हिंदी सीखने के लिए अपने पिता से विद्रोह करना
पड़ा था आचार्य रामचंद्र शुक्ल को !
शंभूनाथ शुक्ल
हिंदी के प्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल को बचपन
में हिंदी या संस्कृत पढऩे की घोर मनाही थी। उनके पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल राठ
(तब जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश) के सुपरवाइजर कानूनगो थे और फारसी के उद्भट
विद्वान। पंडित चंद्रबली शुक्ल की वेशभूषा और जबान किसी मौलवी से कमतर नहीं थी।
पंडित जी की काली घनी दाढ़ी, गोल मोहरी के
पायजामे, पट्टेदार बालों तथा अल्पाके की शेरवानी तक
ही बात न थी बल्कि उनकी जबान भी सर सैयद की जबान थी। जब उन्हें पता चला कि उनका
बड़ा बेटा रामचंद्र हिंदी मिडिल का इम्तहान देगा तो उन्होंने दांत चबाते हुए बेटे को झाड़ लगाई- "कम्बख्त, बज्जात, बदतमीज, बदबख्त, नामाकूल, नालायक हिंदी पढ़ेगा। पुरखों का नाम डुबोएगा?" उन्हें क्या पता था कि आगे चलकर यह बालक हिंदी का
इतना बड़ा आचार्य बनेगा।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के पुरखे गोरखपुर के भेड़ी नामक गांव के थे। लेकिन रामचंद्र शुक्ल जी के दादा की अल्पायु में मृत्यु हो गई इसलिए उनकी दादी अपने अल्पवयस्क बालक को लेकर बस्ती जिले के अगौना नामक स्थान में आ बसीं। यहां उनको नगर के राजपरिवार की तरफ से यथेष्ट भूमि मिली हुई थी। पंडित रामचंद्र शुक्ल की माता गाना के पुनीत मिश्र घराने की कन्या थीं। इसी गाना के मिश्र घराने के भक्त-शिरोमणि महाकवि तुलसीदास भी थे। इस तरह तुलसीदास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मातुल वंश से थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जब एंट्रेस कर चुके तो इनके पिता पंडित चंद्र बली शुक्ल, जो तब मिर्जापुर में सदर तहसीलदार थे, ने कलेक्टर मिस्टर बिंडहम से कहकर रामचंद्र के लिए नायब तहसीलदार की पैरवी करा ली। मगर इसके लिए कलेक्टर के बंगले पर जाना पड़ता और वहां उसकी जी-हुजूरी जरूरी थी। युवक रामचंद्र कलेक्टर के बंगले पर गए तो लेकिन जोहार नहीं की और घर लौटकर इलाहाबाद के अंग्रेजी पत्र हिंदुस्तान रिव्यू में एक लेख लिखा- व्हाट हैज इंडिया टू डू। लेख मिस्टर बिंडहम के हाथों पड़ गया। वह इतना चिढ़ा कि युवक रामचंद्र शुक्ल को नालायक कहते हुए नायब तहसीलदारी के लिए इनका नामिनेशन रद्द कर दिया। अच्छा हुआ अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल नायब तहसीलदार बनकर एसडीएम के पद से रिटायर भी हो जाते तो भले वे रायबहादुरी पा जाते लेकिन हिंदी जगत अपना हीरा खो देता।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के पुरखे गोरखपुर के भेड़ी नामक गांव के थे। लेकिन रामचंद्र शुक्ल जी के दादा की अल्पायु में मृत्यु हो गई इसलिए उनकी दादी अपने अल्पवयस्क बालक को लेकर बस्ती जिले के अगौना नामक स्थान में आ बसीं। यहां उनको नगर के राजपरिवार की तरफ से यथेष्ट भूमि मिली हुई थी। पंडित रामचंद्र शुक्ल की माता गाना के पुनीत मिश्र घराने की कन्या थीं। इसी गाना के मिश्र घराने के भक्त-शिरोमणि महाकवि तुलसीदास भी थे। इस तरह तुलसीदास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मातुल वंश से थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जब एंट्रेस कर चुके तो इनके पिता पंडित चंद्र बली शुक्ल, जो तब मिर्जापुर में सदर तहसीलदार थे, ने कलेक्टर मिस्टर बिंडहम से कहकर रामचंद्र के लिए नायब तहसीलदार की पैरवी करा ली। मगर इसके लिए कलेक्टर के बंगले पर जाना पड़ता और वहां उसकी जी-हुजूरी जरूरी थी। युवक रामचंद्र कलेक्टर के बंगले पर गए तो लेकिन जोहार नहीं की और घर लौटकर इलाहाबाद के अंग्रेजी पत्र हिंदुस्तान रिव्यू में एक लेख लिखा- व्हाट हैज इंडिया टू डू। लेख मिस्टर बिंडहम के हाथों पड़ गया। वह इतना चिढ़ा कि युवक रामचंद्र शुक्ल को नालायक कहते हुए नायब तहसीलदारी के लिए इनका नामिनेशन रद्द कर दिया। अच्छा हुआ अगर आचार्य रामचंद्र शुक्ल नायब तहसीलदार बनकर एसडीएम के पद से रिटायर भी हो जाते तो भले वे रायबहादुरी पा जाते लेकिन हिंदी जगत अपना हीरा खो देता।
आचार्य शुक्ल की शुरुआती शिक्षा भले हमीरपुर के
राठ कस्बे से शुरू हुई हो पर बाद में उनके पिता जी का तबादला मिर्जापुर हो गया तो
परिवार मिर्जापुर आ कर बस गया। मिर्जापुर प्रकृति की अनुपम क्रीड़ा स्थली है।
प्रकृति की इस विविधता का असर शुक्ल जी पर भी पड़ा और उनकी कल्पना की उड़ान मुखर
हुई। साहित्य के प्रति अनुराग शुक्ल जी को मिर्जापुर की विविधता भरी प्रकृति से ही
हुआ। मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले मिर्जापुर की साहित्य मंडली ने उन्हें वहां
बुलाकर उनका अभिनंदन किया तो उस समारोह में शुक्ल जी की वाणी से जो अनुपम शब्द
फूटे वे यूं थे-
“यद्यपि
मैं काशी में रहता हूं और लोगों का यह विश्वास है कि वहां मरने से मुक्ति मिलती है
तथापि मेरी हार्दिक इच्छा तो यही है जब मेरे प्राण निकलें तब मेरे सामने मिर्जापुर
का यही भूखंड रहे। मैं यहां के एक-एक नाले से परिचित हूं- यहां की नदियों, नालों,
काँटों और पत्थरों तथा जंगली पौधों में एक-एक को मैं जानता हूं।“
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पुत्र पंडित केशव
चंद्र शुक्ल ने अपने संस्मरणों में आचार्य जी के बारे में वर्णन करते हुए लिखा है-
“मिर्जापुर
की जिस रमईपट्टी में इनके पिता रहते थे, उसके सौंदर्य का
संकेत हृदय का मधुर भार शीर्षक कविता में पंडित रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं किया है।
हरे-भरे खेतों के बीच लाल खपरैल के सँवारे धान इसी रमईपट्टी के लिए आया है।
रमईपट्टी के जिस छोर पर इनके पिता ने आवास बनाया, उस ओर
कुल चार-पांच मकान पहले से बने हुए थे। उनमें पंडित विंध्येश्वरी प्रसाद तथा बाबू
बलभद्र सिंह डिप्टी कलेक्टर के नाम उल्लेखनीय हैं। बाबू बलभद्र सिंह आगरे के
क्षत्रिय थे। पुरानी संस्कृति के वे अनुमोदक मात्र ही नहीं उसके अनन्य उपासक भी
थे। उनके यहां सदा रामायण, महाभारत, श्रीमद
भागवत पुराण आदि का पाठ होता रहता था। तीस-चालीस सुनने वाले एकत्रित होते थे। उधर
पंडित विंध्वेश्वरी प्रसाद के घर पर संस्कृत का वास था। नित्य बहुत-से विद्यार्थी
माघ, कालिदास, भवभूति आदि महाकवियों की कृतियों का अध्ययन
करने आया करते थे। पंडित जी प्राय:
संध्या के समय अपने विद्यार्थियों को लेकर पर्वतों की ओर निकल जाया करते थे,
जो कि वहां से दो-तीन मील दूरी पर था। अथवा किसी निर्जन स्थान में
जाकर किसी सरोवर या नदी-नाले के किनारे स्वछंद समय व्यतीत करते तथा मग्न होकर
अत्यंत सुमधुर स्वर से कालिदास, भवभूति आदि के श्लोक पढ़ते। कुछ बढऩे
पर पंडित रामचंद्र शुक्ल भी विद्यार्थियों में मिलकर प्रकृति के इस भावुक पुजारी
के साथ घूमने के लिए निकलने लगे।“
“मिर्जापुर
पहुंचते ही उनकी अंग्रेजी शिक्षा शुरू हो गई। फारसी की ओर भी उनके पिता का ध्यान
पूर्ववत रहा। इन्हें पढ़ाने के लिए एक मौलवी साहब घर पर आते थे। उन दिनों पंडित
रामगरीब चौबे अंग्रेजी के असाधारण लेखक वहीं पर रहते थे। सर विलियम क्रुक्स की हिल
टाइब्स एंड कास्ट्स नामक पुस्तक निकल रही थी। पंडित रामगरीब चौबे उसे लिखते जाते
और क्रुक्स साहब उसे थोड़ा संशोधित कर उसे छपाते जाते। उनके द्वारा जो प्रोत्साहन
पंडित रामचंद्र शुक्ल को अपने अंग्रेजी अध्ययन में मिला उसे शुक्ल जी आजीवन मानते
रहे।“ इसी तरह
शुक्ल जी के हिंदी अध्यापक पंडित वागीश्वरी जी का उल्लेख करते हुए आचार्य शुक्ल के
पुत्र केशव बाबू ने लिखा है कि “वे
बड़े विनोदप्रिय थे। उनकी भी शिष्यमंडली घूमने निकलती इस प्रकार राठ से एकदम भिन्न
माहौल आचार्य जी को मिर्जापुर में मिला। इसी बीच पंडित रामचंद्र शुक्ल जब कुल 11
वर्ष के थे तब ही इनके विधुर पिता की दूसरी शादी हो गई और घर में विमाता आ गई। मगर
चूंकि घर पर दादी की ही चलती थी इसलिए विमाता का कोई भी असर बालक रामचंद्र शुक्ल
पर नहीं पड़ा। लेकिन अगले ही साल 12 साल की उम्र में उस समय की रीति के
अनुसार रामचंद्र शुक्ल का भी विवाह हो गया। तीन साल बाद रामचंद्र शुक्ल की पत्नी
गौने के बाद ससुराल आईं। पर तब तक दादी का निधन हो चुका था और विमाता का शासन
इन्हें और इनके सहोदर भ्राताओं को नागवार गुजरने लगा।“
कई बार तो ये विमाता की कलह के कारण अपने
पुश्तैनी गांव अगौना जिला बस्ती भाग जाने का विचार करने लगे। किसी प्रकार गृह कलह
जब शांत हुआ तो दसवीं पास करने के बाद ये इलाहबाद जाकर पढऩे का उपक्रम करने लगे पर
इनके पिता चाहते थे कि युवक रामचंद्र कचेहरी जाकर काम सीखे। एक साल तक द्वंद चला
अंत में इनके पिता ने इन्हें वकालत पढ़ाने के उद्देश्य से प्रयाग भेजा। लेकिन इनकी
रुचि वकालत में कतई नहीं थी इसलिए वहां पर ये अनुत्तीर्ण रहे और मिर्जापुर लौट आए।
इस बीच इनके पिता में भी कई बदलाव आ गए थे और वे फारसी छोड़ हिंदी की तरफ खिंचे।
इसका असर इन पर भी पड़ा और युवक रामचंद्र हिंदी में भी लिखने लगे। इस तरह हम देखते
हैं कि तमाम संघर्षों और जद्दोजहद के बीच हिंदी का यह प्रथम आचार्य हिंदी की
शिक्षा पा पाया।