कांग्रेस अध्यक्ष के सामने प्रधानमंत्री की लाचारगी
शंभूनाथ शुक्ल
याद कीजिए 2004 में जब डॉक्टर मनमोहन सिंह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए की पहली सरकार के प्रधानमंत्री बने थे। उस वक्त उनकी छवि एक भलेमानुष, बेहद ईमानदार और एक बड़े अर्थ शास्त्री की थी। तब लोगों ने माना था कि यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा खुद प्रधानमंत्री न बनना उनके त्याग का एक नायाब उदाहरण तो है ही साथ में इस पद के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह का चयन बेहद बुद्धिमत्ता भरा फैसला है। उस समय डॉक्टर मनमोहन सिंह एक हद तक कंजरवेटिव किस्म के अर्थशास्त्री समझे जाते थे इसलिए सब मानते थे कि डॉक्टर मनमोहन सिंह देश की गिरती अर्थ व्यवस्था को उबार लेंगे। इसके लिए वे कुछ कड़े फैसले करेंगे पर होगा यह सब देशहित में ही। आखिर नरङ्क्षसहराव सरकार में वित्त मंत्री रहते उन्होंने जो बजट पेश किए थे उसकी मिसाल सब के सामने थी। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह काफी हद तक अपनी उम्मीदों पर खरे उतरे थे। ग्रामीण बेरोजगारों के लिए साल में सौ दिन काम देने के अपने फैसले तथा देश में बिजली संकट दूर करने के लिए अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील ने उनकी छवि एक हार्डकोर प्रधानमंत्री की बनाई थी। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो न तो वामपंथियों के सामने झुका न दक्षिणपंथियों के सामने।
पर प्रधानमंत्री की यह छवि उनके दूसरे कार्यकाल के आते ही काफूर होने लगी। पहले तो टू जी घोटाला, फिर कामनवेल्थ घोटाला और इसके बाद कोल ब्लॉक आवंटन घोटालों ने उनकी सरकार की चूलें हिला दीं। हालत यह हो गई है कि प्रधानमंत्री को संसद के अंदर चोर कहा जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें सीबीआई के सामने पेश होने के लिए विपक्ष दबाव बना रहा है। एक प्रधानमंत्री के लिए इससे बड़ी लाचारी क्या होगी कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब तक नहीं दे पा रहा है। उनका हर मंत्री उनसे नहीं कहीं और से आदेश लेता है। पेट्रोलियम संकट पर पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने पेट्रो उत्पादों पर इमरजेंसी लगाने तथा रात आठ के बाद पेट्रोल पंप बंद करने की घोषणा कर दी। बाद में हंगामा मचने पर वे इस बयान से ही मुकर गए। इसके पहले उनकी कैबिनेट के रक्षा मंत्री एंटोनी ने संसद में बयान दिया था कि रात में गश्त करते सीमा सुरक्षा बल के जवानों को आतंकवादियों ने मारा था पाक फौज को तो इसकी जानकारी तक नहीं थी। एक तरह से उन्होंने पाकिस्तान की नवाजशरीफ सरकार को क्लीन चिट दे दी। जब विपक्ष ने हंगामा किया तो सफाई दी कि उन्हें भारतीय सेना के प्रवक्ता ने गलत ब्रीफिंग की। जाहिर है कि प्रधानमंत्री की कैबिनेट के साथी ही उनको तवज्जो नहीं देते। यह शायद पहला वाकया होगा जब एक प्रधानमंत्री की पकड़ न तो नौकरशाही पर है न अपने साथी मंत्रियों पर। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा खुद ही सुप्रीम कोर्ट में बयान दे आते हैं कि उनसे फाइलें कानून मंत्री मांगी थीं इसलिए उन्होंने दिखा दीं। प्रधानमंत्री दफ्तर के अधीन काम करने वाली संस्था सीबीआई बगैर प्रधानमंत्री को बताए किसी मंत्री को फाइलें कैसे दिखा सकता है?
प्रधानमंत्री का दूसरा टर्म उनके बारे में सभी मिथकों को तोड़ता है। वे स्वतंत्र भारत के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। एक ऐसे प्रधानमंत्री जिन्हें विपक्ष तो चुप करा ही देता है उनकी अपनी पार्टी के लोग भी उनके लिए कम कांटे नहीं बो रहे। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस की अपनी कार्यशैली है। कांग्रेस में पिछले कई वर्षों से कांग्रेस अध्यक्ष का पद और प्रधानमंत्री का पद अमूमन एक ही व्यक्ति के पास रहा है। चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार रही हो अथवा राजीव गांधी की या नरसिंहराव की। जवाहर लाल नेहरू के समय ऐसा नियमित नहीं रहा पर उनका कद इतना बड़ा था कि उनके समक्ष कोई कांग्रेसी उनकी कार्यशैली पर अंगुली नहीं उठा सकता था। पर इसके बावजूद 1951 से 1954 तक वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। बाद के चार साल यूएन ढेबर रहे। फिर 1959 में उनकी बेटी इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। 1966 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनी तब के कामराज कांग्रेस अध्यक्ष थे और वे नेहरू परिवार के समर्थक माने जाते थे। लेकिन उनके बाद निजलिंगप्पा कांग्रेस अध्यक्ष बन गए जिन्होंने इंदिरा गांधी के लिए मुश्किलें खड़ी करनी शुरू कर दीं। पर 1969 में इंदिरा गांधी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र की मदद से कांग्रेेस में दो गुट करवा दिए और निजङ्क्षलगप्पा को ही बाहर कर दिया। बम्बई कांग्रेस में बाबू जगजीवन राम कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए और वे इंदिरा गांधी के खास लोगों में गिने जाते थे। फिर 1972 में कलकत्ता कांग्रेस हुई जिसमें डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा अध्यक्ष चुने गए। इनके बाद 1975 में आए देवकांत बरुआ जिन्होंने नारा दिया इदिरा इज इंडिया। लेकिन 1978 से इंदिरा गांधी खुद ही कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। फिर उन्होंने यह पद अपने लिए सुरक्षित करवा लिया और इस वास्ते उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान में संशोधन भी करवाया। 1984 में उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष तो बने ही साथ में वे प्रधानमंत्री भी बने। जाहिर है ऐसी स्थिति में कोई भी नेता प्रधानमंत्री के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता था। लेकिन यह पहली मर्तबा हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद सोनिया गांधी के पास रहा तथा प्रधानमंत्री रहे डॉक्टर मनमोहन ङ्क्षसह। इस वजह से कांग्रेसी संासद मनमोहन की बजाय दस जनपथ में हाजिरी लगाते हैं। कांग्रेस की कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह को सपोर्ट करने वाले नहीं वरन् दस जनपथ के अनुयायी हैं।
शायद यह एक बड़ा कारण है कि मनमोहन सिंह अपनी पार्टी में अकेले पड़ गए हैं और कांग्रेस को घेरने की कवायद में जुटी भाजपा उन्हें सॉफ्ट टारगेट पाती है। प्रधानमंत्री के लिए अब एक ही रास्ता बचता है कि या तो वे अपनी पार्टी के साथियों को अपनी ताकत का अहसास कराएं अथवा पद त्यागने की घोषणा कर दें। वर्ना एक साफ सुथरी छवि के प्रधानमंत्री, अर्थशास्त्री और विद्वान को कांग्रेसी ही घेरकर बाहर करवा देंगे।
शंभूनाथ शुक्ल
याद कीजिए 2004 में जब डॉक्टर मनमोहन सिंह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए की पहली सरकार के प्रधानमंत्री बने थे। उस वक्त उनकी छवि एक भलेमानुष, बेहद ईमानदार और एक बड़े अर्थ शास्त्री की थी। तब लोगों ने माना था कि यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा खुद प्रधानमंत्री न बनना उनके त्याग का एक नायाब उदाहरण तो है ही साथ में इस पद के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह का चयन बेहद बुद्धिमत्ता भरा फैसला है। उस समय डॉक्टर मनमोहन सिंह एक हद तक कंजरवेटिव किस्म के अर्थशास्त्री समझे जाते थे इसलिए सब मानते थे कि डॉक्टर मनमोहन सिंह देश की गिरती अर्थ व्यवस्था को उबार लेंगे। इसके लिए वे कुछ कड़े फैसले करेंगे पर होगा यह सब देशहित में ही। आखिर नरङ्क्षसहराव सरकार में वित्त मंत्री रहते उन्होंने जो बजट पेश किए थे उसकी मिसाल सब के सामने थी। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह काफी हद तक अपनी उम्मीदों पर खरे उतरे थे। ग्रामीण बेरोजगारों के लिए साल में सौ दिन काम देने के अपने फैसले तथा देश में बिजली संकट दूर करने के लिए अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील ने उनकी छवि एक हार्डकोर प्रधानमंत्री की बनाई थी। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो न तो वामपंथियों के सामने झुका न दक्षिणपंथियों के सामने।
पर प्रधानमंत्री की यह छवि उनके दूसरे कार्यकाल के आते ही काफूर होने लगी। पहले तो टू जी घोटाला, फिर कामनवेल्थ घोटाला और इसके बाद कोल ब्लॉक आवंटन घोटालों ने उनकी सरकार की चूलें हिला दीं। हालत यह हो गई है कि प्रधानमंत्री को संसद के अंदर चोर कहा जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें सीबीआई के सामने पेश होने के लिए विपक्ष दबाव बना रहा है। एक प्रधानमंत्री के लिए इससे बड़ी लाचारी क्या होगी कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब तक नहीं दे पा रहा है। उनका हर मंत्री उनसे नहीं कहीं और से आदेश लेता है। पेट्रोलियम संकट पर पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने पेट्रो उत्पादों पर इमरजेंसी लगाने तथा रात आठ के बाद पेट्रोल पंप बंद करने की घोषणा कर दी। बाद में हंगामा मचने पर वे इस बयान से ही मुकर गए। इसके पहले उनकी कैबिनेट के रक्षा मंत्री एंटोनी ने संसद में बयान दिया था कि रात में गश्त करते सीमा सुरक्षा बल के जवानों को आतंकवादियों ने मारा था पाक फौज को तो इसकी जानकारी तक नहीं थी। एक तरह से उन्होंने पाकिस्तान की नवाजशरीफ सरकार को क्लीन चिट दे दी। जब विपक्ष ने हंगामा किया तो सफाई दी कि उन्हें भारतीय सेना के प्रवक्ता ने गलत ब्रीफिंग की। जाहिर है कि प्रधानमंत्री की कैबिनेट के साथी ही उनको तवज्जो नहीं देते। यह शायद पहला वाकया होगा जब एक प्रधानमंत्री की पकड़ न तो नौकरशाही पर है न अपने साथी मंत्रियों पर। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा खुद ही सुप्रीम कोर्ट में बयान दे आते हैं कि उनसे फाइलें कानून मंत्री मांगी थीं इसलिए उन्होंने दिखा दीं। प्रधानमंत्री दफ्तर के अधीन काम करने वाली संस्था सीबीआई बगैर प्रधानमंत्री को बताए किसी मंत्री को फाइलें कैसे दिखा सकता है?
प्रधानमंत्री का दूसरा टर्म उनके बारे में सभी मिथकों को तोड़ता है। वे स्वतंत्र भारत के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। एक ऐसे प्रधानमंत्री जिन्हें विपक्ष तो चुप करा ही देता है उनकी अपनी पार्टी के लोग भी उनके लिए कम कांटे नहीं बो रहे। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस की अपनी कार्यशैली है। कांग्रेस में पिछले कई वर्षों से कांग्रेस अध्यक्ष का पद और प्रधानमंत्री का पद अमूमन एक ही व्यक्ति के पास रहा है। चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार रही हो अथवा राजीव गांधी की या नरसिंहराव की। जवाहर लाल नेहरू के समय ऐसा नियमित नहीं रहा पर उनका कद इतना बड़ा था कि उनके समक्ष कोई कांग्रेसी उनकी कार्यशैली पर अंगुली नहीं उठा सकता था। पर इसके बावजूद 1951 से 1954 तक वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। बाद के चार साल यूएन ढेबर रहे। फिर 1959 में उनकी बेटी इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। 1966 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनी तब के कामराज कांग्रेस अध्यक्ष थे और वे नेहरू परिवार के समर्थक माने जाते थे। लेकिन उनके बाद निजलिंगप्पा कांग्रेस अध्यक्ष बन गए जिन्होंने इंदिरा गांधी के लिए मुश्किलें खड़ी करनी शुरू कर दीं। पर 1969 में इंदिरा गांधी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र की मदद से कांग्रेेस में दो गुट करवा दिए और निजङ्क्षलगप्पा को ही बाहर कर दिया। बम्बई कांग्रेस में बाबू जगजीवन राम कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए और वे इंदिरा गांधी के खास लोगों में गिने जाते थे। फिर 1972 में कलकत्ता कांग्रेस हुई जिसमें डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा अध्यक्ष चुने गए। इनके बाद 1975 में आए देवकांत बरुआ जिन्होंने नारा दिया इदिरा इज इंडिया। लेकिन 1978 से इंदिरा गांधी खुद ही कांग्रेस अध्यक्ष हो गईं। फिर उन्होंने यह पद अपने लिए सुरक्षित करवा लिया और इस वास्ते उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संविधान में संशोधन भी करवाया। 1984 में उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष तो बने ही साथ में वे प्रधानमंत्री भी बने। जाहिर है ऐसी स्थिति में कोई भी नेता प्रधानमंत्री के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता था। लेकिन यह पहली मर्तबा हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद सोनिया गांधी के पास रहा तथा प्रधानमंत्री रहे डॉक्टर मनमोहन ङ्क्षसह। इस वजह से कांग्रेसी संासद मनमोहन की बजाय दस जनपथ में हाजिरी लगाते हैं। कांग्रेस की कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह को सपोर्ट करने वाले नहीं वरन् दस जनपथ के अनुयायी हैं।
शायद यह एक बड़ा कारण है कि मनमोहन सिंह अपनी पार्टी में अकेले पड़ गए हैं और कांग्रेस को घेरने की कवायद में जुटी भाजपा उन्हें सॉफ्ट टारगेट पाती है। प्रधानमंत्री के लिए अब एक ही रास्ता बचता है कि या तो वे अपनी पार्टी के साथियों को अपनी ताकत का अहसास कराएं अथवा पद त्यागने की घोषणा कर दें। वर्ना एक साफ सुथरी छवि के प्रधानमंत्री, अर्थशास्त्री और विद्वान को कांग्रेसी ही घेरकर बाहर करवा देंगे।
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