जो बहती है वह गंगा माँ है!
गंगा की अविरल 
धारा को देखकर मेरी भी आँखें ठीक उसी तरह भीग जाती हैं जैसी कि पंडित 
जवाहरलाल नेहरू की भीगा करती थीं। पंडित जी अक्सर इलाहाबाद में संगम तट पर 
जाते और वहां त्रिवेणी की धारा को देखकर सोचा करते कि गंगा ही हमारी
 सभ्यता और संस्कृति है। अगर गंगा नहीं होती तो ये गंगा जमना का मैदान नहीं
 होता और हमारे चिंतन प्रक्रिया में वह विविधता नहीं आती और न ही सद्भाव 
आता जो यहां मौजूद है। सोचिए गंगा ने हमें कितना कुछ दिया है। वह अल्हड़ता,
 वह मस्ती और फक्कड़ी जिसके चलते हमारी चिंतन प्रक्रिया में असहिष्णुता और 
उदारता आई जो देश मेें और कहीं नहीं है क्योंकि बाकी सब जगह का मौसम सम है 
और वहां एकरस जीवन है। गंगा की धारा के साथ बहना और उसके उद्गम स्थल गोमुख 
से लेकर गंगा सागर तक मैं कई दफे गया हूं। मैं कोई छद्म राष्ट्रवादी नहीं 
हूं कि गंगा सफाई जैसे कुतर्की अभियान चलाऊँ या विकास की धारा को अवरुद्ध 
करने की नीयत से गंगा की धारा को अपने तईं स्वच्छ करने का दंभ पालूं। विश्व
  में गंगा को कोई भी अनंत काल से नहीं बांध पाया है क्योंकि गंगा एकमात्र 
जीवित देवता हैं। इसलिए उन्हें पवित्र करने का दंभ कुछ छद्म और झूठे 
राष्ट्रवादी ही पालते हैं। जिस गंगा के प्रवाह पर मुग्ध होकर पंडित जगन्नाथ
 ने गंगा लहरी और आदि शंकराचार्य ने गंगा स्त्रोत रचा वह गंगा किसी छद्म व 
भ्रम में नहीं बहती है। वह बहती है क्योंकि बहना उसकी निरंतरता का द्योतक 
है। मूर्ख हैं जो गंगा के खत्म होने से डरे हुए हैं। गंगा तब ही खत्म होगी 
जब यह सृष्टि खत्म होगी। वह अपना रास्ता खुद तय करती है, अपने बांधने के 
अभियान से खुद रुष्ट होती है और प्रलय ढा देती है। इसलिए गंगा को बचाने 
अथवा उसे साफ करने का अभियान बेमानी है। चलाना है तो सुंदर लाल बहुगुणा की 
तरह गंगा के रुष्ट नहीं होने का अभियान चलाओ। पर मजा देखिए कि एक तरफ तो 
वाराणसी में गंगा सफाई अभियान चलाया जाता है दूसरी तरफ टिहरी में उसे 
अवरुद्ध करने की प्रक्रिया भी वही राष्ट्रवादी करते हैं। मैं स्वयं मगर 
गंगा के साथ ही बहना चाहता हूं। जब भी मौका मिलता है मैं निकल जाता हूं 
गंगा के सहारे-सहारे उसके बहाव की उल्टी दिशा में। इस नदी को देखने का एक 
मजा काशी में है तो एक उत्तरकाशी में। उत्तरकाशी के निकट नैताला में गंगा 
के बहाव के सहारे मैं भी अपनी जीवनगंगा बहाने का इच्छुक हूं।

