दिल्ली की सरदी से ठिठुरता बसंत
शंभूनाथ शुक्ल
साल १९६५ की बात है। उस वर्ष २६ जनवरी को बसंत पंचमी पड़ी थी। मैं तब कानपुर के गोविंद नगर इलाके में स्थित गांधी स्मारक इंटर कालेज में छठी दरजे में पढ़ता था। स्कूल में गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए सुबह नौ बजे तैयार होकर मैं स्कूल पहुंचा। बसंत पंचमी होने के कारण मां ने पीले रंग की कमीज पहनने के लिए कहा। इस रंग की कोई शर्ट गरम कपड़े की तो थी नहींं इसलिए मलमल के कपड़े की शर्ट पहन कर स्कूल में गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम देखने गया। वहां मुझे एक कविता पढऩी थी। पता नहीं भूल वश अथवा प्रिंसीपल रामनायक शुक्ल के डर के कारण मेरे मुंह से गणतंत्र दिवस की बजाय स्वतंत्रता दिवस निकल गया। कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद मुझे प्रिंसीपल रूम में बुलाया गया। मुझे लगा कि शायद पुरस्कार मिलेगा लेकिन वहां उपस्थित मेरी क्लास टीचर सुरजीत कौर ने बबूल की छड़ी से मेरी जमकर पिटाई की और कहा कि स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त को कहते हैं तथा २६ जनवरी को गणतंत्र दिवस। उस दिन यह लगा था कि काश आज कोई गरम कपड़ा पहन रखा होता तो छड़ी की पिटाई इतना दर्द न करती। पर बसंत पंचमी के साथ ही हम मान लेते थे कि अब गई सरदी इसलिए बसंत के साथ ही इक्का दुक्का स्वेटर ही पहने जाते रहे हैं।
लेकिन इस साल की बसंत पंचमी एकदम उलट रही। स्वेटर उतारना तो दूर चमड़े की जैकेट तक लोगों ने नहीं उतारीं। मेरी उम्र ५९ साल की हो चुकी है और मैने अब तक कभी बसंंत पंचमी के दिन इतनी सरदी नहीं महसूस की। बसंत पंचमी को सूरज की किरणें ताप देने लगती थीं। सुबह कुछ जल्दी होने लगती और शाम को भी सूरज ठिठकने लगता था। २२ दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता है और उसी के बाद से दिन कुछ थमने लगता था इसीलिए २५ दिसंबर को बड़ा दिन भी कहा जाता है। पर इस बार मजा देखिए कि करीब एक महीने बीत जाने के बाद भी पता नहीं चला कि सूरज कितना ठिठका क्योंकि सूरज एक भी दिन निकला ही नहीं। २० दिसंबर से कोहरा पडऩा शुरू हुआ था और २ फरवरी तक बदस्तूर जारी रहा। इसलिए बसंत के आने की खुशी मनानी दूभर हो गई।
बसंत पंचमी से आम के पेड़ों में बौर आने लगती है। बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा की परंपरा बंगाल के ब्राह्मïो लोगों ने डाली वरना इसके पहले बसंत पंचमी से मदनोत्ससव मनाने की परंपरा चली आ रही थी। मदनोत्सव होली तक अनवरत चलता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाणभट्ट की आत्मकथा में मदनोत्सव का व्यापक वर्णन किया है जो इसी बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता था। कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत यानी मधुमास का वर्णन अत्यंत लावण्यमय तरीके से किया है। रांगेय राघव द्वारा उसके अनुवाद में यह वर्णन कुछ इस तरह है-
प्रिये मधु आया सुकोमल,
तीक्ष्ण गायक-आम और प्रफुल्ल की कर में उठाए।
भ्रमर माला की मुकर अभिराम प्रत्यंचा चढ़ाए।
सुरत सर से हृदय को करता विदग्ध विदीर्ण व्याकुल।
प्रिये! वीर बसंत योद्घा आ गया मदपूर्ण चंचल।
कालिदास ने बसंत के साथ ही गरमी की आहट का संकेत समझा। यूं भी भयंकर शीत के बाद मधुमास का आगमन चित्त को ऊष्मा देता है। हिंदी कवि निराला ने भी जूही की कली में बसंंत को कोमल और मन को हरषाने वाला बताया है।
सखि बसंत आया,
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव लय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिका,
मधुप वृन्द बन्दी,
पिक स्वर नभ सरसाया।
यह सच है कि इस साल बसंत पंचमी ४ फरवरी को पड़ गई। यह हर साल बदला करती है क्योंकि अपने यहां परंपरा से जिस विक्रमी कलेंडर से तिथियां मान्य हैं वह चंद्रमा की गति से चलता है। चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा २७.३ दिनों में पर पृथ्वी की आकृति वलयाकार होने के कारण कभी वह इसे २९.५ दिन में पूरी कर पाता है। इसलिए चंद्रमास से हर महीना कुछ न कुछ दिन घटता बढ़ता रहता है और इसे पूरा करने के लिए हर दो साल के अंतराल के बाद अधिमास मना कर ऋतुओं को यथावत कर लिया जाता है। दूसरी तरफ सूर्य गणना से बना गे्रगेरियन या ईस्वी कलेंडर झंझटी भले कम दिखता हो लेकिन उसकी गणना में भूमंडलवाद ज्यादा है सटीकता कम। खगोल शास्त्र के विद्वानों का कहना है कि ईस्वी कलेंडर में गणना सही नहीं है क्योंकि पृथ्वी ३६५ दिन ५ घंटे ४९ मिनट और १२ सेकेंड में सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य की परिक्रमा की इस अवधि को एक वर्ष बताया गया है। अब ये ५.४९.१२ घंटे तो जोड़कर हर चौथे साल फरवरी २९ दिनों की कर दी जाती है। लेकिन सेकेंंड की गणना इस कलेंडर में छोड़ दी गई है। पर एक न एक दिन तो यह गणना उलट-पलट जाएगी। इसकी काट अभी तक नहीं तलाशी गई है। यही तो भूमंडलीकरण है कि जब संकट आएगा तब ही उसका समाधान खोज लिया जाएगा इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो।
चंद्रमास की तिथियों से बंधे होने के कारण ही इस साल बसंत पंचमी जनवरी की २० तारीख को पड़ गई। लेकिन विक्रमी कलेंडर में अधिमास की मान्यता मिली होने के कारण इस कलेंडर के आधार पर मनाए जाने वाले त्योहार ऋतुओं के आधार पर आते हैं। मसलन दीपावली सरदी की शुरुआत में ही आएगी और होली गरमी की आहट के साथ। भले वे त्योहार अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से १०-१५-२० दिनों के हेरफेर से पड़ें। चूंकि भारत ऊष्ण कटिबंधीय देश है इसलिए यहां के प्रचलित कलेंंडरों में अधिमास की परंपरा न होती तो बड़ा मुश्किल हो जाता। कैसा अजीब लगता जब दीपावली बरसात में और होली शिशिर में पड़ रही होती।
एक बहुरंगी और किसी नियम के बंधनों से न जुड़े होने का फायदा भारतीय समाज को मिला हुआ है। यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को बराबर की हैसियत प्राप्त है इसलिए काम को भी यहां वही नैतिक मान्यता है जो धर्म को है। लेकिन १९वीं शताब्दी के रेनेसाँ से शुरू हुए नैतिकतावादियों ने त्योहारों की परंपरा को कुछ अलग किस्म का बना दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि त्योहारों में उल्लास और मादकता कम उनमें कर्मकांड ज्यादा जुड़ गया।
बसंत पंचमी को सर्दी का कम न हो पाने से अब यह डर तो सताने ही लगा है कि क्या कोपेनहेगेन का भूत अब भारतीय त्योहारों में भी घुस गया है और हम वाकई ग्लोबल चिल्लड के शिकार हो गए हैं जो बसंत जैसा त्योहार भी भयानक शीतलहर में गुजरा। पंजाब से लेकर बांग्लादेश तक यह त्योहार अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है। कहीं सरस्वती पूजा तो कहीं सरसों के बिरवे की पूजा लेकिन यह सच है कि सभी जगह इस त्योहार में मस्ती का आलम मौजूद रहता है।
शंभूनाथ शुक्ल
साल १९६५ की बात है। उस वर्ष २६ जनवरी को बसंत पंचमी पड़ी थी। मैं तब कानपुर के गोविंद नगर इलाके में स्थित गांधी स्मारक इंटर कालेज में छठी दरजे में पढ़ता था। स्कूल में गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए सुबह नौ बजे तैयार होकर मैं स्कूल पहुंचा। बसंत पंचमी होने के कारण मां ने पीले रंग की कमीज पहनने के लिए कहा। इस रंग की कोई शर्ट गरम कपड़े की तो थी नहींं इसलिए मलमल के कपड़े की शर्ट पहन कर स्कूल में गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम देखने गया। वहां मुझे एक कविता पढऩी थी। पता नहीं भूल वश अथवा प्रिंसीपल रामनायक शुक्ल के डर के कारण मेरे मुंह से गणतंत्र दिवस की बजाय स्वतंत्रता दिवस निकल गया। कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद मुझे प्रिंसीपल रूम में बुलाया गया। मुझे लगा कि शायद पुरस्कार मिलेगा लेकिन वहां उपस्थित मेरी क्लास टीचर सुरजीत कौर ने बबूल की छड़ी से मेरी जमकर पिटाई की और कहा कि स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त को कहते हैं तथा २६ जनवरी को गणतंत्र दिवस। उस दिन यह लगा था कि काश आज कोई गरम कपड़ा पहन रखा होता तो छड़ी की पिटाई इतना दर्द न करती। पर बसंत पंचमी के साथ ही हम मान लेते थे कि अब गई सरदी इसलिए बसंत के साथ ही इक्का दुक्का स्वेटर ही पहने जाते रहे हैं।
लेकिन इस साल की बसंत पंचमी एकदम उलट रही। स्वेटर उतारना तो दूर चमड़े की जैकेट तक लोगों ने नहीं उतारीं। मेरी उम्र ५९ साल की हो चुकी है और मैने अब तक कभी बसंंत पंचमी के दिन इतनी सरदी नहीं महसूस की। बसंत पंचमी को सूरज की किरणें ताप देने लगती थीं। सुबह कुछ जल्दी होने लगती और शाम को भी सूरज ठिठकने लगता था। २२ दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता है और उसी के बाद से दिन कुछ थमने लगता था इसीलिए २५ दिसंबर को बड़ा दिन भी कहा जाता है। पर इस बार मजा देखिए कि करीब एक महीने बीत जाने के बाद भी पता नहीं चला कि सूरज कितना ठिठका क्योंकि सूरज एक भी दिन निकला ही नहीं। २० दिसंबर से कोहरा पडऩा शुरू हुआ था और २ फरवरी तक बदस्तूर जारी रहा। इसलिए बसंत के आने की खुशी मनानी दूभर हो गई।
बसंत पंचमी से आम के पेड़ों में बौर आने लगती है। बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा की परंपरा बंगाल के ब्राह्मïो लोगों ने डाली वरना इसके पहले बसंत पंचमी से मदनोत्ससव मनाने की परंपरा चली आ रही थी। मदनोत्सव होली तक अनवरत चलता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाणभट्ट की आत्मकथा में मदनोत्सव का व्यापक वर्णन किया है जो इसी बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता था। कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत यानी मधुमास का वर्णन अत्यंत लावण्यमय तरीके से किया है। रांगेय राघव द्वारा उसके अनुवाद में यह वर्णन कुछ इस तरह है-
प्रिये मधु आया सुकोमल,
तीक्ष्ण गायक-आम और प्रफुल्ल की कर में उठाए।
भ्रमर माला की मुकर अभिराम प्रत्यंचा चढ़ाए।
सुरत सर से हृदय को करता विदग्ध विदीर्ण व्याकुल।
प्रिये! वीर बसंत योद्घा आ गया मदपूर्ण चंचल।
कालिदास ने बसंत के साथ ही गरमी की आहट का संकेत समझा। यूं भी भयंकर शीत के बाद मधुमास का आगमन चित्त को ऊष्मा देता है। हिंदी कवि निराला ने भी जूही की कली में बसंंत को कोमल और मन को हरषाने वाला बताया है।
सखि बसंत आया,
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव लय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिका,
मधुप वृन्द बन्दी,
पिक स्वर नभ सरसाया।
यह सच है कि इस साल बसंत पंचमी ४ फरवरी को पड़ गई। यह हर साल बदला करती है क्योंकि अपने यहां परंपरा से जिस विक्रमी कलेंडर से तिथियां मान्य हैं वह चंद्रमा की गति से चलता है। चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा २७.३ दिनों में पर पृथ्वी की आकृति वलयाकार होने के कारण कभी वह इसे २९.५ दिन में पूरी कर पाता है। इसलिए चंद्रमास से हर महीना कुछ न कुछ दिन घटता बढ़ता रहता है और इसे पूरा करने के लिए हर दो साल के अंतराल के बाद अधिमास मना कर ऋतुओं को यथावत कर लिया जाता है। दूसरी तरफ सूर्य गणना से बना गे्रगेरियन या ईस्वी कलेंडर झंझटी भले कम दिखता हो लेकिन उसकी गणना में भूमंडलवाद ज्यादा है सटीकता कम। खगोल शास्त्र के विद्वानों का कहना है कि ईस्वी कलेंडर में गणना सही नहीं है क्योंकि पृथ्वी ३६५ दिन ५ घंटे ४९ मिनट और १२ सेकेंड में सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है। सूर्य की परिक्रमा की इस अवधि को एक वर्ष बताया गया है। अब ये ५.४९.१२ घंटे तो जोड़कर हर चौथे साल फरवरी २९ दिनों की कर दी जाती है। लेकिन सेकेंंड की गणना इस कलेंडर में छोड़ दी गई है। पर एक न एक दिन तो यह गणना उलट-पलट जाएगी। इसकी काट अभी तक नहीं तलाशी गई है। यही तो भूमंडलीकरण है कि जब संकट आएगा तब ही उसका समाधान खोज लिया जाएगा इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो।
चंद्रमास की तिथियों से बंधे होने के कारण ही इस साल बसंत पंचमी जनवरी की २० तारीख को पड़ गई। लेकिन विक्रमी कलेंडर में अधिमास की मान्यता मिली होने के कारण इस कलेंडर के आधार पर मनाए जाने वाले त्योहार ऋतुओं के आधार पर आते हैं। मसलन दीपावली सरदी की शुरुआत में ही आएगी और होली गरमी की आहट के साथ। भले वे त्योहार अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से १०-१५-२० दिनों के हेरफेर से पड़ें। चूंकि भारत ऊष्ण कटिबंधीय देश है इसलिए यहां के प्रचलित कलेंंडरों में अधिमास की परंपरा न होती तो बड़ा मुश्किल हो जाता। कैसा अजीब लगता जब दीपावली बरसात में और होली शिशिर में पड़ रही होती।
एक बहुरंगी और किसी नियम के बंधनों से न जुड़े होने का फायदा भारतीय समाज को मिला हुआ है। यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को बराबर की हैसियत प्राप्त है इसलिए काम को भी यहां वही नैतिक मान्यता है जो धर्म को है। लेकिन १९वीं शताब्दी के रेनेसाँ से शुरू हुए नैतिकतावादियों ने त्योहारों की परंपरा को कुछ अलग किस्म का बना दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि त्योहारों में उल्लास और मादकता कम उनमें कर्मकांड ज्यादा जुड़ गया।
बसंत पंचमी को सर्दी का कम न हो पाने से अब यह डर तो सताने ही लगा है कि क्या कोपेनहेगेन का भूत अब भारतीय त्योहारों में भी घुस गया है और हम वाकई ग्लोबल चिल्लड के शिकार हो गए हैं जो बसंत जैसा त्योहार भी भयानक शीतलहर में गुजरा। पंजाब से लेकर बांग्लादेश तक यह त्योहार अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है। कहीं सरस्वती पूजा तो कहीं सरसों के बिरवे की पूजा लेकिन यह सच है कि सभी जगह इस त्योहार में मस्ती का आलम मौजूद रहता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें