मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

खाप की पोलमपोल!

लालडोरे से घिरी जातीय पंचायतें
शंभूनाथ शुक्ल
मेरी पत्नी और मैं दोनों भारद्वाज गोत्र के हैं। हमारी शादी को 38 साल बीत चुके हैं पर अब तक सामान्य बातों को छोड़ दिया जाए तो न तो कभी परस्पर कोई झगड़ा हुआ न ही समगोत्री होने के कारण हमारे बच्चों को किसी तरह की जेनेटिक बीमारियों से जूझना पड़ा। शादी हमारे परिवारों की मर्जी से हुई थी तब किसी ने न तो कुंडली मिलवाई थी न ही हमारा परिवार किसी तरह के ज्योतिषीय विकारों के चक्कर में पड़ा था। उस वक्त तक साधारण मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की जन्म कुंडली बनवाने का भी चलन नहीं हुआ करता था सो मेरी पत्नी की भी कोई जन्म कुंडली नहीं बनी थी। शादी से पहले पत्नी से मेरी कोई जान पहचान भी नहीं थी। समानता सिर्फ इतनी थी कि हमारा कालेज एक ही था। वे कानपुर के वीएसएसडी कालेज में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थीं और मैं मैथ्स में। शादी के लिए मेरे दादा का जोर था क्योंकि  उनके मुताबिक मैं कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करके पथभ्रष्ट होता जा रहा था।
ऐसा नहीं कि उस समय गोत्र, जाति और ग्रह नक्षत्र मिलाने का चलन नहीं था लेकिन उस पर इतना जोर नहीं हुआ करता था कि अच्छी खासी हो रही शादी ही तोड़ दी जाए। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कितनी ही शादियां महज इसलिए नहीं हो पा रही हैं क्योंकि लड़का लड़की दोनों ही समगोत्री हैं। परंपरागत विश्वास साइंस नहीं है। संभव है भारत के खेतिहर समाज में लड़की को गांव के बाहर भेजने की सोच ने इस परंपरा को जन्म दिया हो। एक लंबे समय तक  भारत गांवों पर आश्रित रहा है। अब अगर लड़का लड़की एक ही गांव में शादी कर लेंगे तो सामाजिक दायरा सिमटता चला जाएगा इसलिए गोत्र यानी गांव के बाहर शादी करने का प्रचलन शुरू हुआ होगा। वैदिक कालीन समाज में एक ही आश्रम में रहने वाले लोग एक ही गोत्र के कहलाते थे। यानी एक तरह से पूरा गांव एक आश्रम ही होता था। इसीलिए गोत्र से बाहर शादी करने की परंपरा शुरू हुई। लेकिन जैसे जैसे समाज का स्वरूप बदलता गया यह आग्रह टूटता गया। आज एक एक गोत्र के लोगों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि समगोत्री लोगों में किसी भी तरह की पुरानी पारिवारिकता को ढूंढऩा बेमानी है।
गांवों में दो तरह की पंचायतें होती हैं। एक गांव पंचायत जो विधि सम्मत है और जिसके पदाधिकारी चुने जाते हैं। दूसरी जातीय पंचायतें जो अभी तक पुराने सामाजिक चौधरियों के बूते चल रही हैं। जातीय पंचायतें देश के किसी भी विधि विधान के दायरे में नहीं हैं, वे सामाजिक विश्वासों के बूते चल रही हैं। उनके फैसले पुराने कबीलाई समाज के फैसलों की तरह होते हैं। मानवीय गरिमा से ज्यादा महत्व उनके लिए कबीले के परंपरागत विश्वास और अलिखित कानून हैं। मसलन किसी का सामाजिक बहिष्कार या किसी का सिर मुंड़वा देना अथवा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को पीडि़ता से शादी कर लेने का हुक्म देकर बरी कर देना जैसे फैसले ये पंचायतें देती रहती हैं। इसमें सजा की नरमाई अथवा कड़ाई व्यक्ति के अपराध से नहींं उसकी हैसियत से तय होती है। आज के समय में इन पंचायतों का कोई मतलब रह भी नहीं गया है।
जातीय पंचायतें एक जाति अथवा समुदाय की लड़ाई लड़ती हैं जबकि हमारा संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कटिबद्घ है। कोई किससे शादी करे अथवा कौन सा व्यवसाय चुने या किस दल को वोट दे, ईश्वर पर विश्वास करे या न करे, ईश्वरवादी हो तो किस धर्म में जाए यह उस व्यक्ति के अपने विवेक और सुविधा से तय होगा न कि समाज केे बंधन से। कोई पंचायत या जातियों के मुखिया उसे इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते कि जो हमारा आदेश है वही मानो। मजे की बात तो एक तरफ तो हमारा समाज इतना उदार है कि वह खुद आगे बढ़कर घोषणा करता है कि पुरानी लीक को तोडऩा ही बेहतर है क्योंकि नया काम वही करते हैं जो लीक को तोड़ते हैं दूसरी तरफ ये जातीय पंचायतें पुराने ढर्रे पर चलती हुई लीक को पीटती रहती हैं।
इन पंचायतों का पुराने समय में क्या स्वरूप था इसे लेकर प्रेमचंद और रेणु ने दो अलग-अलग कहानियां लिखी हैं। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर में गांव की एक ऐसी पंचायत का जिक्र है जिसमें बैठते ही जुम्मन शेख अलगू चौधरी के साथ अपनी वर्षों की दुश्मनी को भूल जाते हैं और अपने दुश्मन चौधरी के हक में फैसला देते हैं। वहीं फणीश्वर नाथ रेणु की पंच लाइट में कुर्मियों की एक पंचायत किसी तरह पैसा उगाह कर एक पेट्रोमैक्स खरीदती है। पेट्रोमैक्स कुर्मी पंचायत की जरूरत से ज्यादा उसके जातीय गुरूर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस पेट्रोमैक्स को लाने के बाद इसको जलाने के पहले उसकी पूजा की जाती है और छड़ीदार को सख्त हिदायत है कि पेट्रोमैक्स को बहुत आहिस्ता से लया ले जाया जाए। एक तरह से यह जातीय अस्मिता के झूठे और थोथे अभिमान की कहानी है। एक पेट्रोमैक्स को प्रतीक बनाकर रेणु ने लिखा है कि कैसे जातीय पंचायतें अपनी तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए फिजूल की ड्रामेबाजी करती हैं। आज जब प्रेम के ऊपर जाति के पहरेदार बिठा दिए गए हैं तो रेणु की कहानी एकदम से समीचीन हो उठती है।
लोकतंत्र में गांव की पंचायतों की जरूरत तो हो सकती है लेकिन जातीय पंचायतें अब गैर जरूरी हो गई हैं। अंग्रेजों ने शहरों के विस्तार के लिए तमाम गांवों का औपनिवेशीकरण कर डाला था। उन्होंने अपनी जरूरतों के हिसाब से शहरों को फैलाया और गांवों को उनकी खोल में ही रहने दिया। लाल डोरा की अवधारणा अंग्रेजों ने इसी हिसाब से बनाई थी। दिल्ली को राजधानी चुनते वक्त अंग्रेजों के समक्ष सबसे बड़ी परेशानी दिल्ली के विस्तार की थी। दिल्ली के गंावों को चिन्हित कर अंग्रजों ने सबसे पहले नक्शे में गांवों को एक लाल रंग से घेर दिया और उनकी सारी खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण कर लिया। अंग्रजों के पूरे मास्टर प्लान से दिल्ली के गांव गायब रहे। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली शहर तो फैला लेकिन इसके गांव जस के तस बने रहे। दिल्ली में लाल डोरा आज भी हैं। आजादी के बाद आई सरकारों ने भी विकास के लिए वही अंग्रेजों वाला औपनिवेशिक ढांचा अपना लिया। इसी का नतीजा है कि शहर तो फैल रहे हैं लेकिन न गांव बदल  रहे हैं न वहां के लोगों के सोचने का नजरिया। ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि जाति का दंभ पाले ये पंचायतें नए विचारों के अनुरूप अपने को ढाल पाएंगी।

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