकुशल लौटने की उम्मीद कम ही हुआ करती थी। एक कहावत प्रचलित थी- जाए जो बद्री, वो लौटे न उद्री, और लौटे जो उद्री तो होय न दलिद्दरी। यानी बद्री-केदार जाने वाले का लौटना यदा कदा ही हो पाता था और लौटा तो फिर वह गरीब तो नहीं रहता था। यह एक ङ्क्षकवदंती थी। तब जो पहाड़ों के धाम पर इतनी दूर गया वह लौटेगा, इसकी उम्मीद न के बराबर हुआ करती थी।
लेकिन सुदूर बद्रीनाथ और केदारनाथ तथा गंगोत्री तो क्या गोमुख तक आज यात्रियों की भीड़ लगी रहती थी। उनमें आध्यातिमकता कम इन इलाकों में जाकर मौज मस्ती करने का भाव अधिक रहता है। इसीलिए वे अपने साथ खाने-पीने की इतनी चीजें ले जाते हैं कि उनकी गंदगी से इस सारे क्ष्ेात्र से पानी निकलने के रास्ते तक बंद हो गए हैं। पहले के यात्री तीर्थ के भाव से निकलते थे और कहीं भी लकडिय़ों को जुगाड़कर चूल्हा जलाया और खिचड़ी बनाकर खा ली लेकिन अब तो उन्हें वह सब चाहिए जो दिल्ली आदि महानगरों में उपलब्ध है। उनकी चाहत के लिए यहां दूकानें तथा होटल खुले। पहाड़ में जगह नहीं मिलती इसलिए अधिकतर होटल नदी द्वारा छोड़ी गई रेती में बनाए गए और सारा कचरा नदी में फेंका जाने लगा नतीजा यह हुआ कि नदी में गाद जमा होने लगी और धारा प्रभावित होने लगी। केदारनाथ का पूरा हादसा पर्यटकों की इसी हरकत की देन है। जो जगह वानप्रस्थ में प्रवेश कर चुके यात्रियों के लिए तय की गई थी उसमें वह लोग भी अपना हक जमाने लगे जिन्होंने अभी जिंदगी शुरू तक नहंी की है।
अब फिर से हिमालय को तोड़ा जाएगा। हाई वे बनाने के लिए और नए सिरे से होटल और रिसोर्ट बनाने के लिए। लोगों की आमद रफ्त बढ़ेगी तो गंदगी और मलबा भी। पर्यावरण भी प्रभावित होगा तथा यहां की जिंदगी भी। इसलिए बेहतर है कि सरकार मंदिर बनाने का सपना छोड़ दे और जैसा है फिलहाल वैसा ही चलने दे। इससे यात्री कम आएंगे और जो आएंगे वे काफी कष्ट सहकर। ऐसा यात्री न तो मलबा फैलाएगा न ही ऐसे धामों में आने के पीछे उसकी मौज मस्ती की इच्छा होगी। केदारनाथ मंदिर का यही पुनर्निर्माण होगा कि उसे तीर्थयात्रियों की इच्छा शक्ति पर छोड़ा जाए पर्यटकों के एन्जायमेंट के लिए उसका दोबारा निर्माण न कराया जाए। आखिर आज तक के ज्ञात इतिहास में केदारनाथ धाम की ऐसी बरबादी का एक भी किस्सा सुना नहीं गया होगा जब जल ने अपने बहाव की प्राकृतिक दिशा बदल ली और पूरे के पूरे धाम को ही लील गया। हिमालय को तोडऩा पूरे भारतीय उप महाद्वीप के लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। पूरे हिमालयी क्षेत्र के खनन और वन कटान के बारे में एक सार्वभौमिक नीति बनाई जाए ताकि पहाड़ की अस्मिता यथावत रह सके।
पहाड़ पर इसके पहले भी कई हमले हुए हैं। पहाड़ी राजाओं के उत्पात किसी से छिपे हुए नहीं हैं लेकिन जैसा हमला उस पर पर्यटन उद्योग ने किया है वैसा कभी नहीं हुआ। हिमालय को बचाने का मतलब देश को बचाना है।
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