बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

देवभूमि का दुःख!

अलग होने से विकास तो नहीं ही होता!
शंभूनाथ शुक्ल
उत्तराखंड को यूपी से अलग करने का दुख मुझे बहुत हुआ था और आज भी मुझे लगता है कि ऐसा करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं था। पर वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पाण्डे पांडे की किताब 'देवभूमि का रण' बहुत सारे भ्रम दूर करती है। और पहली दफे लगा कि इस पूरे इलाके को पहले तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने फिर यूपी की लखनऊ में बैठी सरकारों ने लूटा ही था। यह अलग बात है कि यूपी में अब तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए हैं उनमें से आठ दफे तो इसी अंचल के लोग रहे हैं और इसे यूपी में मिलाने का फैसला भी उन गोविंद बल्लभ पंत ने किया था जो खूद कुमायूं के थे।
प्रयाग पांडे ने अपनी किताब में लिखा है- "उत्तराखंड में ब्रिटिश राज के पूरी तरह कायम होने के बाद धार्मिक आस्था के केंद्र उत्तराखंड के पहाड़ों का ऐशो-आराम और हवाखोरी के केंद्र के रूप में परिवर्तित होने का क्रम शुरू हो गया। हिमालय की शास्वत नीरवता, रोमांचक और आकर्षक छवि ने अंग्रेजों को लुभाया। पहाड़ के भव्य और अनोखे नजारे अंग्रेजों को भा गए। पहाड़ों की स्वास्थ्य वर्धक एवं स्फूर्ति दायक जलवायु और आबो-हवा इंग्लैंड से मिलती-जुलती थी। पहाड़ों का स्वच्छ, शुद्ध वातावरण बच्चों के पोषण और विकास के लिए आदर्श समझा गया। इस प्राकृतिक वातावरण के कारण यहां नैनीताल जैसे हिल स्टेशन बसाए गए। पहाड़ों में आवासीय स्कूलों की स्थापना होने लगी। ब्रिटिश साम्राज्य की अखंड एवं ताकतवर सामथ्र्य के प्रतीक साम्राज्यवादी स्थापत्य शैली के भवनों का निर्माण शुरू हुआ। इससे पहाड़ का उन्मुक्त शुद्ध वातावरण और पर्यावरण बिगडऩे लगा। जबकि मुगलकाल में मुगल शासकों ने श्रीनगर में तो अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई। पर उन्होंने उत्तराखंड के पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ नहीं की।"
प्रयाग पांडे के तर्क वजनदार हैं पर इससे अलग उत्तराखंड का तर्क गले नहीं उतरता। यूपी की सरकारों ने उत्तराखंड के लिए बहुत कुछ किया था और यूपी की मजबूत प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी इस राज्य को ज्यादा मजबूत बना रही थी। इसका नमूना हाल ही में जून 2013 में आए सैलाब से ही देखने को मिल गया। जब अलग उत्तराखंड की सरकार इससे निपटने में एकदम नाकाम रही और इस जलजले की जिम्मेदार भी वह खुद थी। उत्तर प्रदेश के समय 1962 में 2013 की तुलना में ज्यादा बड़ा जलजला आया था पर न तो इतने अधिक जान माल का नुकसान हुआ था न इंफ्र्रास्ट्रक्चर का। संयुक्त उत्तर प्रदेश का जब हमें नक्शा समझाया जाता तो बताया जाता था कि भारत के नक्शे में जो हिस्सा गर्दन उठाए शेर का है वह उत्तर प्रदेश है। पर अब गर्दन कट गई है। न तो अलग उत्तराखंड विकास कर पाया और बाकी का उत्तर प्रदेश। देवभूमि के हट जाने के कारण शेष उत्तर प्रदेश दानवीय ज्यादा लगता है।
ऐसा ही दुख तेलांगना के अलग हो जाने के कारण विशालांध्र केे लोगों को हुआ होगा। जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1946 से 1951 तक पृथक तेलांगना आंदोलन चलाया था तब इसी कांग्रेस पार्टी ने आंदोलनकारियों का बुरी तरह दमन किया था आज वही कांग्रेस सीमांध्र के लोगों का कर रही थी। इससे बड़ा आंदोलन तो अलग दार्जिलिंग के लिए सुभाष घीसिंग ने चलाया था लेकिन पश्चिम बंग सरकार ने दार्जिलिंग को अलग नहीं होने दिया। बस एक हिल कौंसिल देकर छुट्टी पा ली।
छोटे राज्यों की शुरुआत भाजपा ने अपने हितों के लिए की थी इसीलिए यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश को काट डाला गया था। कांग्रेस तो बड़े राज्यों की हिमायती थी उसने ऐसा क्यों किया?

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