मंगलवार, 17 सितंबर 2013

वही शमशेर मुजफ्फरनगरी है शायद

गुजरात की डगर पर मुजफ्फर नगर
मुजफ्फर नगर की सांप्रदायिक हिंसा ने अंदर तक हिला दिया है। मुझे गुजरात की हिंसा से दुख हुआ था और तब मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक था। मैने गुजरात की हिंसा के विरोध में अन्य बंगाली संपादकों की तरह एक सेकुलर फोरम से भाषण दिया था। जिसे वहां के बर्तमान, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया, आजकल तथा आनंदबाजार पत्रिका ने छापा था। बंगाली भद्रलोक मेरे भाषण और मेरी धर्मनिरपेक्षता से प्रभावित हुआ था। पर गुजरात हिंसा पर मेरा दुख इतना ही है  जितना कि नाइन एलेवन से। मेरे फ्रेंड सर्किल में कोलकाता में बसे गुजरातियों जैसे कि दिनेश त्रिवेदी के अलावा अन्य कोई गुजराती नहीं हैं और गुजरात राज्य मेें सिवाय द्वारिका शहर के अन्य कोई शहर भी मुझे पसंद नहीं है। पर एक शहर के रूप में मुजफ्फर नगर से मेरा लगाव बहुत ज्यादा है। पांचवें दरजे में हमें यह पढ़ाया गया था कि हमारा प्रदेश जो कि एक बैठे हुए बाघ की आकृति का है, में सबसे संपन्न जिला मुजफ्फर नगर है। साल १९६३ में मुजफ्फर नगर और जालौन में सबसे जयादा ट्रैक्टर थे। तब हमारे घर में नया-नया ट्रैक्टर आया था और ट्यूब वेल लगा था सो हमें  आधुनिक और वैज्ञानिक खेती का महत्व पता था। मुजफ्फर नगर पहली बार मैं तब आया जब यहां के चौधरी नारायण सिंह यूपी में डिप्टी चीफ मिनिस्टर बने। चौधरी साहब हेमवती नंदन बहुगुणा खेमे के थे। और बहुगुणा जी से हमारे पारिवारिक रिश्ते थे। मैं मुजफ्फर नगर जाता तो चौधरी साहब की सिविल लाइन्स स्थित कोठी में ठहरता। शाम को चौधरी साहब के यहां दरबार लगता। हरेंद्र मलिक, परमजीत मलिक, सईदुज्जमां और हुकुम सिंह सब चौधरी साहब के चेले थे। खूब राजनीति बतियाई जाती। चौधरी साहब के मंझले पुत्र सुनील चौहान खुद चाणक्य की भूमिका में रहते और इतना अच्छा राजनीतिक विश्लेषण करते कि शायद आज जो पोलेटिकल कमेंटेटर आपको टीवी और अखबारों में दिखाई पड़ते हैं सब उनके सामने तौबा करते। पर वे अपने पैरों से लाचार थे। उठने-बैठने के लिए भी उन्हें सहारे की जरूरत होती। चौधरी साहब का छोटा बेटा संजय चौहान इस समय बिजनौर लोकसभा सीट से रालोद के टिकट पर सांसद हैं।
इसीलिए मुजफ्फर नगर का दंगा मुझे अंदर तक हिला गया है। यह सच है कि मुजफ्फर नगर में अपराध का ग्राफ बहुत ऊपर रहता है पर संपन्नता अपने साथ अपराध भी लाती ही है। मुजफ्फर नगर के बनियों का साम्राज्य दक्षिण तक फैला है। तमाम लोगों के तो गोआ, मुंबई व लंदन में भी  होटल हैं। गांवों में गन्ने की खेती ने यहां समृद्धि के नए द्वार खोले हैं। मेरठ और मुजफ्फर नगर के बीच होड़ चला करती है। मेधा में भी, ताकत में भी और पैसे में भी। लेकिन मुझे लगता है कि मेरठ मुजफ्फर नगर के आगे बौना है। मेरठ में साहित्यकारों के नाम पर गुलशन नंदा के नए संस्करण ही दीखते हैं जबकि मुजफ्फर नगर में शमशेर बहादुर सिंह, विष्णु प्रभाकर और गिरिराज किशोर साहित्य के आसमान पर। दंगों के लिए मेरठ तो बदनाम था पर मुजफ्फर नगर कभी नहीं रहा लेकिन देखिए अखिलेश यादव की सरकार के निकम्मेपन ने मुजफ्फर नगर को गुजरात बना दिया है। ५० हजार लोगों का पलायन गुजरात में नहीं हुआ था पर मुजफ्फर नगर से हुआ और न तो अखिलेश बबुआ कुछ कर पा रहे हैं न मुलायम चच्चा।

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