सोमवार, 7 सितंबर 2015

नेपाल यात्रा-1

एक पराये देश में
शंभूनाथ शुक्ल
मैं उस दुर्लभ प्रजाति का प्राणी हूं जो घूमने जाने के पहले दस बार बजट बनाता है और सबसे सस्ते वाहन से जाने की कोशिश करता है। मसलन हवाई यात्रा की तो सोचना मुश्किल है और रेलवे में भी थर्ड क्लास की यात्रा करता रहा हूं और आज भी करता हूं। हालांकि आज थर्ड क्लास का मतलब एसी थर्ड हो गया है और वह लगभग वैसा ही है जैसा कि पहले थर्ड शयनयान होता था जिसे अब स्लीपर क्लास कहा जाता है। ठहरने के लिए धर्मशालाएं अथवा गांधी आश्रम या सरकारी गेस्ट हाउस ढूंढ़ता हूं। अब अगर परिवार के साथ यात्रा करनी हो तो अपनी गाड़ी सबसे सस्ती और मजेदार साधन है। मैने एक बार तो अपनी पहली विदेश यात्रा, सिक्किम यात्रा, निजी वाहन से की थी और फिर नेपाल यात्रा भी अब सोचता हूं कि भूटान भी घूम आया जाए। खाते में तीन विदेश यात्राएं दर्ज हो जाएंगी। मैं कभी सरकारी खर्चे से यात्राएं करना पसंद नहीं करता और न ही पीएम-सीएम या किसी डेलीगेशन के साथ जाना क्योंकि पीएम-सीएम के साथ जाकर आप सिवाय सेल्फी खींचने के और कुछ न तो देख पाते हैं न एन्जॉय कर पाते हैं। सिक्किम यात्रा की तो ज्यादातर बातें विस्मृत हो गई हैं पर 2012 की नेपाल यात्रा जस की तस याद है। गर्मियां शुरू होने के थोड़ा पहले मैं, मलकिनी, बेटी और दामाद तथा नाती-नातिन चले नेपाल घूमने। हमारे एक मित्र और एक समाचार पत्र समूह के गोरखपुर स्थित संपादक ने सुझाव दिया कि सर आप काहे परेशान हैं। यहां नौतनवां के करीब भैरहवां से फ्लाइट लें और सीधे काठमाडौं उतरें। मैं तो अक्सर अपने परिवार के साथ पशुपतिनाथ हवाई जहाज से ही जाया करता हूं। पर किराया सुनकर होश उड़ गए और मैने कहा कि हो सकता है कि आपकी हवाई यात्रा का खर्च गोरखपुर मठ के आपके सजातीय महंत उठाते हों पर मुझे तो अपने ही खर्च से जाना है इसलिए मैं अपनी इनोवा गाड़ी से ही जाऊँगा। तब वह नई-नई थी इसलिए इच्छा भी थी कि कोई लांग ड्राइव पर निकला जाए। पहले तो इस पर खूब माथापच्ची की गई कि नेपाल में एंट्री किस प्वाइंट से ली जाए। तय हुआ कि बजाय गोरखपुर से जाने के हम वाया बलराम पुर बढऩी बार्डर से नेपाल में घुसेंगे। इस बहाने श्रावस्ती घूमने का मौका मिला और वहां पर सहेट-महेट व बुद्घ मंदिर देखा। बढऩी सीमा पर सीमा सुरक्षा बल तैनात रहती है। वहां जाकर भन्सार लिया चार दिनों का। सीमा सुरक्षा बल वाले हमें नेपाल पुलिस की चौकी तक भेज आए। 
वहां पर हमें अपनी गाड़ी का नया नंबर मिला हरे रंग की एक नंबर प्लेट पर देवनागरी में नंबर लिखा था। मुझे कहा गया कि अब मैं यह नंबर प्लेट लगवाऊं। दोपहर ढल चुकी थी और अनजाना देश सो मैने वह नंबर प्लेट गाड़ी में यथा स्थान फिट करने के उसे आगे के शीशे के वाइपर के नीच दबा लिया और गाड़ी बढ़ा दी। मील भर आगे बढ़ते ही मुझे लगा कि यह वाकई पराया देश है। सड़क ऐसी दिख रही थी मानों एक बहुत लंबा और ऊँचा-सा चबूतरा बना दिया गया हो जिसका ओर-छोर नहीं दिख रहा था। चबूतरे के नीचे दूकानें जिनमें बाहर एक जाली में तली हुई मछलियां लटका दी गई थीं। दोपहर ढल चुकी थी और हमें चाय की तलब थी इसलिए एक जगह गाड़ी सड़क से उतार कर मैने त्रिपाठी टी स्टाल पर रोकी। चाय का आर्डर देने पर उसने अनुसनी की और कुछ देर बाद रूखे अंदाज में बोला अभी टाइम लगेगा। कुछ बिस्किट वगैरह मांगने पर बोला यही मछलियां मिलेंगी बस और कुछ नहीं। पता लगा कि नेपाल में चाय की बजाय एक लोकल स्तर का नशीला पेय पिया जाता है। हम वहां से निकल लिए। काफी आगे चलने पर एक कस्बा मिला जहां हमें एक पुलिस वाले ने रोका और बताया कि यहां पर गाड़ी के कागज चेक कराने होंगे और एंट्री दर्ज करानी होगी। यह भैरहवा चौराहा था जहां से एक रोड पोखरा जाती थी, दूसरी नौतनवां, तीसरी नारायणपुर और चौथी जिससे हम आ रहे थे। इसी कस्बे से कुछ पानी की बोतलें खरीदी गईं तथा बिस्किट व फल भी। यहां से आगे का रास्ता खूब चढ़ाई वाली पर सड़क बेहतरीन। इसलिए थकान महसूस नहीं हुई। पता चला कि यह सड़क चीन ने बनवाई है। जगह-जगह पर माओवादी लड़के टैक्स लेते और ऐतराज करने पर नेपाली में हड़काते। जब मैने कहा कि मुझे नेपाली नहीं आती तो एक गुर्राया- नेपाली नहीं आती तो यहां क्या करने आए हो? पहली बार पता चला कि नेपाल को लेकर हमारे अंदर कितने भरम हैं। वे हमें कतई बड़ा भाई या संरक्षक नहीं मानते उलटे वे अपनी तकलीफों की वजह भारत को ही मानते हैं। ऐसे तमाम दादूनुमा टोल टैक्स देने के बाद शाम करीब साढ़े छह बजे हम पहुंचे नारायण पुर। यह एक अच्छा और संपन्न कस्बा लगा। मारवाड़ी व्यापारी यहां छाये हुए हैं। जिस मारवाड़ी व्यापारी के होटल में मैं यह सोचकर रुका कि मारवाड़ी होटल है तो शाकाहारी तो होगा ही। पर पता चला कि शाकाहारी खाने के लिए शहर में कृष्णा मिष्ठान्न भंडार में जाना पड़ेगा। यह पहली बार पता चला कि मारवाड़ी व्यापारी पहले होते हैं। जैसा देश वैसा भेष। यहां यह भी पता चला कि नेपाल के आठ रुपये हमारे पांच रुपये के बराबर होते हैं इसलिए होटल में ठहरने के पूर्व उसका टैरिफ पूछ लें और जान लें कि वह टैरिफ नेपाली करेंसी में बता रहा है या इंडियन करेंसी में सुबह नाश्ते के बाद हम निकले आगे की ओर। 
दोपहर के करीब हम मनकामनेश्वरी देवी के मंदिर में पहुंचे। यहां की देवी की मान्यता का अंदाज तो मुझे नहीं था पर जब यह बताया गया कि यह सबसे ऊँचा रोप वे है तो इस पर सवार होने की उत्कंठा जागी। आवाजाही का किराया था चार सौ नेपाली रुपये यानी भारतीय मुद्रा ढाई सौ रुपये। हम इस रोप वे पर सवार होकर मनकामनेश्वरी मंदिर गए। मंदिर आम भारतीय मंदिरों जैसा ही था। गंदगी और ताजे बकरे का खून मंदिर के प्रांगण को गीला कर रहा था। हमने मंदिर के मुख्य द्वार से ही विग्रह के दर्शन किए और वापस लौट आए तथा निकल पड़े काठमांडौ की ओर। पहाड़ी रास्ते पर गाड़ी चलाते हम शाम सात के करीब राजधानी काठमांडौ पहुंचे। शहर की शुरुआत से ही दलाल घेरने लगे। मगर हमने शहर जाकर कई होटल तलाशे और आखिर में एक सामान्य-सा होटल लिया। प्रति कमरे का किराया 1500 रुपये था। वह, भी नेपाली मुद्रा में। वहां खाना भी बेहतर था और कमरे में एसी जरूर लगा था पर नेपाल की राजधानी में बिजली की भारी किल्लत थी और होटल वाले ने पहले ही बता दिया था कि जेनरेटर नहीं है। इसलिए उमस भरी गर्मी में रात गुजारनी मुश्किल हो गई।

4 टिप्‍पणियां:

  1. कल के इंतजार में मन में खलबली मचा दी आपने। आगे बताइये कि हुआ क्‍या?

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  2. अरे प्रभु... काठमांडू में आप को इतनी तकलीफ..... फिर कभी आये तो अवश्य सूचित करे....//सादर//

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