रख लेव या लछमिनियां!
कानपुर में एक थे सांवलदास बाबा। दलितों की कुरील जाति से थे और पेशे से जमींदार थे। कानपुर शहर के दक्षिणी हिस्से यानी जूही से लेकर पांडु नदी के किनारे तक का विशाल इलाका उनकी जमींदारी में था। नदी के किनारे बसे अहीर और लोध उनके हलवाहे थे। एक ठाकुर साहब उनके मैनेजर। एक जमाने में जब कानपुर में अंग्रेजों ने रेलवे का जूही यार्ड बनवाया तथा कानपुर-बांदा रेल लाइन बिछवाई तब जो जमीन अधिग्रहीत की गई वह सारी की सारी सांवलदास भगत की थी। कुछ थोड़ी सी जमीन रानी कुंवर की थी। रानी कुंवर को तो सभी जानते हैं पर दलित नरेश सांवलदास को भूल गए। रानी कुंवर का एक मंदिर पुरानी जुही में है। हालांकि हमीरपुर रोड पर लोअर गंगा कैनाल के किनारे सांवलदास जी की समाधि बनी है जिसे सांवलदास की छतरी बोलते हैं पर उसकी देखरेख नहीं हो पाने के कारण आज वह छतरी उजाड़ हो गई है। बचपन में मैं उसे देखता था तब शुद्घ संगमरमर की बनी वह छतरी ताजमहल से कम आकर्षक नहीं थी। आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जब रेलवे में मुलाजिम थे तब वे सांवलदास की जमींदारी के एक गांव जुही में ही रहे थे। उन्होंने सांवलदास बाबा पर एक लेख सरस्वती में छापा था।
सांवलदास बाबा मस्त आदमी थे। रईसी आन-बान-शान उनकी पोशाक से टपकती। जब वह पूरी धज के साथ निकलते तो जो भी आदमी सामने पड़ता उन्हें सलाम ठोकता। चाहे हिंदू हो अथवा मुसलमान, शेख हो या पठान अथवा राजपूत, लोधे या अहीरों के गोल सब सांवलदास को सलाम जरूर करते। सांवलदास बाबा हर सलाम करने वाले के सामने क्वीन विक्टोरिया के छापे वाला विशुद्घ चांदी का एक सिक्का फेकते और कहते रख लो लछमिनियां को। लोग पूछते यह क्यों बाबा? वे बताते- मैं तो हूं दलित तुम मुझे तो सलाम करने से रहे। तुम तो मेरी संपत्ति और राजसी ठाठबाट यानी मेरी लक्ष्मी को सलाम कर रहे हो सो लो रख लो यह लछमिनियां। मशहूर दलित चिंतक बद्री नारायण ने अपने एक शोध लेख में लिखा है कि सांवलदास का बनवाया मंदिर बहुत मशहूर है और ज्योरा में बनवाया उनका गंगा घाट भी।
सांवलदास बाबा के मैनेजर बाबू ने जागीर का कामकाज देखते-देखते उनकी सारी संपत्ति अपने नाम करवा ली। पर बाबा कभी उदास नहीं हुए। वे कहा करते थे कि लछमिनियां भला किसकी हो कर रही। उनका एक प्रिय दोहा था-
“कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की वधू क्यों न चंचला होय॥
कानपुर में एक थे सांवलदास बाबा। दलितों की कुरील जाति से थे और पेशे से जमींदार थे। कानपुर शहर के दक्षिणी हिस्से यानी जूही से लेकर पांडु नदी के किनारे तक का विशाल इलाका उनकी जमींदारी में था। नदी के किनारे बसे अहीर और लोध उनके हलवाहे थे। एक ठाकुर साहब उनके मैनेजर। एक जमाने में जब कानपुर में अंग्रेजों ने रेलवे का जूही यार्ड बनवाया तथा कानपुर-बांदा रेल लाइन बिछवाई तब जो जमीन अधिग्रहीत की गई वह सारी की सारी सांवलदास भगत की थी। कुछ थोड़ी सी जमीन रानी कुंवर की थी। रानी कुंवर को तो सभी जानते हैं पर दलित नरेश सांवलदास को भूल गए। रानी कुंवर का एक मंदिर पुरानी जुही में है। हालांकि हमीरपुर रोड पर लोअर गंगा कैनाल के किनारे सांवलदास जी की समाधि बनी है जिसे सांवलदास की छतरी बोलते हैं पर उसकी देखरेख नहीं हो पाने के कारण आज वह छतरी उजाड़ हो गई है। बचपन में मैं उसे देखता था तब शुद्घ संगमरमर की बनी वह छतरी ताजमहल से कम आकर्षक नहीं थी। आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जब रेलवे में मुलाजिम थे तब वे सांवलदास की जमींदारी के एक गांव जुही में ही रहे थे। उन्होंने सांवलदास बाबा पर एक लेख सरस्वती में छापा था।
सांवलदास बाबा मस्त आदमी थे। रईसी आन-बान-शान उनकी पोशाक से टपकती। जब वह पूरी धज के साथ निकलते तो जो भी आदमी सामने पड़ता उन्हें सलाम ठोकता। चाहे हिंदू हो अथवा मुसलमान, शेख हो या पठान अथवा राजपूत, लोधे या अहीरों के गोल सब सांवलदास को सलाम जरूर करते। सांवलदास बाबा हर सलाम करने वाले के सामने क्वीन विक्टोरिया के छापे वाला विशुद्घ चांदी का एक सिक्का फेकते और कहते रख लो लछमिनियां को। लोग पूछते यह क्यों बाबा? वे बताते- मैं तो हूं दलित तुम मुझे तो सलाम करने से रहे। तुम तो मेरी संपत्ति और राजसी ठाठबाट यानी मेरी लक्ष्मी को सलाम कर रहे हो सो लो रख लो यह लछमिनियां। मशहूर दलित चिंतक बद्री नारायण ने अपने एक शोध लेख में लिखा है कि सांवलदास का बनवाया मंदिर बहुत मशहूर है और ज्योरा में बनवाया उनका गंगा घाट भी।
सांवलदास बाबा के मैनेजर बाबू ने जागीर का कामकाज देखते-देखते उनकी सारी संपत्ति अपने नाम करवा ली। पर बाबा कभी उदास नहीं हुए। वे कहा करते थे कि लछमिनियां भला किसकी हो कर रही। उनका एक प्रिय दोहा था-
“कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की वधू क्यों न चंचला होय॥
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