सत्तावनी क्रांति भाग- दो
आदतन और परंपरा से चली आ रही किसी शासन प्रणाली
को एकाएक बदलना आसान नहीं होता है और खासकर तब जब विजेता की हर बात शक के दायरे
में हो और विजित जाति को सारे न्यायिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। भारत में
योरोपीय शासकों ने उनके परंपरागत ढांचे को तोडऩे का काम किया। इसके पूर्व के आक्रामणकारियों
ने भारत के पारंपरिक ढांचे को नहीं छुआ था। शायद इसीलिए 1857 में एक
ऐसा जनज्वार उठा जो इसके पूर्व भारत में कभी नहीं देखा गया था। इसके पहले के जो भी
विजेता रहे वे यहीं रच-बस गए पर ये ऐसे विजेता थे जो संख्या में कम थे और भारत में
बसने के नहीं बस परस्पर लड़ाकर पैसा वसूलने के इच्छुक थे। 1757
में प्लासी की लड़ाई और 1764 में बक्सर की लड़ाई में जीते अंग्रेजों
ने भारत के ताज पर अपनी दखल पुख्ता कर ली थी। बक्सर में लखनऊ के नवाब शुजाउद्दौला,
बंगाल के नवाब मीर जाफर और दिल्ली के बादशाह शाहआलम की संयुक्त सेना
को पराजित कर अंग्रेजों ने अवध का एक बड़ा भूभाग और पूरे दोआबे का कोई 40
हजार वर्गमील का इलाका अपने अधीन कर लिया था। दिल्ली के बादशाह के कमजोर पडऩे के
कारण अंग्रेज एक के बाद एक तख्त गिराते गए अथवा देस राजाओं की राजधानियों में अपना
रेजीडेंट बिठाते चले गए और इस बहाने वे उस राजा के राज्य को न सिर्फ कमजोर करते
बल्कि उसके यहां असंतोष को बढ़ावा देते।
हम एक अंग्रेज लेखक से ही शुरू करते हैं।
ग्रांट डफ ने लिखा है- उनकी राजधानियों में अंग्रेज रेजीडेंटों को रखना उनकी तबाही
का कारण बन गया। क्योंकि इन अधिकारियों को जो काम सौंपे गए थे उनमें से एक था
असंतोष पैदा करना। इस कथन की पुष्टि विलियम हेजलिट भी करते हैं। वे लिखते हैं-
भारतीय राजाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने
ऐसा जहर फैला दिया जिसके कारण पूरा भारत अंदर ही अंदर सुलग उठा। सत्य यह है कि असंतोष
को अंग्रेजों ने ही बढ़ाया। भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो जाने का वर्णन करते हुए
महान जर्मन दार्शनिक व राजनीतिक चिंतक कार्ल मार्क्स ने 1853 में
लिखा था- “मुगलों
की सर्वोच्च शक्ति को उनके वाइसरायों ने कमजोर किया। इन वाइसरायों की शक्ति को
मराठों ने कमजोर किया। मराठों की शक्ति को अफगानों ने कमजोर किया और जब ये सब
एक-दूसरे से लड़ रहे थे, तभी अंग्रेजों ने आकर सब को हरा दिया।
देश में न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में फूट थी बल्कि जनजातियों के बीच भी फूट
थी। समाज का ढांचा एक तरह के संतुलन पर आधारित था जो सभी सदस्यों के बीच परस्पर
खिंचाव और लगाव के संतुलन के बूते टिका था। ऐसे देश और ऐसे समाज की नियति पराजित
होना नहीं तो और क्या थी?” इसके
आगे तो मार्क्स एक तरह से भारतीयों की मानसिकता पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं- “भारत अपने ही
खर्चे पर पल रही अपनी ही सेनाओं के माध्यम से अंग्रेजों का गुलाम बना हुआ है।“ 15 जुलाई 1857
को मार्क्स इंटरनेशनल डेली ट्रिब्यून में लिखते हैं- “विभिन्न वंशों,
जनजातियों, वर्गों और सत्ताओं का सकल रूप जो
भौगोलिक एकता बनाता है, उसे ही भारत कहा जाता है। उनके बीच टकराव
अंग्रेजों की सर्वोच्चता का अनिवार्य सिद्घांत बना हुआ है। मार्क्स मानते थे कि
देसी राजाओं की शक्ति को शक्ति से छल और बल से समाप्त करने के अलावा अंग्रेजों के
पास और कोई विकल्प नहीं था।“
ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ किए गए वादों को पूरा
करने के लिए देशी राजाओं को अंग्रेजों से ऊँचे ब्याज पर भारी मात्रा में कर्ज लेना
पड़ा और जब वे अदा नहीं कर पाए तो अंग्रेजों ने बदले में या तो मित्रभाव से अपना
राज्य छोड़ दें अथवा युद्घ का सामना करें। यह एक ऐसी शर्त थी जिसमें अंग्रेजों को
हर हाल में लाभ ही था। उनका कुछ नहीं जाता था और पूरी दीवानी उनके कब्जे में आ
जाती थी। मजे की बात कि जिस राजा से वे लड़ते वही राजा अपनी फौज भी पालता और
अंग्रेजी फौज का भी खर्च उठाता। एक तरह से 1857 तक ईस्ट
इंडिया कंपनी ने ऐसे हालात बना दिए थे कि अगर विद्रोह न होता तो आश्चर्य होता कि
इतना बड़ा मुल्क और इतने कायर, आलसी व जाहिल लोग।
(आगे का हिस्सा कल पढि़एगा।)
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