सावधान! आगे घना कोहरा है
शंभूनाथ शुक्ल
कोहरे की चादर ने पूरे उत्तर भारत को घेर रखा है। कश्मीर घाटी से लेकर उत्तरी व पूर्वी प्रदेशों के सुदूर इलाकों तक कोहरे की सफेद चादर फैली है। दृश्यता लगभग शून्य है। ट्रेनें, हवाई जहाज और सड़क परिवहन अस्त-व्यस्त है। लेकिन देखिए कि प्रकृति की यह निर्ममता भी जीवन की गति को जरा भी रोक नहीं पाती है। अलस्सुबह टहलने निकले बुजुर्गों से लेकर स्कूल जाते बच्चों और नौकरी पर निकले लोगों की रेलमपेल सड़कों पर वैसी ही व्यस्तता बनाए रखती है जैसी कि आम दिनों में होती है। घने कोहरे में सड़क पर गाड़ी चलाते हुए लगता है कि काश! हमारी आँखें कोहरे की चादर के पार देख सकतीं। हमें नहीं पता कहां कोई डंफर यमदूत बनकर हमें लील जाए अथवा कोई ट्रैक्टर अपनी ट्राली समेत हमारी गाड़ी के ऊपर आ गिरे। सड़क सरकार ने बनवा दी है पर सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
हमारे एक सहकर्मी हैं जो अरसे तक नार्वे में रहे हैं। जिन्हें योरोप की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान होगा उन्हें यह ज्ञात होगा कि नार्वे उत्तरी ध्रुव के पास का ऐसा भूभाग है जहां साल में छह महीने सूरज नहीं डूबता और बाकी में निकलता नहीं है। इसके बावजूद इस छोटे से देश के वासियों ने अपनी मेहनत, लगन और जिजीविषा के बूते प्रकृति की इस निर्ममता के खिलाफ एक ऐसा तंत्र विकसित कर लिया है कि नार्वे उन विकसित मुल्कों में से है जो दुनिया भर को अपनी जाने कितनी चीजें निर्यात करता है और बदले में खाद्य सामग्री खरीदता है। हमारे वो सहकर्मी बताते हैं कि नार्वे में सोशल सिक्योरिटी इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों वहां काम करने की एवज मेें उन्हें ६२ साल की उम्र के बाद नार्वेजियन मुद्रा में इतनी ज्यादा पेंशन मिलेगी जिसकी कीमत यहां कोई १०५००/- महीना होती है। अब इसके उलट जरा अपने यहां की बानगी देखिए। नए साल के पहले ही दिन हावड़ा से दिल्ली आने वाली सारी ट्रेनें दस से बीस घंटे तक की देरी से चल रही थीं। आगरा से ग्रेटर नोएडा तक बने यमुना एक्सप्रेस वे पर सौ किमी लंबा जाम लगा था। मालूम हो कि इस मार्ग पर १६५ किमी की दूरी तय करने के लिए ३२० रुपये टोल टैक्स देना पड़ता है। लेकिन सुविधा के नाम पर सिफर।
हर साल कोहरे में ट्रेनें टकराती हैं। मंहगे टोल वाले राजमार्गों पर कारें, बसें, ट्रक तो भिड़ते ही रहते हैं। सैकड़ों लोग हर साल इन दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं। हवाई सेवाओं का तो बुरा हाल है। कभी बारिश के चलते फ्लाइट रद्द होती है तो कभी कोहरे के कारण और अगर मौसम एकदम साफ रहा तो भी रन वे पर कंजेशन के चलते आसमान में ही जहाज चक्कर लगाया करते हैं। नतीजा यह होता है कि मुंबई से दिल्ली का सफर दो घंटे के बजाय तीन से चार घंटों के बीच पूरा हो पाता है। लेकिन सरकार को जनता की इन तकलीफों से कोई वास्ता नहीं होता। प्राकृतिक आपदा बताकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। क्या कोहरा, बारिश या सूखे को सिर्फ इसलिए अनदेखा किया जाए क्योंकि ये प्राकृतिक आपदाएं हैं। क्या सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती कि प्रति वर्ष नियम से आने वाली इन आपदाओं से लडऩे के लिए कोई सटीक वैज्ञानिक पहल की जाए। हाल में तिरुअनंतपुरम में हुई साइंस कांग्रेस में अंतरिक्ष में विजय यात्रा की स्तुति तो की गई लेकिन इस पर रत्ती भर विचार नहीं हुआ कि हमारे देश की इन प्राकृतिक विपदाओं से कैसे निपटा जाए।
एक छोटा सा मुल्क नार्वे साइंस में भी हमसे कहीं आगे है। हम अंतरिक्ष तथा दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव की अपनी विजय यात्राओं का कितना भी स्तुतिगान करते रहें लेकिन योरोप का हर देश वहां पहले से झंडा गाड़े है। लेकिन ये मुल्क अपने देश के वासियों को यह भरोसा भी देते हैं कि आपकी सुरक्षा की गारंटी भी हमारे पास है। घने कोहरे में भी वहां के विमान सकुशल लैंडिंग करते हैं और त्वरित सेवाओं के बावजूद उनके रन वे पर इतनी जगह होती है कि विमान समय पर उतर जाएं। हर ट्रैक पर वाहन सुरक्षित गुजरते हैं। योरोप ही नहीं एशिया में भी चीन, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और कोरिया तक प्रकृति की विभीषिकाओं से हमारी तुलना में ज्यादा सुगमता और सहजता से लड़ लेते हैं लेकिन हमारे देश में अभी जनता को मूलभूत सुविधाएं तक मुहैया नहीं हैं। चीन और जापान में बुलेट ट्रेन की रफ्तार इतनी है कि दिल्ली से कानपुर तक की दूरी को महज ७५ मिनट में पूरा किया जा सकता है और यहां हालत यह है कि रात ९.२० पर दिल्ली से छूटी प्रयागराज कानपुर के आउटर स्टेशन पनकी से सुबह ८.४० पर खिसकी। यानी ग्यारह घंटों से भी ज्यादा समय में गाड़ी कुल लगभग ४२५ किमी का सफर ही तय कर पाई जबकि प्रयागराज एक्सप्रेस द्रुत गति वाली ट्रेन है और उसमें सफर करने के लिए अतिरिक्त पैसा देना पड़ता है।
यह लज्जा की बात है कि हमारी सरकारें अभी तक देश के लोगों को किसी भी तरह की सुरक्षा की गारंटी नहीं प्रदान कर पाई हैं। यहां तक कि उनके मूलभूत अधिकारों की गारंटी भी। जिस मुल्क में आदमी इसलिए सड़क पर न निकले कि पता नहीं कब कोहरा, आँधी या तूफान उसका रास्ता रोक ले या कब उन मार्गों पर भी उसे विपदाओं का सामना करना पड़ जाए जिन पर से गुजरने के लिए उसे अतिरिक्त कर देना पड़ता है या इन सारे करों के भुगतान के बावजूद भी उसे कोई सामाजिक सुरक्षा न मिले तो कहना ही होगा हम शर्मिंदा हैं।
शंभूनाथ शुक्ल
कोहरे की चादर ने पूरे उत्तर भारत को घेर रखा है। कश्मीर घाटी से लेकर उत्तरी व पूर्वी प्रदेशों के सुदूर इलाकों तक कोहरे की सफेद चादर फैली है। दृश्यता लगभग शून्य है। ट्रेनें, हवाई जहाज और सड़क परिवहन अस्त-व्यस्त है। लेकिन देखिए कि प्रकृति की यह निर्ममता भी जीवन की गति को जरा भी रोक नहीं पाती है। अलस्सुबह टहलने निकले बुजुर्गों से लेकर स्कूल जाते बच्चों और नौकरी पर निकले लोगों की रेलमपेल सड़कों पर वैसी ही व्यस्तता बनाए रखती है जैसी कि आम दिनों में होती है। घने कोहरे में सड़क पर गाड़ी चलाते हुए लगता है कि काश! हमारी आँखें कोहरे की चादर के पार देख सकतीं। हमें नहीं पता कहां कोई डंफर यमदूत बनकर हमें लील जाए अथवा कोई ट्रैक्टर अपनी ट्राली समेत हमारी गाड़ी के ऊपर आ गिरे। सड़क सरकार ने बनवा दी है पर सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
हमारे एक सहकर्मी हैं जो अरसे तक नार्वे में रहे हैं। जिन्हें योरोप की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान होगा उन्हें यह ज्ञात होगा कि नार्वे उत्तरी ध्रुव के पास का ऐसा भूभाग है जहां साल में छह महीने सूरज नहीं डूबता और बाकी में निकलता नहीं है। इसके बावजूद इस छोटे से देश के वासियों ने अपनी मेहनत, लगन और जिजीविषा के बूते प्रकृति की इस निर्ममता के खिलाफ एक ऐसा तंत्र विकसित कर लिया है कि नार्वे उन विकसित मुल्कों में से है जो दुनिया भर को अपनी जाने कितनी चीजें निर्यात करता है और बदले में खाद्य सामग्री खरीदता है। हमारे वो सहकर्मी बताते हैं कि नार्वे में सोशल सिक्योरिटी इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों वहां काम करने की एवज मेें उन्हें ६२ साल की उम्र के बाद नार्वेजियन मुद्रा में इतनी ज्यादा पेंशन मिलेगी जिसकी कीमत यहां कोई १०५००/- महीना होती है। अब इसके उलट जरा अपने यहां की बानगी देखिए। नए साल के पहले ही दिन हावड़ा से दिल्ली आने वाली सारी ट्रेनें दस से बीस घंटे तक की देरी से चल रही थीं। आगरा से ग्रेटर नोएडा तक बने यमुना एक्सप्रेस वे पर सौ किमी लंबा जाम लगा था। मालूम हो कि इस मार्ग पर १६५ किमी की दूरी तय करने के लिए ३२० रुपये टोल टैक्स देना पड़ता है। लेकिन सुविधा के नाम पर सिफर।
हर साल कोहरे में ट्रेनें टकराती हैं। मंहगे टोल वाले राजमार्गों पर कारें, बसें, ट्रक तो भिड़ते ही रहते हैं। सैकड़ों लोग हर साल इन दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं। हवाई सेवाओं का तो बुरा हाल है। कभी बारिश के चलते फ्लाइट रद्द होती है तो कभी कोहरे के कारण और अगर मौसम एकदम साफ रहा तो भी रन वे पर कंजेशन के चलते आसमान में ही जहाज चक्कर लगाया करते हैं। नतीजा यह होता है कि मुंबई से दिल्ली का सफर दो घंटे के बजाय तीन से चार घंटों के बीच पूरा हो पाता है। लेकिन सरकार को जनता की इन तकलीफों से कोई वास्ता नहीं होता। प्राकृतिक आपदा बताकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। क्या कोहरा, बारिश या सूखे को सिर्फ इसलिए अनदेखा किया जाए क्योंकि ये प्राकृतिक आपदाएं हैं। क्या सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती कि प्रति वर्ष नियम से आने वाली इन आपदाओं से लडऩे के लिए कोई सटीक वैज्ञानिक पहल की जाए। हाल में तिरुअनंतपुरम में हुई साइंस कांग्रेस में अंतरिक्ष में विजय यात्रा की स्तुति तो की गई लेकिन इस पर रत्ती भर विचार नहीं हुआ कि हमारे देश की इन प्राकृतिक विपदाओं से कैसे निपटा जाए।
एक छोटा सा मुल्क नार्वे साइंस में भी हमसे कहीं आगे है। हम अंतरिक्ष तथा दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव की अपनी विजय यात्राओं का कितना भी स्तुतिगान करते रहें लेकिन योरोप का हर देश वहां पहले से झंडा गाड़े है। लेकिन ये मुल्क अपने देश के वासियों को यह भरोसा भी देते हैं कि आपकी सुरक्षा की गारंटी भी हमारे पास है। घने कोहरे में भी वहां के विमान सकुशल लैंडिंग करते हैं और त्वरित सेवाओं के बावजूद उनके रन वे पर इतनी जगह होती है कि विमान समय पर उतर जाएं। हर ट्रैक पर वाहन सुरक्षित गुजरते हैं। योरोप ही नहीं एशिया में भी चीन, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और कोरिया तक प्रकृति की विभीषिकाओं से हमारी तुलना में ज्यादा सुगमता और सहजता से लड़ लेते हैं लेकिन हमारे देश में अभी जनता को मूलभूत सुविधाएं तक मुहैया नहीं हैं। चीन और जापान में बुलेट ट्रेन की रफ्तार इतनी है कि दिल्ली से कानपुर तक की दूरी को महज ७५ मिनट में पूरा किया जा सकता है और यहां हालत यह है कि रात ९.२० पर दिल्ली से छूटी प्रयागराज कानपुर के आउटर स्टेशन पनकी से सुबह ८.४० पर खिसकी। यानी ग्यारह घंटों से भी ज्यादा समय में गाड़ी कुल लगभग ४२५ किमी का सफर ही तय कर पाई जबकि प्रयागराज एक्सप्रेस द्रुत गति वाली ट्रेन है और उसमें सफर करने के लिए अतिरिक्त पैसा देना पड़ता है।
यह लज्जा की बात है कि हमारी सरकारें अभी तक देश के लोगों को किसी भी तरह की सुरक्षा की गारंटी नहीं प्रदान कर पाई हैं। यहां तक कि उनके मूलभूत अधिकारों की गारंटी भी। जिस मुल्क में आदमी इसलिए सड़क पर न निकले कि पता नहीं कब कोहरा, आँधी या तूफान उसका रास्ता रोक ले या कब उन मार्गों पर भी उसे विपदाओं का सामना करना पड़ जाए जिन पर से गुजरने के लिए उसे अतिरिक्त कर देना पड़ता है या इन सारे करों के भुगतान के बावजूद भी उसे कोई सामाजिक सुरक्षा न मिले तो कहना ही होगा हम शर्मिंदा हैं।
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