राम से मंहगा रावण!
शंभूनाथ शुक्ल
जब कानपुर में नौटंकियों का जोर हुआ करता था और
दूर किसी गांव में डुगडुगी पिटते ही लोग भागा करते थे। कितनी दूर इसका पता खेतों
से चलता था कि इतने खेत दूर उस गांव में गुलाब बाई, अमीरन
बाई या मोती बाई आई हैं। पर इन्हीं दिनों कुछ समाज सुधारकों व पुनरुत्थानवादियों
ने नौटंकी के समानांतर परशुरामी विधा शुरू
की। चूंकि परशुरामी विशुद्घ ब्राह्मणी विधा थी और इसमें धर्मान्धता के
साथ-साथ एक हद तक साहित्य भी था इसलिए इसमें आनंद तो नहीं था मगर आकर्षण तो था ही खासकर
महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों में। शादी, विवाह, जनेऊ
या कोई भी अवसर हो जब भी पांच जने तय करते कि धनुषभंग की लीला हो जाए उसी दिन
परशुरामी तय। परशुरामी एक तरह से धनुषभंग का हिस्सा था। राम जी जनकपुरी जाकर शिव धनुष
तोड़ देते हैं। शिव धनुष टूटने की टंकार से दसों दिशाएं गूंज उठती हैं और मंदराचल
में तपश्चर्या में रत परशुराम की तपस्या भंग हो जाती है और वे नारद जी द्वारा दी
गई जानकारी पर जनकपुरी पधार जाते हैं। पहले तो वे बहुत क्रोधित होते हैं और
जैसे-जैसे लक्ष्मण अपने चिढ़ाने वाले अंदाज में उन्हें बातें सुनाते हैं वैसे-वैसे
उनका क्रोध दावानल बनता जाता है। पर अंत में श्रीराम अपने वचनों से परशुराम का
क्रोध शांत करते हैं और परशुराम यह जानकर कि राम स्वयं विष्णु के अवतार हैं,
संतुष्टï होकर चले जाते हैं। वाल्मीकि ने इस संवाद को
बहुत महत्व नहीं दिया पर तुलसी ने इसे शैवों का वैष्णवों के समक्ष समर्पण माना और
इस पूरे संवाद का विस्तृत वर्णन किया है। शायद इसीलिए आगम इस कथा को छोड़ देते हैं
पर निगम इसे बढ़ाचढ़ा कर लिखते हैं। खैर, कानपुर, कन्नौज,
उन्नाव और फतेहपुर में परशरामी लीला का बड़ा चलन है। रात दो बजे जब
शिवतांडव और रावण संहिता का सस्वर पाठ करते हुए परशुराम मंच पर प्रकट होते तो
तालियां बजने लगतीं और रोमांच हो उठता। खासकर माघ व पूस की रात में सिर्फ लंगोट
धारण किए परशुराम का प्रकट होना और परशु उछालते हुए तख्त को तोड़ देना तो परशुराम
का पार्ट करने वाले अभिनेता का शगल हुआ करता था। ज्यादातर हिंदी या संस्कृत के
मास्टर परशुराम का पार्ट करते। शिवली के शिवराज और जगदीश अवस्थी को तो महारत हासिल
थी। कहते हैं कि एक बार कानपुर देहात के एक ठाकुर बहुल गांव मलासा में शिवराज जब परशुराम की अभिनय करने जा रहे थे तो
रास्ते में एक तेंदुआ मिल गया। परशुराम साइकिल पर थे और अपना परशु फरसा साइकिल के
हैंडिल पर टांगे थे। उन्होंने उसी फरसे से तेंदुए को मार दिया और रक्तरंजित फरसा
लेकर मलासा पहुंच गए। उस दिन उन्होंने जैसा अभिनय किया वह लाजवाब था क्योंकि उस दिन
उनका क्रोध साक्षात था। इस परशुरामी में लक्ष्मण की मांग भी बहुत थी और परशुराम के
बाद मानदेय पाने मेें भी उन्हीं का नंबर था। फिर जनक का अभिनय करने वाला पात्र
मानदेय लेता और इसके बाद नंबर आता दशानन रावण का। बेचारे राम जी का नंबर सबसे आखिर
में आता। उनकी हालत वही रहती जैसे कि कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी रामलीला में
राम जी की है। फिर समय बदला और बाई साहब रावण के दरबार में आने लगीं और वे
समाजसुधारक ब्राह्मण उन बाइयों को परशुराम से ज्यादा धन देने लगे। कथाकार महीप
सिंह की एक कहानी परशुराम इस बाबत पढऩे लायक है।
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