सोमवार, 30 मार्च 2015

किसान की चिंता किसी को नहीं

हिंदुस्तान में पढ़ाई मंहगी है, इलाज मंहगा है और ऐय्याशी (शराबखोरी, होटलबाजी, शौकिया पर्यटन आदि-आदि) मंहगी है। लेकिन सबसे सस्ता है भोजन। आज भी मंहगे से मंहगा गेहूं का आटा भी 45 रुपये किलो से अधिक नहीं है और गेहूं 28 से अधिक नहीं। रोजमर्रा की सब्जियां भी 40 से ऊपर की नहीं हैं। अगर आप दिन भर में एक स्वस्थ आदमी की तरह 2400 कैलोरी ग्रहण करना चाहें तो भी अधिक से अधिक 50 रुपये खर्चने होंगे। मगर जो किसान आपको इतना सस्ता जीवन जीने की आजादी दे रहा है उसकी चिंता न तो सरकार को है न विपक्षी नेताओं को और न ही शहरी मध्यवर्ग को। एक एकड़ में 25 कुंतल गेहूं पैदा करने के लिए किसान को जो मंहगी-मंहगी खादें व कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है वह उसकी कुल लागत से थोड़ा ही अधिक होता है। और एक किसान अगर उसके पास सिंचाई के पूरे साधन हैं तो भी अधिक से अधिक देा फसलें ले सकता है। उसमें भी धान और गेहूं की फसल लेने वाले ही किसान अधिक होते हैं। सरसों या दालें बोने पर पैसा तो आता है मगर लागत बढ़ जाएगी और कहीं खुदा न खास्ता सावन-भादों सूखा निकल गया और फागुन-चैत भीगा तो फसल गई। अब ऐसे में किसान आत्महत्या न करे तो क्या करे। इसके बाद भी कलेक्टर के यहां से हरकारा आ जाता है लगान और आबपाशी वसूलने। इस धमकी के साथ ढिंढोरा पिटवाया जाता है कि अगर किसान ने वक्त पर लगान व आबपाशी न जमा की तो किसान के खेत की कुर्की तय। हैं न अजीब सरकारें! किसान की फसल चौपट हो जाए, सूखा, बारिश या पाला-पाथर पड़ जाए अथवा हमलावर लूट लें, खेतों में खड़ी फसल को आग लग जाए या नीलगाय फसल चर जाए पर सरकार की वसूली तय है। अरे इन मौजूदा तुर्कों से बेहतर तो अलाउद्दीन खिलजी, शेरशाह सूरी और जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर जैसे मध्ययुगीन शासक थे जिन्होंने लगान के लिए उपज को पैमाना माना था। यानी फसल चौपट तो लगान भी नहीं। मगर हमारी ये लोकप्रिय और लोकतांत्रिक सरकारें बेशर्मी के साथ विधायिका में प्रस्ताव लाकर अपने वेतन-भत्ते तो बढ़वा लेती हैं पर किसानों को आत्महत्या के लिए उकसाती हैं। एक मंतरी से लेकर संतरी तक के वेतन की अनुशंसाओं के लिए आयोग हैं, न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए भी लेकिन आज तक न तो कृषिभूमि रखने की न्यूनतम हदबंदी तय की गई है न किसान को अपनी जमीन न अधिग्रहीत करने देने का अधिकार है। इसमें कांग्रेस और भाजपा और जनतापार्टी व जनतादल की सरकारें बराबर की उस्ताद रही हैं। ऐसी क्रूर व निकृष्ट तथा किसान विरोधी सरकारों की क्षय होवे और ऐसे लोभी व धूर्त राजनेताओं की भी तथा नौकरशाही व मीडिया कर्मियों व शहरी मध्यवर्ग की भी।

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