शनिवार, 14 सितंबर 2013

गवाह होस्टाइल हो गया

हर शरीफ शहरी की तरह मैं भी कोर्ट कचेहरी से बहुत डरता हूं। पर हर आदमी की तरह जीवन में कभी न कभी काले कोट के दर्शन करने ही पड़ते ही हैं। 1993 की मार्च में मुझे भी दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में जाना पड़ा। मुझे इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने 1987 में हुई हड़ताल के संदर्भ में गवाह बनाया था। हड़ताल खत्म होने के बाद इंडियन एक्सप्रेस के कुछ कर्मचारियों खासकर जनसत्ता के पत्रकारों पर तेजाब फेंका गया था। जिन छह लोगों पर तेजाब फेंका गया, उनमें से एक मैं भी था। आरोप था कि कर्मचारी यूनियन के नेता टीएस रंगाराजन के इशारे पर कुछ हड़ताल समर्थक लोगों ने तेजाब फेंका था। हड़ताल खत्म हो चुकी थी इसीलिए हम लोग काम करने पहुंचे थे लेकिन कुछ लोग अभी भी हड़ताल को यथावत मान रहे थे। एक दिसंबर की रात जब हम लोग नगर संस्करण छुड़वा कर घर के लिए निकले तो प्रताप बिल्डिंग के पास कुछ लोगों ने स्टील के एक जग से हम पर तेजाब फेंका। कुछ पर ज्यादा पड़ा और कुछ पर सिर्फ छींटें ही पड़ीं। जिन पर छींटें ही पड़ीं उनमें से एक मैं भी था। इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने एक मुकदमा कायम कराया और पुलिस की डायरी में मेरा भी नाम बतौर गवाह डलवा दिया गया। उस समय दिल्ली में पुलिस की डायरी उर्दू में भरी जाती थी इसलिए मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे दस्तखत कहां कराए गए हैं। कुछ दिन बाद बताया गया कि हमें अपने ही हड़ताली साथियों के विरोध में गवाही देनी है कि उन्होंने ही तेजाब डाला। अब यह सरासर गलत था क्योंकि साफ-साफ हम देख ही नहीं पाए कि तेजाब डालने वाले कौन लोग थे। इसलिए मैने तो गवाही देने से मना कर दिया। लेकिन पांच साल बाद एक दरोगा हमारे घर आया और दबाव डालने लगा कि सर आप कोर्ट कल चले ही जाइएगा वर्ना आपके नाम गैर जमानती वारंट जारी हो जाएगा। खैर मैं गया तीस हजारी कोर्ट। वह ठीक वैसा ही था जैसा कि बांदा, झांसी, उरई, हमीरपुर आदि के कोर्ट होते हैं। जीनों के कोने पर पान की पीकें और वकीलों के बस्तों पर उदास अंाखों वाले क्लांइट्स की भीड़। खैर एक मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में मेरा नंबर भी आया। नाम जैसे ही बुलाया गया मैं फटाफट हाजिर हो गया। वकील ने कहा कि आप पर तेजाब पड़ा था? मैने कहा कि हां। उसने कुछ लोगों की तरफ इशारा कर कहा कि यही लोग थे? मैने कहा नहीं। उसने अब मजिस्ट्रेट से कहा कि सर गवाह होस्टाइल हो गया है। यह होस्टाइल शब्द मुझे गाली जैसा ही लगा। मैने जज साहब से कहा सर मैं कतई होस्टाइल नहीं हुआ हूं। वकील साहब बताएं कि मैने ऐसा कब बयान दिया है कि मैं इन्हें पहचानता हूं? दिसंबर १९८७ की दरिया गंज पुलिस थाने की डायरी का वह पेज मंगाया गया। पर उसे न तो वकील साहब पढ़ पाए न पेशकार और न ही जज साहब। बड़ी विचित्र स्थिति थी। लंच तक सब इसी में उलझे रहे। मैने कहा सर इसमें यह लिखा ही नहीं है कि मैने इन लोगों को देखा था। मैं उर्दू पढ़ सकता हूं और वकील साहब जान बूझकर गलत बातें कर रहे हैं। एक मुल्ला जी आए और वे संयोग से उन्हीं लोगों के समर्थक थे जिन पर तेजाब फेंकने का आरोप था। उनसे पढ़ाया गया और उन्होंने मेरी ही बात की तस्दीक की। लिहाजा जज साहब ने मुकदमा खारिज ही कर दिया। वैसे प्रबंधन भी इस केस को खत्म करने का ही इच्छुक था। ऊपर से उर्दू की डायरी पढ़े जाने की जहमत। इसलिए जज साहब ने वकील साहब को नसीहत दी कि भविष्य में वे जब भी कोई केस लेकर आएं पहले होमवर्क कर लिया करें। अब वकील साहब ने उनकी नसीहतों पर पालन किया होगा, पता नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले 25 वर्षों के भीतर पुलिस डायरी के हिंदी में लिखे पेज भी पढऩे वाला कोई नहीं होगा क्योंकि अब वकालत की भाषा लोकल कोर्ट में भी अंग्रेजी हो गई है। अगर हिंदी में कोई शब्द लिखा भी जाए तो उसे रोमन में लिखा जाता है। जय हो हिंदी मैया की

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