सोमवार, 10 दिसंबर 2012

बीहड़

शंभूनाथ शुक्ल
चंबल के बीहड़ों के बारे में गुडिय़ा का बयान रोंगटे खड़े कर देने वाला है लेकिन बीहड़ का उसका वर्णन एकदम लाइव है। सन् २००४ की एक फरवरी को मैं निर्भय गूजर से मिलने उसके ठिकाने पर गया था। उस वक्त भी बीहड़ ऐसे ही खौफनाक थे। तब मैं अमर उजाला के कानपुर संस्करण में स्थानीय संपादक था और निर्भय से मिलने का वक्त हमारे उरई के ब्यूरो प्रमुख अनिल शर्मा ने फिक्स किया था। कानपुर दफ्तर के दो वरिष्ठ संवाददाता और एक फोटोग्राफर हमारे साथ था।
उरई से हम यानी कि शैलेश और शैलेंद्र और अनिल घंटे भर बाद माधोगढ़ पहुंचे। वहां से अमित पोरवाल हमारे साथ हो लिए। अमित को ही बीहड़ के रास्ते मालूम थे। करीब दस किमी तक हम भयानक बीहड़ में गाड़ी चलाते रहे। आगे पहुज नदी के तट पर सड़क खत्म हो गई। मील भर के करीब रेतीले मैदान में चलने के बाद सामने पहुज दिखी जो साफ और निर्मल जल को समेटे तीव्र गति से बह रही थी। नदी पार करने के लिए कोई नाव नहीं, उधर दोपहर ढल रही थी। पोरवाल ने तब तक करील के पेड़ों के झुंड से एक  बड़ा सा पटरा खोज निकाला साथ ही एक पतवार भी। पोरवाल ने बताया कि डकैत इसका इस्तेमाल नदी पार करने के लिए करते हैं। यानी खुद नाव को खेओ। हमने नदी पार की। उस पार का तट काफी ऊंचाई पर था। पटरे से उतरने के बाद कुछ दूरी तक कीचड़ भी था। किसी तरह उसे पार करते हुए हम कगार पर चढ़कर ऊपर आए। यह उत्तर प्रदेश की सीमा का आखिरी गांव था। एक तरह से डकैतों व यूपी पुलिस के बीच संधिरेखा भी यहीं से समाप्त होती थी। यहां पीएसी की एक कंपनी डेरा डाले थी। हमारे उतरते ही वे लोग आ गए। इस कंपनी का कमांडर मेरे गांव का ही निकला। पहुज चंबल से भी ज्यादा तीव्र गति से बहती है इसलिए किनारों को तेजी से काटती है। उसके दोनों तरफ मीलों तक ऊंची-नीची खाईयां हैं और घने करील के जंगल भी जिन्हें भेदना पुलिस के बूते से बाहर है। कई जगह तो हालत यह होती है कि पास से गुजर रहा शख्स भी नहीं दिखता है। राधेश्याम ने सादे कपड़ों में पीएसी के कुछ जवान भी हमारे साथ रास्ता दिखाने के लिए भेजे। पर वो एक प्वाइंट के बाद लौट गए। आगे का रास्ता उनके साथ जाना सेफ नहीं था। अब पोरवाल ही हमारा गाइड था। 
रास्ता और भी बीहड़ व खाई खंदक वाला होता जा रहा था। जरा सी भी आहट हमें चौंका देती। वहां डकैतों के साथ-साथ जंगली जानवरों का भी खतरा था। हम करीब आधा मील चले और एक ऊँचे कगार पर ठहर गए। वहंा बबूल का एक घना जंगल था। यही निर्भय का डेरा है, पोरवाल ने हमें बताया। हम आगे बढ़े तो देखा कि जगह-जगह पर बबूल के कांटों की बाड़ लगाकर रास्ता रोक रखा गया है। पोरवाल ने हमें वहीं रोक दिया। उसने फुसफुसाते हुए कहा कि निर्भय यहीं है। निर्भय के वहींं होने की खबर से हम रोमांचित हो गए। सब दम साधे खड़े थे किसी के मुंह से बोल नहीं फूट रहा था। हम करीब आधे घंटे वहीं खड़े रहे पर जंगल की तरफ से कोई नहीं आया न कोई आहट हुई। कुछ सरसराने की या पत्ते खड़कने की आवाजें जरूर आईं लेकिन न तो फायरिंग की न किसी आदमी के वहां होने का आभास मिला। हिम्मत कर हमने कांटों की बाड़ हटाई और अंदर घुसे। एक जगह कुछ अधजली बीडिय़ों के ढेर दिखे उसी के पास मेक्डावेल नंबर वन की बोतल पड़ी हुई थी जिसमें कुछ शराब अभी बाकी थी। एक गढ्ढे में तमाम देसी शराब के पाउच और कुछ बोतलें फेंकी गई थीं। मिट्टी के एक चूल्हे में लकड़ी सुलग रही थी। एक जगह किसी स्त्री का झंफर फटा पड़ा था। एक कुरता दिखा और कुछ लाल रंग के लंगोट, एक साड़ी व एक पेटीकोट एक अलगनी में पड़े थे। ऐसा लग रहा था कि कुछ समय पहले ही यहां से लोग गए हैं।
पोरवाल ने कहा कि हमसे कुछ गड़बड़ हो गई है। लगता है कि डकैत हमें आता देख ही यहां  से चले गए हैं। उन्होंने हमें गाड़ी से उतरते ही देख लिया था। हो सकता है कि उनके पास कोई नई पकड़ सहेजने के लिए बाहर से भेजी गई हो और वे उसे छिपाकर रखना चाहते हों।

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