गुरुवार, 3 सितंबर 2015

जस यूपी और बिहार मिले

जस यूपी और बिहार मिले
शंभूनाथ शुक्ल
यूपी और बिहार की एक जैसी पहचान है। आज भी है और कल भी थी। हालांकि दोनों के बीच भौगोलिक और ऐतिहासिक एकता कभी नहीं रही मगर राजनीतिक एकता अभूतपूर्व रही है। बंग भंग के पहले सासाराम तक का बिहार अवध सुल्तानेट में था और बाकी का हिस्सा बंगाल सुल्तानेट के अधीन। यूपी में भी दिल्ली जमनापार से लेकर इलाहाबाद संगम तक का पूरा दोआबा मुगल बादशाहों की खालसा जमीन थी और उनके सीधे नियंत्रण में रहा है। इसके अलावा रुहेलखंड और पहाड़ी राज्य अलग रहे हैं। पर दोनों के बीच लोगों का राजनीतिक चिंतन करीब-करीब एक-सा रहा है और इसकी वजह शायद दोनों ही राज्यों में समाज का बंटवारा सीधे-सीधे जाति के आधार पर बटा रहा है और दोनों ही जगह सामान्य जन-जीवन में सामंती जातियों का वर्चस्व का बना रहना है। मालूम हो कि दिल्ली में जब मुसलमानों  का खासकर तुर्कों का हमला हुआ तो राजपूत राजा पास के राजपूताना को छोड़कर बिहार चले गए और अपने साथ वे अपनी प्रजा भी ले गए। पुरोहितों के लिए उन्होंने काशी और कान्यकुब्ज इलाके के ब्राह्मणों को चुना। इस वजह से जाति की राजनीति लगभग वही है जो सेंट्रल और ईस्टर्न यूपी में है। यही कारण है कि दोनों ही राज्यों में पिछड़ा उभार लगभग एक ही समय का है। अस्सी का दशक दोनों के लिए महत्वपूर्ण बिंदु है और इसके लिए कुछ भी हो पर इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और प्रधानमंत्री रोजगार योजनाओं तथा ग्रामीणों को बैंक कर्जों का लाभ पिछड़ों के क्रीमी तबके खासकर यादव और कुर्मियों ने खूब उठाया। कुर्मियों के पास जमीन थी और अहीरों-गड़रियों के पास ढोर थे तथा काछी सब्जी बोने का काम करते थे। इन्हें अपनी उपज को बेचने के लिए शहरी बाजार मिले इससे इन जातियों के पास पैसा आया तब इनके अंदर इच्छा शक्ति पैदा हुई कि समाज के अंदर उन्हें वही रुतबा शामिल हो जो कथित ऊँची जातियों को हासिल थी पर इसके लिए उन्हें अपने रोबिनहुड चाहिए थी ताकि उनकी छवि एक दबी-कुचली जाति के रूप में नहीं बल्कि दबंग, ताकतवर और रौबदाब वाली जाति के रूप में उभरे।
यह वही दौर था जब अहीरों ने अपनी लाठियां भाँजीं। मगर अगड़ों ने पुलिस की मदद से उन्हें जेल में डलवाया और आंखफोड़ो जैसे कारनामे करवाए। मुझे याद है कि साल 1980 में जब मैं भागलपुर आंखफोड़ो कांड कवर करने गया था तब यह जानकर दंग रह गया कि जिन लोगों की आंखें फोड़ी गईं वे सब के सब पिछड़ी जातियों के, खासकर यादव जातियों से थे। सवर्ण शहरी पत्रकार और बौद्घिक वर्ग इसकी निंदा ता कर रहा था पर किसी ने भी तह तक जाने की कोशिश नहीं की यह एक पुलिसिया हरकत थी जो अगड़ों के इशारे पर पिछड़ा उभार को दबाने के प्रयास में की गई थी। मुझे याद है कि जिन पुलिस इंसपेक्टरों को इस कांड में घेरा गया था वे सब के सब अगड़ी जातियों के ही थे। पर अत्याचार एक नए किस्म के प्रतिरोध को जन्म देता है। वही यहां भी हुआ और धीरे-धीरे पिछड़ों की एकता बढ़ती गई मगर दलितों की तरह वे मार्क्सवादी पार्टियों की ओर नहीं गए। भाकपा (माले) के कामरेड विनोद मिश्रा की तमाम कोशिशों के बावजूद पिछड़े उनके साथ नहीं गए और उनका आधार वही ब्राह्मण व अन्य अगड़े व दलित ही रहे जिनका बड़ा तबका कांग्रेस में था। मगर कांग्रेस को बहुमत में लाती थी उस पार्टी को मुसलमानों का एकतरफा सपोर्ट। यहां मुसलमान नहीं था और ब्राहमणों व अन्य अगड़ों का एक छोटा तबका ही था। पिछड़ी जातियां अपने ही किसी सजातीय दबंग नेता का इंतजार कर रही थीं। उन्हें सौम्य नेता नहीं चाहिए था बल्कि एक ऐसा नेता चाहिए था जो सार्वजनिक तौर पर अगड़ी अभिजात्यता को चुनौती दे सके। यह वह दौर था जब यूपी और बिहार में क्रमश दो यादव नेता मिले। यूपी में थोड़ा पहले और बिहार में कुछ बाद में। एक लोहिया का शिष्य दूसरा जेपी आंदोलन से उपजा पर दोनों ही लाठियों के मजबूत।
ऐसे ही दिनों में मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के गांवों का कवरेज का मौका मिला। तब मैने पाया कि मध्य उत्तर प्रदेश की मध्यवर्ती जातियों के कुछ नए नायक उभर रहे थे। ये नायक उस क्षेत्र के डकैत थे। अगड़ी जातियों के ज्यादातर डकैत आत्म समर्पण कर चुके थे। अब गंगा यमुना के दोआबे में छविराम यादव, अनार सिंह यादव, विक्रम मल्लाह, मलखान सिंह और मुस्तकीम का राज था। महिला डकैतों की एक नई फौज आ रही थी जिसमें कुसुमा नाइन व फूलन प्रमुख थीं। छविराम और अनार सिंह का एटा व मैनपुरी के जंगलों में राज था तो विक्रम, मलखान व फूलन का यमुना व चंबल के बीहड़ों में। मुस्तकीम कानपुर के देहाती क्षेत्रों में सेंगुर के जंगलों में डेरा डाले था। ये सारे डकैत मध्यवर्ती जातियों के थे। और सब के सब गांवों में पुराने जमींदारों खासकर राजपूतों और चौधरी ब्राह्मïणों के सताए हुए थे।
उस समय वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे। यह उनके लिए चुनौती थी। एक तरफ उनके सजातीय लोगों का दबाव और दूसरी तरफ गांवों में इन डाकुओं को उनकी जातियों का मिलता समर्थन। वीपी सिंह तय नहीं कर पा रहे थे। यह मध्य उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियों के पराभव का काल था। गांवों पर राज किसका चलेगा। यादव, कुर्मी और लोध जैसी जातियां गांवों में चले सुधार कार्यक्रमों और सामुदायिक विकास योजनाओं तथा गांंव तक फैलती सड़कों व ट्रांसपोर्ट सुलभ हो जाने के कारण संपन्न हो रही थीं। शहरों में दूध और खोए की बढ़ती मांग ने अहीरों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया था। यूं भी अहीर ज्यादातर हाई वे या शहर के पास स्थित गांवों में ही बसते थे। लाठी से मजबूत वे थे ही ऐसे में वे गांवों में सामंती जातियों से दबकर क्यों रहें। उनके उभार ने उन्हें कई राजनेता भी दिए। यूपी में चंद्रजीत यादव या रामनरेश यादव इन जातियों से भले रहे हों लेकिन अहीरों को नायक मुलायम सिंह के रूप में मिले। इसी तरह कुर्मी नरेंद्र सिंह के साथ जुड़े व लोधों के नेता स्वामी प्रसाद बने। लेकिन इनमें से मुलायम सिंह के सिवाय किसी में भी न तो ऊर्जा थी और न ही चातुर्य। मुलायम सिंह को अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा घृणा मिली लेकिन उतनी ही उन्हें यादवों व मुसलमानों में प्रतिष्ठा भी।

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