'मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।'
हिंदी साहित्य सम्मेलन 1914 में लखनऊ में हुआ। और उसी मौके पर दशहरा और मोहर्रम एक साथ पड़ गए। हिंदू-मुसलमान दोनों ने ही इसे परस्पर भाईचारे को जताने का एक अवसर समझा और दोनों त्योहार अपने-अपने तरीकों से मनाए गए। मोहर्रम के जुलूस भी निकले और मातम भी मना तथा रावण भी फुँका व दशहरे का मेला भी संपन्न हुआ। ऐसे में हिंदी-उर्दू साहित्यकारों व लेखकों को भी परस्पर सौहार्द दिखाने का भी अवसर मिला। इसी मौके पर लखनऊ चौक में दो लोग टकराए। इनमें से एक थे 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और 'प्रभा' के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ एक भारतीय आत्मा। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। आपस में सलाम-बंदगी हुई। गणेश जी उसी समय 'एक भारतीय आत्मा' को कानपुर खींच ले गए और बाद में स्वयं गणेश जी भी एक भारतीय आत्मा के आवास खंडवा शहर आने-जाने लगे। इस आवाजाही में गणेश जी एक भारतीय आत्मा की छुपा कर रखी गई कविताएं उठा लाते और प्रताप में छापते। यह प्रताप का ही प्रताप था कि माखनलाल जी की किशोर अवस्था में लिखी यह कविता हिंदी जगत को मिली-
"जायगो हमारो धनधाम लुटि दूर देश
कोई नहीं चलिबे को मारग बतायगो
तायगो हरेक बलवान बनि, दीनन को
हीनन को मानहु खजानो दिखलायगो"
यह तो उनकी किशोर अवस्था की कविता थी। मगर लखनऊ से लौटकर एक भारतीय आत्मा जब खंडवा आए तो प्रभा के लिए उन्होंने लखनऊ सम्मेलन को आधार बनाकर एक कविता लिखी-
"मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होवें आपस में कुर्बान॥"
एक भारतीय आत्मा को जब कर्मवीर से हटाया गया तो फिर गणेश जी उन्हें प्रताप में ले आए। यहां उन्होंने एक कविता लिखी-
"भला किया, जो इस उपवन के सारे पुष्प तोड़ डाले।
भला किया, मीठे फल वाले ये तरुवर मरोड़ डाले॥
भला किया, सींचो पनपाओ, लगा चुके हो जो कलमें।
भला किया, दुनिया पलटा दी, प्रबल उमंगों के बल में॥
लो, हम तो चल दिए, नए पौधो, प्यारो आराम करो।
दो दिन की दुनिया में आए, हिलो-मिलो कुछ काम करो॥"
इसी बीच फतेहपुर में एक राजद्रोही भाषण देने के आरोप में गणेश जी जेल भेज दिए गए। तब गणेश जी ने एक भारतीय आत्मा को कहा कि प्रताप के संपादन की पूरी जिम्मेदारी उनकी अनुपस्थित में वही संभालें। उन्होंने गणेश जी की आज्ञा मानी। और प्रताप का 'झंडा अंक' माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में ही निकला। पर जैसे ही जेल से गणेश जी वापस आए एक भारतीय आत्मा की आत्मा भटकने लगी और एक दिन गणेश जी से कहा कि कानपुर में उनका मन नहीं लगता क्योंकि कहां कानपुर का रूखा मौसम और कहां खंडवा की विविधता। गणेश जी ने उन्हें बहुत रोका पर वे चले गए।
हिंदी साहित्य सम्मेलन 1914 में लखनऊ में हुआ। और उसी मौके पर दशहरा और मोहर्रम एक साथ पड़ गए। हिंदू-मुसलमान दोनों ने ही इसे परस्पर भाईचारे को जताने का एक अवसर समझा और दोनों त्योहार अपने-अपने तरीकों से मनाए गए। मोहर्रम के जुलूस भी निकले और मातम भी मना तथा रावण भी फुँका व दशहरे का मेला भी संपन्न हुआ। ऐसे में हिंदी-उर्दू साहित्यकारों व लेखकों को भी परस्पर सौहार्द दिखाने का भी अवसर मिला। इसी मौके पर लखनऊ चौक में दो लोग टकराए। इनमें से एक थे 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और 'प्रभा' के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ एक भारतीय आत्मा। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। आपस में सलाम-बंदगी हुई। गणेश जी उसी समय 'एक भारतीय आत्मा' को कानपुर खींच ले गए और बाद में स्वयं गणेश जी भी एक भारतीय आत्मा के आवास खंडवा शहर आने-जाने लगे। इस आवाजाही में गणेश जी एक भारतीय आत्मा की छुपा कर रखी गई कविताएं उठा लाते और प्रताप में छापते। यह प्रताप का ही प्रताप था कि माखनलाल जी की किशोर अवस्था में लिखी यह कविता हिंदी जगत को मिली-
"जायगो हमारो धनधाम लुटि दूर देश
कोई नहीं चलिबे को मारग बतायगो
तायगो हरेक बलवान बनि, दीनन को
हीनन को मानहु खजानो दिखलायगो"
यह तो उनकी किशोर अवस्था की कविता थी। मगर लखनऊ से लौटकर एक भारतीय आत्मा जब खंडवा आए तो प्रभा के लिए उन्होंने लखनऊ सम्मेलन को आधार बनाकर एक कविता लिखी-
"मन्दिर में हो चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होवें आपस में कुर्बान॥"
एक भारतीय आत्मा को जब कर्मवीर से हटाया गया तो फिर गणेश जी उन्हें प्रताप में ले आए। यहां उन्होंने एक कविता लिखी-
"भला किया, जो इस उपवन के सारे पुष्प तोड़ डाले।
भला किया, मीठे फल वाले ये तरुवर मरोड़ डाले॥
भला किया, सींचो पनपाओ, लगा चुके हो जो कलमें।
भला किया, दुनिया पलटा दी, प्रबल उमंगों के बल में॥
लो, हम तो चल दिए, नए पौधो, प्यारो आराम करो।
दो दिन की दुनिया में आए, हिलो-मिलो कुछ काम करो॥"
इसी बीच फतेहपुर में एक राजद्रोही भाषण देने के आरोप में गणेश जी जेल भेज दिए गए। तब गणेश जी ने एक भारतीय आत्मा को कहा कि प्रताप के संपादन की पूरी जिम्मेदारी उनकी अनुपस्थित में वही संभालें। उन्होंने गणेश जी की आज्ञा मानी। और प्रताप का 'झंडा अंक' माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में ही निकला। पर जैसे ही जेल से गणेश जी वापस आए एक भारतीय आत्मा की आत्मा भटकने लगी और एक दिन गणेश जी से कहा कि कानपुर में उनका मन नहीं लगता क्योंकि कहां कानपुर का रूखा मौसम और कहां खंडवा की विविधता। गणेश जी ने उन्हें बहुत रोका पर वे चले गए।
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