शनिवार, 30 नवंबर 2013

Worshipping more False Gods!


नायकों के बीच शिखंडी!
शंभूनाथ शुक्ल
इमरजेंसी के कुछ पहले से ही उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में हालात बदलने लगे थे। ऊपरी सतह पर सब कुछ सामान्य था लेकिन समाज के अंदर एक उठापटक निरंतर चल रही थी। पहली बार गांवों का सामाजिक ढांचा चरमराया था जो शायद इतिहास में पहली दफे हो रहा था। चरमराया पहले भी था जब अनुसूचित जाति के नौजवानों के लिए नौकरियों में आरक्षण आया था और उनके लिए लोकसभा के लिए सीटें आरक्षित की गई थीं। पर एक तो वे कभी भी आर्थिक स्थिति के लिहाज से ऊँची कही जाने वाली ठाकुर व बांभन जातियों के समक्ष वह चुनौती नहीं पेश कर सकीं जो नई उभर रही मध्यवर्ती जातियों ने पेश कर दीं। ये जातियां अधिकतर किसानी का काम करतीं और न तो ये जातियां सामाजिक दम खम में पीछे थीं न गांवों की सामाजिक संरचना में उनकी हैसियत बहुत नीचे थी। लेकिन ग्रामीण सुधार कार्यक्रमों ने उन्हें संपन्न बनाया था मगर शिक्षा व नौकरी के क्षेत्र में वे पिछड़ी हुई थीं। दूसरे उनके पास नायकों का अभाव था। और ये नायक उस समाज के वे खल पात्र ही हो सकते थे जिन्हें हम डकैत कहा करते थे। चूंकि मेरी अपनी रुचि मध्य उत्तर प्रदेश केग्रामीण अपराधों की सामाजिक पृष्ठभूमि को कवर करने में बहुत थी।
इसलिए मैने दैनिक जागरण के तत्कालीन संपादकीय हेड श्री हरि नारायण निगम को कहा कि वे मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के डकैत बहुल इलाकों की स्टोरीज कवर करने के लिए भेज दें। निगम साहब ने मुझे एटा, मैनपुरी व फर्रुखाबाद भेजकर उस समय डकैत समस्याओं पर खूब स्टोरीज कराईं। इसके अलावा हमीरपुर व सुल्तानपुर भी मुझे जाना पड़ता था। तब तक मुफस्सिल इलाकों में अखबारों की पैठ नहीं थी। अखबार ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में ही पढ़े जाते थे। यहां तक कि तहसील हेडक्वाटरों में भी अखबार नहीं पहुंचते थे। छोटे शहरों में वहां के कुछ छोटे अखबारों का राज था। मैने निगम साहब को कहा कि अगर वे मुझे मौका दें तो मैं मुफस्सिल इलाकों में जाकर डकैतों की समस्याओं पर लिख सकता हूं। उन दिनों मध्य उत्तर प्रदेश की मध्यवर्ती जातियों के ये नए नायक  उस क्षेत्र के डकैत थे। अगड़ी जातियों के ज्यादातर डकैत आत्म समर्पण कर चुके थे। अब गंगा यमुना के दोआबे में छविराम यादव, अनार सिंह यादव, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह और मुस्तकीम का राज था। महिला डकैतों की एक नई फौज आ रही थी जिसमें कुसुमा नाइन व फूलन प्रमुख थीं। छविराम और अनार सिंह का एटा व मैनपुरी के जंगलों में राज था तो विक्रम, मलखान व फूलन का यमुना व चंबल के बीहड़ों में। मुस्तकीम कानपुर के देहाती क्षेत्रों में सेंगुर के जंगलों में डेरा डाले था। ये सारे डकैत मध्यवर्ती जातियों के थे। और सब के सब गांवों में पुराने जमींदारों खासकर राजपूतों और चौधरी ब्राह्मïणों के सताए हुए थे।
उस समय वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे। यह उनके लिए चुनौती थी। एक तरफ उनके सजातीय लोगों का दबाव और दूसरी तरफ गांवों में इन डाकुओं को उनकी जातियों का मिलता समर्थन। वीपी सिंह तय नहीं कर पा रहे थे। यह मध्य उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों के पराभव का काल था। गांवों पर राज किसका चलेगा। यादव, कुर्मी और लोध जैसी जातियां गांवों में चले सुधार कार्यक्रमों और सामुदायिक विकास योजनाओं तथा गांंव तक फैलती सड़कों व ट्रांसपोर्ट सुलभ हो जाने के कारण संपन्न हो रही थीं। शहरों में दूध और खोए की बढ़ती मांग ने अहीरों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया था। यूं भी अहीर ज्यादातर हाई वे या शहर के पास स्थित गांवों में ही बसते थे। लाठी से मजबूत वे थे ही ऐसे में वे गांवों में सामंती जातियों से दबकर क्यों रहें। उनके उभार ने उन्हें कई राजनेता भी दिए। यूपी में चंद्रजीत यादव या रामनरेश यादव इन जातियों से भले रहे हों लेकिन अहीरों को नायक मुलायम सिंह के रूप में मिले। इसी तरह कुर्मी नरेंद्र सिंह के साथ जुड़े व लोधों के नेता स्वामी प्रसाद बने। लेकिन इनमें से मुलायम सिंह के सिवाय किसी में भी न तो ऊर्जा थी और न ही चातुर्य। मुलायम सिंह को अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा घृणा मिली लेकिन उतनी ही उन्हें यादवों व समकक्ष जातियों में प्रतिष्ठा भी। मुलायम सिंह समाजवादी थे और राजनीतिक रूप से काफी सजग। उन्हें पता था कि जब तक अपने साथ इन नए नायकों को प्रतीक नहीं बनाया वे राजनीति में सफल नहीं हो पाएंगे। इटावा और फर्रुखाबाद का यादव ही नहीं कुर्मी भी तब मुलायम सिंह के साथ जुड़ रहा था। इसकी वजह थी कि एक तो रामस्वरूप वर्मा के अर्जक संघ के कमजोर हो जाने और अर्जक संघ की अपनी नीतियों के चलते कुर्मी अपने को हिंदू समाज में आर्य समाजी हलचल के अलावा अन्य कोई पहचान दिला पाने में नाकाम रहा। राम स्वरूप वर्मा ने सोचा तो बहुत था पर उनके कर्मकांड से भी दलित बाहर थे। एवं हिंदू समाज की वे जातियां भी जो धार्मिक रूप से कट्टर थीं। यादव के अलावा लोधी व काछी मुलायम सिंह के साथ जुुड़े इसी के साथ मुसलमानों का पसमांडा समाज भी जो तब तक सैयदों, खानों व शेखों का गुलाम जैसा था।
कुर्मियों ने राम स्वरूप वर्मा के निष्क्रिय हो जाने के बाद नरेंद्र सिंह के रूप में अपना नया नायक देखा पर नरेंद्र सिंह पहले तो चौधरी चरण सिंह के पास गए और फिर शीघ्र ही वे कांग्रेस में चले गए और उनका सारा समाजवादी आंदोलन उनके मंत्रिपद पाते ही समाप्त हो गया। कुर्मी अब नेतृत्वविहीन था इसलिए वह न चाहते हुए भी मुलायम सिंह के साथ हो लिया। इस प्रक्रिया में पूरे दस साल लग गए। एक तरफ पिछड़े हिंदू और पिछड़े मुसलमानों के नेता मुलायम सिंह थे दूसरी तरफ अपने जाति भाइयों की तरफ से घोर अवमानना झेल रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह, जिनकी छवि राजनीति में एक ऐसे शिखंडी की बन गई थी जो कहता कुछ था और करता कुछ। अपने मुख्यमंत्रत्व काल के दौरान उन्होंने सबसे ज्यादा नर संहार इन्हीं पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के नायकों का कराया। पूर्वी उत्तर प्रदेश की मांडा रियासत का यह जिमींदार कितना जालिम था जिसने कुरांव के दो दलित किसानों को मरवा दिया जिन्होंने मांडा और डैया रियासतों द्वारा चलाए जा रहे ट्रस्ट में अपनी मजदूरी मांगी थी। उनके नेता हिंचलाल  विद्यार्थी को भी बाद में मार दिया गया। यह अलग बात है कि बाद में हालात के दबाव और अवसर ने उसे उन्हीं जातियों का नायक बना दिया जिनको मरवाने में उसकी प्रमुख भूमिका रही। लेकिन यह तथ्य सर्वविदित है कि चौधरी चरण सिंह के समय ही और उनके बाद भी जिस एक आदमी ने पिछड़ों को लामबंद किया वे मुलायम सिंह थे।

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