शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

औघड़ लेखक हैं खुशवंत सिंह!

औघड़ लेखक हैं खुशवंत सिंह!
शंभूनाथ शुक्ल
खुशवंत सिंह और मेरे में जमीन आसमान का फर्क है। कह सकते हैं कि वे राजा भोज और मैं गंगू तेली। वे जिस रईसी में पैदा हुए और जिस तरह के तथा जैसे नामी गिरामी स्कूलों में पढ़े उनमें तो मैं घुस तक नहीं सकता। वे जहां रहते हैं अक्सर मैं उस सुजान सिंह पार्क को हसरत भरी निगाहों से देख लेता हूं। लेकिन उनकी पत्रकारिता और उनकी बेबाक जीवनशैली का मैं कायल हूं। खुशवंत सिंह कतई कट्टर नहीं हैं। वे एक अकाली सिख हैं पर गायत्री मंत्र पढ़ते हैं, प्रवेश द्वार पर गणपति की प्रतिमा लगा रखी है और कृपालु जी महाराज उनके पसंदीदा साधु थे। वे एक जमाने में इंदिरा गांधी के करीबी रहे पर आपरेशन ब्लू स्टार के बाद से वे इंदिरा जी पर शक करने लगे और उन्हें लगने लगा कि यह महिला कट्टर ब्राह्मणी ही है। वे अटलबिहारी बाजपेयी के उदार राजनीतिक विचारों और खानपान शैली के प्रशंसक रहे हैं और खुल्लमखुल्ला आडवाणी की भी तारीफ कर दी।
उनके बल्ब को मैने पूरी तईं पढ़ा है। और एक बार जब उन्होंने अपने बल्ब में कानपुर की तमाम बुराइयां कीं। तो मुझे बहुत खराब लगा और मैने उस समय के दैनिक जागरण के संपादक कम मालिक श्री नरेंद्र मोहन से अनुरोध किया कि वे खुशवंत सिंह के बल्ब को छापना बंद कर दें क्योंकि यह कितना खराब लगता है कि आप कानपुर के नंबर वन अखबार हो और आपके यहां ऐसा लेख छपे जिसमें कानपुर की  घोर निंदा की गई है। पर मोहन बाबू को अपना व्यवसाय और व्यावसायिक हित प्यारे थे उन्होंने मेरा सुझाव ठुकरा दिया। तो मैने जनसत्ता में एक लेख लिखा कि वे बेचारे क्या जान पाएंगे कानपुर की जिंदादिली। और कानपुर के प्रति जागरण की इस अवहेलना को भी छापा। मैने अपने लेख में खुशवंत सिंह की खूब लानत-मलामत की। यह शायद १९९१ का साल रहा होगा। जनसत्ता की तब तूती बोला करती थी और चाहे हिंदी का लेखक हो अथवा अंग्रेजी का जनसत्ता जरूर पढ़ता था। दुख है कि इसके पहले और जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद यह रुतबा किसी हिंदी अखबार को नहीं मिला। हालांकि आनंदबाजार पत्रिका और समाज व दिनमणि जैसे वर्नाक्यूलर भाषाओं में निकलने वाले अखबार अपने-अपने प्रदेशों के अभिजात्य वर्गों में खूब पसंद किए जाते हैं पर हिंदी को यह सौभाग्य सिर्फ प्रभाष जोशी वाले जनसत्ता के दिनों में ही मिला था।
खुशवंत सिंह जी ने जनसत्ता में छपा मेरा वह लेख पढ़ा और प्रभाष जी को फोन कर  मेरे बारे में पूछताछ की। फिर बोले कि उस लड़के को कह दो कि कभी आकर मिल ले। प्रभाष जी ने मुझसे कहा कि खुशवंत सिंह तुमसे बहुत नाराज हैं। मैने कहा यह तो होना ही था। बोले- जाकर  मिल लो। खैर, एक दिन मैं पहुंच गया उज्बक की तरह उनके आवास पर। परिचय दिया तो बोले- अच्छा लिखते हो। और लिखो तथा अपने शहर को पसंद तो करते हो लेकिन कुछ उसके लिए करो भी सिर्फ लिखने से कुछ नहीं होने वाला। बात सही थी। मेरा लेख बस गुस्से का इजहार भर था। तत्काल लगा कि कुछ भी हो खुशवंत सिंह गजब के इंसान हैं। आज वे अपनी उम्र के ९९ साल पूरे कर सौवें साल में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे औघड़ लेखक के लगातार सक्रिय बने रहने के लिए मेरी शुभकामनाएं। अब उन्हें सौ साल जीने की शुभकामना देना तो उनका अपमान है। उनके बारे में कहा जाना चाहिए कि जिया तू हजार साला!

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