प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं
होता हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम काम ऐसे किए हैं
जिनसे जनसत्ता का कोई जुड़ाव नहीं है मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल।
यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी जनसत्ता की नहीं। जनसत्ता में तो 1992 के बाद वे लोग
कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहे जो बाबरी विध्वंस को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद
करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो
धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल भाजपा के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा
खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं। आज प्रभाष जी की परंपरा
को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है।
प्रभाष जी कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा
ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर
उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द
निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के
लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की
संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे। प्रभाष जी के बारे में मैं
जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना बल्कि इसलिए कि
मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना
तथा समझा। प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित
परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे
लिखने-पढऩे में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। 28 मई 1983 को मैने प्रभाष
जी को पहली बार देखा था और 4/11/2009
को उनके अंतिम दर्शन किए थे।
4 जनवरी १९८० में मैने कानपुर में दैनिक जागरण
अखबार में बतौर प्रशिक्षु ज्वाइन किया था। जागरण के मालिक संपादक दिवंगत नरेंद्र
मोहन (जिन्हें वहां मोहन बाबू के नाम से बुलाया जाता था) उन दिनों हर सोमवार को
संपादकीय विभाग की एक बैठक करते तथा हर एक साथी का सामान्य ज्ञान जांचने के लिए
दुनिया भर के तमाम सवाल पूछते, जिसने भी सही जवाब दे दिया वही
पुरस्कृत होता। उन दिनों फाकलैंड युद्घ चल रहा था। एक सोमवार को मैने कौतूहलवश
अपने प्राध्यापक रह चुके डॉ. जेबी सिंह से पूछा कि डॉक्टर साहब यह फॅाकलैंड आखिर है कहां? डॉक्टर
साहब ने ग्लोब मंगाया और मुझे उसकी स्थिति बता दी। उसी दिन शाम को मोहन बाबू ने
फॉकलैंड के बारे में प्रश्न पूछ लिया। पूरा संपादकीय विभाग सन्न। सभी एक दूसरे का
मुंह ताक रहे थे। मैने अपना हाथ उठाया और कहा- मैं बताऊं? सही जवाब
मिलने पर मोहन बाबू खुश हो गए और अगले रोज ही मेरा ट्रेनिंग पीरियड खत्म मानकर
मुझे उप संपादक बना दिया गया। दो साल का
टर्म मैने छह महीने में ही पूरा कर लिया। उन दिनों जागरण की पकड़ मध्य उत्तर
प्रदेश में बहुत अच्छी थी लेकिन इसकी पहुंच सिर्फ शहरों तक सीमित थी गांवों में
इटावा व फर्रुखाबाद के कुछ छोटे अखबारों का कब्जा था। एक दिन मैने मोहन बाबू से
पूछा कि अपना अखबार गांवों में अगले रोज पहुंच पाता है और वह भी न के बराबर। मेरी
इच्छा है कि मैं कानपुर देहात, औरय्या, इटावा,
फर्रुखाबाद, मैनपुरी, एटा व
जालौन आदि के गांवों-गांवों का दौरा करूं और वहां की खासकर डकैत समस्या पर कुछ
लिखूं इससे हमारी गांवों तक पैठ हो जाएगी। मोहन बाबू मेरे इस सुझाव से प्रसन्न हुए
और मैने इन इलाकों की अपराध समस्याओं पर तमाम स्टोरीज लिखीं। इसका असर भी हुआ और
जागरण का इस पूरे क्षेत्र के गांवों व कस्बों तक प्रसार खूब बढ़ गया।
मोहन बाबू मेरे उत्साह को पसंद करते थे।
उन्होंने मुझे जागरण के प्रसार क्षेत्र से बाहर के इलाकों में भी खूब भेजा। उन दिनों
इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादक अरुण शौरी ने भागलपुर के आंख फोड़ो कांड पर खूब
तहलका मचा रखा था। वे जिस पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज) के
राष्ट्रीय संयोजक थे उसका मैं कानपुर शहर इकाई का संयोजक था। भागलपुर आंख फोड़ो
कांड पर स्टोरीज करने के लिए मुझे जागरण की तरफ से भागलपुर भेजा गया। वहां जिस
होटल में मैं रुका उसी में अरुण शौरी भी ठहरे हुए थे। मैं उनसे मिला और बेहद गद्गद
भाव से कहा कि शौरी साहब आप अकेले अंग्रेजी संपादक हैं जिन्हें हिंदी पट्टी के
गांव-गांव में लोग जानते हैं और इसकी वजह हमारा अखबार है क्योंकि हम आपके लेखों के
अनुवाद अपने यहां छापते हैं। शौरी साहब मेरी तारीफ से काफी खुश हुए और एक्सप्रेस
ग्रुप की शानदार पत्रकारीय परंपराओं के बारे में बताने लगे। मैं इंडियन एक्सप्रेस
समूह के मालिक रामनाथ गोयनका की हिम्मत व साहस से ऐसा मुग्ध हुआ कि लगा अगर
पत्रकार बनना है तो इंडियन एक्सप्रेस समूह में ही काम करना चाहिए। मैने उनसे पूछा
कि क्या वे मुझे अपने यहां काम दे सकते हैं? लेकिन
मुझे अंग्रेजी बस इतनी ही आती है कि मैं अंग्रेजी में आई खबरों का हिंदी में
अनुवाद कर सकता हूं। उन्होंने मुझे साफ मना कर दिया लेकिन यह जरूर कहा कि अगर
तुम्हारे यहां कोई खबर हो तो मुझे फोन कर दिया करना। दैनिक जागरण में नौकरी करते
मुझे तीन साल हो गए थे और तब तक यह भी लगने लगा कि यहां कोई भविष्य बहुत उज्जवल
नहीं है। इसलिए अब मैने ठान लिया कि अगर कुछ नया करना है तो दिल्ली का रुख करना
चाहिए। पर कहां? दिल्ली में मैं किसी को जानता नहीं था। परिवार
की माली हालत ऐसी नहीं थी कि मैं रहूं दिल्ली में और खर्चा पानी घर से मंगा लूं।
निराशा के इन्हीं दिनों में मैने इंडियन एक्सप्रेस में एक विज्ञापन देखा कि
एक्सप्रेस ग्रुप के जल्दी ही निकलने वाले हिंदी दैनिक के लिए पत्रकारों की जरूरत
है। यह मेरे लिए सुनहरा मौका था। मैने बगैर किसी से पूछे फौरन इंडियन एक्सप्रेस के
तत्कालीन संपादक बीजी वर्गीज के नाम हिंदी में एक आवेदन लिखा कि मैं कानपुर के
दैनिक जागरण में तीन साल से उप संपादक हूं। सबिंग, संपादन,
रिपोर्टिंग व लेखन में मेरी गति अच्छी है। इंडियन एक्सप्रेस समूह से
जुड़कर पत्रकारिता करने की मेरी दिली इच्छा है। मार्च 1983 में मैने यह
आवेदन भेजा था लेकिन महीनों बीत गए कोई जवाब नहीं। तब तक यह पता चल गया कि जागरण
से कई लोगों ने आवेदन किया हुआ है। एक्सप्रेस ग्रुप के भावी हिंदी अखबार की लिखित
परीक्षा के लिए उन सभी लोगों के पास बुलावा आने लगा जिन्होंने वहां आवेेदन किया
था। राजीव शुक्ला उन दिनों जागरण में मेरे सीनियर साथी थे। अक्सर उनकी डेस्क में
मुझे रहना पड़ता। एक दिन अकेले में मैने उन्हें बताया कि यार एक्सप्रेस में मैने
भी एप्लीकेशन भेजी थी लेकिन मेरे पास अभी तक कोई जवाब नहीं आया। राजीव शुक्ला भी
दिल्ली जाकर एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार का टेस्ट दे आए थे। राजीव
ने पूछा कि किसके नाम एप्लीकेशन भेजी थी? मैने बताया बीजी
वर्गीज के नाम भेजी थी हिंदी में लिखकर। राजीव ने कहा- तुमने हिंदी में आवेदन भेजा
है वह भी बीजी वर्गीज के नाम। पता है वो हिंदी बोल भी नहीं पाते हैं पढऩा तो दूर।
मुझसे पूछ लिया होता मैं बता देता कि किसके नाम भेजनी है? और कम से
कम एप्लीकेशन तो अंग्रेजी में भेजनी थी। आगे राजीव ने बताया कि एक्सप्रेस ग्रुप के
हिंदी अखबार का नाम जनसत्ता है और उसके संपादक प्रभाष जोशी हैं। मैने हिंदी में यह
नाम ही पहली बार सुना था। मैने मान लिया कि गलती हो गई अब मेरा एक्सप्रेस समूह में
काम करना सपना बनकर ही रह जाएगा। लेकिन इसके तीन चार दिनों बाद ही 27 मई की शाम पांच
बजे के आसपास मेरे घर पर इंडियन एक्सप्रेस से एक तार आया जिसमें लिखा था कि 28 मई 1983 को सुबह 11 बजे दिल्ली की
इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में मुझे उनके हिंदी अखबार जनसत्ता की लिखित परीक्षा
में शरीक होना है। तार पढ़ते ही मैं उत्साह से गद्गद। फौरन तैयारी की और रात आठ
बजे कानपुर सेंट्रल से इलेवन अप पकड़ कर सुबह पांच बजे पुरानी दल्ली स्टेशन आ गया।
मैने तब तक दिल्ली देखी भी नहीं थी। यहां किसी
को मैं जानता तक नहीं था अलबत्ता मेरे एक साथी संतोष तिवारी जरूर दिल्ली में रहकर
स्ट्रगल कर रहे थे। वे कहां रहते हैं, यह तो पता नहीं
था पर इतना मालूम था कि वे टाइम्स की हिंदी पत्रिका दिनमान के संपादकीय विभाग में
कुछ करते हैं। मैने स्टेशन पर ही दिनमान खरीदा और उसका पता देखा- 10, दरियागंज,
नई दिल्ली। वहीं पूछताछ से मालूम हुआ कि यहां से पास ही है। स्टेशन
पर ही मैं फ्रेश हुआ तब तक आठ बज चुके थे। पैसे बचाने और समय काटने के लिए मैं
पैदल चलते हुए करीब नौ बजे तक दिनमान के कार्यालय तक पहुंच गया। उस समय तक वहां
सक्सेना नाम का एक चपरासी ही आया हुआ था। उसी से संतोष के बारे में पूछा तो पता
चला कि दस के बाद आएंगे। सक्सेना मजेदार आदमी थे। उन्होंने मेरा पूरा पता जान लिया
और यह भी पूछ लिया कि मैं यहां क्यों आया हूं। उन्होंने मुझे बिठाया, चाय
पिलाई व नीचे से समोसे मंगाकर भी खिलाए। तथा यह भी बता दिया कि एक्सप्रेस बिल्डिंग
यहां से दो किमी सीधी सड़क पर है मैं चाहूं तो पैदल ही चला जाऊं। मैं दस के पहले
ही निकल लिया और कह दिया कि संतोष को बता देना। साढ़े दस बजे मैं एक्सप्रेस
बिल्डिंग पहुंच गया। ग्यारह बजे से परीक्षा शुरू हुई। परचा था तो बहुत लंबा लेकिन
समय भी खूब था। हर सवाल के जवाब दिए। सामान्य ज्ञान का तो वैसे भी मैं मास्टर था
इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। करीब छह बजे शाम को जब मैं परचा देकर निकला तो बाहर
ही संतोष तिवारी मिल गए और अपने यहां ले गए। संतोष तब पटपड़ गंज गांव के एक घर की
परछत्ती में रहते थे। मैने कहा कि तुम्हारा दिल्ली रहने का क्या फायदा है जो
तुम्हें एक ऐसे गांव में ही रहना है जिसके नाम में कोई रिदम न हो। इससे तो अच्छा है कि तुम कानपुर के अपने गांव
में रहते। कम से कम घर तो विशालकाय होता। संतोष ने कहा कि दिल्ली जब तुम आ जाओगे
तब इसकी अहमियत जानोगे। मैने कहा कि देखो जनसत्ता की लिखित परीक्षा में तो पास हो
जाऊंगा बाकी इंटरव्यू अगर अंग्रेजी में हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। संतोष बोला अगर
अंग्रेजी से डरे तो दिल्ली नहीं रह पाओगे।
13
जून को मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। चूंकि एक बार दिल्ली हो आया था
इसलिए कुछ आत्मविश्वास भी था। एक्सप्रेस
बिल्डिंग के हाल में तमाम लोग बैठे थे कुछ इंटरव्यू दे चुके थे कुछ का नंबर अभी
आना था। वहां की फुसफुसाहट से पता चला कि अंदर सारे लोग अंग्रेजी के ही हैं।
प्रभाष जोशी जो उस वक्त तक इंडियन एक्सप्रेस के रेजीडेंट एडिटर थे, बीजी
वर्गीज, एलसी जैन तथा राजगोपाल। मुझे लगा कि मेरा लौट जाना श्रेयस्कर होगा।
ये लोग लगता है कि हिंदी पत्रकारों से अंग्रेजी में ही अखबार निकलवाएंगे। तभी मेरा
नाम बुलाया गया। अंदर पहुंचा तो पहले प्रभाष जी ने ही पूछा कि आपने ज्यादातर रपटें
गांवों के बारे में लिखी हैं आप मुझे सेंट्रल यूपी के जातीय समीकरण के बारे में
बताइए। मेरा आत्मविश्वास लौट आया और मैं फटाफट बोलने लगा। कुछ सवाल वर्गीज जी ने
पूछे तथा कुछ एलसी जैन ने। लेकिन अब मैं आश्वस्त था कि मेरा चयन सेंट परसेंट पक्का
है। 18 जुलाई
को प्रभाष जी का एक पत्र आया जिसमें लिखा था- प्रिय श्री शुक्ल, बधाई!
आपका जनसत्ता में चयन हो गया है। आपका नाम मेरिट लिस्ट में है। चुनने का हमारा
तरीका शायद बेहद थकाऊ और उबाऊ रहा होगा लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिष्ठाओं और
सिफारिशों को छानने के लिए इससे बेहतर कोई चलनी नहीं थी। मेरा मानना है कि पहाड़
वही लोग चढ़ पाते हैं जो बगैर किसी सहारे के अपने बूते चलते हैं।
अद्भुत पत्र था यह। घर में सब ने पढ़ा और पहली
बार मेरे घर में सबने माना कि जनसत्ता का टेस्ट पास कर मैने एक बड़ा काम तो कर ही
लिया है। अगले ही दिन मैने दैनिक जागरण में इस्तीफा दिया और 20 जुलाई की सुबह
गोमती एक्सप्रेस पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया। स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला
मिल गए और तब भेद खुला कि हम दोनों ही जनसत्ता के लिए जा रहे हैं। उनका चयन भी
पहले ही बैच में हो गया था। दोपहर बाद जब हम एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचे तो पता चला
कि जनसत्ता के साथियों के लिए बैठने की व्यवस्था तो एक अगस्त तक हो पाएगी। आप लोग
अभी जाओ एक तारीख को आना। अब बड़ी मुसीबत थी घर से पूरी तैयारी कर के आए थे। कुछ
सामान भी ले आए थे अब सब कुछ वापस ले जाओ और फिर एक को लाओ इस झंझट से बचने के लिए
संतोष तिवारी के यहां सामान रख दिया और अगले रोज 21 को वापस चले गए। दिल्ली में कुछ लोगों ने बताया कि इंडियन एक्सप्रेस
का हिंदी में प्रयोग कभी सफल नहीं हुआ है। आप लोग गलत फंस गए हैं। बेहतर रहे कि
वापस लौट जाओ। कानपुर में अब क्या करूं? जनसत्ता में काम
शुरू नहीं किया और जागरण की लगी लगाई नौकरी से इस्तीफा दे चुका था। राजीव ने बताया
कि उसने तो अभी इस्तीफा नहीं दिया है क्योंकि उसे इस बात का अंदेशा था कि जनसत्ता शुरू भी होगा या नहीं। घर में अब मन
नहीं लग रहा था इसलिए यह इंतजार मैने गांवों में रहकर काटा और फिर एक की बजाय दो
अगस्त को दिल्ली आया। पता लगा कि राजीव ने तो एक को ही ज्वाइन कर लिया था। जनसत्ता
के अभी दूर-दूर तक निकलने की संभावना नहीं थी। न तो साथियों के बैठने की जगह बन
पाई थी न ही संपादकीय विभाग का कोई ताना-बाना था। सिर्फ बनवारी जी, हरिशंकर
व्यास और सतीश झा को छोड़कर बाकी सब उप संपादक की पोस्ट पर थे। कुछ अन्य वरिष्ठ
लोगों में गोपाल मिश्रा को न्यूज एडिटर और देवप्रिय अवस्थी को डिप्टी न्यूज एडिटर
बनाया गया था। रामबहादुर राय के नेतृत्व में 5 लोगों की एक रिपोर्टिंग टीम भी बनी लेकिन राजनीतिक ब्यूरो नहीं
बनाया गया। कुछ प्रशिक्षु भी रखे गए।
प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते
कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी।
राजीव और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही
तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों
से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस
के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने
कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष
जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी
को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो
हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाषजी ने बताया
कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का
क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का
ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को
जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि
सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने
लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया
था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार
किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को
जनसत्ता बाजार में आया।
हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी
भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह
अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद
ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल
रही उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में
बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम हिंदी था। इसे तैयार करने का
मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। उर्दू को
मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा
हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई
तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला
गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू
में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी
पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी
का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण
नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक
ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग
जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले
निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी
भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने
उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी।
इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में
अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार
छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह
एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय महोदय,
जवाब देंहटाएंकिसी लड़की के बलात्कार हो जाने पर उस लड़की ने लोकलाज के कारण आत्महत्या कर ली थी.जनसत्ता में एक संपादकीय छपा था.शायद प्रभाष जी अंतिम दिनों की बात है.यह संपादकीय बहुत ही दिल को छू लेनी थी.
भाव कुछ यूँ था कि "उसे बहादुरी के साथ जीना चाहिए और दुनियां को बतलाना चाहिए था".+++
मैं कैसे इस संपादकीय को दुबारा पढ़ सकता हूँ?
और अतिरिक्त जानकारी हम देने में असमर्थ है.
हम ह्रदय से आभारी होंगे.
कष्ट देने के लिए खेद है
आदरणीय महोदय,
जवाब देंहटाएंकिसी लड़की के बलात्कार हो जाने पर उस लड़की ने लोकलाज के कारण आत्महत्या कर ली थी.जनसत्ता में एक संपादकीय छपा था.शायद प्रभाष जी अंतिम दिनों की बात है.यह संपादकीय बहुत ही दिल को छू लेनी थी.
भाव कुछ यूँ था कि "उसे बहादुरी के साथ जीना चाहिए और दुनियां को बतलाना चाहिए था".+++
मैं कैसे इस संपादकीय को दुबारा पढ़ सकता हूँ?
और अतिरिक्त जानकारी हम देने में असमर्थ है.
हम ह्रदय से आभारी होंगे.
कष्ट देने के लिए खेद है
आदरणीय महोदय,
जवाब देंहटाएंकिसी लड़की के बलात्कार हो जाने पर उस लड़की ने लोकलाज के कारण आत्महत्या कर ली थी.जनसत्ता में एक संपादकीय छपा था.शायद प्रभाष जी अंतिम दिनों की बात है.यह संपादकीय बहुत ही दिल को छू लेनी थी.
भाव कुछ यूँ था कि "उसे बहादुरी के साथ जीना चाहिए और दुनियां को बतलाना चाहिए था".+++
मैं कैसे इस संपादकीय को दुबारा पढ़ सकता हूँ?
और अतिरिक्त जानकारी हम देने में असमर्थ है.
हम ह्रदय से आभारी होंगे.
कष्ट देने के लिए खेद है